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‘ट्राली टाइम्स’: एक पत्रकार, एक सामाजिक कार्यकर्ता और कुछ जोशीले युवाओं का शाहकार
किसान आंदोलन अपने चरम पर है. सिंघु, टीकरी और गाजीपुर बॉर्डर पर बैठे किसान हर रोज इस आंदोलन को और बढ़ा रहे हैं. प्रदर्शन स्थल पर अस्थाई घरों से लेकर गार्डन, लाइब्रेरी, डिश टीवी, स्वास्थ्य सेवाएं, वाईफाई और खाने की अस्थायी सुविधाएं खड़ी हो गई हैं. आंदोलन कर रहे किसानों में जितनी नाराजगी सरकार के नए कृषि कानूनों के प्रति है उतनी ही नाराजगी मीडिया से भी है. किसानों का कहना है कि आंदोलन के शुरुआती दिनों से ही मीडिया का एक तबका उनके खिलाफ दुष्प्रचार और फर्जी सूचनाएं फैलाता रहा.
अब किसानों ने इसका भी तोड़ निकाल लिया है. किसानों ने "ट्राली टाइम्स" के नाम से किसानों का एक अखबार शुरू किया है. इसमें आंदोलन से जुड़ी किसानों की खबरों को प्रसारित किया जा रहा है. "ट्राली टाइम्स" नाम इसलिए भी खास है क्योंकि किसानों ने नए कृषि बिलों के विरोध में ट्रैक्टर ट्रालियों और साजो सामान के साथ पूरा एक नगर बसा लिया है.
ट्रॉली टाइम्स अखबार को निकालने में सात लोग अहम भूमिका निभा रहे हैं. चार पेज के इस अखबार में तीन पेज पंजाबी भाषा और एक पेज हिंदी का है. अखबार की टैग लाइन है "आंदोलन की अपनी आवाज". इसके बाद अखबार की लीड खबर "जुड़ेंगे, लड़ेंगे, जीतेंगे!" शीषर्क से छपी है. अखबार के पहले पेज पर कुल तीन खबरें और एक संपादकीय लिखा है. दो अन्य खबरों के शीर्षक कुछ यूं हैं. "एक ही नारा लड़ेंगे और जीतेंगे", "इंकलाब की तलवार विचारों की शान पर तीखी होती है". अखबार में कविता और कार्टून से लेकर आंदोलन की अलग-अलग तस्वीरों को भी जगह दी गई है.
अखबार ने अपनी हर खबर में यह संदेश देने की कोशिश की है कि किसान हार मानने वाले नहीं हैं. वह लड़ेंगे और जीतेंगे. इस अखबार का पहला अंक बीते शुक्रवार को प्रकाशित किया गया.
इस बारे में हमने ट्राली टाइम्स में कंटेंट सिलेक्शन और डिस्ट्रीब्यूशन का काम देख रहीं जस्सी सांघा से बात की. उन्होंने बताया, "हमने अखबार का नाम ट्राली टाइम्स रखा है. जो कि इनकी टीम के ही मेंबर शुरमीत मावी का आइडिया था."
अखबार के नाम ट्रॉली टाइम्स के विचार पर वह कहती हैं, "जैसे न्यूयॉर्क टाइम्स, हिंदुस्तान टाइम्स और बहुत सारे ऐसे मकबूल अखबार हैं तो क्यों ना ट्रैक्टर ट्रॉली वाले किसानों की आवाज के लिए हम ट्राली टाइम्स निकालें.”
इसके बाद सांघा हमें एक महत्वपूर्ण बात बताती हैं, “इसकी वजह यह भी है कि हमें मेनस्ट्रीम मीडिया दिखा नहीं रहा है. अब यह एक गांव बन गया है. इस गांव में हर बात किसानों की हो रही है, लेकिन उनकी खबरें गायब हैं. इसलिए हमने यह सोचकर कि क्यों न इस गांव के लिए एक अखबार निकाला जाए जिसमें सिर्फ किसानों की बात हो."
वह आगे कहती हैं, "इस आइडिया के आने के बाद हमने तुरंत एक व्हाट्सएप ग्रुप बनाया जिसमें सबको जिम्मेदारी दी गई कि कौन क्या करेगा. उनकी टीम के सदस्य टीकरी बॉर्डर पर भी अखबार का काम देख रहे हैं. फिलहाल अखबार की दो हजार कॉपियां पब्लिश की गई हैं. इसकी छपाई गुड़गांव की एक प्रिंटिंग प्रेस में हो रही है."
वह बताती हैं, "दो तीन घंटे में ही ट्राली टाइम्स की सभी कॉपियां बंट गईं. आखिर में उन्हें लाइब्रेरी की तरह एक नोटिस लगाना पड़ा कि अखबार पढ़ने के बाद यहीं रख दें. ताकि दूसरे लोग भी ट्राली टाइम्स पढ़ सकें. यह अखबार सप्ताह में दो दिन निकाला जाएगा. उन्होंने बताया, इसकी लॉन्चिंग 85 साल के एक साधारण से बुजुर्ग किसान जनगन सिंह से कराई गई है. ट्राली टाइम्स में अभी 6-7 लोगों की टीम काम कर रही है लेकिन अब लग रहा है कि टीम बढ़ानी पड़ेगी. अखबार की एक कॉपी पांच रुपए के आसपास पड़ रही है."
वह बताती हैं कि पहले दिन से इस आंदोलन का हिस्सा रही हैं, और अब यहां से जीतकर ही वापस लौटेंगी. अब हमने यहां पक्के डेरे भी बना लिए हैं.
अखबार में सोशल मीडिया का काम देख रहे अजय पाल बताते हैं, "मैं सोशल मीडिया के साथ-साथ कंटेंट का काम भी देख रहा हूं. ज्यादा से ज्यादा लोगों तक किसानों की बात पहुंचे इसके लिए हम ट्विटर हैंडल और टेलीग्राम ग्रुप पर भी लोगों से जुड़ रहे हैं.”
पाल बताते हैं, "ट्राली में बैठकर यह आइडिया आया था. मंच पर क्या चल रहा है, किसानों में क्या चर्चा है, ट्रालियों में बैठे किसान क्या कर रहे हैं. यानी पूरे आंदोलन में क्या चल रहा है. यहां के लोगों को इसकी जानकारी मिलनी चाहिए. इसलिए इस अखबार की लॉन्चिंग की गई है. साथ ही हर आदमी स्टेज पर बैठकर अपनी बात किसानों तक नहीं पहुंचा सकता है इसके लिए भी यह अखबार उन लोगों का माध्यम बनेगा जो अपनी बात कहना चाहते हैं."
अजय पाल कहते हैं, "सोशल मीडिया से भी सभी लोग जुड़े हुए नहीं हैं क्योंकि यहां ज्यादातर लोग गांव देहात से आए हुए हैं. उन तक कैसे अपनी बात पहुंचाई जाए इसके बाद यही आइडिया आया कि हम टाइम्स ऑफ इंडिया तो नहीं निकाल सकते, लेकिन ट्राली टाइम्स निकाल सकते हैं. बस यही आइडिया हिट कर गया और सबकी सहमति के बाद हमने अखबार की लॉन्चिंग कर दी. यह सभी तैयारी हमने मात्र पांच दिन में कर दी."
अखबार पर खर्च
वह बताते हैं, "चार पेज के इस अखबार में पहले एडिशन में करीब 11 हजार रुपए का खर्चा आया है."
वह खर्चे के सवाल पर कहते हैं, "पहले हम लोग आपस में ही कंट्रीब्यूशन कर रहे थे लेकिन बाद में एक एनआरआई साथी ने कहा कि इसका पूरा पैसा मैं दूंगा. फिर हमने उन्हें सीधे प्रिंटिंग वाले की खाते संबंधी डिटेल्स भेज दी और उन्होंने पेमेंट कर दी."
क्या आगे भी वही एनआरआई साथी पेमेंट करते रहेंगे इस सवाल पर वह कहते हैं, "वह तो नहीं करेंगे लेकिन हां आगे भी कोई न कोई मिल जाएगा. पैसे देने वाले तो काफी आ रहे हैं लेकिन हमारा मकसद पैसा कमाना नहीं है. हम किसी से कोई पैसा भी नहीं ले रहे हैं."
खबरें कैसे मिल रही हैं इस पर वह कहते हैं कि, "हम चलते फिरते ही खबर ले लेते हैं. हम सब ही एक तरह के रिपोर्टर हैं. काफी लोग हमसे अब जुड़ना चाहते हैं. अपने लेख भेज रहे हैं लेकिन अभी हमारे लिए यह सब मुश्किल है. हम अभी ट्रालियों की खबरों पर ही फोकस करेंगे. किसी का बहुत अच्छा लेख होगा तो छापेंगे नहीं तो नहीं."
आंदोलन में लाइब्रेरी
ट्राली टाइम्स में हिंदी का कंटेंट देख रहीं नवकिरन नट कहती हैं, "हम काफी समय से नोट कर रहे थे कि गोदी मीडिया जिस तरह से किसानों को दिखा रहा है, वह आंदोलन का दुष्प्रचार कर रहा है. तभी से हम सोच रहे थे कि कैसे हमारी बातें लोगों तक पहुंचें. हम सोच रहे थे क्यों न कुछ ऐसा किया जाए जो असली चीजें हैं वह बाहर निकल कर आएं."
अपनी बात आगे बढ़ाते हुए नट कहती हैं, "दूसरी बात यह भी है कि चारों बॉर्डर पर जहां-जहां किसान प्रदर्शन कर रहे हैं वह एक दूसरे से कनेक्ट नहीं हो पा रहे थे. गाजीपुर, शाहजहांपुर, टिकरी और सिंघु, इन सभी बॉर्डर की बातें एक दूसरे बॉर्डर तक नहीं पहुंच रही हैं. इसलिए यह न्यूज़पेपर एक माध्यम बन सकता है. ताकि यह अखबार चारों जगह पर पहुंचे और सभी बॉर्डर की आपस में कनेक्टिविटी बनी रहे. इसलिए इसे दो भाषाओं में रखा गया है.
खबरें जुटाने के तरीके के बारे में नट बताती हैं, "हमारे कई साथी हैं जो कि सभी बॉर्डर पर हैं. हम उनके साथ कनेक्ट हैं. देश में अन्य जगहों पर भी जहां प्रदर्शन चल रहे हैं वहां के लोग भी हमारे साथ जुड़े हुए हैं. जैसे जयपुर में जो चल रहा है उसके लिए हमें वहां के साथी राहुल ने लिखकर भेजा. हमने उसे ट्राली टाइम्स में जगह दी. हम अन्य युवा साथियों से भी कह रहे हैं कि आंदोलन से जुड़ा कही कुछ हो रहा है तो हमें लिखकर भेजिए."
नवकिरन बताती हैं, "उन्होंने टिकरी बॉर्डर पर शहीद भगत सिंह के नाम पर एक लाइब्रेरी भी बनाई हैं. इस लाइब्रेरी का टेंट बनाने में दो दिन का समय लगा है. यहां पर ज्यादातर पंजाबी और हिंदी की किताबें होंगी. इनमें युवा शहीदों की कहानियों से जुड़ी किताबें ज्यादा होगीं. जिन्होंने आंदोलनों में या देश के लिए अपनी कुर्बानियां दी हैं. यह सभी किताबें छोटी होंगी ताकि लोग एक दो घंटे में पढ़कर खत्म कर सकें.”
इंग्लैंड से पढ़ाई करने वाले गुरदीप सिंह भी ट्राली टाइम्स टीम के सदस्य हैं. अखबार की डिजाइनिंग, प्रींटिंग और कंटेंट इकट्ठा करने का काम गुरदीप सिंह देख रहे हैं. पंजाब के बरनाला निवासी गुरदीप सिंह ने इंग्लैंड से इंग्लिश लिटरेचर और क्रिएटिव राइटिंग में पढ़ाई की है. फिलहाल वह भारत में ही फ्रीलांसर के तौर पर डॉक्यूमेंट्री और फोटोग्राफी कर रहे हैं.
अखबार के लिए कंटेंट कैसे इकट्ठा करते हैं, इस सवाल पर वह कहते हैं, "मेल पर सभी कंटेंट मिलता है. जबकि कुछ जरूरी लेख वह धरने में शामिल लोगों से बोलकर लिखवाते हैं. बहुत ज्यादा तादात में उन्हें मेल और व्हाट्सएप आ रहे हैं. इसके लिए कंटेंट सलेक्ट करने में बहुत मुश्किल भी हो रही है, सभी को जगह देना मुनासिब नहीं है. लेकिन आगे कोशिश रहेगी की जरूरी खबरें लोगों तक पहुंचें."
वह कहते हैं, "अगर किसानों की बातें किसानों तक ही नहीं पहुंचेंगी तो फिर क्या फायदा. गोदी मीडिया तो हमें दिखा ही नहीं रहा है और न ही उससे कोई उम्मीद है इसलिए बेहतर है कि हम अपने से ही लोगों तक आंदोलन की जानकारियां पहुंचाएं. ताकि लोगों को असल में पता रहे कि आंदोलन में हो क्या रहा है."
देरी हुई तो आंदोलन में और बढ़ेगा ट्रैक्टरों का काफिला
ट्राली टाइम्स का आइडिया देने वाले शुरमीत मावी ने पत्रकारिता में पढ़ाई की हैं. वह कथाकार हैं और फिल्मों के लिये स्क्रिप्ट भी लिखते हैं. वह करीब तीन महीनों से इन प्रदर्शनों का हिस्सा रहे हैं. पहले वह पंजाब हरियाणा में चल रहे प्रदर्शनों में शामिल थे, लेकिन जब से किसान दिल्ली आए हैं तब से वह उनके साथ दिल्ली में ही हैं.
वह कहते हैं, "हम अखबार के अलावा यहां कचरा बीनने वाले बच्चों को पढ़ाने का भी काम कर रहे हैं. हमने सिंघू बॉर्डर पर एक लाइब्रेरी भी बनाई है. साथ ही टिकरी पर भी एक लाइब्रेरी बनाई गई है. वह फूलों के पौधों को इकट्ठा कर एक गार्डन भी बना रहे हैं."
किसान आंदोलन अपने चरम पर है. सिंघु, टीकरी और गाजीपुर बॉर्डर पर बैठे किसान हर रोज इस आंदोलन को और बढ़ा रहे हैं. प्रदर्शन स्थल पर अस्थाई घरों से लेकर गार्डन, लाइब्रेरी, डिश टीवी, स्वास्थ्य सेवाएं, वाईफाई और खाने की अस्थायी सुविधाएं खड़ी हो गई हैं. आंदोलन कर रहे किसानों में जितनी नाराजगी सरकार के नए कृषि कानूनों के प्रति है उतनी ही नाराजगी मीडिया से भी है. किसानों का कहना है कि आंदोलन के शुरुआती दिनों से ही मीडिया का एक तबका उनके खिलाफ दुष्प्रचार और फर्जी सूचनाएं फैलाता रहा.
अब किसानों ने इसका भी तोड़ निकाल लिया है. किसानों ने "ट्राली टाइम्स" के नाम से किसानों का एक अखबार शुरू किया है. इसमें आंदोलन से जुड़ी किसानों की खबरों को प्रसारित किया जा रहा है. "ट्राली टाइम्स" नाम इसलिए भी खास है क्योंकि किसानों ने नए कृषि बिलों के विरोध में ट्रैक्टर ट्रालियों और साजो सामान के साथ पूरा एक नगर बसा लिया है.
ट्रॉली टाइम्स अखबार को निकालने में सात लोग अहम भूमिका निभा रहे हैं. चार पेज के इस अखबार में तीन पेज पंजाबी भाषा और एक पेज हिंदी का है. अखबार की टैग लाइन है "आंदोलन की अपनी आवाज". इसके बाद अखबार की लीड खबर "जुड़ेंगे, लड़ेंगे, जीतेंगे!" शीषर्क से छपी है. अखबार के पहले पेज पर कुल तीन खबरें और एक संपादकीय लिखा है. दो अन्य खबरों के शीर्षक कुछ यूं हैं. "एक ही नारा लड़ेंगे और जीतेंगे", "इंकलाब की तलवार विचारों की शान पर तीखी होती है". अखबार में कविता और कार्टून से लेकर आंदोलन की अलग-अलग तस्वीरों को भी जगह दी गई है.
अखबार ने अपनी हर खबर में यह संदेश देने की कोशिश की है कि किसान हार मानने वाले नहीं हैं. वह लड़ेंगे और जीतेंगे. इस अखबार का पहला अंक बीते शुक्रवार को प्रकाशित किया गया.
इस बारे में हमने ट्राली टाइम्स में कंटेंट सिलेक्शन और डिस्ट्रीब्यूशन का काम देख रहीं जस्सी सांघा से बात की. उन्होंने बताया, "हमने अखबार का नाम ट्राली टाइम्स रखा है. जो कि इनकी टीम के ही मेंबर शुरमीत मावी का आइडिया था."
अखबार के नाम ट्रॉली टाइम्स के विचार पर वह कहती हैं, "जैसे न्यूयॉर्क टाइम्स, हिंदुस्तान टाइम्स और बहुत सारे ऐसे मकबूल अखबार हैं तो क्यों ना ट्रैक्टर ट्रॉली वाले किसानों की आवाज के लिए हम ट्राली टाइम्स निकालें.”
इसके बाद सांघा हमें एक महत्वपूर्ण बात बताती हैं, “इसकी वजह यह भी है कि हमें मेनस्ट्रीम मीडिया दिखा नहीं रहा है. अब यह एक गांव बन गया है. इस गांव में हर बात किसानों की हो रही है, लेकिन उनकी खबरें गायब हैं. इसलिए हमने यह सोचकर कि क्यों न इस गांव के लिए एक अखबार निकाला जाए जिसमें सिर्फ किसानों की बात हो."
वह आगे कहती हैं, "इस आइडिया के आने के बाद हमने तुरंत एक व्हाट्सएप ग्रुप बनाया जिसमें सबको जिम्मेदारी दी गई कि कौन क्या करेगा. उनकी टीम के सदस्य टीकरी बॉर्डर पर भी अखबार का काम देख रहे हैं. फिलहाल अखबार की दो हजार कॉपियां पब्लिश की गई हैं. इसकी छपाई गुड़गांव की एक प्रिंटिंग प्रेस में हो रही है."
वह बताती हैं, "दो तीन घंटे में ही ट्राली टाइम्स की सभी कॉपियां बंट गईं. आखिर में उन्हें लाइब्रेरी की तरह एक नोटिस लगाना पड़ा कि अखबार पढ़ने के बाद यहीं रख दें. ताकि दूसरे लोग भी ट्राली टाइम्स पढ़ सकें. यह अखबार सप्ताह में दो दिन निकाला जाएगा. उन्होंने बताया, इसकी लॉन्चिंग 85 साल के एक साधारण से बुजुर्ग किसान जनगन सिंह से कराई गई है. ट्राली टाइम्स में अभी 6-7 लोगों की टीम काम कर रही है लेकिन अब लग रहा है कि टीम बढ़ानी पड़ेगी. अखबार की एक कॉपी पांच रुपए के आसपास पड़ रही है."
वह बताती हैं कि पहले दिन से इस आंदोलन का हिस्सा रही हैं, और अब यहां से जीतकर ही वापस लौटेंगी. अब हमने यहां पक्के डेरे भी बना लिए हैं.
अखबार में सोशल मीडिया का काम देख रहे अजय पाल बताते हैं, "मैं सोशल मीडिया के साथ-साथ कंटेंट का काम भी देख रहा हूं. ज्यादा से ज्यादा लोगों तक किसानों की बात पहुंचे इसके लिए हम ट्विटर हैंडल और टेलीग्राम ग्रुप पर भी लोगों से जुड़ रहे हैं.”
पाल बताते हैं, "ट्राली में बैठकर यह आइडिया आया था. मंच पर क्या चल रहा है, किसानों में क्या चर्चा है, ट्रालियों में बैठे किसान क्या कर रहे हैं. यानी पूरे आंदोलन में क्या चल रहा है. यहां के लोगों को इसकी जानकारी मिलनी चाहिए. इसलिए इस अखबार की लॉन्चिंग की गई है. साथ ही हर आदमी स्टेज पर बैठकर अपनी बात किसानों तक नहीं पहुंचा सकता है इसके लिए भी यह अखबार उन लोगों का माध्यम बनेगा जो अपनी बात कहना चाहते हैं."
अजय पाल कहते हैं, "सोशल मीडिया से भी सभी लोग जुड़े हुए नहीं हैं क्योंकि यहां ज्यादातर लोग गांव देहात से आए हुए हैं. उन तक कैसे अपनी बात पहुंचाई जाए इसके बाद यही आइडिया आया कि हम टाइम्स ऑफ इंडिया तो नहीं निकाल सकते, लेकिन ट्राली टाइम्स निकाल सकते हैं. बस यही आइडिया हिट कर गया और सबकी सहमति के बाद हमने अखबार की लॉन्चिंग कर दी. यह सभी तैयारी हमने मात्र पांच दिन में कर दी."
अखबार पर खर्च
वह बताते हैं, "चार पेज के इस अखबार में पहले एडिशन में करीब 11 हजार रुपए का खर्चा आया है."
वह खर्चे के सवाल पर कहते हैं, "पहले हम लोग आपस में ही कंट्रीब्यूशन कर रहे थे लेकिन बाद में एक एनआरआई साथी ने कहा कि इसका पूरा पैसा मैं दूंगा. फिर हमने उन्हें सीधे प्रिंटिंग वाले की खाते संबंधी डिटेल्स भेज दी और उन्होंने पेमेंट कर दी."
क्या आगे भी वही एनआरआई साथी पेमेंट करते रहेंगे इस सवाल पर वह कहते हैं, "वह तो नहीं करेंगे लेकिन हां आगे भी कोई न कोई मिल जाएगा. पैसे देने वाले तो काफी आ रहे हैं लेकिन हमारा मकसद पैसा कमाना नहीं है. हम किसी से कोई पैसा भी नहीं ले रहे हैं."
खबरें कैसे मिल रही हैं इस पर वह कहते हैं कि, "हम चलते फिरते ही खबर ले लेते हैं. हम सब ही एक तरह के रिपोर्टर हैं. काफी लोग हमसे अब जुड़ना चाहते हैं. अपने लेख भेज रहे हैं लेकिन अभी हमारे लिए यह सब मुश्किल है. हम अभी ट्रालियों की खबरों पर ही फोकस करेंगे. किसी का बहुत अच्छा लेख होगा तो छापेंगे नहीं तो नहीं."
आंदोलन में लाइब्रेरी
ट्राली टाइम्स में हिंदी का कंटेंट देख रहीं नवकिरन नट कहती हैं, "हम काफी समय से नोट कर रहे थे कि गोदी मीडिया जिस तरह से किसानों को दिखा रहा है, वह आंदोलन का दुष्प्रचार कर रहा है. तभी से हम सोच रहे थे कि कैसे हमारी बातें लोगों तक पहुंचें. हम सोच रहे थे क्यों न कुछ ऐसा किया जाए जो असली चीजें हैं वह बाहर निकल कर आएं."
अपनी बात आगे बढ़ाते हुए नट कहती हैं, "दूसरी बात यह भी है कि चारों बॉर्डर पर जहां-जहां किसान प्रदर्शन कर रहे हैं वह एक दूसरे से कनेक्ट नहीं हो पा रहे थे. गाजीपुर, शाहजहांपुर, टिकरी और सिंघु, इन सभी बॉर्डर की बातें एक दूसरे बॉर्डर तक नहीं पहुंच रही हैं. इसलिए यह न्यूज़पेपर एक माध्यम बन सकता है. ताकि यह अखबार चारों जगह पर पहुंचे और सभी बॉर्डर की आपस में कनेक्टिविटी बनी रहे. इसलिए इसे दो भाषाओं में रखा गया है.
खबरें जुटाने के तरीके के बारे में नट बताती हैं, "हमारे कई साथी हैं जो कि सभी बॉर्डर पर हैं. हम उनके साथ कनेक्ट हैं. देश में अन्य जगहों पर भी जहां प्रदर्शन चल रहे हैं वहां के लोग भी हमारे साथ जुड़े हुए हैं. जैसे जयपुर में जो चल रहा है उसके लिए हमें वहां के साथी राहुल ने लिखकर भेजा. हमने उसे ट्राली टाइम्स में जगह दी. हम अन्य युवा साथियों से भी कह रहे हैं कि आंदोलन से जुड़ा कही कुछ हो रहा है तो हमें लिखकर भेजिए."
नवकिरन बताती हैं, "उन्होंने टिकरी बॉर्डर पर शहीद भगत सिंह के नाम पर एक लाइब्रेरी भी बनाई हैं. इस लाइब्रेरी का टेंट बनाने में दो दिन का समय लगा है. यहां पर ज्यादातर पंजाबी और हिंदी की किताबें होंगी. इनमें युवा शहीदों की कहानियों से जुड़ी किताबें ज्यादा होगीं. जिन्होंने आंदोलनों में या देश के लिए अपनी कुर्बानियां दी हैं. यह सभी किताबें छोटी होंगी ताकि लोग एक दो घंटे में पढ़कर खत्म कर सकें.”
इंग्लैंड से पढ़ाई करने वाले गुरदीप सिंह भी ट्राली टाइम्स टीम के सदस्य हैं. अखबार की डिजाइनिंग, प्रींटिंग और कंटेंट इकट्ठा करने का काम गुरदीप सिंह देख रहे हैं. पंजाब के बरनाला निवासी गुरदीप सिंह ने इंग्लैंड से इंग्लिश लिटरेचर और क्रिएटिव राइटिंग में पढ़ाई की है. फिलहाल वह भारत में ही फ्रीलांसर के तौर पर डॉक्यूमेंट्री और फोटोग्राफी कर रहे हैं.
अखबार के लिए कंटेंट कैसे इकट्ठा करते हैं, इस सवाल पर वह कहते हैं, "मेल पर सभी कंटेंट मिलता है. जबकि कुछ जरूरी लेख वह धरने में शामिल लोगों से बोलकर लिखवाते हैं. बहुत ज्यादा तादात में उन्हें मेल और व्हाट्सएप आ रहे हैं. इसके लिए कंटेंट सलेक्ट करने में बहुत मुश्किल भी हो रही है, सभी को जगह देना मुनासिब नहीं है. लेकिन आगे कोशिश रहेगी की जरूरी खबरें लोगों तक पहुंचें."
वह कहते हैं, "अगर किसानों की बातें किसानों तक ही नहीं पहुंचेंगी तो फिर क्या फायदा. गोदी मीडिया तो हमें दिखा ही नहीं रहा है और न ही उससे कोई उम्मीद है इसलिए बेहतर है कि हम अपने से ही लोगों तक आंदोलन की जानकारियां पहुंचाएं. ताकि लोगों को असल में पता रहे कि आंदोलन में हो क्या रहा है."
देरी हुई तो आंदोलन में और बढ़ेगा ट्रैक्टरों का काफिला
ट्राली टाइम्स का आइडिया देने वाले शुरमीत मावी ने पत्रकारिता में पढ़ाई की हैं. वह कथाकार हैं और फिल्मों के लिये स्क्रिप्ट भी लिखते हैं. वह करीब तीन महीनों से इन प्रदर्शनों का हिस्सा रहे हैं. पहले वह पंजाब हरियाणा में चल रहे प्रदर्शनों में शामिल थे, लेकिन जब से किसान दिल्ली आए हैं तब से वह उनके साथ दिल्ली में ही हैं.
वह कहते हैं, "हम अखबार के अलावा यहां कचरा बीनने वाले बच्चों को पढ़ाने का भी काम कर रहे हैं. हमने सिंघू बॉर्डर पर एक लाइब्रेरी भी बनाई है. साथ ही टिकरी पर भी एक लाइब्रेरी बनाई गई है. वह फूलों के पौधों को इकट्ठा कर एक गार्डन भी बना रहे हैं."
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