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कॉरपोरेट को बैंक खोलने देना मूर्खतापूर्ण कदम!

भारतीय रिज़र्व बैंक (आरबीआई) ने हाल ही में बैंक स्‍वामित्‍व पर दिशानिर्देशों से सम्‍बंधित अपने एक आंतरिक कार्य समूह (आईडब्‍ल्यूजी) की रिपोर्ट जारी की है. रिज़र्व बैंक अपने नियमों की आवधिक समीक्षा करता रहता है. इस लिहाज से कार्य समूह ने अपना नियमित काम ही किया है, लेकिन इसने जो सबसे अहम सिफारिश इस बार की है वह तमाम तकनीकी नियमनों और बंदिशों से घिरे होने के बावजूद किसी बम से कम नहीं है: बैंकिंग क्षेत्र में भारतीय कॉरपोरेट प्रतिष्‍ठानों के प्रवेश का प्रस्‍ताव. इस प्रस्‍ताव में भले कई शर्तें जोड़ी गयी हैं, लेकिन यह एक अहम सवाल को जन्‍म देता है: अभी ही क्‍यों? क्‍या अचानक ऐसा कुछ इलहाम हुआ है जो हमें बैंकिंग में औद्योगिक प्रतिष्‍ठानों के प्रवेश से जुड़ी तमाम पूर्व चेतावनियों की उपेक्षा करने की छूट देता हो? हमारे ख्याल से ऐसा कुछ नहीं हुआ है. इसके बजाय आज की तारीख में यह कहीं ज्‍यादा अहम होगा कि हम बैंकिंग में कॉरपोरेट दखल की पहले से आज़मायी और परखी जा चुकी सीमाओं तक खुद को महदूद रखें.

दुनिया के तमाम दूसरे हिस्‍सों की तरह भारत में भी बैंकों को शायद ही कभी नाकाम होने दिया जाता हो- हाल में येस बैंक और लक्ष्‍मीविलास बैंक के मामले इसका उदाहरण हैं. यही वजह है कि अधिसूचित बैंकों के जमाकर्ताओं को अपने पैसे के महफूज़ होने का भरोसा रहता है, जिसके चलते बैंक बड़ी मात्रा में जमाकर्ताओं के फंड अपने यहां आसानी से आकर्षित कर पाते हैं. इस संदर्भ में औद्योगिक प्रतिष्‍ठानों को बैंकिंग क्षेत्र में प्रवेश की मंजूरी न दिये जाने के पीछे बुनियादी रूप से दो तर्क काम करते हैं.

पहला, औद्योगिक घरानों को परिचालन के लिए पैसे की ज़रूरत होती है. उनके पास यदि अपना बैंक हो, तो वे आसानी से पैसा हासिल कर लेंगे और कोई सवाल तक नहीं उठाएगा. ऐसे आंतरिक लेनदेन का इतिहास विनाशक ही रहा है- जब उधारी लेने वाला खुद बैंक का मालिक ही है, तो वह कर्ज क्‍यों चुकाएगा? किसी स्‍वतंत्र और प्रतिबद्ध नियामक की मौजूदगी भी ऐसे लोन को डूबने से रोक नहीं पाएगी क्‍योंकि तमाम सूचनाओं से युक्‍त होने के बावजूद वह वित्‍तीय तंत्र के कोने-अंतरे पर नजर नहीं रख पाएगा और कर्जदान से बैंक को रोक नहीं पाएगा. इसके अलावा लोन के भुगतान से जुड़ी सूचना भी हमेशा अद्यतन और सही नहीं होती. येस बैंक ऐसे ही लंबे समय तक अपने डूबे हुए लोन को छुपाता रहा था.

इतना ही नहीं, नियामक खुद राजनीतिक दबाव या आपात स्थितियों के मद्देनज़र घुटने टेक सकता है. आरबीआई ने 2016 में ही कुछ खास औद्योगिक घरानों के साथ बैंकों की अत्‍यधिक लेनदेन पर रोक लगाने के लिए ग्रुप एक्‍सपोज़र नॉर्म की घोषणा की थी जिसमें विशिष्‍ट औद्योगिक प्रतिष्‍ठानों को कर्ज की सीमा तय की गयी थी. इन मानकों में हाल ही में रियायत दी गयी है. इसके अलावा जैसा कि आंतरिक कार्य समूह कहता है, उधारी लेने वाली इकाई और औद्योगिक प्रतिष्‍ठान के बीच सम्‍बंध को समझने में अकसर मुश्किल होती है. इसका नतीजा पक्षपातपूर्ण कर्जदान में होता है जहां कुछ घराने लगातार ज्‍यादा से ज्‍यादा कर्ज लेकर अपनी परिसंपत्तियों में इजाफा करते और खुद का विस्‍तार करते जाते हैं. यह वित्‍तीय तंत्र के जोखिम को और बढ़ाता है.

बैंकिंग क्षेत्र में कॉरपोरेट प्रवेश को रोकने की दूसरी वजह यह है कि इससे कुछेक औद्योगिक घरानों के हाथों में आर्थिक और राजनीतिक सत्‍ता का केंद्रीकरण और तेज़ हो जाएगा. अगर बैंकिंग लाइसेंस के वितरण में निष्‍पक्षता बरती गयी, तब भी इसका अनावश्‍यक लाभ उन बड़े औद्योगिक घरानों को मिलेगा जिनके पास शुरुआत में लगाने के लिए बड़ी पूंजी है. इतना ही नहीं, भारी कर्ज में डूबे हुए मज़बूत राजनीतिक संपर्क वाले प्रतिष्‍ठानों को लाइसेंस के लिए ज़ोर लगाने का एक मौका मिलेगा और वे इसमें पर्याप्‍त सक्षम होंगे. इससे हमारी राजनीति में धनबल की अहमियत बढ़ जाएगी और हम कारोबाारियों व नेताओं के एकाधिकारी गठजोड़ के प्रति और कमजोर हो जाएंगे.

क्‍या नियामक ‘’स्‍वस्‍थ और सही’’ कारोबारों व संदिग्‍ध कारोबारों के बीच फ़र्क नहीं बरत सकता? बेशक, लेकिन इसके लिए उसे सच्‍चे अर्थों में स्‍वतंत्र होना होगा, जिसके बोर्ड में कोई राजनीतिक व्‍यक्ति न हो. यह स्थिति हमेशा बनी रहेगी या नहीं, यह हमेशा बहसतलब है. एक बार हालांकि बैंक का लाइसेंस दे दिया गया तो लाइसेंसधारक खुद को कर्ज देने की सुविधा के चक्‍कर में उसके दुरुपयोग का लालच ज़रूर पाल बैठेगा. भारत में हमने देखा है कि लाइसेंस लेते वक्‍त तमाम ऐसे प्रवर्तक रहे हैं जो सभी इम्तिहान पास कर गये लेकिन बाद में बिगड़ गये. जब औद्योगिक घरानों को बैंक लाइसेंस देने का मामला हो, तो ऐसी किसी स्थिति में उन्‍हें बेलआउट करने में राजकोष को बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है.

नियमों को बदलने की जल्‍दी क्‍या है? आखिरकार कमेटियां हवा में तो बनायी नहीं जाती हैं. क्‍या अचानक धारणा में कोई बदलाव आया है जिसे यह कमेटी संबोधित कर रही है? दिलचस्‍प बात यह है कि आईडब्‍ल्यूजी ने रिपोर्ट के परिशिष्‍ट में जितने विशेषज्ञों से परामर्श की बात कही है, उनमें एक को छोडकर सभी ‘’यह राय रखते हैं कि बड़े कॉरपोरेट/औद्योगिक घराों को बैंक खोलने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए.‘’ बावजूद इसके, इसने बदलाव की सिफारिश कर दी!

यह सच है कि भारत को और ज्‍यादा बैंकिंग सेवाओं की जरूरत है- जैसा कि आईडब्‍ल्यूजी ने इशारा किया है, भारत के जीडीपी में कर्ज का अनुपात बहुत कम है. साथ ही यह बात भी सच है कि उधारी के कम अनुपात के बावजूद हमारे बैंकों को दिये हुए कर्ज से घाटा बहुत सहना पड़ता है जिसका बोझ अंतत: करदाता के कंधे पर ही आता है. ऐसे में कॉरपोरेट घरानों को बैंकिंग की मंजूरी देना क्‍या समझदारी भरा कदम होगा, जिनके साथ हितों के टकराव का मसला अहम है? अगर प्रबंधकीय क्षमता को ही बढ़ाने का लक्ष्‍य है, तो आरबीआई पहले से ही उन कारोबारी घरानों को बैंक लाइसेंस के आवेदन की मंजूरी दिए हुए है जिनके कारोबार का एक तय हिस्‍से से ज्‍यादा गैर-बैंकिंग उद्यम में नहीं है. फिर क्‍यों न ऐसे ही घरानों को लाइसेंस के लिए आवेदन करने को और प्रोत्‍साहित किया जाए, जिनके यहां हितों का टकराव उतना तीखा नहीं है?

आरबीआइ कारोबारी प्रतिष्‍ठानों को पेमेंट बैंक के लाइसेंस के लिए आवेदन की मंजूरी भी देता है. इसकी मदद से दूरसंचार और संभवत: इंटरनेट प्‍लेटफॉर्म भी जमा खाता खुलवाने की सेवाएं देने में सक्षम हैं. वे अगर खुदरा कर्ज देना ही चाहते हैं, तो किसी बैंक के साथ लाभ बंटवारे के आधार पर गठजोड़ कर सकते हैं. नये सिरे से कारोबारी घरानों को पूर्णरूपेण बैंक लाइसेंस की मंजूरी देने की क्‍या ज़रूरत है? सबसे अहम सवाल है कि जब हम आइएलएफएस और येस बैंक की नाकामियों से अभी सबक सीखने की प्रक्रिया में ही हैं, तो ये काम अभी ही क्‍यों?

इसका एक संभावित जवाब यह है कि सरकार जब कुछ सरकारी बैंकों के निजीकरण का कदम उठाएगी, तो वह चाहेगी कि बोली लगाने वालों की संख्‍या ज्‍यादा रहे. जैसा कि हमने पहले एक परचे में कहा था, कोई भी सरकारी बैंक किसी ऐसे कारोबारी घराने को बेचना गलती होगी जिसे पहले से आज़माया न गया हो. इससे कहीं बेहतर हो कि सरकारी बैंकों के राजकाज में पेशेवर दक्षता लायी जाय और उसके शेयर लोगों में बेचे जाएं- इससे शेयरधारिता की संस्‍कृति को बढ़ावा मिलेगा और साथ ही धन का भी व्‍यापक वितरण होगा. कुछ बड़ी हिस्‍सेदारियां साथ में वित्‍तीय संस्‍थानों को बेची जा सकती हैं जो बदले में बेहतर राजकाज के तरीके और अपनी तकनीकी विशेषज्ञता से बैंक को सक्षम बनाएं. खराब राजकाज वाले बैंकों के मौजूदा ढांचे की जगह औद्योगिक घरानों के टकरावपूर्ण स्‍वामित्‍व को ले आना अशर्फियां लुटाकर कोयले पर मुहरों की छाप लगवाने जैसा कदम साबित होगा.

दूसरी संभावना यह है कि पेमेंट बैंक का लाइसेंस प्राप्‍त कोई कारोबारी घराना अब बाकायदा एक बैंक चलाना चाह रहा हो. इस संदर्भ में आईडब्‍ल्यूजी की एक समझ में न आने वाली सिफारिश यह है कि ऐसे रूपांतरण के लिए पांच साल की अवधि को घटाकर तीन साल किया जाय. शायद इन चौंकाने वाली सिफारिशों को साथ मिला के पढ़ा जाना चाहिए.

अटकलों का कोई अंत नहीं है. आईडब्‍ल्यूजी के पक्ष में एक सिफारिश यह जाती है कि उसने कॉरपोरेट घरानों को बैंकिंग में प्रवेश देने से पहले आरबीआई की ताकत बढ़ाने के लिए 1949 के बैंकिंग नियमन कानून में बड़े संशोधनों की बात कही है. वास्‍तव में, कठोर नियमन और पर्यवेक्षण का मामला केवल कानून बनाने तक ही सीमित होता तो भारत आज एनपीए की समस्‍या से नहीं जूझ रहा होता. इसीलिए यह देखना मुश्किल नहीं है कि ये प्रस्‍तावित संशोधन दरअसल एक ऐसी सिफारिश को धीरे से सरकाने का महीन तरीका है जिस पर आईडब्‍ल्यूजी का अख्तियार नहीं है. कुल मिलाकर कहें, तो आईडब्‍ल्यूजी के सुझाये कई तकनीकी नियमन बेशक अपनाये जाने लायक हैं जबकि उसकी मुख्‍य सिफारिश- बैंकिंग क्षेत्र में कॉरपोरेट घरानों को मंजूरी को छोड़ ही दिया जाए तो बेहतर.

(साभार- जनपथ)

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दुनिया के तमाम दूसरे हिस्‍सों की तरह भारत में भी बैंकों को शायद ही कभी नाकाम होने दिया जाता हो- हाल में येस बैंक और लक्ष्‍मीविलास बैंक के मामले इसका उदाहरण हैं. यही वजह है कि अधिसूचित बैंकों के जमाकर्ताओं को अपने पैसे के महफूज़ होने का भरोसा रहता है, जिसके चलते बैंक बड़ी मात्रा में जमाकर्ताओं के फंड अपने यहां आसानी से आकर्षित कर पाते हैं. इस संदर्भ में औद्योगिक प्रतिष्‍ठानों को बैंकिंग क्षेत्र में प्रवेश की मंजूरी न दिये जाने के पीछे बुनियादी रूप से दो तर्क काम करते हैं.

पहला, औद्योगिक घरानों को परिचालन के लिए पैसे की ज़रूरत होती है. उनके पास यदि अपना बैंक हो, तो वे आसानी से पैसा हासिल कर लेंगे और कोई सवाल तक नहीं उठाएगा. ऐसे आंतरिक लेनदेन का इतिहास विनाशक ही रहा है- जब उधारी लेने वाला खुद बैंक का मालिक ही है, तो वह कर्ज क्‍यों चुकाएगा? किसी स्‍वतंत्र और प्रतिबद्ध नियामक की मौजूदगी भी ऐसे लोन को डूबने से रोक नहीं पाएगी क्‍योंकि तमाम सूचनाओं से युक्‍त होने के बावजूद वह वित्‍तीय तंत्र के कोने-अंतरे पर नजर नहीं रख पाएगा और कर्जदान से बैंक को रोक नहीं पाएगा. इसके अलावा लोन के भुगतान से जुड़ी सूचना भी हमेशा अद्यतन और सही नहीं होती. येस बैंक ऐसे ही लंबे समय तक अपने डूबे हुए लोन को छुपाता रहा था.

इतना ही नहीं, नियामक खुद राजनीतिक दबाव या आपात स्थितियों के मद्देनज़र घुटने टेक सकता है. आरबीआई ने 2016 में ही कुछ खास औद्योगिक घरानों के साथ बैंकों की अत्‍यधिक लेनदेन पर रोक लगाने के लिए ग्रुप एक्‍सपोज़र नॉर्म की घोषणा की थी जिसमें विशिष्‍ट औद्योगिक प्रतिष्‍ठानों को कर्ज की सीमा तय की गयी थी. इन मानकों में हाल ही में रियायत दी गयी है. इसके अलावा जैसा कि आंतरिक कार्य समूह कहता है, उधारी लेने वाली इकाई और औद्योगिक प्रतिष्‍ठान के बीच सम्‍बंध को समझने में अकसर मुश्किल होती है. इसका नतीजा पक्षपातपूर्ण कर्जदान में होता है जहां कुछ घराने लगातार ज्‍यादा से ज्‍यादा कर्ज लेकर अपनी परिसंपत्तियों में इजाफा करते और खुद का विस्‍तार करते जाते हैं. यह वित्‍तीय तंत्र के जोखिम को और बढ़ाता है.

बैंकिंग क्षेत्र में कॉरपोरेट प्रवेश को रोकने की दूसरी वजह यह है कि इससे कुछेक औद्योगिक घरानों के हाथों में आर्थिक और राजनीतिक सत्‍ता का केंद्रीकरण और तेज़ हो जाएगा. अगर बैंकिंग लाइसेंस के वितरण में निष्‍पक्षता बरती गयी, तब भी इसका अनावश्‍यक लाभ उन बड़े औद्योगिक घरानों को मिलेगा जिनके पास शुरुआत में लगाने के लिए बड़ी पूंजी है. इतना ही नहीं, भारी कर्ज में डूबे हुए मज़बूत राजनीतिक संपर्क वाले प्रतिष्‍ठानों को लाइसेंस के लिए ज़ोर लगाने का एक मौका मिलेगा और वे इसमें पर्याप्‍त सक्षम होंगे. इससे हमारी राजनीति में धनबल की अहमियत बढ़ जाएगी और हम कारोबाारियों व नेताओं के एकाधिकारी गठजोड़ के प्रति और कमजोर हो जाएंगे.

क्‍या नियामक ‘’स्‍वस्‍थ और सही’’ कारोबारों व संदिग्‍ध कारोबारों के बीच फ़र्क नहीं बरत सकता? बेशक, लेकिन इसके लिए उसे सच्‍चे अर्थों में स्‍वतंत्र होना होगा, जिसके बोर्ड में कोई राजनीतिक व्‍यक्ति न हो. यह स्थिति हमेशा बनी रहेगी या नहीं, यह हमेशा बहसतलब है. एक बार हालांकि बैंक का लाइसेंस दे दिया गया तो लाइसेंसधारक खुद को कर्ज देने की सुविधा के चक्‍कर में उसके दुरुपयोग का लालच ज़रूर पाल बैठेगा. भारत में हमने देखा है कि लाइसेंस लेते वक्‍त तमाम ऐसे प्रवर्तक रहे हैं जो सभी इम्तिहान पास कर गये लेकिन बाद में बिगड़ गये. जब औद्योगिक घरानों को बैंक लाइसेंस देने का मामला हो, तो ऐसी किसी स्थिति में उन्‍हें बेलआउट करने में राजकोष को बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है.

नियमों को बदलने की जल्‍दी क्‍या है? आखिरकार कमेटियां हवा में तो बनायी नहीं जाती हैं. क्‍या अचानक धारणा में कोई बदलाव आया है जिसे यह कमेटी संबोधित कर रही है? दिलचस्‍प बात यह है कि आईडब्‍ल्यूजी ने रिपोर्ट के परिशिष्‍ट में जितने विशेषज्ञों से परामर्श की बात कही है, उनमें एक को छोडकर सभी ‘’यह राय रखते हैं कि बड़े कॉरपोरेट/औद्योगिक घराों को बैंक खोलने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए.‘’ बावजूद इसके, इसने बदलाव की सिफारिश कर दी!

यह सच है कि भारत को और ज्‍यादा बैंकिंग सेवाओं की जरूरत है- जैसा कि आईडब्‍ल्यूजी ने इशारा किया है, भारत के जीडीपी में कर्ज का अनुपात बहुत कम है. साथ ही यह बात भी सच है कि उधारी के कम अनुपात के बावजूद हमारे बैंकों को दिये हुए कर्ज से घाटा बहुत सहना पड़ता है जिसका बोझ अंतत: करदाता के कंधे पर ही आता है. ऐसे में कॉरपोरेट घरानों को बैंकिंग की मंजूरी देना क्‍या समझदारी भरा कदम होगा, जिनके साथ हितों के टकराव का मसला अहम है? अगर प्रबंधकीय क्षमता को ही बढ़ाने का लक्ष्‍य है, तो आरबीआई पहले से ही उन कारोबारी घरानों को बैंक लाइसेंस के आवेदन की मंजूरी दिए हुए है जिनके कारोबार का एक तय हिस्‍से से ज्‍यादा गैर-बैंकिंग उद्यम में नहीं है. फिर क्‍यों न ऐसे ही घरानों को लाइसेंस के लिए आवेदन करने को और प्रोत्‍साहित किया जाए, जिनके यहां हितों का टकराव उतना तीखा नहीं है?

आरबीआइ कारोबारी प्रतिष्‍ठानों को पेमेंट बैंक के लाइसेंस के लिए आवेदन की मंजूरी भी देता है. इसकी मदद से दूरसंचार और संभवत: इंटरनेट प्‍लेटफॉर्म भी जमा खाता खुलवाने की सेवाएं देने में सक्षम हैं. वे अगर खुदरा कर्ज देना ही चाहते हैं, तो किसी बैंक के साथ लाभ बंटवारे के आधार पर गठजोड़ कर सकते हैं. नये सिरे से कारोबारी घरानों को पूर्णरूपेण बैंक लाइसेंस की मंजूरी देने की क्‍या ज़रूरत है? सबसे अहम सवाल है कि जब हम आइएलएफएस और येस बैंक की नाकामियों से अभी सबक सीखने की प्रक्रिया में ही हैं, तो ये काम अभी ही क्‍यों?

इसका एक संभावित जवाब यह है कि सरकार जब कुछ सरकारी बैंकों के निजीकरण का कदम उठाएगी, तो वह चाहेगी कि बोली लगाने वालों की संख्‍या ज्‍यादा रहे. जैसा कि हमने पहले एक परचे में कहा था, कोई भी सरकारी बैंक किसी ऐसे कारोबारी घराने को बेचना गलती होगी जिसे पहले से आज़माया न गया हो. इससे कहीं बेहतर हो कि सरकारी बैंकों के राजकाज में पेशेवर दक्षता लायी जाय और उसके शेयर लोगों में बेचे जाएं- इससे शेयरधारिता की संस्‍कृति को बढ़ावा मिलेगा और साथ ही धन का भी व्‍यापक वितरण होगा. कुछ बड़ी हिस्‍सेदारियां साथ में वित्‍तीय संस्‍थानों को बेची जा सकती हैं जो बदले में बेहतर राजकाज के तरीके और अपनी तकनीकी विशेषज्ञता से बैंक को सक्षम बनाएं. खराब राजकाज वाले बैंकों के मौजूदा ढांचे की जगह औद्योगिक घरानों के टकरावपूर्ण स्‍वामित्‍व को ले आना अशर्फियां लुटाकर कोयले पर मुहरों की छाप लगवाने जैसा कदम साबित होगा.

दूसरी संभावना यह है कि पेमेंट बैंक का लाइसेंस प्राप्‍त कोई कारोबारी घराना अब बाकायदा एक बैंक चलाना चाह रहा हो. इस संदर्भ में आईडब्‍ल्यूजी की एक समझ में न आने वाली सिफारिश यह है कि ऐसे रूपांतरण के लिए पांच साल की अवधि को घटाकर तीन साल किया जाय. शायद इन चौंकाने वाली सिफारिशों को साथ मिला के पढ़ा जाना चाहिए.

अटकलों का कोई अंत नहीं है. आईडब्‍ल्यूजी के पक्ष में एक सिफारिश यह जाती है कि उसने कॉरपोरेट घरानों को बैंकिंग में प्रवेश देने से पहले आरबीआई की ताकत बढ़ाने के लिए 1949 के बैंकिंग नियमन कानून में बड़े संशोधनों की बात कही है. वास्‍तव में, कठोर नियमन और पर्यवेक्षण का मामला केवल कानून बनाने तक ही सीमित होता तो भारत आज एनपीए की समस्‍या से नहीं जूझ रहा होता. इसीलिए यह देखना मुश्किल नहीं है कि ये प्रस्‍तावित संशोधन दरअसल एक ऐसी सिफारिश को धीरे से सरकाने का महीन तरीका है जिस पर आईडब्‍ल्यूजी का अख्तियार नहीं है. कुल मिलाकर कहें, तो आईडब्‍ल्यूजी के सुझाये कई तकनीकी नियमन बेशक अपनाये जाने लायक हैं जबकि उसकी मुख्‍य सिफारिश- बैंकिंग क्षेत्र में कॉरपोरेट घरानों को मंजूरी को छोड़ ही दिया जाए तो बेहतर.

(साभार- जनपथ)

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