Newslaundry Hindi
बाइडन, ट्रंप नहीं बन सकते और ओबामा बनने का वक्त निकल गया है
सभी राहत की सांसें ले रहे हैं- जो बाइडन भी, कमला हैरिस भी, सारा अमेरिका भी और भारत में हम सब भी! राहत इस बात की कि अमेरिका में अब वह सब नहीं होगा जो पिछले चार सालों से हो रहा था. जिसने अमेरिका को दुनिया भर में जोकर भी बना दिया था और किसी हद तक वितृष्णा का पात्र भी. अगर बाइडन इतना भी न कर सके कि अमेरिका की धरती से वे सारे नक्श-निशान मिटा दें जो ट्रंप की याद दिलाते हैं तो वे अमेरिका के लालू प्रसाद यादव ही कहलाएंगे जो असीम संभावनाओं के दरवाजे पर खड़े थे लेकिन असीम विफलता के प्रतीक बन गये.
77 साल की सबसे बड़ी उम्र में अमेरिका के राष्ट्रपति का पद हासिल करने वाले बाइडन को यह भूलना नहीं चाहिए कि उनकी कुर्सी के नीचे उन 2.30 लाख अमेरिकियों के शव दफन हैं जो ट्रंप शासन में कोविड से शहीद हुए. यह संख्या बाइडन काल में बढ़ेगी. इसलिए मास्क, सुरक्षित दूरी और सस्ती से सस्ती स्वास्थ्य सेवा बाइडन काल की पहचान कैसे बने, यह पहली चुनौती है. इसके लिए जरूरी होगा कि बाइडन अमेरिकी समाज का विश्वास जीतें. यह आसान नहीं है. अगर करीब-करीब आधा अमेरिका बाइडन के साथ है तो आधा अमेरिका वह भी तो है जो ट्रंप के साथ है. लेकिन यह भी सच है, और यह सच बाइडन को पता है कि ट्रंप के साथ अमेरिका का भरोसा कम, उन्माद अधिक था. उस उन्मादित जमात में यदि बाइडन भरोसा जगा सकेंगे तो सस्ती स्वास्थ्य-सेवा के साथ जुड़ कर अमेरिकी मास्क, सुरक्षित दूरी भी व्यापक तौर पर अपना लेगा, और तब तक कोविड का वैक्सीन भी परिस्थिति को संभालने के लिए मैदान में होगा. तो पहली चुनौती घर में ही है- खाई को पाटना!
ओबामाकेयर को पुनर्जीवित करना लोगों तक सस्ती स्वास्थ्य-सेवा पहुंचाने का रास्ता है. अमेरिका को यह भरोसा दिलाना कि ओबामाकेयर अश्वेतों का ही नहीं, सभी अल्पसाधनों वालों का मजबूत सहारा है, एक चुनौती है. बाइडन के लिए यह अपेक्षाकृत आसान होगा क्योंकि उनके साथ कमला हैरिस खड़ी होंगी. ट्रंप की तुलना में अपनी उदारवादी छवि बनाना आसान था, उदारवादी नीतियों का निर्धारण करना और उन पर मजबूती से अमल करना गहरी व व्यापक सहमति के बिना संभव नहीं होगा. महिलाओं, अल्पसंख्यकों, उम्रदराज व युवा अमेरिकियों, ट्रंप को लेकर असमंजस में पड़े मतदाताओं और अंतत: अपनी पार्टी का दामन छोड़ने वाले रिपब्लिकन मतदाताओं ने बाइडन को विजेता बनाया. हुआ तो यह भी कि चुनाव परिणाम को अस्वीकार करने की ट्रंप की निर्लज्ज बचकानी बयानबाजी का उनकी पार्टी के सांसद भी आलोचना करने लगे. यह वह आधार है जिस पर बाइडन को भरोसे की नींव डालनी है.
लेकिन इतना काफी नहीं है. अमेरिका को अब यह अंतिम तौर पर समझने की जरूरत है कि वह न तो दुनिया का चौकीदार है, न थानेदार! संसार में कहीं भी बेबुनियाद तर्कों से युद्ध छेड़ने, दूसरों के हर फटे में टांग डालने और दूसरों की स्वायत्तता का सम्मान न करने की अमेरिकी नीति उसे कमजोर ही नहीं बना रही है बल्कि उसकी अंतरराष्ट्रीय किरकिरी भी करवा रही है. ओबामा के खाते में ही कम से कम छह युद्ध दर्ज हैं जबकि ट्रंप ने अपनी बतकही से अमेरिका की जितनी भी किरकिरी करवाई हो, उन्होंने कहीं युद्ध नहीं बरपाया. ओबामा काल के इन युद्धों से बाइडन खुद को अलग नहीं कर सकते. बाइडन को अपनी और अमेरिका की इस छवि को तोड़ना पड़ेगा.
मैं उस आदर्श विश्व की बात नहीं कर रहा हूं कि जिसमें युद्ध होंगे ही नहीं बल्कि उस संसार की बात कर रहा हूं कि जिसने आपसी सहमति से युद्ध की अनुमति देने के लिए संयुक्त राष्ट्रसंघ नाम की एक संस्था बना रखी है. अमेरिका अपनी सुविधा और शेखी के लिए उसका इस तरह इस्तेमाल करता आया है कि दुनिया के दूसरे देश भी उसे पांवपोंछ की तरह बरतने लगे हैं. बाइडन को अमेरिका की इस छवि को भी तोड़ना होगा, और इसमें कोई शक ही नहीं है कि अमेरिका जिस दिन से संयुक्त राष्ट्रसंघ के अनुशासन को अपनी मर्यादा के रूप में स्वीकार कर लेगा, दुनिया के दूसरे देशों के लिए उस लक्ष्मण-रेखा को पार करना मुश्किल हो जाएगा.
बाइडन को एक द्रविड़ प्राणायाम भारत के संदर्भ में भी करना होगा. वे और डेमोक्रेटिक पार्टी भारत से अच्छे रिश्तों की बात करती है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें बधाई देते हुए रिश्तों को और मजबूत बनाने की बात की है. लेकिन बाइडन को दिक्कत यह आएगी कि जब भी भारत सरकार भारतीय संविधान की मर्यादाओं को अपनी बेड़ियां समझेगी और उन्हें कुचल कर आगे जाएगी तब उनकी सरकार क्या करेगी? भारत के आंतरिक मामलों में दखलंदाजी कोई भी भारतीय स्वीकार नहीं करेगा लेकिन आंतरिक मामलों का तर्क देकर मानवीय अधिकारों व लोकतांत्रिक मर्यादाओं का हनन भी कैसे पचाया जा सकेगा? ओबामा को ‘बराक’ बना कर इस सरकार ने यही खेल करना चाहा था और ओबामा इस जाल में किसी हद तक फंसे भी थे. आते-जाते मौकों पर उन्होंने कभी इस सरकार के रवैये पर थोड़ी तेजाब डाली हो तो डाली हो, अधिकांशत: वे बच निकलने में ही लगे रहे. फिर तो ‘हाउदी मोदी’ और ‘जश्न-ए-ट्रंप’ का दौर आ गया और सब कुछ धूलधूसरित हो गया. बाइडन क्या करेंगे? वे भारत के संदर्भ में आज से ही नट की तरह रस्सी पर चलना शुरू करेंगे तो कहीं कोई संतुलन साध सकेंगे. अपने संवैधानिक अधिकारों की लड़ाई तो हमें ही लड़नी है. सवाल रह जाता है तो बस इतना कि इस लड़ाई की अनुगूंज विश्व बिरादरी में उठती है या नहीं, उठनी चाहिए या नहीं? बाइडन को इसका जवाब देना है. वे ट्रंप नहीं बन सकते और ओबामा बनने का वक्त निकल गया है. यह तो आगाज भर है. रास्ता लंबा व कांटों से भरा है.
Also Read
-
How Muslims struggle to buy property in Gujarat
-
A flurry of new voters? The curious case of Kamthi, where the Maha BJP chief won
-
I&B proposes to amend TV rating rules, invite more players besides BARC
-
Scapegoat vs systemic change: Why governments can’t just blame a top cop after a crisis
-
Delhi’s war on old cars: Great for headlines, not so much for anything else