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बीजेपी का चुनावी पोस्टर ‘श्रमिकों को पहुंचाया अपने घर’ बढ़ा रहा अजमेरिना और रामचंद्र महतो का दुःख
बिहार चुनाव में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) का एक पोस्टर जगह-जगह लगा हुआ है. पोस्टर पर ‘श्रमिकों को पहुंचाया अपने घर बिहार’ लिखा है और उसके बगल में प्रधानमंत्री मोदी की एक मुस्कुराती हुई तस्वीर है. पोस्टर के नीचले हिस्से में बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा, बिहार के उप मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी समेत बिहार बीजेपी के तमाम बड़े नेताओं की तस्वीरें लगी हुई हैं.
बीजेपी ने बिहार के वोटरों को लुभाने के लिए यह पोस्टर लगाया है लेकिन यह कई लोगों को चिढ़ा ही नहीं रहा बल्कि उनकी तकलीफें बढ़ा रहा है. इस पोस्टर पर लिखे वाक्य को जब हमने बेगूसराय के अजमेरिना खातून और रामचंद्र महतो को बताया तो उनके चेहरे पर उदासी और तकलीफ़ जम गई. अजमेरिना खातून अपने गोद में अपनी दो साल की बेटी को लिए खामोशी से हमें देखने लगी तो रामचंद्र महतो फफक-फफक कर रोने लगे. कोरोना को रोकने के लिए लगे लॉकडाउन में सरकारी लापरवाही की वजह से एक ने अपना पति खोया है तो दूसरे ने अपना सबसे बड़ा बेटा.
बिहार के मज़दूरों को उनके घर पहुंचाने का बीजेपी का दावा असत्य तो है ही जिसकी तस्दीक उस दौरान की तमाम वो वीडियो और तस्वीरें करती हैं जिसमें दिख रहा था कि दिल्ली, हरियाणा, पंजाब और गुजरात से बिहार के मज़दूर गिरते पड़ते पैदल अपने घरों को लौट रहे हैं.
23 मार्च की रात को प्रधानमंत्री मोदी ने लॉकडाउन की घोषणा की थी. उसके बाद मज़दूरों का अपने घरों की तरफ लौटना शुरू हो गया. सरकार पर मज़दूरों और प्रदेश से बाहर पढ़ रहे छात्रों को वापस लाने का दबाव बढ़ता रहा. पहले तो बिहार सरकार ‘जो जहां है वहीं पर रहे’ का राग अलापती रही लेकिन किरकिरी होने के बाद छात्रों के लिए बसों का इंतज़ाम किया गया. मज़दूरों के लिए श्रमिक एक्सप्रेस चलाने का इंतज़ार करती रही. श्रर्मिक एक्सप्रेस मई महीने से चलनी शुरू हुई तब तक मज़दूरों का पैदल आना जारी रहा.
बीजेपी के इस चुनावी पोस्टर पर सुशील मोदी की भी तस्वीर लगी है जिन्होंने उस दौरान कहा था कि राज्य सरकार के पास मज़दूरों को वापस लाने के लिए साधन नहीं है. बिहार सरकार की साधन की अनुपलब्धता ने यहां के कई परिवारों का सहारा ही छीन लिया. न्यूजलॉन्ड्री ने ऐसे ही दो परिवारों से मुलाकात की.
हम आखिरी बार उसे देख भी नहीं पाए
लॉकडाउन के दौरान रामजी महतो की तस्वीर सोशल मीडिया पर खूब वायरल हुई थी. मुंह खुला हुआ और आंखें निकली हुई. शर्ट का एक मात्र बटन लगा हुआ था, जिससे पीठ से चिपका पेट साफ़ दिख रहा था. गर्दन के आसपास की हड्डियों को आसानी से गिना जा सकता था. लॉकडाउन लगने के बाद 25 मार्च को दिल्ली से पैदल निकले रामजी महतो की 16 अप्रैल को वाराणसी में मौत हो गई थी. ड्राइवर का काम करने वाले महतो की आखिरी तस्वीर से साफ़ समझ में आ रहा था कि उन्हें इस दौरान खाने को नहीं मिला जिस कारण उनकी मौत हो गई थी.
रामजी महतो की मौत के छह महीने बाद भी हम उनकी मां चंद्रावती देवी और पिता रामचंद्र महतो से बेगूसराय के उनके गांव कोठियारा में मिले. सड़क किनारे हमें लेने पहुंचे रामचंद्र महतो घर तक जाते हुए बातचीत के दौरान कहते हैं, ‘‘बड़ा बेटा था. आप जानते हैं कि बड़े बेटे से कितना लगाव रहता है. हम सबकी देखभाल भी वही करता था. आखिरी बार देख भी नहीं पाए.’’
रामजी महतो के निधन के वक़्त लॉकडाउन का पालन सख्ती से हो रहा था. उनकी मौत के बाद वाराणसी पुलिस ने परिजनों को शव लेने आने के लिए कहा लेकिन आसपास के लोगों के मना करने और आर्थिक स्थिति बेहतर नहीं होने की स्थिति में परिवार शव लेने नहीं पहुंचा. इसके बाद उसका वाराणसी में ही पुलिस ने अंतिम संस्कार कर दिया. आखिरी बार बेटे को नहीं देख पाने की तकलीफ चंद्रावती देवी और रामचंद्र महतो को अब तक परेशान किए हुए है.
रामजी महतो जैसे कुछ और लोगों की कहानी आप यहां पढ़ सकते हैं जो पैदल घर जाने के लिए निकले लेकिन पहुंच नहीं पाए.
गलियों से होते हुए हम रामजी महतो के घर पहुंचे. सामने एक दुबला-पतला शख्स नज़र आता है. उसकी तरफ इशारा करते हुए रामचंद्र महतो कहते हैं, ‘‘मेरे तीन बेटे थे. एक तो मर गया. यह दूसरा बेटा है. इसे एड्स है, इलाज चल रहा है. तीसरा बेटा पंजाब में कमाता है.’’
बातचीत के दौरान एक महिला छत से उतरती नज़र आई. उनकी तरफ देखकर वे कहते हैं, ‘‘ये उसकी मां है. डायबिटीज़ की मरीज है. हर रोज इन्सुलिन की सुई देनी होती है. जब से रामजी गया तब से इनकी स्थिति और खराब हो गई. क्या करें सर रोज मर रहे हैं हम लोग. बड़ा बेटा न था.’’ यहां हमें ‘बड़ा बेटा था न’ बार-बार सुनने को मिलता है.
चंद्रावती देवी को जैसे ही इस बात की भनक लगती है कि हम रामजी के बारे में जानने आए हैं वो फूट-फुटकर रोने लगती हैं. रोते-रोते वो कहती हैं, ‘‘बड़का बेटा रहय. गाड़ी घोड़ा बंद रहय. आखिरी में मुंह नय देख सक लिए.’’
बेटे की मौत के बाद रामचंद्र महतो का परिवार पूरी तरफ से टूट गया है. परिवार रामजी की आमदनी पर ही निर्भर था. बता दें कि जब रामजी की मौत हुई तो सोशल मीडिया पर काफी हंगामा हुआ था. उनकी अंतिम तस्वीर को साझा करते हुए लोगों ने सरकार से सवाल किए लेकिन इसका कोई असर नहीं हुआ. सरकार की तरफ से रामजी के परिजनों को एक पैसे की आर्थिक मदद नहीं दी गई.
रामचंद्र महतो सरकारी मदद मिलने के सवाल पर कहते हैं, ‘‘सरकार से एक पैसे की मदद अब तक नहीं मिली है. हमारे जिले के जदयू अध्यक्ष भूमिपाल जी तब आए थे. अपने साथ चावल-दाल और सब्जी लेकर आए थे. इन समानों के साथ-साथ पांच हज़ार रुपए भी दिए. उस दिन के बाद से कोई नेता या पदाधिकारी हमें देखने नहीं आया. अभी तक सरकारी स्तर से कुछ भी नहीं मिला है. हमारे पास खेत भी नहीं है कि कुछ उपजा सकें. लॉकडाउन के समय सरकार से तीन बार राशन मिला लेकिन अब तो वो भी नहीं मिल रहा है. आसपास के लोगों की मदद से घर चल रहा है. बेटियां मदद करती हैं.’’
रामचंद्र महतो कमरे के अंदर से कुछ कागज लाकर हमें दिखाते हैं जिसमें स्थानीय मुखिया गीता देवी द्वारा प्रमाणित एक पत्र है. इस पत्र में लिखा गया है कि रामजी महतो दिल्ली में मज़दूरी करते थे. लॉकडाउन के समय जब काम मिलना बंद हो गया तो वे पैदल ही अपने घर के लिए निकल गए. उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले के रोहिनिया थाने में उनकी मौत हो गई. मैं रामजी महतो को अच्छी तरह जानती एवं पहचानती हूं. पत्र को दिखाने के बाद महतो कहते हैं, ‘‘सरकारी मदद के लिए जब हमने बात की तो कहा गया कि मुखिया से प्रमाणित कराकर लाओ. तो हम प्रमणित कराकर भी ले गए लेकिन फिर भी कोई मदद नहीं मिली. सर, मेरा बेटा तो चला गया. पैसे और इलाज नहीं होने के कारण हम लोग भी ज़्यादा दिन नहीं रह पाएंगे.’’ इतना कहते ही रामचंद्र महतो रोने लगते हैं.
सरकार से ना रामचंद्र महतो को घर मिला है और ना ही उज्ज्वला योजना का लाभ. जो बेटा इनका ख्याल रखता था उसकी भी मौत सरकारी लापरवाही से हो गई. क्या आप सरकार से नाराज हैं इस सवाल पर रामचंद्र महतो कहते हैं, ‘‘मेरा बेटा मरा है. उसको हम आखिरी बार देख नहीं पाए. सरकार चाहती तो एम्बुलेंस से भेज सकती थी, लेकिन ऐसा नहीं किया. ऐसी सरकार से हम खुश होंगे. वोट तो हम देंगे लेकिन इस सरकार को नहीं देंगे. हम माले ( सीपीआई एमएल) को वोट करेंगे.’’
एक वहीं तो कमाने वाले थे
बेगूसराय शहर से 35 किलोमीटर दूर बखरी ब्लॉक के शकरपुरा गांव पहुंचकर हमने चाय दुकान चलाने वालीं बुजुर्ग महिला से मोहम्मद सईद के घर का पता पूछा तो वो ऊंगली से एक गली की तरफ इशारा करती हुई बिना रुके बोलीं, ‘‘वो बहुत अच्छा लड़का था. बहुत इज्जत से बोलता था. गली से निकलते हुए आवाज़ देता था, चाची चाय बना दो. मर गया. उसके छोटे-छोटे बच्चे हैं. कैसे उसकी बेवा संभालेगी सबकुछ. भगवान ने उसके साथ गलत किया.’’
बुजुर्ग महिला की ही दुकान पर बैठे एक नौजवान हमें सईद के घर की तरफ लेकर चल देते है. पतली गली से होते हुए हम मरहूम सईद के घर की तरफ चल दिए. पांच मिनट पैदल चलने के बाद अर्धनिर्मित घर के बरामदे में एक महिला अपनी बेटी को गोद में लिए हुई मिली. महिला का चेहरा किसी सोच में खोया नज़र आता है. यह सईद की पत्नी अजमेरिना खातून हैं. 40 वर्षीय अजमेरिना के आसपास उनकी दो छोटी-छोटी बेटियां मडराती नज़र आईं. थोड़ी देर बाद सईद को लेकर बातचीत शुरू होती है तो वो एक दम धीमी आवाज़ में कहती हैं, ‘‘ एक ही तो कमाने वाले थे वो भी....’’ इतना कहने के बाद वह कुछ ऐसे चुप होती है जैसे गले में कुछ फंस गया हो.
50 वर्षीय मोहम्मद सईद कोलकाता में रहकर सड़क किनारे पान की दुकान चलाते थे. लॉकडाउन लगने के बाद कर्ज लेकर खर्च चलाते रहे लेकिन जब आर्थिक स्थिति बिलकुल बदहाल हो गई तो मई महीने में वे पैदल और पीकअप से अपने घर के लिए निकल गए. जब वे अपने घर पहुंचे तो गांव के पास ही सोनमा सिमरी स्कूल में क्वारंटाइन किया गया.
अजमेरिना खातून कहती हैं, ‘‘क्वारंटाइन सेंटर में दस दिन रहने के बाद 11वें दिन उनकी तबीयत बिगड़ गई. तबीयत बिगड़ने की जानकारी मिलने पर हम लोग वहां पहुंचे और उन्हें उठाकर अस्पताल ले गए. वहां इनकी देखभाल करने वाला कोई नहीं था. बखरी में इलाज कराने के बाद घर लेकर चले आए. यहां लेकर आए तो यहां की वार्ड ने कहा कि इन्हें क्वारंटाइन सेंटर भेजो नहीं तो सबको जाना होगा. उन्हें एक घंटा भी यहां नहीं रहने दिया.’’
बिहार चुनाव में बीजेपी-जदयू के नेता कोरोना को लेकर सरकारी तैयारियों की चुनावी रैलियों में जिक्र करते नज़र आ रहे हैं, लेकिन इससे बड़ी सरकारी लापरवाही क्या होगी कि क्वारंटाइन सेंटर से एक शख्स बीमार होता है तो उसके परिजन उठाकर अस्पताल ले लाते हैं और इसकी खबर प्रशासन को देर शाम को चलती है.
अजमेरिना कहती हैं, ‘‘वे बीमार हो गए थे. कहने के बावजूद उनका इलाज नहीं कराया गया. उल्टा बीमारी की हालत में उन्हें घंटो धूप में खड़ा करा दिया गया जिस वजह से उनकी बीमारी और बढ़ गई. एक दिन बाद तो उनका 14 दिन पूरा होना था. वे घर आने वाले थे. सरकार के लोगों ने ना खुद इलाज कराया और ना ही हमें कराने दिया. उन्हें मार दिया.’’
अजमेरिना के पांच बच्चे हैं. सबसे बड़ा बेटा महज 15 साल का है. घर की माली हालत खराब होने के कारण उसे दिल्ली कमाने के लिए भेज दिया है. अजमेरिना कहती हैं, ‘‘हर महीने दस हज़ार रुपए भेज देते थे. सब ख़ुशी-ख़ुशी होता था. अब तो मायके के सहारे हूं. बीते दिनों बेटी छत पर से गिर गई तो इलाज के लिए मायके जाना पड़ा. मायके वाले भी कब तक मदद करेंगे. सबके अपने-अपने खर्चे हैं. मेरा सहारा छीन लिया सरकार ने.’’
सईद की मौत के बाद स्थानीय लोगों ने जमकर हंगामा किया. उस वक़्त वहां मौजूद रहे यहां के पूर्व मुखिया मोहम्मद महफूज कहते हैं, ‘‘उनकी मौत प्रशासन की लापरवाही की वजह से ही हुई है. जब उनकी तबीयत बिगड़ी तो हमने वहां के व्यवस्थापक से इलाज के लिए बोला, लेकिन दो-तीन घंटों तक डॉक्टर का इंतज़ाम नहीं किया. हारकर हम लोग खुद बखरी बजार इलाज के लिए लेकर गए. इलाज कराकर उसे घर लेकर चले आए, लेकिन फिर उन्हें क्वारंटाइन सेंटर में बुला लिय. यह जानते हुए कि उनकी तबीयत खराब है उन्हें अस्पताल न ले जाकर सेंटर ले जाया गया. अगले दिन उनकी मौत ही हो गई. यहां के लोगों ने तब प्रदर्शन किया तो अधिकारियों ने मुकदमा करने की धमकी तक दी. जब लोग नहीं माने तो प्रशासन ने पीड़िता को आर्थिक मदद देने का वादा किया, लेकिन अब तक उन्हें कुछ नहीं मिला है.’’
सरकार से आर्थिक मदद के सवाल पर अजमेरिना कहती हैं, ''सरकार के लोगों ने कुछ नहीं दिया. क्वारंटाइन में रहे, लोग कहते हैं कि उसमें रहने के बाद पैसा मिलता है वो भी नहीं मिला. मेरा बेटा क्वारंटाइन में था, लेकिन उसे भी एक रुपया नहीं मिला. लॉकडाउन के समय मालिक (सईद) ने पैसे भेज दिए थे कि अनाज खरीद लो. उसी से बच्चों को खिला रही हूं. मायके में मां है वो बेटी की पीड़ा समझती है. वहां से कुछ मिल जाता है तो सब्जी-तेल का इंतज़ाम हो जाता है. ढेर परेशानी हैं. पर किससे कहें.’’
बीजेपी के चुनावी पोस्टर पर रामचंद्र महतो कहते हैं कि मेरा बेटा पैदल चलते हुए भूख से मर गया. हम क्या बोलें. रामचंद्र महतो तो खुलकर अपनी नाराजगी दर्ज कराते हैं लेकिन अजमेरिना खातून पोस्टर और चुनाव को लेकर किए गए सवाल पर चुप हो जाती हैं. अजमेरिना की चुप्पी कई सवाल उठाती है. क्या सचमुच सभी मज़दूरों को सरकार ने उनके घर पहुंचाया. इसका जवाब भले ही बीजेपी हां में दे रही हो लेकिन इसका जवाब ना ही है. सरकार के पास भले ही लॉकडाउन के दौरान मरे लोगों के आंकड़ें न हो लेकिन जिन्होंने अपनों को खोया है उन्हें मालूम कि उनका अब अपना इस दुनिया में नहीं है.
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