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खुले में बैठे किसानों और भवनों की गर्माहट में बैठी सरकार के बीच जमी बर्फ अब पिघलनी चाहिए
राजधानी दिल्ली की सीमा पर खुले आसमान के नीचे बैठे किसानों और राजधानी के शानदार भवनों की गर्माहट में बैठी सरकार के बीच बर्फ जम गई है. अब कोई एक-दूसरे से नहीं बोल रहा है बल्कि दोनों ही एक-दूसरे की प्रेत-छाया से बातें कर रहे हैं. शासन और उसे बनाने वाली जनता के बीच ऐसा रिश्ता किसी भी दृष्टि से, किसी के लिए भी शुभ नहीं है. यह बर्फ पिघलनी ही चाहिए.
इसका एक मौका जाने-अनजाने प्रधानमंत्री ने बना दिया है. अभी-अभी फिक्की की 93 वीं वार्षिक सभा में उन्होंने कहा कि “उनकी सरकार नीति और नीयत दोनों से किसानों का भला करने के लिए प्रतिबद्ध है.” हम इसे ही सरकार का आधारभूत वक्तव्य मान कर चलें तो यही सरकार के लिए भी और किसानों के लिए भी स्वर्णिम अवसर के द्वार खोल सकता है. बगैर कोई समय गंवाए सरकार को अभी-के-अभी किसान आंदोलन की गेंद किसानों के पाले में फेंक देनी चाहिए.
उसे करना सिर्फ इतना है कि जिन तीन कृषि कानूनों की पूरी वापसी पर किसान अड़े हुए हैं, उन्हें वह बेशर्त वापस ले ले और किसानों से कहे कि वे छह माह के भीतर सारे देश को जो कबूल हो सके, ऐसी कृषि-व्यवस्था का खाका बना कर पेश करे. इस अवधि में खेती-किसानी की, फसलों की खरीद-बिक्री की सारी पुरानी व्यवस्था चलती रहेगी, कृषि संबंधित कोई नया परिवर्तन लागू नहीं किया जाएगा. यह बदनीयति से न किया जाए, किसानों के प्रति पूर्ण सदाशयता रख कर किया जाए.
“किसानों के साथ किसी भी स्तर पर विचार-विमर्श के बिना ये तीन कानून लाए गए हैं,” यह आरोप सरकार के सर पर चिपक गया है. गृहमंत्री ने किसानों के साथ बातचीत में इसे सरकार की गलती के रूप में स्वीकार भी किया है, तो गलती सुधार ली जाए और किसानों के साथ विचार-विमर्श की कौन कहे, किसानों को ही नई व्यवस्था बनाने को कहा जाए. कहने वाले कहते ही रहे हैं कि प्रधानमंत्री कहते क्या हैं, करते क्या हैं और अपने मंत्रियों को व दल वालों को क्या-क्या कहने व करने की छूट देते हैं, समझना जितना मुश्किल है उतना ही मुश्किल है उस पर भरोसा करना! अगर ऐसा नहीं होता तो यह कैसे संभव होता कि केंद्रीय सरकार का कोई मंत्री कहे कि इस आंदोलन के पीछे चीन व पाकिस्तान है (जैसे किसान देशद्रोहियों से हाथ मिला बैठे हैं!), किसानों के साथ वार्ता कर रहे मंत्रियों में से कोई कहे कि अब यह आंदोलन वामपंथियों-नक्सलियों के हाथ में चला गया है (जैसे वामपंथी या नक्सली इस देश के नागरिक नहीं हैं!), कोई कहे कि हम इन्हें ऐसा या वैसा सबक सिखाएंगे (जैसे किसानों से नहीं, गुंडों से निबटने की बात हो रही है!), कोई कहे कि ये किसान हैं ही नहीं, आतंकवादी-खालिस्तानी हैं (सरकार से असहमत सभी आतंकी या खालिस्तानी होते हैं!), प्रधानमंत्री स्वंय कहें कि किसानों को भड़का कर, विपक्ष उनका गलत इस्तेमाल कर रहा है (तो क्या किसान एकदम मूर्ख भीड़ जैसे हैं जिन्हें कोई भी भड़का सकता है? और सरकार की चूकों को निशाने पर लेना विपक्ष की जायज, लोकतांत्रिक भूमिका नहीं है?).
यह सब और कितना कुछ अनर्गल लगातार कहा जा रहा है और न प्रधानमंत्री, न पार्टी अध्यक्ष किसी से सफाई पूछते हैं, न किसी को रोकते हैं. तब लोगों को, किसानों को यह कहने का मजबूत आधार मिल जाता है कि यह सब इनके इशारे पर ही किया जा रहा है. सरकार किसानों के पाले में गेंद फेंक कर इन सारे आरोपों को, इन सारी शंकाओं को कूड़े में फेंक दे सकती है.
अब किसान अपना सर जोड़ें. सर जोड़ने से पहले उन्हें अपना धड़ जोड़ना पड़ेगा, और वह भी कश्मीर से कन्याकुमारी तक! अब चुनौती उनके लिए है कि वे खेती-किसानी का एक ढांचा बनाएं और उस पर सारे देश के किसानों की सहमति बनाएं. एक बार किसानों का वह प्रस्ताव तैयार हो जाए तो फिर उस प्रस्ताव पर संसद में खुला विमर्श हो, देश भर के किसानों में भी और व्यापक समाज में उसकी चर्चा हो, विशेषज्ञ उसे जांचे, मीडिया उसकी शल्य-चिकित्सा करे और फिर हम देखें कि खेती-किसानी का किसानों का अपना नक्शा कैसे उभरता है. यह एकदम नई, लोकतांत्रिक पहल होगी जो किसानों को निर्णायक भूमिका में ला देगी. तब सिंघु और टिकरी सीमा पर लगा धरना आप-से-आप सिमट जाएगा, दिल्ली के सारे रास्ते खुल जाएंगे और किसानों को अपना बोरिया-बिस्तर समेट कर, अपने खेतों-खलिहानों की तरफ लौटना होगा.
अपने खेतों-खलिहानों की तरफ जाने से ही काम नहीं चलेगा, उन्हें देश भर के किसानों के साथ विमर्श करने निकलना पड़ेगा, और यह सब छह माह के भीतर पूरा कर, उन्हें फिर देश के सामने खड़ा होना पडे़गा. कौन, किधर जाएगा और कौन किससे, क्या बात करेगा, यह सारा कुछ तो किसान आंदोलन को ही तय करना होगा. किसानों के भीतर के हितविरोध का शमन कैसे होगा, यह भी उनको ही सोचना होगा. मैं चाहूंगा कि सरकार राष्ट्रीय स्तर पर किसानों के आपसी विचार-विनमय की पूरी व्यवस्था कर दे, उनके सफर आदि की आवश्यक सुविधा भी बना दे. नीति और नीयत में कोई सरकार खोट न हो, न दिखाई दे.
यह एकदम नया व लोकतांत्रिक प्रयोग होगा. यह एक बार शक्य हो गया तो केवल किसानों के लिए नहीं बल्कि जब भी, जो भी समूह संगठित रूप से अपनी मांगें ले कर सामने आएगा उस पर यह जिम्मेवारी होगी कि वह वैकल्पिक व्यवस्था का अपना नक्शा भी देश के विचारार्थ पेश करे. विरोध हमारा काम, समाधान खोजना दूसरे का, यह चलन समाप्त होना चाहिए.
राजधानी दिल्ली की सीमा पर खुले आसमान के नीचे बैठे किसानों और राजधानी के शानदार भवनों की गर्माहट में बैठी सरकार के बीच बर्फ जम गई है. अब कोई एक-दूसरे से नहीं बोल रहा है बल्कि दोनों ही एक-दूसरे की प्रेत-छाया से बातें कर रहे हैं. शासन और उसे बनाने वाली जनता के बीच ऐसा रिश्ता किसी भी दृष्टि से, किसी के लिए भी शुभ नहीं है. यह बर्फ पिघलनी ही चाहिए.
इसका एक मौका जाने-अनजाने प्रधानमंत्री ने बना दिया है. अभी-अभी फिक्की की 93 वीं वार्षिक सभा में उन्होंने कहा कि “उनकी सरकार नीति और नीयत दोनों से किसानों का भला करने के लिए प्रतिबद्ध है.” हम इसे ही सरकार का आधारभूत वक्तव्य मान कर चलें तो यही सरकार के लिए भी और किसानों के लिए भी स्वर्णिम अवसर के द्वार खोल सकता है. बगैर कोई समय गंवाए सरकार को अभी-के-अभी किसान आंदोलन की गेंद किसानों के पाले में फेंक देनी चाहिए.
उसे करना सिर्फ इतना है कि जिन तीन कृषि कानूनों की पूरी वापसी पर किसान अड़े हुए हैं, उन्हें वह बेशर्त वापस ले ले और किसानों से कहे कि वे छह माह के भीतर सारे देश को जो कबूल हो सके, ऐसी कृषि-व्यवस्था का खाका बना कर पेश करे. इस अवधि में खेती-किसानी की, फसलों की खरीद-बिक्री की सारी पुरानी व्यवस्था चलती रहेगी, कृषि संबंधित कोई नया परिवर्तन लागू नहीं किया जाएगा. यह बदनीयति से न किया जाए, किसानों के प्रति पूर्ण सदाशयता रख कर किया जाए.
“किसानों के साथ किसी भी स्तर पर विचार-विमर्श के बिना ये तीन कानून लाए गए हैं,” यह आरोप सरकार के सर पर चिपक गया है. गृहमंत्री ने किसानों के साथ बातचीत में इसे सरकार की गलती के रूप में स्वीकार भी किया है, तो गलती सुधार ली जाए और किसानों के साथ विचार-विमर्श की कौन कहे, किसानों को ही नई व्यवस्था बनाने को कहा जाए. कहने वाले कहते ही रहे हैं कि प्रधानमंत्री कहते क्या हैं, करते क्या हैं और अपने मंत्रियों को व दल वालों को क्या-क्या कहने व करने की छूट देते हैं, समझना जितना मुश्किल है उतना ही मुश्किल है उस पर भरोसा करना! अगर ऐसा नहीं होता तो यह कैसे संभव होता कि केंद्रीय सरकार का कोई मंत्री कहे कि इस आंदोलन के पीछे चीन व पाकिस्तान है (जैसे किसान देशद्रोहियों से हाथ मिला बैठे हैं!), किसानों के साथ वार्ता कर रहे मंत्रियों में से कोई कहे कि अब यह आंदोलन वामपंथियों-नक्सलियों के हाथ में चला गया है (जैसे वामपंथी या नक्सली इस देश के नागरिक नहीं हैं!), कोई कहे कि हम इन्हें ऐसा या वैसा सबक सिखाएंगे (जैसे किसानों से नहीं, गुंडों से निबटने की बात हो रही है!), कोई कहे कि ये किसान हैं ही नहीं, आतंकवादी-खालिस्तानी हैं (सरकार से असहमत सभी आतंकी या खालिस्तानी होते हैं!), प्रधानमंत्री स्वंय कहें कि किसानों को भड़का कर, विपक्ष उनका गलत इस्तेमाल कर रहा है (तो क्या किसान एकदम मूर्ख भीड़ जैसे हैं जिन्हें कोई भी भड़का सकता है? और सरकार की चूकों को निशाने पर लेना विपक्ष की जायज, लोकतांत्रिक भूमिका नहीं है?).
यह सब और कितना कुछ अनर्गल लगातार कहा जा रहा है और न प्रधानमंत्री, न पार्टी अध्यक्ष किसी से सफाई पूछते हैं, न किसी को रोकते हैं. तब लोगों को, किसानों को यह कहने का मजबूत आधार मिल जाता है कि यह सब इनके इशारे पर ही किया जा रहा है. सरकार किसानों के पाले में गेंद फेंक कर इन सारे आरोपों को, इन सारी शंकाओं को कूड़े में फेंक दे सकती है.
अब किसान अपना सर जोड़ें. सर जोड़ने से पहले उन्हें अपना धड़ जोड़ना पड़ेगा, और वह भी कश्मीर से कन्याकुमारी तक! अब चुनौती उनके लिए है कि वे खेती-किसानी का एक ढांचा बनाएं और उस पर सारे देश के किसानों की सहमति बनाएं. एक बार किसानों का वह प्रस्ताव तैयार हो जाए तो फिर उस प्रस्ताव पर संसद में खुला विमर्श हो, देश भर के किसानों में भी और व्यापक समाज में उसकी चर्चा हो, विशेषज्ञ उसे जांचे, मीडिया उसकी शल्य-चिकित्सा करे और फिर हम देखें कि खेती-किसानी का किसानों का अपना नक्शा कैसे उभरता है. यह एकदम नई, लोकतांत्रिक पहल होगी जो किसानों को निर्णायक भूमिका में ला देगी. तब सिंघु और टिकरी सीमा पर लगा धरना आप-से-आप सिमट जाएगा, दिल्ली के सारे रास्ते खुल जाएंगे और किसानों को अपना बोरिया-बिस्तर समेट कर, अपने खेतों-खलिहानों की तरफ लौटना होगा.
अपने खेतों-खलिहानों की तरफ जाने से ही काम नहीं चलेगा, उन्हें देश भर के किसानों के साथ विमर्श करने निकलना पड़ेगा, और यह सब छह माह के भीतर पूरा कर, उन्हें फिर देश के सामने खड़ा होना पडे़गा. कौन, किधर जाएगा और कौन किससे, क्या बात करेगा, यह सारा कुछ तो किसान आंदोलन को ही तय करना होगा. किसानों के भीतर के हितविरोध का शमन कैसे होगा, यह भी उनको ही सोचना होगा. मैं चाहूंगा कि सरकार राष्ट्रीय स्तर पर किसानों के आपसी विचार-विनमय की पूरी व्यवस्था कर दे, उनके सफर आदि की आवश्यक सुविधा भी बना दे. नीति और नीयत में कोई सरकार खोट न हो, न दिखाई दे.
यह एकदम नया व लोकतांत्रिक प्रयोग होगा. यह एक बार शक्य हो गया तो केवल किसानों के लिए नहीं बल्कि जब भी, जो भी समूह संगठित रूप से अपनी मांगें ले कर सामने आएगा उस पर यह जिम्मेवारी होगी कि वह वैकल्पिक व्यवस्था का अपना नक्शा भी देश के विचारार्थ पेश करे. विरोध हमारा काम, समाधान खोजना दूसरे का, यह चलन समाप्त होना चाहिए.
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