Newslaundry Hindi

नए दौर में नया आंदोलन: पिज़्ज़ा से लेकर वाई-फाई तक

नए कृषि कानूनों के विरोध में किसानों का आंदोलन और तेज होता जा रहा है. अन्य प्रदेशों के किसानों का समर्थन भी बढ़ रहा है, धरना स्थल पर लोगों का जमावड़ा भी बढ़ रहा है. इस आंदोलन पर अब देश ही नहीं बल्कि दुनिया की नजर टिक गई है. इतने बड़े आंदोलन को कौन लीड कर रहा है, कौन रणनीतियां बना रहा है, कौन संयोजक है और कहां से आर्थिक संसाधन आ रहे हैं, ये सारे सवाल लोगों के ज़हन में हैं. ऐसे लोग भी हैं जो आंदोलन की व्यवस्था के बारे में जानना चाहते हैं. आखिर इतनी तादात में वहां महिला, पुरुष और बच्चे हैं, तो इतनी सर्दी में उनके खाने, रहने और ओढ़ने की क्या व्यवस्था है. हमने पूरे “किसान नगर” का उसकी व्यवस्थाओं के नजरिए से एक पूरी यात्रा की, उसकी पड़ताल की. उम्मीद है इस रिपोर्ट को पढ़कर आपके ज़हन में उठ रहे सभी सवालों के जवाब मिल जाएगा.

सिंघु बॉर्डर का सूरते हाल

मुख्य प्रदर्शन स्थल यानी सिंघु बॉर्डर पर ज्यादातर पंडाल साइड में लगे हैं. रोड के बीचोंबीच टैक्टर ट्रॉलियां और दूसरे वाहन खड़े हैं. वहीं पंडाल और इन वाहनों के बीच में लोगों का आवागमन लगातार चलता रहता है. हम थोड़ा आगे बढ़े तो वहां सड़क के बीचों-बीच में एक खाली स्थान दिखा. वहां लोगों के बैठने की व्यवस्था है. लेकिन यही खाली जगह दिन में सबसे ज्यादा भरी हुई दिखती है. मैट पर लोग बैठे हैं और सामने मंच सजा है. मंच पर लोग बारी-बारी से भाषण दे रहे हैं. कुछ लोग ऐसे भी हैं जो बाहर से आ रहे हैं. भाषण देते हैं, किसानों से मिलते हैं और चले जाते हैं. जब हम पहुंचे तो सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण भाषण दे रहे थे. इस जगह को चारो और से रस्सियों से कवर किया हुआ है. मंच की ओर से इस भारी भीड़ में हर किसी कि एंट्री नहीं है. हालांकि मीडिया के लोगों को कुछ छूट दी गई है.

सिंघु बॉर्डर पर कृषि कानूनों के खिलाफ एकजुट हुए किसान

इस मंच के पास पीछे की ओर किसानों का एक झुंड जिसमें अधिकतर युवा हैं, घेरा बनाकर बैठे हैं. इनके बीच में एक स्टाइलिश हुक्का लगा है जो इन सबके बीच में घूम रहा है. ये युवा कश मारते हैं और हुक्के को आगे सरका देते हैं. घेरा इतना बड़ा है कि हुक्के का एक चक्कर पूरा होने में करीब 5 से 7 मिनट का वक्त लगता है. यह इस आंदोलन के आकर्षण का केंद्र भी बना हुआ है, जो लोग यहां पहुंच रहे हैं, वो इनकी तस्वीरें अपने मोबाइल और कैमरों में कैद कर रहे हैं.

हुक्के का आनंद लेते किसान

साइड में लगे पंडालों में दवाइयां, खाना, और अन्य जरूरी सामानों के स्टॉल खड़े हो गए हैं. वहीं बीच-बीच में कई गाड़ियां खड़ी हैं. इन गाड़ियों से लड्डू, सेब, संतरे और तरह-तरह के फल बांटे जा रहे हैं. एक बड़े से पंडाल में पांच लोग सिर्फ प्याज काट रहे हैं. उसी पंडाल में कई अलग-अलग गुट अन्य सब्जियां काट रहे हैं. यहां मौजूद लोगों से न्यूज़लॉन्ड्री ने बात की. काली पगड़ी, सफेद कुर्ता पायजामा और आधे से ज्यादा सफेद हो चुकी लंबी दाढ़ी में बैठे चतर सिंह कहते हैं, "यह सब गुरु की कृपा है. ये लंगर आपने आप चल रहा है न हम किसी संस्था से जुड़े हैं और न ही हमें कहीं बाहर से पैसा मिल रहा है. इसमें सभी लोगों का सहयोग है. यह किसी एक का नहीं है. हमारे ही लोग पैसा इकट्ठा कर यह सब कर रहे हैं."

बीच में अन्य किसानों के साथ प्याज काटते चतर सिंह

पंजाब के फिरोजपुर से आए चतर सिंह आगे कहते हैं, "उनके पास अभी एक सप्ताह की सब्जियां पड़ी हुई हैं. आगे सब्जियां और आएंगी. यहा किसी तरह की खाने पीने की कोई परेशानी नहीं है. यह सभी सब्जियां पंजाब-हरियाणा और अन्य राज्यों से आ रही हैं. यहां पर कई हजार लोगों का रोजाना खाना बनता है. वह कहते हैं जब तक ये काले कृषि कानून वापस नहीं हो जाते हैं तब तक ये लंगर ऐसे ही चलता रहेगा. ये लंगर किसी एक का नहीं बल्कि सबका है."

मक्का की रोटी चने का साग

ऐसे ही एक अन्य कैंप पर मक्का की रोटी और चने का साग बन रहा है. साथ ही एक बड़ी कढ़ाई में लोगों के लिए केसर का दूध उबाला जा रहा है. जबकि कई महिलाएं रोटियां बना रही हैं. यहां मौजूद करनाल से आए सतनाम निर्मल बताते हैं, "यह हमारी अकेलों की लड़ाई नहीं है ये पूरे देश के किसानों की लड़ाई है. अगर इस कानून से किसानों पर फर्क पड़ेगा तो फिर सब पर पड़ेगा. हम लोग यहां आने जाने वाले लोगों के लिए खाना, दूध और बाकी जरूरतों को पूरा कर रहे हैं. हम आपस में ही पैसा जुटाकर ये सब कर पा रहे हैं. ताकि आने वाली पीढ़ियां सुकून से रह सकें. यह आंदोलन जितने दिन भी चलेगा तब तक यहां ऐसे ही लोगों को खाना खिलाते रहेंगे.”

चने का साग बनाते युवा

वो कहते हैं, "मक्का की रोटी और चने का साग और देशी घी हमारे यहां अच्छा खाना माना जाता है. हम मक्का की रोटी और चने का साग अपने घर पर भी खाते हैं. इसलिए हम किसान आंदोलन में आए लोगों को घर की तरह ही खाना परोस रहे हैं. ताकि किसी को अलग फील न हो. अच्छा खाएंगे तभी तो आगे की लड़ाई लड़ पाएंगे. लड़ाई जीतनी है तो अच्छा खाना खाना ही होगा."

केसर का दूध

“किसान नगर” में इस तरह के कई कैंप लगे हैं जहां लोगों को खाना खिलाया जा रहा है. खास बात यह है कि यहां कोई किसी का नेता नहीं है. सब अपने-अपने हिसाब से आंदोलन में हिस्सा ले रहे हैं. इस पर करनाल से आए राम अवतार कहते हैं, "आंदोलन में हिस्सा ले रहे लोग पढ़े लिखे हैं. सभी ने कृषि बिल पढ़ा है और सभी अपना अच्छा बुरा जानते हैं. इस आंदोलन को कोई लीड नहीं कर रहा है. यहां सब सबको लीड कर रहे हैं. हमारे ही बीच के कुछ लोग हैं जो सरकार से भी बात कर रहे हैं."

बिरयानी नहीं जर्दा है

अलग-अलग समुदायों के लोग भी यहां समाज सेवा के लिए जुट गए हैं. ऐसा ही एक स्टॉल यहां मुस्लिम समाज के लोगों ने लगाया है जहां खाने की व्यवस्था की गई है. करीब 25-30 लोगों का एक गुट यहां आने जाने वाले लोगों के लिए खाने-पीने की व्यवस्था कर रहा है. लंबी सी एक टेबल पर पानी, नमकीन चावल और जर्दा (मीठे चावल) आदि लोगों को खाने के लिए दिया जा रहा है. यहां चार देगों पर नमकीन चावल बनाने की तैयारी भी चल रही है.

इस पूरी व्यवस्था का संचालन कर रहे एडवोकेट मोबीन फारुकी कहते हैं, "हम पंजाब से हैं, और पहले दिन से ही किसानों के साथ हैं. मैं वकील हूं, किसान नहीं हूं लेकिन सरकार ने जो किसानों के साथ किया है उसके खिलाफ हूं. किसान अनाज पैदा करता है और हम खाते हैं. इसलिए हमें इतना एहसान फरामोश नहीं होना चाहिए कि आज अगर हमारा अन्नदाता परेशान है तो हम उसके साथ खड़े न हों."

बीच में साथियों संग एडवोकेट मोबीन फारुकी

वो आगे कहते हैं, "यह लड़ाई एक गरीब आदमी की है जिसकी थाली से रोटी छीनी जा रही है. किसान से उसकी फसल कम रेट पर खरीदकर जब यह आम आदमी तक पहुंचेगी, तब तक यह बहुत महंगी हो चुकी होगी. हो सकता है कि इससे भुखमरी भी बढ़ जाए और आम गरीब दो वक्त की रोटी से भी मोहताज हो जाए. इसलिए असल में यह लड़ाई गरीब आदमी के लिए है."

इतने सारे लोगों का खाना और इसकी पूरी व्यवस्था कैसे कर पा रहे हैं? इस सवाल पर वह कहते हैं, "हमारा एक एनजीओ है जिसका नाम है मुस्लिम फेडरेशन ऑफ पंजाब, इसके जरिए हम आपस में और आसपास के लोगों से पैसा इकट्ठा कर रहे हैं. और लोगों की खिदमत में लगे हैं."

वह बिल के बारे में कहते हैं, "इस बिल में बहुत सारी कमियां है इसमें सरकारी एजेंसियों को खत्म कर दिया गया है. अब जो फसल की खरीद करेंगी वह प्राइवेट एजेंसियां करेंगी. पहले किसान को लगता था कि उसकी फसल एमएसपी पर कम से कम सरकार तो खरीद ही लेगी. ऐसे ही इन्होंने पहले जिओ के साथ किया, पहले बिल्कुल फ्री कर दिया और जब बाद में इनके दस करोड़ ग्राहक हो गए तो पैसे लेने शुरू कर दिए. ऐसे ही अगर इन्होंने दो चार साल महंगी फसल खरीद भी ली और बाद में जब मंडी सिस्टम खत्म हो जाएगा, एमएसपी खत्म हो जाएगा और फिर कह दिया कि अब हम नहीं खरीदते तो क्या होगा. उसके बाद फसल को कम रेट पर बेचने के लिए किसानों पर दबाव बनाया जाएगा और इसके लिए मजबूर किया जाएगा. कुल मिलाकर कानून पढ़ने के बाद सीधे-सीधे यही समझ आता है कि यह उद्योगपतियों को ही लाभ पहुंचाने के लिए किया जा रहा है.

मीठे चावल (ज़र्दा) और नमकीन चावलों की देग

वह आगे कहते हैं, "खाना बनाने में डेढ़ से दो कुंतल चावल रोजाना लगता है. यहां किसान ही नहीं खा रहे हैं बल्कि जो यहां झोपड़ीपट्टी में रहने वाले लोग हैं वह भी रोजाना खाना खाते हैं. यहां किसी को भी खाने के लिए मनाही नहीं है.”

वहीं पर लोगों को खाना और पानी बांट रहे सुहैल बताते हैं, "हम पहले दिन से ही किसानों के साथ हैं. हम पहले यहां किसानों को फ्रूट्स खिलवा रहे थे लेकिन अब मीठे और नमकीन चावल खिलवा रहे हैं. एक दिन में 20 से 30 देग चावल बनता है. एक बार में एक देग में 15 किलो चावल लगते हैं. सुबह से शाम तक चावल बनते रहते हैं. यहां हमारी भट्टियों की आग तक नहीं बुझती है.”

इसी ग्रुप के बसीर आलम बताते हैं, "यहां हिंदू, मुस्लिम, सिख और ईसाई सभी साथ में हैं. हम सभी ने किसानों का साथ देने का फैसला किया है. जब किसान ही नहीं रहेगा तो हम कहां से रहेंगे. हम किसानों के फायदे के लिए यहां हैं. यह सभी सामान पंजाब से आ रहा है. और वहां से सामान आने के लिए हमारी गाड़ियां लगी हैं. जब तक किसानों को न्याय नहीं मिल जाता है तब तक हम यहीं उनकी सेवा में लगे रहेंगे. क्योंकि आज उन्हें हमारी जरूरत है.”

बसीर आलम

मेडिकल कैंप

किसान आंदोलन में बहुत सारे मेडिकल कैंप भी हैं, इन कैंपों पर दवाइयों के साथ-साथ टूथब्रश, टूथपेस्ट, तेल, साबुन, सर्फ, शैम्पू, पीने का पानी, टॉवल, जुराब, कंबल, गर्म कपड़े, तिरपाल और जरूरत के सभी सामान उपलब्ध हैं. यहां पर अलग-अलग बीमारियों के तीन-चार डॉक्टर्स भी उपलब्ध हैं.

यूनाइटेड सिख्स का कैंप

कैंप में लोगों की मदद में खड़े जसमीत सिंह कहते हैं, "हम यहां पहले दिन से हैं. हमें लगा कि लोग परेशान हैं और उन्हें हमारी जरूरत है तो हम यहां आ गए. हमारे पास तीन से चार डॉक्टर हर समय उपलब्ध हैं, जो लोगों को दवाइयां दे रहे हैं. यहां सिर दर्द, आखों में एलर्जी, इरिटेशन, पेट में दर्द, ब्लड प्रेशर और शुगर के मरीज ज्यादा आ रहे हैं. किसी को चोट लग जाती है तो वह भी आ जाते हैं. इसके अलावा अगर कोई इमरजेंसी केस होता है तो हम उसे आगे अस्पताल में रेफर कर देते हैं. अगर कुछ ज्यादा ही सीरियस केस है तो उसे पीजीआई भिजवा देते हैं. हमारा कई अस्पतालों के साथ संपर्क है. यहां दो एंबुलेंस भी हैं."

जसमीत सिंह

वह आगे कहते हैं, "उनकी 10 लोगों की टीम टीकरी बॉर्डर पर भी है और 20 से 25 लोगों की टीम सिंघु बॉर्डर पर है. हमारी संस्था युनाइटेड सिख, जाति से ऊपर उठकर काम करती है. चाहें वह उड़ीसा हो, महाराष्ट्र हो, कहीं बाढ़ हो या अन्य कोई आपदा हो, हम वहीं चले जाते हैं. जहां हमारी जरूरत है हम वहीं पर हैं. केरल, कर्नटक असम और नेपाल तक भी हम गए हैं. यह सब संगत की सपोर्ट से चलता है. लोग पैसा देते हैं. पंजाब, हरियाणा सब जगह से पैसा मिलता है. हमारे डोनर्स हैं जिसकी वजह से हम यह सब कर पा रहे हैं. लोग खुद ही कहते हैं कि आप अच्छा काम कर रहे हैं, हमारा भी कुछ शेयर डाल लीजिए."

उन्होंने बताया, "हम वॉलियंटर्स की तरह काम करते हैं. कभी मैं तो कभी परमिंदर सिंह तो कभी प्रीतम सिंह सभी लगे रहते हैं. हमारे खुद के भी कामकाज हैं, इसलिए किसी दिन कोई तो किसी दिन कोई और ये सब काम देखते हैं."

मेडिकल कैंप पर डॉक्टरों की टीम

वह कृषि बिल पर कहते हैं, "सरकार को आंदोलन कर रहे किसानों के साथ बातचीत करनी चाहिए. हम लोग चाहते हैं कि जल्दी से जल्दी इसका समाधान निकले. हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि हम किसी के सपोर्ट में नहीं हैं. लेकिन अगर किसानों की मांगे जायज हैं तो सरकार को माननी चाहिए. हमारा मकसद सिर्फ यहां लोगों की मदद करना है."

फ्री वाईफाई की व्यवस्था

किसानों को न्यूज़ देखने और मोबाइल में इंटरनेट से जुड़े रहने के लिए वाईफाई की व्यवस्था भी की गई है. आंदोलन में वाईफाई की व्यवस्था करने वाले अभिषेक जैन बताते हैं, "जब मैं इस आंदोलन में पहुंचा तो देखा कि यहां नेटवर्क का इश्यू बहुत ज्यादा था. इसकी वजह दिल्ली पुलिस द्वारा लगाए गए जैमर थे. इसके बाद मैंने किसानों को वाईफाई देने की योजना बनाई. यह सेवा आंदोलन के तीसरे दिन से ही चालू है."

किसान आंदोलन में फ्री वाईफाई

किसान आंदोलन में 200 एमबीपीएस की स्पीड के साथ 24 घंटे इंटरनेट की सुविधा है. वाईफाई फ्री देने के पीछे का क्या मकसद है इस पर अभिषेक कहते हैं, "लोग अपने आप को न्यूज से अपडेट रख सकें और किसान सोशल मीडिया पर अपनी बात रख सकें. साथ ही सरकार और किसान नेताओं के बीच क्या चल रहा है, आंदोलन करने वाले सभी किसानों के पास इसकी जानकारी नहीं है. वो इंटरनेट के माध्यम से मीडिया में आई खबरों को जान सकते हैं.”

कुछ बच्चे ऑनलाइन पढ़ाई कर रहे हैं उनकी पढ़ाई न रुके इसलिए भी इंटरनेट जरूरी है. यहां आए किसानों के रिश्तेदार घर से काफी दूर हैं. कोई अमृतसर से है तो कोई किसी और कोने से. किसान इंटरनेट के माध्यम से उनसे भी जुड़े रहें यह भी जरूरी है. वह वीडियो कॉल पर बात कर सकें ताकि उनके घर वालों और रिश्तेदारों को संतुष्टि रहे कि यहां सब ठीक है.

उन्होंने एक राउटर और चार हॉटस्पॉट पोर्टेबल डिवाइस लगाया है. बहुत ज्यादा लोड पड़ जाए तब तो वह स्लो हो जाता है वरना काफी तेजी से इंटरनेट चल रहा है. यह डाटा अनलिमिटेड है, यानी कोई भी, कितना भी इस्तेमाल कर सकता है. वहीं वाईफाई से कनेक्ट करने के लिए कोई पासवर्ड भी नहीं है. यूजर्स सिर्फ वाईफाई चलाने के लिए आपका अभिषेक नाम से कनेक्ट कर सकते हैं.

अभिषेक ने बताया कि सबकुछ मिलाकर उनका 25 से 30 हजार रुपए खर्च हुए हैं. इससे अलग छह से आठ हजार रुपए महीने का खर्चा है. अभिषेक एक एनजीओ भी चलाते हैं. जिसका नाम है अभिषेक जनशक्ति.

अभिषेक जैन

बसंत बिहार निवासी अभिषेक बताते हैं कि इसके अलावा उन्होंने तिरपाल भी लगा रखा है. जहां तिरपाल की जरूरत है वहां वह लोगों से मिलकर तिरपाल लगवा रहे हैं. जो किसान लोग वाईफाई कनेक्ट नहीं कर पा रहे हैं वह इसे कनेक्ट करवाने में भी उनकी मदद कर रहे हैं.

कृषि कानूनों पर अभिषेक कहते हैं, "सरकार ने जो कृषि कानून बनाए हैं इनमें कहीं न कहीं तो गड़बड़ है तभी इतने सारे किसान एक साथ सड़कों पर हैं. जब भी कोई कानून आता है तो वह लोगों के हित के लिए होना चाहिए. अगर नहीं है तो ऐसे कानून का क्या फायदा है. सरकार को अब किसानों की बात सुननी चाहिए और उनसे बात करके समाधान निकालना चाहिए. तभी इस आंदोलन का हल निकलेगा.”

दल्ली सरकार ने किसानों के लिए शौचालयों की भी व्यवस्था की हुई है. खास बात यह है कि महिलाओं और बच्चों के लिए अलग से व्यवस्था है. हालांकि ये शौचालय पर्याप्त नहीं हैं.

कंबल और जैकेट

दिन भर सिंघु बॉर्डर पर रहने के बाद जब हम अपने घर की ओर निकल रहे थे तभी वहां एक गाड़ी आती है और भीड़ में कंबल और जैकेट बांटने लगती है. लोग भी कंबल और जैकेट लेने के लिए दौड़ पड़ते है. इस गाड़ी पर मौजूद रविंद्र सिंह से हमने बात की. वह कहते हैं, "जब हम यहां आए थे तब ज्यादा ठंड नहीं थी. लेकिन अब ठंड काफी पड़ने लगी है. कई लोग ठंड के चलते बीमार हो रहे हैं. क्योंकि कुछ लोग घर से ज्यादा कपड़े लेकर नहीं आए थे. इसलिए हम ऐसे लोगों को गर्म कपड़े देकर उनकी मदद कर रहे हैं.

आंदोलन में समान बांटते लोग

वह कहते हैं, "हमारी कोई संस्था नहीं है हम लोगों ने आपस में ही पैसा इकट्ठा करके लोगों को मदद पहुंचाने की योजना बनाई है. इससे पहले हमने लोगों को खाना भी खिलवाया है. जिसको जैसी मदद हो रही है हम वैसी कर पा रहे हैं. हम तब तक यहां रहेंगे जब तक मोदी सरकार ये काले कानून वापस नहीं ले लेती. सरकार सोचती होगी कि यहां खाने पीने और ठंड की वजह से किसान अपने घर लौट जाएंगे तो ऐसा नहीं है. यहां गुरु की कृपा से सब है. जब तक कृषि कानून वापस नहीं हो जाते तब तक हम यहां से लौटने वाले नहीं हैं.”

कंबल लेने वाले बलकार सिंह कहते हैं, "वैसे तो उनके पास कपड़े हैं लेकिन ठंड लगातार बढ़ रही है इसलिए एक कंबल का साथ में होना जरूरी है. इसलिए मैंने यह कंबल लिया है. ताकि ठंड न लगे. हम यहां से जाने वाले नहीं हैं चाहें महीनों क्यों न लग जाएं. अब जब यहां तक आ गए हैं तो जाएंगे तो कानून वापस कराकर ही. चाहें जान क्यों न चली जाए."

शौचालयों की व्यवस्था

किसान आंदोलन में दिल्ली सरकार ने शौचालयों की व्यवस्था की है. हालांकि यह शौचालय आंदोलन से करीब एक किलोमीटर की दूरी पर हैं, इसलिए वहां महिलाओं को पहुंचने में थोड़ी परेशानी होती है. इसके चलते किसानों ने महिलाओं के लिए अलग से भी व्यवस्था की हुई है. रोड किनारे कुछ गेस्ट हाउस भी हैं, किसानों द्वारा उनका भी इस्तेमाल किया जा रहा है.

धरना स्थल के पास ही एक दुकान चलाने वाले हरियाणा कुंडली निवासी प्रमोद एक बड़ी सी तीन मंजिला इमारत दिखाते हुए कहते हैं, "इस बिल्डिंग में पहले एक कंपनी चलती थी. अब वह कंपनी भाग गई है उसके बाद से यह बंद पड़ा हुआ था. लेकिन जब से किसान आंदोलन शुरू हुआ है तो यह उनकी सुविधा के लिए खोल दिया है. उनका कहना है कि यहां करीब 200 लोगों के ठहरने की व्यवस्था है. किसी से कोई पैसा नहीं लिया जा रहा है. सब फ्री है. किसान आंदोलन के ज्यादातर सभी बड़े नेता यहीं ठहरते हैं. मीटिंग भी यहीं करते हैं."

हरियाणा कुंडली निवासी प्रमोद

वह कहते हैं, "इसके अलावा छह अन्य कमरे भी दे रखे हें जो कि महिलाओं के लिए हैं. महिलाओं के लिए अलग से शौचालय है. सबुह-सुबह आंदोलन की महिलाएं इधर आती हैं. यहां से नहा-धोकर वह दोबारा प्रदर्शन में चली जाती हैं. उनके लिए यहां साफ सफाई के साथ-साथ रहने की भी अच्छी व्यवस्था है.

इस पर दिल्ली निवासी अभिषेक जैन कहते हैं, "आंदोलन में शौचालयों की व्यवस्था केजरीवाल सरकार ने भी की हुई है. यहां पर बच्चों और महिलाओं के लिए अलग से व्यवस्था है. बच्चों और महिलाओं के शौचालयों पर अलग से लिखा भी हुआ है."

किसानों के लिए दिल्ली सरकार ने की शौचालयों की व्यवस्था

वह कहते हैं, "यहां शौचालयों की दस से ज्यादा गाड़िया हैं और एक गाड़ी में छह शौचालय हैं."

पूरा दिन “किसान नगर” घूमते-घूमते शाम हो चुकी थी. अब हमारे वापस लौटने का समय हो गया था. हमने इतना ही पाया कि एक छोटे से हिस्से में पूरा हिंदुस्तान अपनी असली पहचान के साथ उतर आया है. इसकी सामाजिकता, इसकी सामुदायिकता पूरे इत्मिनान के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ी हो गई है.

Also Read: किसान अगर खेती कर रहा है तो पत्रकार वहां क्‍या कर रहा है?

Also Read: किसान आंदोलन: 'तीनों कानूनों से होने वाले नुकसान जानने के 15 मिनट बाद हो गई मौत'

नए कृषि कानूनों के विरोध में किसानों का आंदोलन और तेज होता जा रहा है. अन्य प्रदेशों के किसानों का समर्थन भी बढ़ रहा है, धरना स्थल पर लोगों का जमावड़ा भी बढ़ रहा है. इस आंदोलन पर अब देश ही नहीं बल्कि दुनिया की नजर टिक गई है. इतने बड़े आंदोलन को कौन लीड कर रहा है, कौन रणनीतियां बना रहा है, कौन संयोजक है और कहां से आर्थिक संसाधन आ रहे हैं, ये सारे सवाल लोगों के ज़हन में हैं. ऐसे लोग भी हैं जो आंदोलन की व्यवस्था के बारे में जानना चाहते हैं. आखिर इतनी तादात में वहां महिला, पुरुष और बच्चे हैं, तो इतनी सर्दी में उनके खाने, रहने और ओढ़ने की क्या व्यवस्था है. हमने पूरे “किसान नगर” का उसकी व्यवस्थाओं के नजरिए से एक पूरी यात्रा की, उसकी पड़ताल की. उम्मीद है इस रिपोर्ट को पढ़कर आपके ज़हन में उठ रहे सभी सवालों के जवाब मिल जाएगा.

सिंघु बॉर्डर का सूरते हाल

मुख्य प्रदर्शन स्थल यानी सिंघु बॉर्डर पर ज्यादातर पंडाल साइड में लगे हैं. रोड के बीचोंबीच टैक्टर ट्रॉलियां और दूसरे वाहन खड़े हैं. वहीं पंडाल और इन वाहनों के बीच में लोगों का आवागमन लगातार चलता रहता है. हम थोड़ा आगे बढ़े तो वहां सड़क के बीचों-बीच में एक खाली स्थान दिखा. वहां लोगों के बैठने की व्यवस्था है. लेकिन यही खाली जगह दिन में सबसे ज्यादा भरी हुई दिखती है. मैट पर लोग बैठे हैं और सामने मंच सजा है. मंच पर लोग बारी-बारी से भाषण दे रहे हैं. कुछ लोग ऐसे भी हैं जो बाहर से आ रहे हैं. भाषण देते हैं, किसानों से मिलते हैं और चले जाते हैं. जब हम पहुंचे तो सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण भाषण दे रहे थे. इस जगह को चारो और से रस्सियों से कवर किया हुआ है. मंच की ओर से इस भारी भीड़ में हर किसी कि एंट्री नहीं है. हालांकि मीडिया के लोगों को कुछ छूट दी गई है.

सिंघु बॉर्डर पर कृषि कानूनों के खिलाफ एकजुट हुए किसान

इस मंच के पास पीछे की ओर किसानों का एक झुंड जिसमें अधिकतर युवा हैं, घेरा बनाकर बैठे हैं. इनके बीच में एक स्टाइलिश हुक्का लगा है जो इन सबके बीच में घूम रहा है. ये युवा कश मारते हैं और हुक्के को आगे सरका देते हैं. घेरा इतना बड़ा है कि हुक्के का एक चक्कर पूरा होने में करीब 5 से 7 मिनट का वक्त लगता है. यह इस आंदोलन के आकर्षण का केंद्र भी बना हुआ है, जो लोग यहां पहुंच रहे हैं, वो इनकी तस्वीरें अपने मोबाइल और कैमरों में कैद कर रहे हैं.

हुक्के का आनंद लेते किसान

साइड में लगे पंडालों में दवाइयां, खाना, और अन्य जरूरी सामानों के स्टॉल खड़े हो गए हैं. वहीं बीच-बीच में कई गाड़ियां खड़ी हैं. इन गाड़ियों से लड्डू, सेब, संतरे और तरह-तरह के फल बांटे जा रहे हैं. एक बड़े से पंडाल में पांच लोग सिर्फ प्याज काट रहे हैं. उसी पंडाल में कई अलग-अलग गुट अन्य सब्जियां काट रहे हैं. यहां मौजूद लोगों से न्यूज़लॉन्ड्री ने बात की. काली पगड़ी, सफेद कुर्ता पायजामा और आधे से ज्यादा सफेद हो चुकी लंबी दाढ़ी में बैठे चतर सिंह कहते हैं, "यह सब गुरु की कृपा है. ये लंगर आपने आप चल रहा है न हम किसी संस्था से जुड़े हैं और न ही हमें कहीं बाहर से पैसा मिल रहा है. इसमें सभी लोगों का सहयोग है. यह किसी एक का नहीं है. हमारे ही लोग पैसा इकट्ठा कर यह सब कर रहे हैं."

बीच में अन्य किसानों के साथ प्याज काटते चतर सिंह

पंजाब के फिरोजपुर से आए चतर सिंह आगे कहते हैं, "उनके पास अभी एक सप्ताह की सब्जियां पड़ी हुई हैं. आगे सब्जियां और आएंगी. यहा किसी तरह की खाने पीने की कोई परेशानी नहीं है. यह सभी सब्जियां पंजाब-हरियाणा और अन्य राज्यों से आ रही हैं. यहां पर कई हजार लोगों का रोजाना खाना बनता है. वह कहते हैं जब तक ये काले कृषि कानून वापस नहीं हो जाते हैं तब तक ये लंगर ऐसे ही चलता रहेगा. ये लंगर किसी एक का नहीं बल्कि सबका है."

मक्का की रोटी चने का साग

ऐसे ही एक अन्य कैंप पर मक्का की रोटी और चने का साग बन रहा है. साथ ही एक बड़ी कढ़ाई में लोगों के लिए केसर का दूध उबाला जा रहा है. जबकि कई महिलाएं रोटियां बना रही हैं. यहां मौजूद करनाल से आए सतनाम निर्मल बताते हैं, "यह हमारी अकेलों की लड़ाई नहीं है ये पूरे देश के किसानों की लड़ाई है. अगर इस कानून से किसानों पर फर्क पड़ेगा तो फिर सब पर पड़ेगा. हम लोग यहां आने जाने वाले लोगों के लिए खाना, दूध और बाकी जरूरतों को पूरा कर रहे हैं. हम आपस में ही पैसा जुटाकर ये सब कर पा रहे हैं. ताकि आने वाली पीढ़ियां सुकून से रह सकें. यह आंदोलन जितने दिन भी चलेगा तब तक यहां ऐसे ही लोगों को खाना खिलाते रहेंगे.”

चने का साग बनाते युवा

वो कहते हैं, "मक्का की रोटी और चने का साग और देशी घी हमारे यहां अच्छा खाना माना जाता है. हम मक्का की रोटी और चने का साग अपने घर पर भी खाते हैं. इसलिए हम किसान आंदोलन में आए लोगों को घर की तरह ही खाना परोस रहे हैं. ताकि किसी को अलग फील न हो. अच्छा खाएंगे तभी तो आगे की लड़ाई लड़ पाएंगे. लड़ाई जीतनी है तो अच्छा खाना खाना ही होगा."

केसर का दूध

“किसान नगर” में इस तरह के कई कैंप लगे हैं जहां लोगों को खाना खिलाया जा रहा है. खास बात यह है कि यहां कोई किसी का नेता नहीं है. सब अपने-अपने हिसाब से आंदोलन में हिस्सा ले रहे हैं. इस पर करनाल से आए राम अवतार कहते हैं, "आंदोलन में हिस्सा ले रहे लोग पढ़े लिखे हैं. सभी ने कृषि बिल पढ़ा है और सभी अपना अच्छा बुरा जानते हैं. इस आंदोलन को कोई लीड नहीं कर रहा है. यहां सब सबको लीड कर रहे हैं. हमारे ही बीच के कुछ लोग हैं जो सरकार से भी बात कर रहे हैं."

बिरयानी नहीं जर्दा है

अलग-अलग समुदायों के लोग भी यहां समाज सेवा के लिए जुट गए हैं. ऐसा ही एक स्टॉल यहां मुस्लिम समाज के लोगों ने लगाया है जहां खाने की व्यवस्था की गई है. करीब 25-30 लोगों का एक गुट यहां आने जाने वाले लोगों के लिए खाने-पीने की व्यवस्था कर रहा है. लंबी सी एक टेबल पर पानी, नमकीन चावल और जर्दा (मीठे चावल) आदि लोगों को खाने के लिए दिया जा रहा है. यहां चार देगों पर नमकीन चावल बनाने की तैयारी भी चल रही है.

इस पूरी व्यवस्था का संचालन कर रहे एडवोकेट मोबीन फारुकी कहते हैं, "हम पंजाब से हैं, और पहले दिन से ही किसानों के साथ हैं. मैं वकील हूं, किसान नहीं हूं लेकिन सरकार ने जो किसानों के साथ किया है उसके खिलाफ हूं. किसान अनाज पैदा करता है और हम खाते हैं. इसलिए हमें इतना एहसान फरामोश नहीं होना चाहिए कि आज अगर हमारा अन्नदाता परेशान है तो हम उसके साथ खड़े न हों."

बीच में साथियों संग एडवोकेट मोबीन फारुकी

वो आगे कहते हैं, "यह लड़ाई एक गरीब आदमी की है जिसकी थाली से रोटी छीनी जा रही है. किसान से उसकी फसल कम रेट पर खरीदकर जब यह आम आदमी तक पहुंचेगी, तब तक यह बहुत महंगी हो चुकी होगी. हो सकता है कि इससे भुखमरी भी बढ़ जाए और आम गरीब दो वक्त की रोटी से भी मोहताज हो जाए. इसलिए असल में यह लड़ाई गरीब आदमी के लिए है."

इतने सारे लोगों का खाना और इसकी पूरी व्यवस्था कैसे कर पा रहे हैं? इस सवाल पर वह कहते हैं, "हमारा एक एनजीओ है जिसका नाम है मुस्लिम फेडरेशन ऑफ पंजाब, इसके जरिए हम आपस में और आसपास के लोगों से पैसा इकट्ठा कर रहे हैं. और लोगों की खिदमत में लगे हैं."

वह बिल के बारे में कहते हैं, "इस बिल में बहुत सारी कमियां है इसमें सरकारी एजेंसियों को खत्म कर दिया गया है. अब जो फसल की खरीद करेंगी वह प्राइवेट एजेंसियां करेंगी. पहले किसान को लगता था कि उसकी फसल एमएसपी पर कम से कम सरकार तो खरीद ही लेगी. ऐसे ही इन्होंने पहले जिओ के साथ किया, पहले बिल्कुल फ्री कर दिया और जब बाद में इनके दस करोड़ ग्राहक हो गए तो पैसे लेने शुरू कर दिए. ऐसे ही अगर इन्होंने दो चार साल महंगी फसल खरीद भी ली और बाद में जब मंडी सिस्टम खत्म हो जाएगा, एमएसपी खत्म हो जाएगा और फिर कह दिया कि अब हम नहीं खरीदते तो क्या होगा. उसके बाद फसल को कम रेट पर बेचने के लिए किसानों पर दबाव बनाया जाएगा और इसके लिए मजबूर किया जाएगा. कुल मिलाकर कानून पढ़ने के बाद सीधे-सीधे यही समझ आता है कि यह उद्योगपतियों को ही लाभ पहुंचाने के लिए किया जा रहा है.

मीठे चावल (ज़र्दा) और नमकीन चावलों की देग

वह आगे कहते हैं, "खाना बनाने में डेढ़ से दो कुंतल चावल रोजाना लगता है. यहां किसान ही नहीं खा रहे हैं बल्कि जो यहां झोपड़ीपट्टी में रहने वाले लोग हैं वह भी रोजाना खाना खाते हैं. यहां किसी को भी खाने के लिए मनाही नहीं है.”

वहीं पर लोगों को खाना और पानी बांट रहे सुहैल बताते हैं, "हम पहले दिन से ही किसानों के साथ हैं. हम पहले यहां किसानों को फ्रूट्स खिलवा रहे थे लेकिन अब मीठे और नमकीन चावल खिलवा रहे हैं. एक दिन में 20 से 30 देग चावल बनता है. एक बार में एक देग में 15 किलो चावल लगते हैं. सुबह से शाम तक चावल बनते रहते हैं. यहां हमारी भट्टियों की आग तक नहीं बुझती है.”

इसी ग्रुप के बसीर आलम बताते हैं, "यहां हिंदू, मुस्लिम, सिख और ईसाई सभी साथ में हैं. हम सभी ने किसानों का साथ देने का फैसला किया है. जब किसान ही नहीं रहेगा तो हम कहां से रहेंगे. हम किसानों के फायदे के लिए यहां हैं. यह सभी सामान पंजाब से आ रहा है. और वहां से सामान आने के लिए हमारी गाड़ियां लगी हैं. जब तक किसानों को न्याय नहीं मिल जाता है तब तक हम यहीं उनकी सेवा में लगे रहेंगे. क्योंकि आज उन्हें हमारी जरूरत है.”

बसीर आलम

मेडिकल कैंप

किसान आंदोलन में बहुत सारे मेडिकल कैंप भी हैं, इन कैंपों पर दवाइयों के साथ-साथ टूथब्रश, टूथपेस्ट, तेल, साबुन, सर्फ, शैम्पू, पीने का पानी, टॉवल, जुराब, कंबल, गर्म कपड़े, तिरपाल और जरूरत के सभी सामान उपलब्ध हैं. यहां पर अलग-अलग बीमारियों के तीन-चार डॉक्टर्स भी उपलब्ध हैं.

यूनाइटेड सिख्स का कैंप

कैंप में लोगों की मदद में खड़े जसमीत सिंह कहते हैं, "हम यहां पहले दिन से हैं. हमें लगा कि लोग परेशान हैं और उन्हें हमारी जरूरत है तो हम यहां आ गए. हमारे पास तीन से चार डॉक्टर हर समय उपलब्ध हैं, जो लोगों को दवाइयां दे रहे हैं. यहां सिर दर्द, आखों में एलर्जी, इरिटेशन, पेट में दर्द, ब्लड प्रेशर और शुगर के मरीज ज्यादा आ रहे हैं. किसी को चोट लग जाती है तो वह भी आ जाते हैं. इसके अलावा अगर कोई इमरजेंसी केस होता है तो हम उसे आगे अस्पताल में रेफर कर देते हैं. अगर कुछ ज्यादा ही सीरियस केस है तो उसे पीजीआई भिजवा देते हैं. हमारा कई अस्पतालों के साथ संपर्क है. यहां दो एंबुलेंस भी हैं."

जसमीत सिंह

वह आगे कहते हैं, "उनकी 10 लोगों की टीम टीकरी बॉर्डर पर भी है और 20 से 25 लोगों की टीम सिंघु बॉर्डर पर है. हमारी संस्था युनाइटेड सिख, जाति से ऊपर उठकर काम करती है. चाहें वह उड़ीसा हो, महाराष्ट्र हो, कहीं बाढ़ हो या अन्य कोई आपदा हो, हम वहीं चले जाते हैं. जहां हमारी जरूरत है हम वहीं पर हैं. केरल, कर्नटक असम और नेपाल तक भी हम गए हैं. यह सब संगत की सपोर्ट से चलता है. लोग पैसा देते हैं. पंजाब, हरियाणा सब जगह से पैसा मिलता है. हमारे डोनर्स हैं जिसकी वजह से हम यह सब कर पा रहे हैं. लोग खुद ही कहते हैं कि आप अच्छा काम कर रहे हैं, हमारा भी कुछ शेयर डाल लीजिए."

उन्होंने बताया, "हम वॉलियंटर्स की तरह काम करते हैं. कभी मैं तो कभी परमिंदर सिंह तो कभी प्रीतम सिंह सभी लगे रहते हैं. हमारे खुद के भी कामकाज हैं, इसलिए किसी दिन कोई तो किसी दिन कोई और ये सब काम देखते हैं."

मेडिकल कैंप पर डॉक्टरों की टीम

वह कृषि बिल पर कहते हैं, "सरकार को आंदोलन कर रहे किसानों के साथ बातचीत करनी चाहिए. हम लोग चाहते हैं कि जल्दी से जल्दी इसका समाधान निकले. हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि हम किसी के सपोर्ट में नहीं हैं. लेकिन अगर किसानों की मांगे जायज हैं तो सरकार को माननी चाहिए. हमारा मकसद सिर्फ यहां लोगों की मदद करना है."

फ्री वाईफाई की व्यवस्था

किसानों को न्यूज़ देखने और मोबाइल में इंटरनेट से जुड़े रहने के लिए वाईफाई की व्यवस्था भी की गई है. आंदोलन में वाईफाई की व्यवस्था करने वाले अभिषेक जैन बताते हैं, "जब मैं इस आंदोलन में पहुंचा तो देखा कि यहां नेटवर्क का इश्यू बहुत ज्यादा था. इसकी वजह दिल्ली पुलिस द्वारा लगाए गए जैमर थे. इसके बाद मैंने किसानों को वाईफाई देने की योजना बनाई. यह सेवा आंदोलन के तीसरे दिन से ही चालू है."

किसान आंदोलन में फ्री वाईफाई

किसान आंदोलन में 200 एमबीपीएस की स्पीड के साथ 24 घंटे इंटरनेट की सुविधा है. वाईफाई फ्री देने के पीछे का क्या मकसद है इस पर अभिषेक कहते हैं, "लोग अपने आप को न्यूज से अपडेट रख सकें और किसान सोशल मीडिया पर अपनी बात रख सकें. साथ ही सरकार और किसान नेताओं के बीच क्या चल रहा है, आंदोलन करने वाले सभी किसानों के पास इसकी जानकारी नहीं है. वो इंटरनेट के माध्यम से मीडिया में आई खबरों को जान सकते हैं.”

कुछ बच्चे ऑनलाइन पढ़ाई कर रहे हैं उनकी पढ़ाई न रुके इसलिए भी इंटरनेट जरूरी है. यहां आए किसानों के रिश्तेदार घर से काफी दूर हैं. कोई अमृतसर से है तो कोई किसी और कोने से. किसान इंटरनेट के माध्यम से उनसे भी जुड़े रहें यह भी जरूरी है. वह वीडियो कॉल पर बात कर सकें ताकि उनके घर वालों और रिश्तेदारों को संतुष्टि रहे कि यहां सब ठीक है.

उन्होंने एक राउटर और चार हॉटस्पॉट पोर्टेबल डिवाइस लगाया है. बहुत ज्यादा लोड पड़ जाए तब तो वह स्लो हो जाता है वरना काफी तेजी से इंटरनेट चल रहा है. यह डाटा अनलिमिटेड है, यानी कोई भी, कितना भी इस्तेमाल कर सकता है. वहीं वाईफाई से कनेक्ट करने के लिए कोई पासवर्ड भी नहीं है. यूजर्स सिर्फ वाईफाई चलाने के लिए आपका अभिषेक नाम से कनेक्ट कर सकते हैं.

अभिषेक ने बताया कि सबकुछ मिलाकर उनका 25 से 30 हजार रुपए खर्च हुए हैं. इससे अलग छह से आठ हजार रुपए महीने का खर्चा है. अभिषेक एक एनजीओ भी चलाते हैं. जिसका नाम है अभिषेक जनशक्ति.

अभिषेक जैन

बसंत बिहार निवासी अभिषेक बताते हैं कि इसके अलावा उन्होंने तिरपाल भी लगा रखा है. जहां तिरपाल की जरूरत है वहां वह लोगों से मिलकर तिरपाल लगवा रहे हैं. जो किसान लोग वाईफाई कनेक्ट नहीं कर पा रहे हैं वह इसे कनेक्ट करवाने में भी उनकी मदद कर रहे हैं.

कृषि कानूनों पर अभिषेक कहते हैं, "सरकार ने जो कृषि कानून बनाए हैं इनमें कहीं न कहीं तो गड़बड़ है तभी इतने सारे किसान एक साथ सड़कों पर हैं. जब भी कोई कानून आता है तो वह लोगों के हित के लिए होना चाहिए. अगर नहीं है तो ऐसे कानून का क्या फायदा है. सरकार को अब किसानों की बात सुननी चाहिए और उनसे बात करके समाधान निकालना चाहिए. तभी इस आंदोलन का हल निकलेगा.”

दल्ली सरकार ने किसानों के लिए शौचालयों की भी व्यवस्था की हुई है. खास बात यह है कि महिलाओं और बच्चों के लिए अलग से व्यवस्था है. हालांकि ये शौचालय पर्याप्त नहीं हैं.

कंबल और जैकेट

दिन भर सिंघु बॉर्डर पर रहने के बाद जब हम अपने घर की ओर निकल रहे थे तभी वहां एक गाड़ी आती है और भीड़ में कंबल और जैकेट बांटने लगती है. लोग भी कंबल और जैकेट लेने के लिए दौड़ पड़ते है. इस गाड़ी पर मौजूद रविंद्र सिंह से हमने बात की. वह कहते हैं, "जब हम यहां आए थे तब ज्यादा ठंड नहीं थी. लेकिन अब ठंड काफी पड़ने लगी है. कई लोग ठंड के चलते बीमार हो रहे हैं. क्योंकि कुछ लोग घर से ज्यादा कपड़े लेकर नहीं आए थे. इसलिए हम ऐसे लोगों को गर्म कपड़े देकर उनकी मदद कर रहे हैं.

आंदोलन में समान बांटते लोग

वह कहते हैं, "हमारी कोई संस्था नहीं है हम लोगों ने आपस में ही पैसा इकट्ठा करके लोगों को मदद पहुंचाने की योजना बनाई है. इससे पहले हमने लोगों को खाना भी खिलवाया है. जिसको जैसी मदद हो रही है हम वैसी कर पा रहे हैं. हम तब तक यहां रहेंगे जब तक मोदी सरकार ये काले कानून वापस नहीं ले लेती. सरकार सोचती होगी कि यहां खाने पीने और ठंड की वजह से किसान अपने घर लौट जाएंगे तो ऐसा नहीं है. यहां गुरु की कृपा से सब है. जब तक कृषि कानून वापस नहीं हो जाते तब तक हम यहां से लौटने वाले नहीं हैं.”

कंबल लेने वाले बलकार सिंह कहते हैं, "वैसे तो उनके पास कपड़े हैं लेकिन ठंड लगातार बढ़ रही है इसलिए एक कंबल का साथ में होना जरूरी है. इसलिए मैंने यह कंबल लिया है. ताकि ठंड न लगे. हम यहां से जाने वाले नहीं हैं चाहें महीनों क्यों न लग जाएं. अब जब यहां तक आ गए हैं तो जाएंगे तो कानून वापस कराकर ही. चाहें जान क्यों न चली जाए."

शौचालयों की व्यवस्था

किसान आंदोलन में दिल्ली सरकार ने शौचालयों की व्यवस्था की है. हालांकि यह शौचालय आंदोलन से करीब एक किलोमीटर की दूरी पर हैं, इसलिए वहां महिलाओं को पहुंचने में थोड़ी परेशानी होती है. इसके चलते किसानों ने महिलाओं के लिए अलग से भी व्यवस्था की हुई है. रोड किनारे कुछ गेस्ट हाउस भी हैं, किसानों द्वारा उनका भी इस्तेमाल किया जा रहा है.

धरना स्थल के पास ही एक दुकान चलाने वाले हरियाणा कुंडली निवासी प्रमोद एक बड़ी सी तीन मंजिला इमारत दिखाते हुए कहते हैं, "इस बिल्डिंग में पहले एक कंपनी चलती थी. अब वह कंपनी भाग गई है उसके बाद से यह बंद पड़ा हुआ था. लेकिन जब से किसान आंदोलन शुरू हुआ है तो यह उनकी सुविधा के लिए खोल दिया है. उनका कहना है कि यहां करीब 200 लोगों के ठहरने की व्यवस्था है. किसी से कोई पैसा नहीं लिया जा रहा है. सब फ्री है. किसान आंदोलन के ज्यादातर सभी बड़े नेता यहीं ठहरते हैं. मीटिंग भी यहीं करते हैं."

हरियाणा कुंडली निवासी प्रमोद

वह कहते हैं, "इसके अलावा छह अन्य कमरे भी दे रखे हें जो कि महिलाओं के लिए हैं. महिलाओं के लिए अलग से शौचालय है. सबुह-सुबह आंदोलन की महिलाएं इधर आती हैं. यहां से नहा-धोकर वह दोबारा प्रदर्शन में चली जाती हैं. उनके लिए यहां साफ सफाई के साथ-साथ रहने की भी अच्छी व्यवस्था है.

इस पर दिल्ली निवासी अभिषेक जैन कहते हैं, "आंदोलन में शौचालयों की व्यवस्था केजरीवाल सरकार ने भी की हुई है. यहां पर बच्चों और महिलाओं के लिए अलग से व्यवस्था है. बच्चों और महिलाओं के शौचालयों पर अलग से लिखा भी हुआ है."

किसानों के लिए दिल्ली सरकार ने की शौचालयों की व्यवस्था

वह कहते हैं, "यहां शौचालयों की दस से ज्यादा गाड़िया हैं और एक गाड़ी में छह शौचालय हैं."

पूरा दिन “किसान नगर” घूमते-घूमते शाम हो चुकी थी. अब हमारे वापस लौटने का समय हो गया था. हमने इतना ही पाया कि एक छोटे से हिस्से में पूरा हिंदुस्तान अपनी असली पहचान के साथ उतर आया है. इसकी सामाजिकता, इसकी सामुदायिकता पूरे इत्मिनान के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ी हो गई है.

Also Read: किसान अगर खेती कर रहा है तो पत्रकार वहां क्‍या कर रहा है?

Also Read: किसान आंदोलन: 'तीनों कानूनों से होने वाले नुकसान जानने के 15 मिनट बाद हो गई मौत'