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मधुमक्खी क्यों? मधु क्यों?
सीएसई की पड़ताल केवल शहद या इसमें हो रही मिलावट को लेकर नहीं है. ये पड़ताल भविष्य के खाद्य पदार्थों के कारोबार की ‘प्रकृति’ को लेकर है. क्योंकि प्रकृति में मौजूद जीव हमारी खाद्य व्यवस्था की उत्पादकता के लिए बहुत जरूरी है और जो शहद ये जीव बनाते हैं, वे हमारी सेहत को सुधारते हैं. ये बातें हम जानते हैं. लेकिन, हम इस बात की अनदेखी कर रहे हैं कि प्राकृति का दिया हुआ ये उपहार हम कितनी जल्दी खो सकते हैं.
जब से हमने शहद में मिलावट को लेकर अपनी पड़ताल की रिपोर्ट सार्वजनिक की है, तब से हमें किताबी प्रतिक्रिया मिल रही है. संभवत वैसी प्रतिक्रिया जैसी दुनियाभर के बिजनेस स्कूलों में चर्चा होती है और सिखाई जाती है.
पहला चरण है इनकार करना. इस मामले में शहद का प्रसंस्करण करने वाली कंपनियां शिकायत कर रही हैं कि हम गलत हैं.
दूसरा चरण है झूठे आरोप लगा कर हमारी साख को बदनाम करना. इसके बाद वैज्ञानिक तिकड़मों का इस्तेमाल कर उपभोक्ताओं को कन्फ्यूज करना. इस मामले में कंपनियां गलत जांच रिपोर्ट जारी कर रही हैं और हमारी जांच रिपोर्ट को गलत बताकर कटाक्ष कर रही है.
किताबों में तीसरा चरण है अपने उत्पाद को साफ और सुरक्षित बताने के लिए वैकल्पिक नैरेटिव तैयार करने में खूब वक्त बिताना और इसे जटिल बनाने के लिए ‘अच्छे विज्ञान’ का इस्तेमाल.
याद रखिये, जब सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट ने कोला सॉफ्ट ड्रिंक्स में कीटनाशक के मिलावट की पड़ताल की थी, तो दो बड़ी कंपनियों ने लेबोरेटरी कोट पहनाने के लिए बॉलीवुड के शीर्ष अभिनेताओं को भाड़े पर लिया था ताकि हमें विश्वास दिला सकें कि सबकुछ ठीक है.
इस बार हम जानते हैं कि उनका विज्ञापन पर खर्च बढ़ गया है और उन्हें लगता है कि हमारी आवाज दब जायेगी.
चौथे चरण का हमला ज्यादा तीखा और सुक्ष्म होता है. ये कोला के साथ लड़ाई के दौरान विकसित हुआ है. अब कंपनियां हमारे खिलाफ सीधा केस नहीं करती हैं. हमें धमकाते हैं, लेकिन हमें कोर्ट नहीं ले जाते हैं. इसकी जगह हमले की जमीन तैयार करने के लिए वे उन कॉरिडोर में बाहुबल का इस्तेमाल करते हैं, जिनसे फर्क पड़ता है.
लेकिन, पूर्व में ये तरकीब काम नहीं आई है और हमें लगता है कि इस बार भी ये काम नहीं करेगी. कोला के मामले में कंपनी नहीं, बल्कि हमारी (सचेतक) जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) का गठन हुआ था और समिति की जांच रिपोर्ट हमारे पक्ष में आई थी.
हमें लगता है कि इस बार सरकार व फुड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड अथॉरिटी ऑफ इंडिया (एफएसएसएआई) हमारी जांच रिपोर्ट के आधार पर और इस पौष्टिक खाद्य में मिलावट रोकने के लिए कार्रवाई सुनिश्चित करेगी. यहां बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है और हम सब ये जानते हैं.
आप उपभोक्ता इस पर बोल चुके हैं. शहद किसी अन्य खाद्य की तरह नहीं है. इसका इस्तेमाल हेल्थ सप्लीमेंट (स्वास्थ्य पूरक) के तौर पर किया जाता है. ये औषधीय है और इसलिए इसमें चीनी मिलाने का मतलब है कि ये हमारे स्वास्थ्य के लिए सचमुच हानिकारक है. इसको लेकर कोई सवाल नहीं है. इसलिए हमें दबाव बनाये रखना चाहिए ताकि प्रकृति के इस उपहार में मिलावट न हो. लेकिन, चिंता का एक अलग कारण भी है और वो मधुमक्खी से जुड़ा हुआ है. मधुमक्खी हरबिंगर प्रजाति का कीट है. वे हमारी खाद्य व्यवस्था के स्वास्थ्य की तरफ संकेत देते हैं. हम जानते हैं कि बिना मधुमक्खी के किसी भी खाद्य का उत्पादन नहीं होगा.
उत्पादकता के लिए मधुमक्खियों का होना बहुत जरूरी है क्योंकि ये पौधों का परागन कराते हैं. समझा जाता है कि फूल देने वाले 90 प्रतिशत पौधों को परागन के लिए मधुमक्खियों की जरूरत पड़ती है. तिलहन सरसों से लेकर सेव और चकोतरा तथा अन्य फलियों तक ज्यादातर अन्न जो हम खाते हैं, उन्हें उपजने के लिए मधुमक्खियों की जरूरत पड़ती है.
मधुमक्खियां हमें जहरीले तत्व और कीटनाशक के अत्यधिक इस्तेमाल को लेकर भी अगाह करते रहे हैं. अब ये समझा जाता है कि मधुमक्खी कॉलोनियों के खत्म होने के पीछे नियोनिक कीटनाशक जिम्मेवार है. नियोनिक एक ऐसा जहर है, जिसे इस तरह तैयार किया गया है कि ये कीटाणुओं के तंत्रिका कोष पर हमला करता है.
यूएस कांग्रेस में मधुमक्खियों के संरक्षण के लिए सेविंग अमेरिकाज पॉलिनेटर्स नाम से कानून पेश हो चुका है. इस साल मई में अमेरिका के एनवायरमेंटल प्रोटेक्शन एजेंसी ने 12 तरह के नियोनिक्स उत्पाद को प्रतिबंधित कर दिया है.
लेकिन, दूसरे तरह के जहरीले तत्वों का इस्तेमाल अब भी जारी है और मधुमक्खियां इसकी संकेतक प्रजाति हैं. वे हमें बताती हैं कि हम अपने खाद्यान और पर्यावरण को किस तरह जहरीला बना रहे हैं.
फिर, खाद्यान्न उत्पादन व्यवस्था को लेकर सवाल है. हमने पड़ताल इसलिए शुरू की क्योंकि कच्चे शहद का दाम गिर गया और ऐसा तब हुआ, जब शहद की खपत में कई गुना की बढ़ोतरी हुई है.
मधुमक्खी पालक को व्यवसाय में घाटा हो रहा है और वे अपनी दुकान बंद कर रहे हैं. इसके लिए हमें चिंतित होना चाहिए क्योंकि उनकी आजीविका हमारे भोजन से जुड़ी हुई है.
लेकिन, बात इतनी ही नहीं है. सच ये है कि आधुनिक मधुमक्खी पालन एक औद्योगिक स्तर की गतिविधि है और इस पर भी विमर्श करने की जरूरत है.
पहली बात तो मधुमक्खियों में जैवविविधता भी एक मुद्दा है. दुनियाभर में जैविविधता संरक्षण का सिरमौर यूरोपीय संघ अपने यहां के शहद को एपिस मेलिफेरा उत्पादित शहद के रूप में परिभाषित करता है.
दूसरे शब्दों में यूरोपीय संघ में जो शहद बिकता है, उस शहद का उत्पादन दूसरी कोई भी मधुमक्खी नहीं कर सकती है. फिर ये मधुमक्खियों की जैवविविधता के लिए क्या करता है? भारत में अपिस सेराना (भारतीय मधुमक्खी) या अपिस डोरसाता (पहाड़ी मधुमक्खी) है.
अगर इन मधुमक्खियों के शहद को अलग नहीं किया जा सकता है, अगर मधुमक्खियों की इन प्रजातियों को बढ़ावा नहीं दिया जाता है और इनकी संख्या नहीं बढ़ती है, तो क्या होगा?
एक बड़ा सवाल ये भी है कि उत्पादन और प्रसंस्करण से हम क्या समझते हैं? ज्यादातर मामलों में शहद ‘प्रसंस्कृत’ होते हैं. इन्हें गर्म किया जाता है और इसकी नमी को निकाला जाता है. ये प्रक्रिया पैथोजेन हटाने और लंबे समय तक सुरक्षित रखने के लिए अपनाई जाती है.
इस तरह के प्रसंस्कृत शहद के लिए सुरक्षा और शुद्धता के मानदंड तैयार किये जाते हैं. लेकिन क्या असल में जो शहद है, उसके लिए ये मानदंड काम करते हैं? क्या प्रकृति से शहद लाकर इसे पूरी तरह शुद्ध रूप में हम खाते हैं?
लेकिन, फिर बात आती है कि ऐसे में बड़ा उद्योग कैसे जीवित रहेगा? क्या दुनियाभर में लाखों लोगों की जरूरतों को पूरा करने के लिए ये अपना उत्पादन बढ़ा सकते हैं? बुनियादी सवाल केवल शहद में मिलावट का नहीं है, बल्कि इससे ज्यादा है. सवाल भविष्य के खाद्य पदार्थों के कारोबार की प्रकृति का है.
सीएसई की पड़ताल केवल शहद या इसमें हो रही मिलावट को लेकर नहीं है. ये पड़ताल भविष्य के खाद्य पदार्थों के कारोबार की ‘प्रकृति’ को लेकर है. क्योंकि प्रकृति में मौजूद जीव हमारी खाद्य व्यवस्था की उत्पादकता के लिए बहुत जरूरी है और जो शहद ये जीव बनाते हैं, वे हमारी सेहत को सुधारते हैं. ये बातें हम जानते हैं. लेकिन, हम इस बात की अनदेखी कर रहे हैं कि प्राकृति का दिया हुआ ये उपहार हम कितनी जल्दी खो सकते हैं.
जब से हमने शहद में मिलावट को लेकर अपनी पड़ताल की रिपोर्ट सार्वजनिक की है, तब से हमें किताबी प्रतिक्रिया मिल रही है. संभवत वैसी प्रतिक्रिया जैसी दुनियाभर के बिजनेस स्कूलों में चर्चा होती है और सिखाई जाती है.
पहला चरण है इनकार करना. इस मामले में शहद का प्रसंस्करण करने वाली कंपनियां शिकायत कर रही हैं कि हम गलत हैं.
दूसरा चरण है झूठे आरोप लगा कर हमारी साख को बदनाम करना. इसके बाद वैज्ञानिक तिकड़मों का इस्तेमाल कर उपभोक्ताओं को कन्फ्यूज करना. इस मामले में कंपनियां गलत जांच रिपोर्ट जारी कर रही हैं और हमारी जांच रिपोर्ट को गलत बताकर कटाक्ष कर रही है.
किताबों में तीसरा चरण है अपने उत्पाद को साफ और सुरक्षित बताने के लिए वैकल्पिक नैरेटिव तैयार करने में खूब वक्त बिताना और इसे जटिल बनाने के लिए ‘अच्छे विज्ञान’ का इस्तेमाल.
याद रखिये, जब सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट ने कोला सॉफ्ट ड्रिंक्स में कीटनाशक के मिलावट की पड़ताल की थी, तो दो बड़ी कंपनियों ने लेबोरेटरी कोट पहनाने के लिए बॉलीवुड के शीर्ष अभिनेताओं को भाड़े पर लिया था ताकि हमें विश्वास दिला सकें कि सबकुछ ठीक है.
इस बार हम जानते हैं कि उनका विज्ञापन पर खर्च बढ़ गया है और उन्हें लगता है कि हमारी आवाज दब जायेगी.
चौथे चरण का हमला ज्यादा तीखा और सुक्ष्म होता है. ये कोला के साथ लड़ाई के दौरान विकसित हुआ है. अब कंपनियां हमारे खिलाफ सीधा केस नहीं करती हैं. हमें धमकाते हैं, लेकिन हमें कोर्ट नहीं ले जाते हैं. इसकी जगह हमले की जमीन तैयार करने के लिए वे उन कॉरिडोर में बाहुबल का इस्तेमाल करते हैं, जिनसे फर्क पड़ता है.
लेकिन, पूर्व में ये तरकीब काम नहीं आई है और हमें लगता है कि इस बार भी ये काम नहीं करेगी. कोला के मामले में कंपनी नहीं, बल्कि हमारी (सचेतक) जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) का गठन हुआ था और समिति की जांच रिपोर्ट हमारे पक्ष में आई थी.
हमें लगता है कि इस बार सरकार व फुड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड अथॉरिटी ऑफ इंडिया (एफएसएसएआई) हमारी जांच रिपोर्ट के आधार पर और इस पौष्टिक खाद्य में मिलावट रोकने के लिए कार्रवाई सुनिश्चित करेगी. यहां बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है और हम सब ये जानते हैं.
आप उपभोक्ता इस पर बोल चुके हैं. शहद किसी अन्य खाद्य की तरह नहीं है. इसका इस्तेमाल हेल्थ सप्लीमेंट (स्वास्थ्य पूरक) के तौर पर किया जाता है. ये औषधीय है और इसलिए इसमें चीनी मिलाने का मतलब है कि ये हमारे स्वास्थ्य के लिए सचमुच हानिकारक है. इसको लेकर कोई सवाल नहीं है. इसलिए हमें दबाव बनाये रखना चाहिए ताकि प्रकृति के इस उपहार में मिलावट न हो. लेकिन, चिंता का एक अलग कारण भी है और वो मधुमक्खी से जुड़ा हुआ है. मधुमक्खी हरबिंगर प्रजाति का कीट है. वे हमारी खाद्य व्यवस्था के स्वास्थ्य की तरफ संकेत देते हैं. हम जानते हैं कि बिना मधुमक्खी के किसी भी खाद्य का उत्पादन नहीं होगा.
उत्पादकता के लिए मधुमक्खियों का होना बहुत जरूरी है क्योंकि ये पौधों का परागन कराते हैं. समझा जाता है कि फूल देने वाले 90 प्रतिशत पौधों को परागन के लिए मधुमक्खियों की जरूरत पड़ती है. तिलहन सरसों से लेकर सेव और चकोतरा तथा अन्य फलियों तक ज्यादातर अन्न जो हम खाते हैं, उन्हें उपजने के लिए मधुमक्खियों की जरूरत पड़ती है.
मधुमक्खियां हमें जहरीले तत्व और कीटनाशक के अत्यधिक इस्तेमाल को लेकर भी अगाह करते रहे हैं. अब ये समझा जाता है कि मधुमक्खी कॉलोनियों के खत्म होने के पीछे नियोनिक कीटनाशक जिम्मेवार है. नियोनिक एक ऐसा जहर है, जिसे इस तरह तैयार किया गया है कि ये कीटाणुओं के तंत्रिका कोष पर हमला करता है.
यूएस कांग्रेस में मधुमक्खियों के संरक्षण के लिए सेविंग अमेरिकाज पॉलिनेटर्स नाम से कानून पेश हो चुका है. इस साल मई में अमेरिका के एनवायरमेंटल प्रोटेक्शन एजेंसी ने 12 तरह के नियोनिक्स उत्पाद को प्रतिबंधित कर दिया है.
लेकिन, दूसरे तरह के जहरीले तत्वों का इस्तेमाल अब भी जारी है और मधुमक्खियां इसकी संकेतक प्रजाति हैं. वे हमें बताती हैं कि हम अपने खाद्यान और पर्यावरण को किस तरह जहरीला बना रहे हैं.
फिर, खाद्यान्न उत्पादन व्यवस्था को लेकर सवाल है. हमने पड़ताल इसलिए शुरू की क्योंकि कच्चे शहद का दाम गिर गया और ऐसा तब हुआ, जब शहद की खपत में कई गुना की बढ़ोतरी हुई है.
मधुमक्खी पालक को व्यवसाय में घाटा हो रहा है और वे अपनी दुकान बंद कर रहे हैं. इसके लिए हमें चिंतित होना चाहिए क्योंकि उनकी आजीविका हमारे भोजन से जुड़ी हुई है.
लेकिन, बात इतनी ही नहीं है. सच ये है कि आधुनिक मधुमक्खी पालन एक औद्योगिक स्तर की गतिविधि है और इस पर भी विमर्श करने की जरूरत है.
पहली बात तो मधुमक्खियों में जैवविविधता भी एक मुद्दा है. दुनियाभर में जैविविधता संरक्षण का सिरमौर यूरोपीय संघ अपने यहां के शहद को एपिस मेलिफेरा उत्पादित शहद के रूप में परिभाषित करता है.
दूसरे शब्दों में यूरोपीय संघ में जो शहद बिकता है, उस शहद का उत्पादन दूसरी कोई भी मधुमक्खी नहीं कर सकती है. फिर ये मधुमक्खियों की जैवविविधता के लिए क्या करता है? भारत में अपिस सेराना (भारतीय मधुमक्खी) या अपिस डोरसाता (पहाड़ी मधुमक्खी) है.
अगर इन मधुमक्खियों के शहद को अलग नहीं किया जा सकता है, अगर मधुमक्खियों की इन प्रजातियों को बढ़ावा नहीं दिया जाता है और इनकी संख्या नहीं बढ़ती है, तो क्या होगा?
एक बड़ा सवाल ये भी है कि उत्पादन और प्रसंस्करण से हम क्या समझते हैं? ज्यादातर मामलों में शहद ‘प्रसंस्कृत’ होते हैं. इन्हें गर्म किया जाता है और इसकी नमी को निकाला जाता है. ये प्रक्रिया पैथोजेन हटाने और लंबे समय तक सुरक्षित रखने के लिए अपनाई जाती है.
इस तरह के प्रसंस्कृत शहद के लिए सुरक्षा और शुद्धता के मानदंड तैयार किये जाते हैं. लेकिन क्या असल में जो शहद है, उसके लिए ये मानदंड काम करते हैं? क्या प्रकृति से शहद लाकर इसे पूरी तरह शुद्ध रूप में हम खाते हैं?
लेकिन, फिर बात आती है कि ऐसे में बड़ा उद्योग कैसे जीवित रहेगा? क्या दुनियाभर में लाखों लोगों की जरूरतों को पूरा करने के लिए ये अपना उत्पादन बढ़ा सकते हैं? बुनियादी सवाल केवल शहद में मिलावट का नहीं है, बल्कि इससे ज्यादा है. सवाल भविष्य के खाद्य पदार्थों के कारोबार की प्रकृति का है.
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