Newslaundry Hindi
शायद वहां एक आदमी था अपने ही तरीके से लड़ता हुआ…
इसी दिल्ली में रहते हुए मंगलेशजी को याद करना होगा किसी दिन, ये बात कभी ज़ेहन में आयी नहीं थी. ग़लती से भी. पड़ोस में रहते थे वे. बमुश्किल पांच किलोमीटर दूर. फोन पर तो दस सेकंड की दूरी थी बस. दो हफ्ते पहले ही विश्वमोहन बडोला गुज़रे थे. आनंद स्वरूप वर्मा ने सूचना देते हुए कहा, ‘’मंगलेश से लिखवाओ. उससे बेहतर कोई नहीं लिख सकता बडोलाजी पर.‘’ मैंने सकुचाते हुए फोन कर दिया. जानता था वे ना नुकुर करेंगे. मंगलेशजी जब मना करते थे तो उन्हें छेड़ने का जी करता था. एक बालसुलभ भाव से वे नखरा करते थे. झूठ भी बोलते थे. छोटे-छोटे झूठ, जो पकड़ में आ जाते. उस दिन उन्होंने झूठ नहीं बोला. फोन पर वे गंभीर थे. उनकी बेटी अल्मा की रिपोर्ट नेगेटिव आयी थी. वे अपनी रिपोर्ट का इंतज़ार कर रहे थे.
फाइनल रिपोर्ट कल आयी. वे नहीं रहे...
कोरोना पॉजिटिव आने से लेकर उनके एम्स जाने के बीच बहुत सी बातें आयीं, गयीं. योगी, निशंक, मनीष सिसोदिया से लेकर प्रियंका गांधी तक कुछ लोगों ने तार जोड़ने की कोशिश की. वसुंधरा वाला निजी अस्पताल बहुत खर्चीला था. ज़रूरत तो थी ही मदद की. बहुत से सक्षम लोगों ने की भी. मंगलेशजी बच जाते, अगर उन्होंने थोड़ा पहले एहतियात बरता होता. वे महीने भर से खांसी, बुखार से जूझ रहे थे. जब हालत बिगड़ी, तब जांच करवायी. चौदह दिन नहीं टिक सके. पिछले अवॉर्ड वापसी के अभियान में वे दिल में स्टेन्ट लगवाकर अस्पताल से वापस आये थे. इस बार की सर्दी भारी पड़ गयी.
मंगलेशजी के जाने का दुख किसे है? उनकी पीढ़ी के ज्यादातर कवि अब नहीं हैं. कुछ करीबी दोस्त हैं, कोई पांच दशक पुराने. जैसे असद ज़ैदी, आनंद स्वरूप वर्मा, त्रिनेत्र जोशी, सुरेश सलिल, पंकज बिष्ट. कुछ बाद की पीढ़ी के लेखक हैं. बाकी सबसे आखिरी गोले में हमारे जैसे मिड लाइफ़ क्राइसिस में फंसे लोग हैं, जो दो दशक से उन्हें जानने का दावा कर सकते हैं. हमारी पीढ़ी का संकट यह है कि न हम मित्र के रूप में उन्हें देखते हैं, न केवल कवि के रूप में. एक आना-जाना लगा रहता था कविता से सड़क तक मंगलेशजी के यहां. उसी आवाजाही में परिचिति के तार जुड़े. वो भी तुड़े-मुड़े.
याद पड़ता है कारखाने में चलने वाला जनसत्ता का पुराना दफ्तर, जहां मंगलेशजी से पहली मुलाकात हुई थी. उनकी कविताओं से मुलाकात पुरानी थी. मंगलेशजी को प्रत्यक्ष रूप से मैंने पहले पहल एक खिलाड़ी के रूप में जाना. जनसत्ता के कैंटीन और संपादकीय के बीच की खाली जगह पर टेबल टेनिस खेलने का इंतज़ाम होता था. वहीं उनसे भेंट होती थी रोज़. तब तक उनकी गंभीर कविता और उनकी हल्की देह के बीच कोई सम्बंध मैं नहीं खोज सका था.
वो तो एक दिन कवि पंकज सिंह (दिवंगत) का दफ्तर आना हुआ अचानक. वे और संपादक ओम थानवी एक साथ संपादकीय कक्ष में घुसे. पंकज सिंह दुशाला ओढ़े किसी महाकवि सा अहसास दे रहे थे. थानवीजी की कदकाठी तो संपादक की गवाही देती ही थी. पंकजजी की बुलंद आवाज़ सुनकर मंगलेशजी अपने कोने से निकल कर बाहर आये. इन तीनों की उपस्थिति में मेरे सामने एक अजीब सा विपर्यय कायम हुआ. मैंने मंगलेशजी के कवि को तब उनकी लघुता, विनम्रता, हकलाहट और प्रशांति में पाया.
मंगलेशजी व्यक्ति अलग थे. कवि अलग. एक होना मुश्किल होता है. इसी दिल्ली में बीते दो दशक में जितने कवियों के मैंने स्मृतिशेष लिखे हैं, उनमें अकेले त्रिलोचनजी के यहां ही ऐसा विरल साम्य मिलता है. इसके बावजूद बुनियादी मसलों पर मंगलेशजी की प्रतिबद्धता में कभी दोफांक नहीं दिखी. उनकी कविता अनिवार्यत: उदासी से निकलती थी, लेकिन हर बैठक से ठीक पहले दगी सिगरेट से निकलता धुआं उनकी बेचैनी की गवाही देता था.
वे बीते अप्रैल में काफी बेचैन थे, जब मजदूर अचानक थोपे गये लॉकडाउन के बाद आपाधापी में शहरों से अपने घर जा रहे थे. दूसरे हफ्ते में उन्होंने बहुत से लेखकों को एक मेल भेजा. मेल में एक नोट लगा था. नोट में अपील की गयी थी कि सभी अपने-अपने सामर्थ्य से वामपंथी नेताओं तक यह बात पहुंचाएं कि उन्हें मजदूरों के बीच अब जाने की ज़रूरत है. उनकी अपील को केवल देवी प्रसाद मिश्र ने एन्डोर्स किया.
जो लोग दिल्ली के हिंदीभाषी प्रगतिशील वृत्त को ज्यादा नहीं जानते, वे मंगलेश डबराल को कम्युनिस्ट या वामपंथी या ऐसा ही कुछ मानते हैं. साहित्य अकादमी का अवॉर्ड लौटाने के बाद उनकी यह छवि और मजब़ूत हुई जबकि पुरस्कार लौटाने वाले लेखक तो दर्जनों थे. धारणा और वास्तविकता में फ़र्क होता है. दरअसल, मंगलेशजी हर उस मंच पर मौजूद रहे जहां से धारणा बनती थी. वाम लेखक संगठन जन संस्कृति मंच में तो वे आजीवन रहे. इसके अलावा पिछले वर्षों में वे ‘’कविता: 16 मई के बाद’’ नामक एक अल्पजीवी अभियान के केंद्र में रहे. उन्होंने 2014 में बाबरी विध्वंस की बरसी पर जेएनयू में जाकर कविता पढ़ी. उन्होंने वरवर राव के साथ प्रगति मैदान में कविता पढ़ी. केनियाई लेखक न्गूगी वा थोंगो जब दिल्ली आये तब भी मंगलेशजी पूरे उत्साह के साथ वहां मौजूद रहे.
वे हर उस जगह पर रहे जहां से धारणा बनती थी. यहां तक कि वे संघ के इकलौते ‘विचारक’ राकेश सिन्हा के बुलावे पर उनके मंच पर भी गये. इससे उनके प्रति एक उलट धारणा बनी और जनसत्ता में ‘’आवाजाही के लोकतंत्र’’ पर लंबी बहस चली. बीते बरसों में बहुत कुछ मंगलेशजी के इर्द-गिर्द हुआ, लेकिन मंगलेशजी वास्तव में कहीं थे नहीं. वे काफलपानी की किसी पहाड़ी पर अपनी लालटेन जलाये बैठे थे. उनकी रोशनी वहां से आ रही थी. शायद यही वजह है कि मंगलेशजी ‘लोकप्रिय’ नहीं हुए. दर्जन भर मित्रों के एक खित्ते में सिमट के रह गये. शायद काफी देर से उन्हें इस बात का अहसास हुआ कि उन्हें पंख फैलाने चाहिए. विदेशी भाषाओं में उनकी कविताओं का अनुवाद और एकाध यात्राएं आदि इससे निकल कर आयीं. कुछ लोग तो यह भी मानते हैं कि वे साहित्य के नोबेल की उम्मीद पाल बैठे थे.
इसी बीच उनकी आखिरी व्यापक चर्चा का सबब बनी अरुंधति राय की किताब, जिसका उन्होंने खींचतान करके अनुवाद पूरा किया. अरुंधति राय के साथ उनका नाम अनुवादक के रूप में जुड़ा, तो इससे भी एक धारणा बनी. पहले वाली धारणा पुष्ट हुई. इस अनुवाद की अंतकर्था कभी और, या शायद उसकी अब ज़रूरत ही न पड़े, लेकिन याद आती है बरसों पहले इंडिया हैबिटेट सेंटर की वो शाम जब मंगलेशजी को भरी सभा में अपना परिचय देना पड़ा था.
उस शाम हिंदी का यह बड़ा कवि अरुंधति राय और उस अंग्रेज़ीदां तबके के सामने किंकर्तव्यविमूढ़ सा था. अरुंधति की ‘’एन ऑर्डिनरी पर्संस गाइड टू एंपायर’’ के लोकार्पण का मौका था. प्रश्नों के सत्र में मंगलेशजी बालसुलभ उत्साह से सवाल करने उठे. उन्होंने पहला वाक्य बोला ही था कि संचालक ने उनसे परिचय मांग लिया. मंगलेशजी ने अपना नाम बताते हुए कहा- आइ एम ए हिंदी पोएट- और फिर अपना सवाल पूछा. सवाल ठीक से याद नहीं, लेकिन अरुंधति ने उसका जवाब कुछ यूं दिया जैसे मखौल उड़ाते हुए बेगार टाल रही हों. उसी सभा में अरुंधति ने कहा था कि वे हिंदी के पत्रकारों को इंटरव्यू नहीं देती हैं. बाद में बाहर निकलते हुए मंगलेशजी बोले थे- ये तो बहुत एरोगेंट है.
मंगलेशजी लंबे समय तक संपादक रहे- जनसत्ता और सहारा समय साप्ताहिक से लेकर पब्लिक एजेंडा तक. शायद वे ऐसे कुछेक भाग्यशाली कवियों में रहे जो रिटायरमेंट तक नौकरी करते रहे. कविता के पीछे उनका पत्रकारिता वाला पहलू अकसर छुप जाता है, जिसके बारे में उनके साथ काम किये बहुत से लोगों की धारणा वही है जो उनकी उस शाम अरुंधति राय के बारे में थी. मंगलेशजी का संपादन बेजोड़ था, लेकिन एक सहकर्मी के बतौर उनका एरोगेंस भी ख्यात है. यह एरोगेंस कहां से आता था? जिस कवि को अपनी कविता में नुकीली चीज़ों से परहेज़ हो, उसका व्यक्तित्व नुकीला कैसे हो सकता है?
ऐसे सवालों के जवाब निजी और पेशेवर जिंदगी की जद्दोजेहद में कहीं गहरे फंसे होते हैं. मंगलेशजी खुद कहते हैं, ‘…मुझे होना चाहिए एक ठूंठ / जो खुशी से फूल नहीं जाता / मुरझाता नहीं / पाला पड़ने पर रंग नहीं बदलता / रह लेता है कहीं भी / गहरी सांस लेता हुआ.’ (पत्ता)
शायद यह एक प्यारे-कोमल पत्ते और ठूंठ का गहरा द्वंद्व था जिसके चलते वे बहुत जल्दी किसी बात पर पिनक जाते थे. जैसा मैंने शुरू में बताया, उन्हें छेड़ने में मज़ा आता था. वे अपनी बात को साबित करने के लिए फेसबुक पर लिखकर लंबी-लंबी बहस करते और फिर एक झटके में निस्पृह होकर निकल लेते. वे नाराज़ होते, लेकिन अगली बार मिलने पर भूल जाते थे कि वे नाराज़ हुए थे. मेरे साथ ऐसा कई बार हुआ. कई बार उन्होंने कई मसलों पर जवाब ही नहीं दिया, चुप लगा गये. बाद में पूछने पर धुआं उड़ाते हुए कहते, “उस पर क्या बात करनी!” मंगलेश डबराल को बात करते हुए देखना कभी उत्साहित नहीं करता था. वे गाते हुए देखे जाने लायक मनुष्य थे.
प्रेस क्लब की एक शाम, शायद ऐसी ही सर्दियों में या इससे भी कड़क, जब उन्होंने राग यमन में “किनारे किनारे किनारे दरिया, कश्ती बांधो’’ की धुन छेड़ी थी, तो वहां न पत्ता था न ठूंठ. वह विशुद्ध मंगलेश डबराल थे. निर्द्वंद्व. गोया अपने पुरखों से आदिम ध्वनियों को खींचते, सान पर चढ़ाते और “…चन्द्रमा तक अपनी आवाज़ उठाने की कोशिश करते हुए / आधी-अधूरी वह जैसी भी हो वही है जीवन की बची हुई मिठास’’ (राग शुद्ध कल्याण).
मंगलेशजी को गाते सुनना उनके व्यक्तित्व से जुड़ा सबसे सुखद अनुभव था. उनकी ‘संगतकार’ कविता संगीत पर उनकी ज़हनियत की गवाह है. राग मारवा हो या शुद्ध कल्याण, इन पर कविता लिखना उनके लिए कुछ ज्यादा यथार्थ बनते हुए यथार्थ से बचकर भाग निकलने का एक रास्ता था.
मंगलेश डबराल बाहर जो भी थे, भीतर से एकदम रुई का फाहा थे. वे क्रांतिकारी नहीं थे. वे कवि थे और कविता को पोसना जानते थे. कविता को पोसना, जैसे किसी मुर्गी की तरह देह की गर्मी से अंडे को सेना, जैसे अफसुरदा अफसुरदा पकता मांस. ऐसे कवि अब कम बच रहे हैं. ऐसे आलोक धन्वा याद आते हैं. वो पकाते थे कविता को. इस शोरशराबे वाली दुनिया में कविता को पालने के लिए मोहलत चाहिए और जगह भी. इसीलिए वे बार-बार मन ही मन पहाड़ में भाग जाते थे. दिमाग तो वे पहाड़ में ही छोड़ आये थे, उन्होंने लिखा ही था. वे दुखी रहते थे. जाने किस अदृश्य दुख से. जैसे पहाड़ों को कोई दुख घेरे रहता हो दिन भर, जिसके बोझ से वे हिल नहीं पाते. और फिर कहते थे, कि सब ठीक है.
मंगलेश डबराल जितने जटिल दिखते हैं, शायद उतने थे नहीं. किसी को जानने-समझने के लिए एक उम्र भी कम होती है, लेकिन कुछ वाकये ऐसे होते हैं जो आपको आश्वस्त करते हैं. एक दिन उन्होंने फेसबुक पर एक वाक्य लिखा, ‘’अवसाद है तो समझो कि दुनिया ठीक चल रही है‘’. मेरी निगाह पड़ी. मैंने फ़ोन लगा दिया. अर्थ और संदर्भ पूछ लिया. उस दिन उन्होंने बहुत लंबी बात की. बहुत देर तक समझाते रहे. जैसे खुद को ही समझा रहे हों. फिर कहा, “ठीक है, मिलते हैं तो इस पर बात करते हैं.” उसके बाद कोई दो-तीन दिन तक मैंने मंगलेश डबराल नाम के व्यक्ति और कवि के बारे में पहली और आखिरी बार व्यवस्थित ढंग से सोचा. उन्हें लगातार पढ़ा. फिर निचोड़ कर लिखा- “मंगलेश डबराल को पढ़ते हुए’’!
बरसों पहले का यह लिखा शायद आज ही के लिए अब तक दबा रहा होगा. मंगलेशजी तो अब नहीं हैं. होते, तो पढ़ लेते और फिर से दो महीने के लिए नाराज़ हो जाते. खैर, नुकीले नहीं थे वे. बिलकुल नहीं. फिर भूल जाते. फिर मान जाते.
(मंगलेश डबराल को पढ़ते हुए)
"अवसाद है तो समझो कि दुनिया ठीक चल रही है"
लिखता है हमारा कवि फेसबुक पर
रिल्के को याद करते हुए
अपने मन की बात.
मैं सोचता हूं
दुनिया ठीक चल रही है तो अवसाद क्यों है.
मैं पूछता हूं यही बात अपने कवि से फोन पर
और वो हंस देता है.
ज़ोर से नहीं, आदतन बार-बार बोलता है
समझाता है संदर्भ
पढ़ने को कहता है रिल्के की चिट्ठियां
एक युवा कवि के नाम.
यह बात आठवीं चिट्ठी में दर्ज है
जिसे लिखे एक सदी से ज्यादा वक्त बीत चुका.
कवि का अवसाद पुराना है
दुनिया उससे भी पुरानी है
और "सब कुछ ठीक है" यह वाक्य
इन सबसे ज्यादा पुराना.
पुरानी चिट्ठियों में
पुराने कवियों में
पुरानी बातों में
नए अवसाद के सूत्र खोजना
हमारे कवि का रोमांस है.
उसके पास एक आदिम टॉर्च है
जो अपनी रोशनी और उस पर दादी-पिता के संवाद के साथ
खिंची आती है
इस दुनिया और कविता की विडम्बनाओं तक.
उसे नुकीली चीज़ों से नफ़रत है
इसीलिए वह हमारा कवि है क्रांतिकारी नहीं.
हमारी अपेक्षा और उसके कवित्व में फ़र्क
ही वह जगह है
जिसे वह आवाज़ कहता है.
अपनी सारी हकलाहटों के बावजूद
वही हमारा कवि है
यह मानने में मुझे
कोई गुरेज़ नहीं.
(लेख का शीर्षक मंगलेश डबराल की कविता ‘एक जीवन के लिए’ से उद्धृत)
इसी दिल्ली में रहते हुए मंगलेशजी को याद करना होगा किसी दिन, ये बात कभी ज़ेहन में आयी नहीं थी. ग़लती से भी. पड़ोस में रहते थे वे. बमुश्किल पांच किलोमीटर दूर. फोन पर तो दस सेकंड की दूरी थी बस. दो हफ्ते पहले ही विश्वमोहन बडोला गुज़रे थे. आनंद स्वरूप वर्मा ने सूचना देते हुए कहा, ‘’मंगलेश से लिखवाओ. उससे बेहतर कोई नहीं लिख सकता बडोलाजी पर.‘’ मैंने सकुचाते हुए फोन कर दिया. जानता था वे ना नुकुर करेंगे. मंगलेशजी जब मना करते थे तो उन्हें छेड़ने का जी करता था. एक बालसुलभ भाव से वे नखरा करते थे. झूठ भी बोलते थे. छोटे-छोटे झूठ, जो पकड़ में आ जाते. उस दिन उन्होंने झूठ नहीं बोला. फोन पर वे गंभीर थे. उनकी बेटी अल्मा की रिपोर्ट नेगेटिव आयी थी. वे अपनी रिपोर्ट का इंतज़ार कर रहे थे.
फाइनल रिपोर्ट कल आयी. वे नहीं रहे...
कोरोना पॉजिटिव आने से लेकर उनके एम्स जाने के बीच बहुत सी बातें आयीं, गयीं. योगी, निशंक, मनीष सिसोदिया से लेकर प्रियंका गांधी तक कुछ लोगों ने तार जोड़ने की कोशिश की. वसुंधरा वाला निजी अस्पताल बहुत खर्चीला था. ज़रूरत तो थी ही मदद की. बहुत से सक्षम लोगों ने की भी. मंगलेशजी बच जाते, अगर उन्होंने थोड़ा पहले एहतियात बरता होता. वे महीने भर से खांसी, बुखार से जूझ रहे थे. जब हालत बिगड़ी, तब जांच करवायी. चौदह दिन नहीं टिक सके. पिछले अवॉर्ड वापसी के अभियान में वे दिल में स्टेन्ट लगवाकर अस्पताल से वापस आये थे. इस बार की सर्दी भारी पड़ गयी.
मंगलेशजी के जाने का दुख किसे है? उनकी पीढ़ी के ज्यादातर कवि अब नहीं हैं. कुछ करीबी दोस्त हैं, कोई पांच दशक पुराने. जैसे असद ज़ैदी, आनंद स्वरूप वर्मा, त्रिनेत्र जोशी, सुरेश सलिल, पंकज बिष्ट. कुछ बाद की पीढ़ी के लेखक हैं. बाकी सबसे आखिरी गोले में हमारे जैसे मिड लाइफ़ क्राइसिस में फंसे लोग हैं, जो दो दशक से उन्हें जानने का दावा कर सकते हैं. हमारी पीढ़ी का संकट यह है कि न हम मित्र के रूप में उन्हें देखते हैं, न केवल कवि के रूप में. एक आना-जाना लगा रहता था कविता से सड़क तक मंगलेशजी के यहां. उसी आवाजाही में परिचिति के तार जुड़े. वो भी तुड़े-मुड़े.
याद पड़ता है कारखाने में चलने वाला जनसत्ता का पुराना दफ्तर, जहां मंगलेशजी से पहली मुलाकात हुई थी. उनकी कविताओं से मुलाकात पुरानी थी. मंगलेशजी को प्रत्यक्ष रूप से मैंने पहले पहल एक खिलाड़ी के रूप में जाना. जनसत्ता के कैंटीन और संपादकीय के बीच की खाली जगह पर टेबल टेनिस खेलने का इंतज़ाम होता था. वहीं उनसे भेंट होती थी रोज़. तब तक उनकी गंभीर कविता और उनकी हल्की देह के बीच कोई सम्बंध मैं नहीं खोज सका था.
वो तो एक दिन कवि पंकज सिंह (दिवंगत) का दफ्तर आना हुआ अचानक. वे और संपादक ओम थानवी एक साथ संपादकीय कक्ष में घुसे. पंकज सिंह दुशाला ओढ़े किसी महाकवि सा अहसास दे रहे थे. थानवीजी की कदकाठी तो संपादक की गवाही देती ही थी. पंकजजी की बुलंद आवाज़ सुनकर मंगलेशजी अपने कोने से निकल कर बाहर आये. इन तीनों की उपस्थिति में मेरे सामने एक अजीब सा विपर्यय कायम हुआ. मैंने मंगलेशजी के कवि को तब उनकी लघुता, विनम्रता, हकलाहट और प्रशांति में पाया.
मंगलेशजी व्यक्ति अलग थे. कवि अलग. एक होना मुश्किल होता है. इसी दिल्ली में बीते दो दशक में जितने कवियों के मैंने स्मृतिशेष लिखे हैं, उनमें अकेले त्रिलोचनजी के यहां ही ऐसा विरल साम्य मिलता है. इसके बावजूद बुनियादी मसलों पर मंगलेशजी की प्रतिबद्धता में कभी दोफांक नहीं दिखी. उनकी कविता अनिवार्यत: उदासी से निकलती थी, लेकिन हर बैठक से ठीक पहले दगी सिगरेट से निकलता धुआं उनकी बेचैनी की गवाही देता था.
वे बीते अप्रैल में काफी बेचैन थे, जब मजदूर अचानक थोपे गये लॉकडाउन के बाद आपाधापी में शहरों से अपने घर जा रहे थे. दूसरे हफ्ते में उन्होंने बहुत से लेखकों को एक मेल भेजा. मेल में एक नोट लगा था. नोट में अपील की गयी थी कि सभी अपने-अपने सामर्थ्य से वामपंथी नेताओं तक यह बात पहुंचाएं कि उन्हें मजदूरों के बीच अब जाने की ज़रूरत है. उनकी अपील को केवल देवी प्रसाद मिश्र ने एन्डोर्स किया.
जो लोग दिल्ली के हिंदीभाषी प्रगतिशील वृत्त को ज्यादा नहीं जानते, वे मंगलेश डबराल को कम्युनिस्ट या वामपंथी या ऐसा ही कुछ मानते हैं. साहित्य अकादमी का अवॉर्ड लौटाने के बाद उनकी यह छवि और मजब़ूत हुई जबकि पुरस्कार लौटाने वाले लेखक तो दर्जनों थे. धारणा और वास्तविकता में फ़र्क होता है. दरअसल, मंगलेशजी हर उस मंच पर मौजूद रहे जहां से धारणा बनती थी. वाम लेखक संगठन जन संस्कृति मंच में तो वे आजीवन रहे. इसके अलावा पिछले वर्षों में वे ‘’कविता: 16 मई के बाद’’ नामक एक अल्पजीवी अभियान के केंद्र में रहे. उन्होंने 2014 में बाबरी विध्वंस की बरसी पर जेएनयू में जाकर कविता पढ़ी. उन्होंने वरवर राव के साथ प्रगति मैदान में कविता पढ़ी. केनियाई लेखक न्गूगी वा थोंगो जब दिल्ली आये तब भी मंगलेशजी पूरे उत्साह के साथ वहां मौजूद रहे.
वे हर उस जगह पर रहे जहां से धारणा बनती थी. यहां तक कि वे संघ के इकलौते ‘विचारक’ राकेश सिन्हा के बुलावे पर उनके मंच पर भी गये. इससे उनके प्रति एक उलट धारणा बनी और जनसत्ता में ‘’आवाजाही के लोकतंत्र’’ पर लंबी बहस चली. बीते बरसों में बहुत कुछ मंगलेशजी के इर्द-गिर्द हुआ, लेकिन मंगलेशजी वास्तव में कहीं थे नहीं. वे काफलपानी की किसी पहाड़ी पर अपनी लालटेन जलाये बैठे थे. उनकी रोशनी वहां से आ रही थी. शायद यही वजह है कि मंगलेशजी ‘लोकप्रिय’ नहीं हुए. दर्जन भर मित्रों के एक खित्ते में सिमट के रह गये. शायद काफी देर से उन्हें इस बात का अहसास हुआ कि उन्हें पंख फैलाने चाहिए. विदेशी भाषाओं में उनकी कविताओं का अनुवाद और एकाध यात्राएं आदि इससे निकल कर आयीं. कुछ लोग तो यह भी मानते हैं कि वे साहित्य के नोबेल की उम्मीद पाल बैठे थे.
इसी बीच उनकी आखिरी व्यापक चर्चा का सबब बनी अरुंधति राय की किताब, जिसका उन्होंने खींचतान करके अनुवाद पूरा किया. अरुंधति राय के साथ उनका नाम अनुवादक के रूप में जुड़ा, तो इससे भी एक धारणा बनी. पहले वाली धारणा पुष्ट हुई. इस अनुवाद की अंतकर्था कभी और, या शायद उसकी अब ज़रूरत ही न पड़े, लेकिन याद आती है बरसों पहले इंडिया हैबिटेट सेंटर की वो शाम जब मंगलेशजी को भरी सभा में अपना परिचय देना पड़ा था.
उस शाम हिंदी का यह बड़ा कवि अरुंधति राय और उस अंग्रेज़ीदां तबके के सामने किंकर्तव्यविमूढ़ सा था. अरुंधति की ‘’एन ऑर्डिनरी पर्संस गाइड टू एंपायर’’ के लोकार्पण का मौका था. प्रश्नों के सत्र में मंगलेशजी बालसुलभ उत्साह से सवाल करने उठे. उन्होंने पहला वाक्य बोला ही था कि संचालक ने उनसे परिचय मांग लिया. मंगलेशजी ने अपना नाम बताते हुए कहा- आइ एम ए हिंदी पोएट- और फिर अपना सवाल पूछा. सवाल ठीक से याद नहीं, लेकिन अरुंधति ने उसका जवाब कुछ यूं दिया जैसे मखौल उड़ाते हुए बेगार टाल रही हों. उसी सभा में अरुंधति ने कहा था कि वे हिंदी के पत्रकारों को इंटरव्यू नहीं देती हैं. बाद में बाहर निकलते हुए मंगलेशजी बोले थे- ये तो बहुत एरोगेंट है.
मंगलेशजी लंबे समय तक संपादक रहे- जनसत्ता और सहारा समय साप्ताहिक से लेकर पब्लिक एजेंडा तक. शायद वे ऐसे कुछेक भाग्यशाली कवियों में रहे जो रिटायरमेंट तक नौकरी करते रहे. कविता के पीछे उनका पत्रकारिता वाला पहलू अकसर छुप जाता है, जिसके बारे में उनके साथ काम किये बहुत से लोगों की धारणा वही है जो उनकी उस शाम अरुंधति राय के बारे में थी. मंगलेशजी का संपादन बेजोड़ था, लेकिन एक सहकर्मी के बतौर उनका एरोगेंस भी ख्यात है. यह एरोगेंस कहां से आता था? जिस कवि को अपनी कविता में नुकीली चीज़ों से परहेज़ हो, उसका व्यक्तित्व नुकीला कैसे हो सकता है?
ऐसे सवालों के जवाब निजी और पेशेवर जिंदगी की जद्दोजेहद में कहीं गहरे फंसे होते हैं. मंगलेशजी खुद कहते हैं, ‘…मुझे होना चाहिए एक ठूंठ / जो खुशी से फूल नहीं जाता / मुरझाता नहीं / पाला पड़ने पर रंग नहीं बदलता / रह लेता है कहीं भी / गहरी सांस लेता हुआ.’ (पत्ता)
शायद यह एक प्यारे-कोमल पत्ते और ठूंठ का गहरा द्वंद्व था जिसके चलते वे बहुत जल्दी किसी बात पर पिनक जाते थे. जैसा मैंने शुरू में बताया, उन्हें छेड़ने में मज़ा आता था. वे अपनी बात को साबित करने के लिए फेसबुक पर लिखकर लंबी-लंबी बहस करते और फिर एक झटके में निस्पृह होकर निकल लेते. वे नाराज़ होते, लेकिन अगली बार मिलने पर भूल जाते थे कि वे नाराज़ हुए थे. मेरे साथ ऐसा कई बार हुआ. कई बार उन्होंने कई मसलों पर जवाब ही नहीं दिया, चुप लगा गये. बाद में पूछने पर धुआं उड़ाते हुए कहते, “उस पर क्या बात करनी!” मंगलेश डबराल को बात करते हुए देखना कभी उत्साहित नहीं करता था. वे गाते हुए देखे जाने लायक मनुष्य थे.
प्रेस क्लब की एक शाम, शायद ऐसी ही सर्दियों में या इससे भी कड़क, जब उन्होंने राग यमन में “किनारे किनारे किनारे दरिया, कश्ती बांधो’’ की धुन छेड़ी थी, तो वहां न पत्ता था न ठूंठ. वह विशुद्ध मंगलेश डबराल थे. निर्द्वंद्व. गोया अपने पुरखों से आदिम ध्वनियों को खींचते, सान पर चढ़ाते और “…चन्द्रमा तक अपनी आवाज़ उठाने की कोशिश करते हुए / आधी-अधूरी वह जैसी भी हो वही है जीवन की बची हुई मिठास’’ (राग शुद्ध कल्याण).
मंगलेशजी को गाते सुनना उनके व्यक्तित्व से जुड़ा सबसे सुखद अनुभव था. उनकी ‘संगतकार’ कविता संगीत पर उनकी ज़हनियत की गवाह है. राग मारवा हो या शुद्ध कल्याण, इन पर कविता लिखना उनके लिए कुछ ज्यादा यथार्थ बनते हुए यथार्थ से बचकर भाग निकलने का एक रास्ता था.
मंगलेश डबराल बाहर जो भी थे, भीतर से एकदम रुई का फाहा थे. वे क्रांतिकारी नहीं थे. वे कवि थे और कविता को पोसना जानते थे. कविता को पोसना, जैसे किसी मुर्गी की तरह देह की गर्मी से अंडे को सेना, जैसे अफसुरदा अफसुरदा पकता मांस. ऐसे कवि अब कम बच रहे हैं. ऐसे आलोक धन्वा याद आते हैं. वो पकाते थे कविता को. इस शोरशराबे वाली दुनिया में कविता को पालने के लिए मोहलत चाहिए और जगह भी. इसीलिए वे बार-बार मन ही मन पहाड़ में भाग जाते थे. दिमाग तो वे पहाड़ में ही छोड़ आये थे, उन्होंने लिखा ही था. वे दुखी रहते थे. जाने किस अदृश्य दुख से. जैसे पहाड़ों को कोई दुख घेरे रहता हो दिन भर, जिसके बोझ से वे हिल नहीं पाते. और फिर कहते थे, कि सब ठीक है.
मंगलेश डबराल जितने जटिल दिखते हैं, शायद उतने थे नहीं. किसी को जानने-समझने के लिए एक उम्र भी कम होती है, लेकिन कुछ वाकये ऐसे होते हैं जो आपको आश्वस्त करते हैं. एक दिन उन्होंने फेसबुक पर एक वाक्य लिखा, ‘’अवसाद है तो समझो कि दुनिया ठीक चल रही है‘’. मेरी निगाह पड़ी. मैंने फ़ोन लगा दिया. अर्थ और संदर्भ पूछ लिया. उस दिन उन्होंने बहुत लंबी बात की. बहुत देर तक समझाते रहे. जैसे खुद को ही समझा रहे हों. फिर कहा, “ठीक है, मिलते हैं तो इस पर बात करते हैं.” उसके बाद कोई दो-तीन दिन तक मैंने मंगलेश डबराल नाम के व्यक्ति और कवि के बारे में पहली और आखिरी बार व्यवस्थित ढंग से सोचा. उन्हें लगातार पढ़ा. फिर निचोड़ कर लिखा- “मंगलेश डबराल को पढ़ते हुए’’!
बरसों पहले का यह लिखा शायद आज ही के लिए अब तक दबा रहा होगा. मंगलेशजी तो अब नहीं हैं. होते, तो पढ़ लेते और फिर से दो महीने के लिए नाराज़ हो जाते. खैर, नुकीले नहीं थे वे. बिलकुल नहीं. फिर भूल जाते. फिर मान जाते.
(मंगलेश डबराल को पढ़ते हुए)
"अवसाद है तो समझो कि दुनिया ठीक चल रही है"
लिखता है हमारा कवि फेसबुक पर
रिल्के को याद करते हुए
अपने मन की बात.
मैं सोचता हूं
दुनिया ठीक चल रही है तो अवसाद क्यों है.
मैं पूछता हूं यही बात अपने कवि से फोन पर
और वो हंस देता है.
ज़ोर से नहीं, आदतन बार-बार बोलता है
समझाता है संदर्भ
पढ़ने को कहता है रिल्के की चिट्ठियां
एक युवा कवि के नाम.
यह बात आठवीं चिट्ठी में दर्ज है
जिसे लिखे एक सदी से ज्यादा वक्त बीत चुका.
कवि का अवसाद पुराना है
दुनिया उससे भी पुरानी है
और "सब कुछ ठीक है" यह वाक्य
इन सबसे ज्यादा पुराना.
पुरानी चिट्ठियों में
पुराने कवियों में
पुरानी बातों में
नए अवसाद के सूत्र खोजना
हमारे कवि का रोमांस है.
उसके पास एक आदिम टॉर्च है
जो अपनी रोशनी और उस पर दादी-पिता के संवाद के साथ
खिंची आती है
इस दुनिया और कविता की विडम्बनाओं तक.
उसे नुकीली चीज़ों से नफ़रत है
इसीलिए वह हमारा कवि है क्रांतिकारी नहीं.
हमारी अपेक्षा और उसके कवित्व में फ़र्क
ही वह जगह है
जिसे वह आवाज़ कहता है.
अपनी सारी हकलाहटों के बावजूद
वही हमारा कवि है
यह मानने में मुझे
कोई गुरेज़ नहीं.
(लेख का शीर्षक मंगलेश डबराल की कविता ‘एक जीवन के लिए’ से उद्धृत)
Also Read
-
4 ml of poison, four times a day: Inside the Coldrif tragedy that claimed 17 children
-
Delhi shut its thermal plants, but chokes from neighbouring ones
-
Hafta x South Central feat. Josy Joseph: A crossover episode on the future of media
-
Encroachment menace in Bengaluru locality leaves pavements unusable for pedestrians
-
Cuttack on edge after violent clashes