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स्कैम 1992: हर्षद मेहता के बहाने देश की संस्थाओं के पतन का दस्तावेज़

ओटीटी प्लेटफॉर्म सोनी लिव पर ताज़ा आई एक वेब सीरीज ‘स्कैम 1992’ ने लगभग हर उम्र के लोगों का ध्यान अपनी तरफ खींचा है. विशेष रूप से 80 के दशक में पैदा हुई और 90 के बाद थोड़ा समझदार हुई पीढ़ी का परिचय शेयर मार्केट के बेताज बादशाह हर्षद मेहता से बहुत गहरा रहा है. आज हमें भले ही कुल पांच हज़ार करोड़ की रकम मौजूदा घोटालों की राशि के सामने बहुत तुच्छ लगे पर यह बात उस दौर की है जब पांच सौ और एक हज़ार के नोट भी चलन में नहीं थे.

इस सीरीज का कथानक तथ्यपरक है, खोजी है और प्रामाणिक है और यह इसलिए है क्योंकि यह उस दौर के दो पत्रकारों देवाशीष बासु और सुचेता दलाल की किताब पर आधारित है. इसमें कल्पना की गुंजाइश इसलिए भी कम या नहीं के बराबर है क्योंकि वास्तविक कहानी से ज़्यादा रोचक बनाने के लिए उसकी दरकार नहीं है.

हंसल मेहता द्वारा निर्देशित इस वेब सीरीज के पहलू हैं जो एक वास्तविक कहानी को पर्दे पर उतारने कला के नए व्याकरण और सोपान प्रदान करते हैं. इस वेब सीरीज का तकनीकी और रचनात्मक पक्ष इतना सशक्त है कि उस पर चर्चा करना शब्दों का अपव्यव ही होगा.

हर्षद मेहता एक ऐसा नाम है जिसमें आज भी कई लोग एक नायक तलाश करते हैं. खलनायक तो वह है ही. वह खलनायक है क्योंकि उसने व्यवस्था के तमाम लूप होल्स को अपने मुनाफे के लिए न केवल इस्तेमाल किया बल्कि शेयर मार्केट से जुड़ी आर्थिक व्यवस्था में पहले से मौजूद छोटी मोटी दरारों को दरवाजों में तब्दील किया. जिससे अमीर होने के साधनों की आवाजाही आसान हो जाए.

इस सीरीज और इस महत्वपूर्ण किताब के मार्फत हमें उस दौर की राजनीति, पत्रकारिता, न्यायपालिका, रिजर्व बैंक और समाज में मौजूद नैतिकता के ऐसे अवशेष मिलते हैं जिनसे अगर आज की तुलना करें तो पारदर्शिता के तमाम अत्याधुनिक साधनों से लैस और चाक चौबंद व्यवस्था के दावों के बावजूद गंभीर निराशा हाथ लगती है.

भले ही उस समय के सबसे बड़े घोटाले का पर्दाफाश 1992 में हुआ हो लेकिन इसकी पृष्ठभूमि थोड़ा और पीछे की है. हर्षद मेहता के माहिर खिलाड़ी बनने की कहानी उसकी ज़िद, उसके अपमान और उसके तेज़ दिमाग की कहानी है. एक बेहद निम्न आय वर्ग का लड़का अपने पैरों पर खड़े होने के लिए वह सब कुछ करता है जो उसे मौके के रूप में उपलब्ध होता है. शेयर मार्केट में जोहार से लेकर ब्रोकर तक वह पूरी तन्मयता से काम सीखता है.

अपने स्थापित सेठों को रोज़-रोज़ धन कमाते और उनके धन कमाने के तरीकों को बहुत नजदीक से देखता सीखता है. जोखिम उठाता है, दांव चलना सीखता है. जुए के नियम और जुए में बाज़ी को अपने पक्ष में मोड़ना सीखता है. जिस धंधे में वह खुद को झोंकता है उसका एक ही उसूल उसे याद रहता है और वो है किसी भी परिस्थिति में बाज़ी अपने हाथ लाना. इसके लिए जो करना पड़े करो. इस धंधे में नैतिक अनैतिक जैसा कुछ नहीं है. वह पारिवारिक जीवन जीता है और इस लिहाज से उसने अपनी नैतिकता का एक दायरा तय किया हुआ है जिसे वह अपने उत्थान-पतन के उरूज़ पर पहुंच कर भी नहीं तोड़ता.

हर्षद खुद को ज़्यादा से ज़्यादा सफल और अमीर बनाने के लिए बड़े सपने देखता है. खुद से कभी झूठ नहीं बोलता. अपने पूर्वानुमान और मार्केट की बारीक समझ के बूते नए-नए प्रतिमान गढ़ता है. चालाकियां, मैन्यूपुलेशन्स आदि चूंकि इस धंधे की अनिवार्य योग्यताएं हैं तो वो उसमें पूरी तरह निष्णात होते जाता है.

हर्षद की ज़िंदगी खबर तब बनती है जब वह अपने बड़े होने के लिए मार्केट को फैलाने और उसका विस्तार करने की दिशा में काम शुरू करता है. यह समझ उसे तब आती है जब वह ‘मनी मार्केट’ के बारे में पहली बार जानता है. जिसका परिचय उससे एक पार्टी में अपमान के साथ होता है. पूरी सीरीज में वह पहली दफा इस अपमान से पैदा हुए ग़म को ग़लत करने के लिए शराब पीते हुए दिखलाया गया है. इसका ज़िक्र इसलिए किया जा रहा है कि हर्षद के चरित्र में बेतहाशा और अल्पावधि में मिली सफलताओं से उत्पन्न होने वाली वैसी दुर्बलताएं नहीं आतीं जैसा प्राय: देखा गया है.

हर्षद अपने निवेशकों को गारंटी से खूब मुनाफा देता है. लोग हर्षद पर भरोसा करने लगते हैं. उसकी कंपनी ‘ग्रोमोर’ जल्द ही मार्केट में छा जाती है. लाखों निवेशकों का भरोसा जीतते हुए और पुराने धुरंधरों को किनारे लगाते हुए हर्षद बहुत कम समय में शेयर मार्केट का अमिताभ बच्चन बन जाता है. उसे खुद के लिए यह सुनना पसंद भी आता है.

मनी मार्केट के बारे में जानकर उसका पूरा रुझान उसी तरफ आ जाता है लेकिन वहां पहले से स्थापित कर्टेल उसे एंट्री पास भी नहीं देते. यहां विदेशी बैंकों और उससे जुड़े दलालों का सम्पूर्ण कब्जा है. इस एकाधिकार को तोड़ने और देशी बैंकों को इस अखाड़े में लाने के मकसद से हर्षद की ज़िंदगी की दूसरी पारी शुरू होती है.

इस पारी के लिए वह पहले से सीखी तमाम कला और विज्ञान के साथ-साथ नयी-नयी सलाहियतें हासिल करता है. यह दूसरी पारी उसे मौजूदा तंत्र की भ्रष्ट और साज़िशों की तंग गलियों में ले जाती है. जो ख्वाब उसने अब देख लिए थे उसे इन गलियों से गुजरे बिना पाया नहीं जा सकता था.

बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज का बेताज बादशाह बन चुका हर्षद जिसके बारे में आम राय सी बनने लगी थी कि यह अब बॉम्बे नहीं बल्कि हर्षद स्टॉक एक्सचेंज कहना चाहिए, मनी मार्केट के नए तिलस्म में डूबने लगता है. यहां उसे अब राजनीति की शरण में जाना ज़रूरी हो जाता है. दिल्ली अब उसे अपनी जद में लेने को आतुर हो जाती है. हालांकि यह बहुत स्पष्ट नहीं होता है कि वो दिल्ली के पास जाता है या दिल्ली उसके पास लेकिन बॉम्बे से दिल्ली के बीच की दूरी टेलीफोन के तारों से सिमट जाती है.

हर्षद इस बीच सरकारी कंपनियों, सरकारी बैंकों की आराम तलब बचतों और धन को मार्केट की तरफ लाने में बड़ी भूमिका निभाता है और शायद यह पहली दफा ही होता है जब सरकारी बचतों को शेयर मार्केट की तरफ ले जाया जाता है और यह खेल सभी के लिए मुनाफे के नए रास्ते खोलता है.

इससे हर्षद के कैरियर के दो रास्ते बहुत आसान हो जाते हैं. पहला शेयर मार्केट का आकार बढ़ाना और दूसरा मनी मार्केट में देशी दलाल का एकछत्र राज. एक तरफ शेयर मार्केट में हर्षद की जोखिम उठाने और बाज़ार पर लगभग एकाधिकार स्थापित करने की क्षमताओं में अतुलनीय वृद्धि होती है वहीं उसके शुभचिंतकों की संख्या तेज़ी से बढ़ती है. शुभचिंतक निवेशकों में और निवेशक शुभचिंतकों में तब्दील होते जाते हैं. हर्षद की बेतहाशा कमाई और उसकी बढ़ती शोहरत की ज़रूरत दिल्ली को भी पेश आने लगती है.

एक तांत्रिक चंद्रास्वामी उसके और पीएमओ के बीच की टेलीफोन लाइन बन जाते हैं. यह दौर देश में आर्थिक सुधारों का है और हर्षद इस दौर में खुद को देश की अर्थव्यवस्था के आकार को बढ़ाने, बाज़ार की तरक्की और देशी विदेशी निवेशकों के लिए सबसे मुफीद जगह बनाने के राष्ट्रीय कर्तव्य में लग जाता है. यही हर्षद की खूबी बन जाती है कि यहां से वह अपने मुनाफे के लिए उठाए गए हर कदम को देश की बेहतरी के लिए उठाया गया कदम बताने लगता है. इस उठाए गए कदम में अगर कुछ क़ानूनों का उल्लंघन या उनकी अवहेलना होती है तो उद्देश्य या साध्य की पवित्रता के समक्ष वह बहुत छोटा प्रश्न हो जाता है जिसे नज़रअंदाज़ किया जाना इसलिए उचित जैसा लगता है क्योंकि आर्थिक सुधारों के लिए भी उन्हें अड़चनों के रूप में ही देखा जाता है.

अब हर्षद न केवल बाज़ार को, निवेशकों को या अपने प्रतिद्वंद्वियों को बल्कि भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक रूप से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से देश की जनता को भी यह भरोसा दिला पाने में कामयाब हो जाता है कि हर्षद मेहता जो भी सोचता और करता है वह देश की तरक्की के लिए करता है.

इस अवसर पर मणिरत्नम की ‘गुरु’ फिल्म की याद आना स्वाभाविक है. विशेष रूप से वह दृश्य जब धीरूभाई अंबानी की कारस्तानी पकड़ी जाती है और वो अदालत में जोरदार भाषण लगाते हुए यह स्थापित कर देते हैं कि महात्मा गांधी द्वारा नमक कानून को तोड़ना और उनके द्वारा आयात-निर्यात से संबंधित देश के कानून को तोड़ना दोनों एक बातें हैं और जिस पर थियेटर हाल में बैठे लोग लंबे समय तक ताली पीटते रहते हैं.

अब दिल्ली से जुड़े तार उसे ज़्यादा उग्र और आत्म विश्वासी बना देते हैं. वो अब बेखटके सरकारी कंपनियों के प्रमुखों से मुलाकातें करता है, उन्हें निवेश के लिए तैयार करता है और अपने नाम पर ही बड़ी-बड़ी रकम हासिल करने लगता है. बैंकिंग व्यवस्था भी एक संक्रमण काल से गुज़र रही होती है. उसे वैश्वीकरण, उदारीकरण और निजीकरण के अनुरूप खुद को ढालने के लिए हर्षद के सुझाव ज़रूरी लगने लगते हैं और वो हर्षद को एक व्यक्ति नहीं बल्कि भारत सरकार के अधीन एक संस्था की तरह समझने लगते हैं. उसका रुतबा, उसकी साख, उसकी समझ और उसकी समझा लेने की तजुर्बेदार कला जिसमें अगर प्रधानमंत्री कार्यालय से मिला वरदहस्त भी जोड़ लें तो एक ऐसा रसायन बनता था जिसके असर से कोई बच नहीं सकता था.

हालांकि इस रसायन का तो नहीं पर उस दौर का एक गंभीर दोष था और वो ये कि वो दौर नरेंद्र दामोदर दास मोदी का ‘न्यू इंडिया’ नहीं था. उस दौर में भी तमाम बड़ी संस्थाएं स्वायत्त थीं, सरकार या किसी राजनैतिक दल या उसकी मातृ-संस्था उनमें घुसपैठ नहीं कर पायी थी और प्राय: ऐसी संस्थाएं मसलन, रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (आरबीआई), सेंट्रल ब्यूरो ऑफ इंवेस्टिगेशन (सीबीआई). सीआईडी, स्टेट पुलिस और सबसे महत्वपूर्ण संस्था मीडिया और पत्रकारिता लगभग निष्पक्ष लेकिन अधिकांश स्वतंत्र व स्वायत्त थी. संस्थाओं में छवि, शुचिता, जवाबदेही और स्वायत्ता जैसी कुछ नेहरूयुगीन बुराइयां थीं जिनकी वजह से एक स्थापित हीरो आज खलनायक की तरह याद किया जाता है.

प्रधानमंत्री कार्यालय भी एक समय के बाद हर्षद से दूरी बना लेता है. आज की तरह गलबहियां नहीं करता और उनकी अनैतिक तरक्की का सम्मान किए जाने की नसीहतें नहीं देता (संदर्भ: प्रधानमंत्री मोदी का 15 अगस्त 2019 को दिया गया भाषण जिसमें वो जनता से अपील करते हैं कि इन्हें वेल्थ क्रिएटर मानते हुए इनका सम्मान किया जाना चाहिए).

तत्कालीन आरबीआई गवर्नर सी. रंगराजन खुद मीडिया में खबर देते हैं. सुचेता दलाल जैसी आर्थिक मामलों की पहली महिला पत्रकार को सूचनाएं देते हैं, संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) के सांसद सदस्य संकलित सूचनाओं के ब्यौरे पत्रकारों को खुद मुहैया कराते हैं ताकि देश में लोगों तक इन घोटालों की खबरें पहुंचें और जन दबाव बने.

सीबीआई के कर्मठ अधिकारी माधवन जैसे लोग अपनी कर्तव्यनिष्ठा के लिए इस्तीफा देना मंजूर करते हैं. टाइम्स ऑफ़ इंडिया जैसा पत्रकारिता का संस्थान विज्ञापनों और खबरों की फिरौती बटोरने से ज़्यादा तवज्जो अपने पत्रकार को देता है. कहीं-कहीं लग सकता है कि सुचेता के सामने संस्थान के भीतर मुश्किलें खड़ी हो भी रही हैं तो उसके पीछे खबर की सच्चाई और उसके पीछे के पुख्ता आधार और तैयारी कारण बनते हैं. जिसका ख्याल रखने की ज़रूरत आज के दौर की पत्रकारिता को कतई नहीं है.

यह सीरीज एक ऐसा दस्तावेज़ है (एक दस्तावेज़ पर आधारित ही है) जो हमें संस्थाओं के पतन की कहानी बताता है. संस्थाओं का स्वतंत्र और स्वायत्त वजूद ही ऐसे घोटालों पर नकेल कस सकता है. प्रधानमंत्री कार्यालय की संलिप्तता उस दौर में ज़रूर बिग ब्रेकिंग रही होगी पर आज जैसे सब इसे मान चुके हैं कि देश में ऐसा कौन सा गैरकानूनी काम नहीं है जो सीधा साउथ ब्लॉक और 3, आरसीआर के संरक्षण में न हो रहा हो.

बहरहाल, हर्षद अगर हीरो है तो उसके पीछे उसका तेज दिमाग, आगे बढ़ने की उत्कट महत्वाकांक्षा है और अगर वह विलेन है तो देश की जिम्मेदार संस्थाओं का वाकई जिम्मेदार होना है. व्यक्तियों का नैतिक पतन हर दौर की अनिवार्य सी कहानी है. संस्थाएं ही व्यक्तियों के नैतिक पतन पर नकेल भी कसती हैं.

बहरहाल इस कहानी की हीरो तो सुचेता दलाल हैं. सी. रंगराजन हैं. माधवन हैं. आरबीआई है. मीडिया है. सीबीआई है (हालांकि माधवन ने तोता करार दिये जाने को लेकर आगाह किया था) और विलेन भी हर्षद के साथ-साथ उसके पक्ष में खड़े तमाम लोग हैं. अपने दौर का बल्कि हर दौर का एक ज़रूरी दस्तावेज़ है. वेब सीरीज के रूप में मौजूद है तो देखा जाना चाहिए.

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