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क्या ज़ॉर्ज ऑर्वेल की ओशीनिया ही हमारी नयी दुनिया है?

1903 के जून महीने में आज के बिहार लेकिन तब के बंगाल प्रांत में लगने वाली मोतिहारी नाम की एक बेहद छोटी और साधारण सी जगह में, ईंटों और ढलुआ खपरैलों वाले एक सरकारी बंगले के भीतर एक बच्चे का जन्म हुआ. इस बंगले में रहने वाले रिचर्ड ब्लेयर ब्रितानी सरकार में अफ़ीम महकमे के सरकारी मुलाजिम थे. मोतिहारी में उनका काम सरकार के नियंत्रण में उगायी जाने वाली अफ़ीम की गुणवत्ता को जांचना-परखना था. वह 1875 में हिंदुस्तान आए थे. रिचर्ड और मेम साब ईडा मेबल ने बच्चे का नाम रखा- एरिक आर्थर ब्लेयर.

अगले ही साल मां एरिक आर्थर को लेकर लंदन चली गईं. एरिक 1922 में इम्पीरियल पुलिस (आईपी) का एक नौजवान एएसपी बनकर हिंदुस्तान लौटा. एरिक ब्लेयर की पोस्टिंग बर्मा में हुई. पांच साल बाद ही एरिक का मन पुलिस की नौकरी से उचटने लगा. साढ़े छह सौ पौंड की अच्छी ख़ासी तनख़्वाह को लात मारकर एरिक ने अपने नौकरशाह पिता की अनिच्छा के बावजूद 1927 में पुलिस सर्विस से इस्तीफ़ा देकर पूरी तरह से एक लेखक बनने का निर्णय कर लिया.

जीवन के इस मोड़ पर अब वह एरिक आर्थर ब्लेयर से जॉर्ज ऑर्वेल बन गया. ‘1984’ जॉर्ज ऑर्वेल का अंतिम उपन्यास था. यह भविष्य की दुनिया में स्थित एक ऐसे स्टेट- ओशीनिया की कहानी था जिसे ‘बिग बॉस’ और उसकी एक ही पार्टी चलाती है. वहां के नागरिक ‘भक्तों’ में बदल दिए गए हैं. जहां बिग बॉस का, उसकी विचारधारा का, उसकी पार्टी का विरोध देशद्रोह है. जहां बिग बॉस के ख़िलाफ़ जाने का मतलब है ‘थॉट पुलिस’ के भयावह यातना चक्र में पिसना. जहां नागरिकों की स्मृतियों में संवेदनाओं का स्थान बिग बॉस के गढ़े हुए राजनीतिक नारों ने ले लिया है.

नौकरशाही केंद्रित सत्तातंत्र में साधारण आदमी के अस्तित्व की कोई अहमियत न रह जाने की परिस्थिति को फ़्रैंज़ काफ़्का की रचनाओं (विशेष रूप से ‘द ट्रायल’) के कारण ‘काफ़्कास्क’ नाम का विशेषण मिला था. ‘1984’ के बाद राजनीति दर्शन के क्षेत्र में लोगों के जीवन पर सर्वत्र निगाह रखने वाले राज्य को ‘ऑर्वेलियन स्टेट’ के नाम से जाना जाने लगा. आज जब हुक़ूमतें ‘सर्विलांस’ के बिना चल ही नहीं सकतीं, ‘ऑर्वेलियन’ शब्द में अंतर्निहित अर्थ को समझना अनिवार्य हो गया है. लोगों पर निगरानी के अर्थ में 18वीं सदी के दार्शनिक जरमी बेंथम ने ‘पेनिप्टिकोन’ शब्द गढ़ा था. यह शब्द ग्रीक भाषा के शब्द ‘पेनिपटोस’ का व्युत्पन्न था, जिसका अर्थ था- सब तरफ़ देखने वाला.

इंग्लैंड की सरकार ने बेंथम की इस अवधारणा का इस्तेमाल नए क़िस्म की जेलों/कारागार के निर्माण में किया. बेंथम की पेनिप्टिकोन की अवधारणा पर आधारित जेलों में क़ैदियों के कोठरे इस तरह डिजाइन किए जाते थे कि हर क़ैदी को यह हमेशा लगता रहे कि वह हर क्षण वॉच टॉवर पर खड़े संतरी की निगाह में है, चाहे वहां वास्तव में संतरी हो या न हो. सतत निगरानी का अहसास पेनिप्टिकोन का बुनियादी मक़सद था.

ऑर्वेल द्वारा कल्पित ‘1984’ का स्टेट पेनिप्टिकोन का चरमोत्कर्ष है. फ़र्क़ इतना आया था कि समय के साथ अब ‘वॉच-टॉवर’ की जगह ‘टेलीस्क्रीन’ ने ले ली थी. इस बात को खींचकर व्हाट्सएप के सर्विलांस एप पेगसस तक लाना आपकी मर्ज़ी, आपकी समझदारी! कौन आदमी थॉट पुलिस द्वारा कब और कहां उठा लिया जाएगा, उसकी जासूसी कब शुरू कर दी जाएगी, ये महज़ एक ‘गेसवर्क’ की बात थी.

राज्य की नज़र में नागरिक के निजी जीवन की कोई क़ीमत नहीं थी. उसके जीवन का हर पल निगहबानी में था- ‘एनी साउंड दैट विन्स्टन मेड, अबव द लेवल ऑफ़ ए वेरी लो विस्पर, वुड वी पिक्ड अप बाई द टेलिस्क्रीन. देयर वाज़ ऑफ़ कोर्स नो वे ऑफ़ नोइंग वेदर यू वर बीइंग वॉच्ड एट एनी गिवन मोमेंट. हाउ ऑफ़ेन, ऑर ऑन व्हाट सिस्टम द थॉट पुलिस प्लग्ड इन ऑन एनी इंडिविजुअल वायर वाज गेसवर्क.’

ऑर्वेल का पूरा उपन्यास ओशिनिया नाम के काल्पनिक देश के तानाशाह ‘बिग बॉस’ द्वारा बनाए गए गए दो प्रतिमानों के बीच विकसित होता है. एक आयाम है लोगों का ‘सर्विलांस’ और दूसरा है प्रोपेगेंडा के एक विशाल नेटवर्क की मौजूदगी. उपन्यास का बदकिस्मत नायक विंस्टेन स्मिथ इस स्टेट में जहां भी जाता है, वह कैपिटल अक्षरों में सर्वत्र यह लिखा हुआ पाता है- ‘बिग बॉस इज़ वॉचिंग यू’. उपन्यास के आरंभ में ही यह बात स्पष्ट हो जाती है जब स्मिथ एक आत्म-संवाद के ज़रिए बताता है- ‘यू हैड टू लिव इन द असम्प्शन दैट एवरी साउंड यू मेड वाज़ ओवरहर्ड, एंड ऐक्सेप्ट इन डॉर्कनेस, एवरी मूवमेंट स्क्रूटिनाइज्ड’. पूरा राज्य जासूसी के उपकरणों से भरा हुआ है. कौन कहां किसकी बात सुन रहा है, कोई नहीं जानता.

ओशिनिया के शहरों में नज़र रखने के लिए बड़ी-बड़ी टेलीस्क्रीन्स लगायी गयी हैं. यहां तक देहातों को भी नहीं छोड़ा गया है. वहां टेलीस्क्रीन्स की जगह गुप्त माइक्रोफ़ोन लगाए गए हैं जिनकी मदद से आपकी आवाज़ सुनी और पहचानी जा सके. ओशिनिया में जीवन के हर प्रारूप पर राज्य का क़ब्ज़ा है. बच्चों का ब्रेनवाश कर दिया गया है. वो बिग बॉस की पार्टी के कट्टर समर्थक हैं. यहां तक कि राज्य उनका इस्तेमाल उन्हीं के माता-पिता पर निगरानी करने के लिए करता है. विंस्टन स्मिथ एक जगह बताता है- ‘द चिल्ड्रेन, ऑन द अदर हैंड, वर सिस्टमैटिकली टर्न्ड अगेन्स्ट देयर पेरेंट्स एंड टॉट टू स्पाई ऑन देम एंड रिपोर्ट देयर डीवीएशन. द फ़ैमिली हैड बिकम इन इफ़ेक्ट ऐन इक्स्टेन्शन ऑफ़ द थॉट पुलिस.’

तानाशाह की सबसे बड़ी मददगार पुलिस होती है. उसे यहां से जितनी मदद मिलती है उतनी किसी और महकमे से नहीं मिलती. बिग बॉस की पुलिस ‘थॉट पुलिस’ है. इस थॉट पुलिस का काम है थॉट क्राइम को रोकना और थॉट क्राइम हर वो विचार है जो बिग बॉस के ख़िलाफ़ है. बिग बॉस की पार्टी के ख़िलाफ़ सोची गयी हर बात ओशिनिया के ख़िलाफ़ एक देशद्रोह है. एक अपराध है. यहां तक कि ओशिनिया की भाषा, जिसे न्यूस्पीक कहा जाता है, में चेहरे पर ऐसे हाव-भाव लाना, जो राज्य और उसके नेता बिग बॉस में आपके भरोसे की कमी को परिलक्षित करते हों, भी अपराध के दायरे में आता है. ओशिनिया में यह ‘फ़ेस क्राइम’ कहा जाता है.

थॉट पुलिस बिग बॉस के ‘दुश्मनो’ को पकड़ती है, टॉर्चर करती है, उसके ख़िलाफ़ होने वाले ‘षडयंत्रों’ का ‘इन्वेस्टिगेशन’ करती है. करना तो दूर की बात, बिग बॉस के ख़िलाफ़ कुछ सोचने का उपक्रम करना भी थॉट पुलिस की जघन्य टॉर्चर-प्रक्रिया में फंसना है. इस तरह बिग बॉस ने अपने राज्य के नागरिकों पर निगाह रखने, उनकी पूरी विचार प्रक्रिया को अपने हिसाब से ढालने के लिए वैज्ञानिक पद्धतियों से लेकर, दंड, कारागार और सामाजिक-मनोवैज्ञानिक तरीक़ों का मिला-जुला इस्तेमाल करके लगभग एक अकाट्य सा कवच बना लिया है. बिग बॉस के पास हर आदमी से जुड़ा डाटा है जिसे उसने ऑडियो-वीडियो सर्विलांस और हर टार्गेट की ‘पर्सनैलिटी-प्रोफ़ाइलिंग’ के ज़रिए तैयार किया है.

ओशिनिया में बिग बॉस द्वारा परिकल्पित और क्रियान्वित नियंत्रण स्कीम की विशेषता केवल इसका राजनीतिक स्वरूप नहीं है. इस स्कीम में जन-समाज की सामूहिक चेतना की परंपरा से उन सभी सन्दर्भ बिंदुओं को विलोपित कर देना शामिल है, जिनकी सहायता से समाज भाषाई विश्लेषण की क्षमताएं हासिल करता है. उपन्यास में ऑर्वेल द्वारा प्रदर्शित टोटैलिटेरियन सत्ता संरचना इसलिए अधिक डरावनी है कि वह मनुष्य द्वारा विकसित हर चीज़ को एक औज़ार मानकर उसका इस्तेमाल मनुष्य के ख़िलाफ़ ही करती है.

इस क्रम में बिग बॉस और उसकी पार्टी सबसे पहले अपने समाज की भाषा को निशाना बनाते हैं. राज्य मशीनरी की मदद से भाषा को इस तरह से वाचित और संशोधित कर दिया जाता है कि वो अपनी अर्थ बहुल क्षमताएं गंवाने लगती हैं. साइम नाम के भाषाविद् को, जो विंस्टेन स्मिथ का दोस्त है ओशिनिया की भाषा- न्यूस्पीक के शब्दकोश का अंतिम संस्करण तैयार करने का काम मिला है. वह बताता है कि भाषा में हज़ारों ऐसी संज्ञाएं, क्रियाएं और विशेषण होते हैं जिनको समाप्त किया जा सकता है. हमें किसी शब्द के विलोम के लिए एक अलग से शब्द का इस्तेमाल क्यों करना चाहिए. मसलन ‘गुड’ के लिए ‘बैड’ के अपोज़िट की क्या ज़रूरत जबकि काम ‘अनगुड’ से चल सकता है. बिग बॉस चाहता है कि नागरिक के हाथ में भाषा उतनी ही न्यूनतम रहे जितनी से उनका जीवन कटता रहे और वह राज्य की मंशा समझता रहे. भाषा के क्षुद्रीकरण से बड़ा सामाजिक नुक़सान कोई नहीं है.

ऑर्वेल का 1984 इस अर्थ में एक बड़ी चेतावनी परिभाषित करता है. क्या हिंदी भाषा आज सांप्रदायिक भाषा वाले अख़बारों और प्राइम टाइम टीवी के हाथ पड़कर ओशिनिया की ‘न्यूस्पीक’ की तरह संकुचित नहीं होती जा रही है? यह सोचने योग्य प्रश्न तो हो ही सकता है. ओशिनिया में सरकार और उसकी पूरी मशीनरी जन-समुदाय को उस भाषा से दूर रखने को प्रतिबद्ध है जो उसके चिंतन की क्षमतायें बढ़ा सकरती है. साइम विंस्टन स्मिथ को बताता है - ‘don’t you see that the whole aim of newspeak is to narrow the range of thought? In the end we shall make thoughtcrime literally impossible, because there will be no words in which to express it....the whole climate of thought will be different’

ओशिनिया में ‘क्लाइमेट ऑफ़ थॉट’ का दूसरा पहलू ‘दुश्मनों’ की सतत पहचान पर आधारित है. ओशिनिया ऐसा बना दिया गया है कि वह ‘दुश्मन’ ढूंढे बिना चल ही नहीं सकता. बिग बॉस को अपना राज्य क़ायम रखने और एक प्रबल ‘डिस्ट्रैक्शन’ के तौर पर लगातार काल्पनिक ‘दुश्मनों’ की ज़रूरत रहती है. वह अपने राजनीतिक विपक्षियों को पूरे देश का दुश्मन घोषित कर देता है. उन्हें राज्य की ऑडियोलॉजी का शत्रु बताया जाता है. उनके पुतले जलाए जाते हैं. उन्हें हमेशा फ़रार दिखाया जाता है ताकि इसी बिना पर थॉट पुलिस कहीं भी छापा मारकर किसी को भी ‘उठा’ सके. पड़ोसी देश यूरेशिया से लगातार सम्बंध तनावपूर्ण रखे जाते हैं ताकि लोगों के उन्माद को लगातार प्रज्वलित रखा जा सके.

ओशिनिया की मीडिया में रोज़ाना एक कार्यक्रम चलता है. इसे ‘टू मिनट हेट’ कहा जाता है. यह ‘देश के दुश्मनों’ विशेष रूप से बिग बॉस के दुश्मन ‘इमेनुअल गोल्डस्टीन’ पर आधारित दो मिनट का एक कार्यक्रम है. इसके प्रसारण का उद्देश्य है कि लोग इसे देखकर अपनी समस्त भड़ास निकालकर दिमाग़ी रूप से शिथिल हो जाएं.

टेलीस्क्रीन पर बात बे-बात सैनिक धुनें बजने लगती हैं. घड़ी-घड़ी सरहद पर लड़ते हुए सिपाही दिखाए जाते हैं. समस्या होती है राशन की और टेलीस्क्रीन पर बात चल रही होती है बारूद की. जीवन के सामान्य मसलों में उत्तेजना और उन्माद का निवेश ही बिग बॉस और उसकी मीडिया का लक्ष्य है. जनता को यह समाचार देने से पहले कि अगले हफ़्ते से मिलने वाले चॉकलेट राशन में कटौती की जानी है, यह खबर दी जाती है कि देश ने अमुक-अमुक मोर्चे पर फ़लानी-फ़लानी लड़ाई जीत ली है. ऑर्वेल के इस उपन्यास में तानाशाह शासक की हर उस युक्ति का अनावरण है जिसका इस्तेमाल कोई भी सर्वसत्तावादी संरचना करने से बाज़ नहीं आएगी.

ओशिनिया की सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था में यह ज़रूरी है कि आप सोचें कुछ लेकिन बोलें कुछ और. न्यूस्पीक में इस खूबी को ‘डबल थिंक’ का नाम दिया गया है. बिग बॉस की पार्टी और उसके उच्च सदस्यों को डबल थिंक का ‘इंटेलेक्चुअल’ अभ्यास करना पड़ता है. डबल थिंक वह स्थिति है जब एक व्यक्ति एक ही समय में दो बिलकुल विरोधी विचारों को अपने दिमाग़ में स्थान देता है और दोनों विरोधी विचारों को साथ निभाता है. उदाहरण के लिए, अपने भाषणों में लोकतंत्र के घड़ी-घड़ी संदर्भ देने वाला नेता असल में उसकी धज्जियां उड़ाए, तब यह कहा जाएगा कि वह ‘डबल थिंक’ की अपनी बौद्धिक भूमिका निभा रहा है.

ओशिनिया का राजनीतिक-सामाजिक जीवन इसके बिना नहीं चल सकता. वहां नौकरशाहों और पार्टी-सदस्यों द्वारा प्रोपेगेंडा का जो विशाल तंत्र बनाया गया है उसमें पाखंड के बिना नहीं रहा जा सकता. डबल थिंक वहां केवल एक रणनीति नहीं है, वह वहां की आचरण-संहिता का सबसे प्रमुख मूल्य बन गया है. प्रोपेगेंडा के मंत्रालयों के परस्पर अंतर्विरोधी शीर्षक वस्तुतः ‘डबल थिंक’ के असर के नमूने हैं. प्रोपेगेंडा में जो ‘मिनिस्ट्री ऑफ़ पीस’ उसका काम निरंतर युद्ध करना अथवा उसकी संभावनाएं बनाए रखना है.

‘मिनिस्ट्री ऑफ़ ट्रुथ’ का काम प्रोपेगेंडा के विशाल लिटरेचर को तैयार करना, उसे लोगों में फैलाना और लोगों से लगातार झूठ बोलते रहना है. ‘मिनिस्ट्री ऑफ़ लव’ का काम थॉट पुलिस की मदद से लोगों को उठवा लेना और फिर उन्हें भयानक यातनाएं देना है. खुद विंस्टेन स्मिथ जिस अभिलेख विभाग में काम करता है, उसका काम अभिलेखों का परिरक्षण करना नहीं बल्कि फ़िज़िकल फ़ॉर्म में मौजूद उन सभी संदर्भों को नष्ट कर देना है जो बिग बॉस के अभिमत से मेल नहीं खाते. वह हर एक पत्रिका, अख़बार जो अतीत में मौजूद रही हो, यदि वह बिग बॉस के विचार से इत्तफ़ाक़ रखती हुई नहीं पायी जाती तो उसे या तो अतीत की किसी तारीख़ से संशोधित कर दिया जाता है, या पूरी तरह ग़ायब कर दिया जाता है.

बिग बॉस का डेटा पर अभूतपूर्व नियंत्रण है. डेटा की डेस्क पर काम करने वाले लोग बिग बॉस के भरोसे के नौकरशाह हैं. उन पर लगातार नज़र रखी जाती है. इस महकमे में गलती करना जीवन को जोखिम में डालना है. ओशिनिया में बिग बॉस के प्रति होने वाली किसी भी त्रुटि की सजा उस ‘पर्सन’ का ‘अनपर्सन’ हो जाना है. ‘अनपर्सन’ न्यूस्पीक का एक शब्द है जिसका मतलब है कल जो आदमी मौजूद था, उसका बाद में मौजूद न रहना. लोग ग़ायब कर दिए जाते हैं. बिग बॉस को पसंद न आने वाले लोगों को ‘परसन’ से ‘अनपर्सन’ कर देना ओशिनिया की पुलिस मशीनरी का सबसे प्रिय काम है.

1949 में ऑर्वेल के इस उपन्यास का प्रकाशन दूसरे विश्व-युद्ध के समाप्त होने और सोवियत संघ तथा संयुक्त राज्य अमेरिका के मध्य में बढ़ती हुई अंतरराष्ट्रीय वैचारिक गोलबंदी की पृष्ठभूमि में हुआ था. उपन्यास में बिग बॉस के चरित्र चित्रण में अमेरिकी साहित्य समीक्षकों ने जोसेफ स्टालिन की छवि पायी. ऑर्वेल के न चाहते हुए भी पूंजीवादी खेमे ने इस उपन्यास का इस्तेमाल सोवियत वामपन्थ की भर्त्सना में किया.

ऑर्वेल के राजनीतिक विचार एक उदारतावादी लोकतांत्रिक व्यक्ति के थे. वह आजीवन ब्रिटिश लेबर पार्टी के सदस्य रहे. ऑर्वेल का मानना था कि फासीवाद किसी भी तरह की विचारधारा में पनपकर उस विचार को चट कर सकता है. 1984 ऑर्वेल के पिछले बीस वर्षों के राजनीतिक चिंतन का उत्कर्ष था जिसके संकेत 1945 में प्रकाशित हुई उनकी छोटी सी किंतु अतिशय लोकप्रिय रचना ‘एनिमल फार्म’ में ही स्पष्ट होने लगे थे. एनिमल फार्म में भी लेखक की केंद्रीय चिंता यह थी कि कोई भी राजनीतिक नेतृत्व जनता को स्वर्णिम भविष्य के सपने बेचकर किस तरह नियंत्रण, नौकरशाही और प्रोपेगेंडा के रस्से में बांधकर फासीवाद के गड्ढे में खींच ले जा सकता है.

ऑर्वेल के इस उपन्यास पर मार्क्सवादी धड़े के लेखकों-समीक्षकों ने भारी आक्रमण किया. भारतीय मूल के ब्रिटिश मार्क्सवादी रजनी पाम दत्त ने ऑर्वेल के मार्क्सवादी ज्ञान पर ही गंभीर सवाल उठाए. मार्क्सवादी विचारक रेमंड विलियम्स, ईपी थोंपसन, और एडवर्ड सईद ने भी ‘1984’ की ख़ूब आलोचना की. लेकिन दूसरी तरफ़ चेकोस्लोवाकिया के लोकप्रिय और सोवियत धड़े से असंतुष्ट नेता वक्लव हैवल जैसे लोग भी थे जो इस रचना को तानाशाही जीवन मूल्यों के विरुद्ध अपना प्रेरणास्रोत मानते रहे.

यह दुखद है कि उत्तर भारत की हिंदी पट्टी में होने वाले बौद्धिक विमर्शों से 1984 के संदर्भ लगभग नदारद होते हैं. इस इलाक़े को इस उपन्यास से परिचित होने की आज सर्वाधिक ज़रूरत है. मुझे नहीं पता कि ऑर्वेल की यह रचना कितने हिंदी क्षेत्र में पड़ने वाले विश्वविद्यालयों के उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रमों में शामिल है? इस किताब का पाठन यदि अनिवार्य हो सके तो राजनीतिक उन्माद में उतराता चला जाता हुआ नागरिक समझ सकेगा कि उसकी मासूमियत के साथ ‘बिग बॉस’ अक्सर कैसे-कैसे खेला खेल रहे होते हैं. वह जान सकेगा कि लोकतंत्रों को निरंकुशता, व्यक्ति-पूजा और फासीवाद की दीमक मिलकर कैसे सफ़ाचट कर जाती है.

1950 में केवल 46 वर्ष की आयु में ऑर्वेल का निधन हो गया लेकिन 1984 बीसवीं सदी के उत्तरार्ध का सबसे विचारोत्तेजक और सर्वाधिक पढ़ा जाने वाला उपन्यास बना रहा. अपनी मृत्यु से ठीक एक साल पहले ऑर्वेल ने कहा था कि वह कभी नहीं चाहेंगे कि जिस दुनिया का चित्रण उन्होंने इस उपन्यास में किया है, वह कभी साकार भी हो. लेकिन आज हम जानते हैं कि हम आंशिक रूप से उस दुनिया के हिस्सेदार बन गए हैं जो अपने किरदार में ‘ऑरवेलियन’ होती जा रही है. आज दुनिया के कई हिस्सों में ‘बिग बॉस’ पनप रहे हैं जिनके मंसूबे ख़तरनाक और योजनाएं नृशंस हैं.

अमेरिका के एक अख़बार ने गणना करके हाल ही में बताया कि उनके राष्ट्रपति ने शपथ लेने के बाद अपने नागरिकों से कितने हज़ार झूठ बोले. अपने नागरिकों पर संदेह और उनका सर्विलांस, राज्य चलाने के लिए एकतरफ़ा वफ़ादार नौकरशाही, मीडिया के सहयोग से वास्तविकता के उलट झूठ और प्रोपगेंडा का अभेद्य सिस्टम, जनता के लिए काल्पनिक दुश्मनों का निर्माण, उन्मादी वातावरण और अंततः भाषा का संकुचन और क्षुद्रीकरण वो आयाम हैं जिनसे मिलकर एक राज्य नागरिकों का राज्य नहीं रह जाता. वह ‘ऑर्वेलियन’ हो जाता है. हम भी अपना परिवेश टटोलें. कहीं हम भी किंकर्तव्यविमूढ़ हुए किसी के पीछे पीछे नींद-चाल में चलते हुए उसी ओशिनिया की ओर तो नहीं बढ़े चले जा रहे?

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