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पी राजन की पुलिस हिरासत में हुई हत्या, जिसने पूरी केरल सरकार को घुटने पर ला दिया

2015 में प्रसारित तमिल फिल्म विसरानाई में जिस तरह से पुलिस वाले अपराध को कबूलवाने के लिए कुछ निर्दोष मजदूरों को थाने के अंदर बुरी तरह मारते-पीटते हैं, बाद में थर्ड डिग्री टार्चर के चलते हुयी मौत को आत्महत्या करार दे देते हैं, एक टीम डकैती का इलज़ाम लगाकर मजदूरों को एक फर्जी मुठभेड़ में गोली मार देते हैं, उसी तरह असल ज़िन्दगी में भी पुलिस ने कई ऐसे कारनामों को अंजाम दिया है. हिरासत में होने वाली मौतों को लेकर पुलिस की हमेशा यही कोशिश होती है कि मामला रफा दफा कर दिया जाय.

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के अनुसार साल 1999 से लेकर 2017 तक भारत में 1800 लोगों को पुलिस हिरासत में अपनी जान गंवानी पड़ी थी. इनमें से सिर्फ 842 मामलों में एफ़आईआर दर्ज हुयी. 365 मामलों में आरोपपत्र दाखिल किये गए थे और सिर्फ 34 मामलो में आरोप साबित हुए.

असल में हिरासत में हुई हर मौत के बाद पुलिस की कोशिश यही रहती है कि उसे किसी दुर्घटना का रूप दे दिया जाय. कुछ मामलों में तो यह तक कह दिया गया है कि कोई गिरफ्तारी हुई ही नहीं थी. हम ऐसे ही कुछ मामलों पर नज़र डालते हैं जो हिन्दुस्तान में पुलिस हिरासत में होने वाली मौतों का एक डरावना चेहरा सामने रखता है.

जब भी कस्टोडियल किलिंग (पुलिस हिरासत में हुई मौतें) का ज़िक्र होता है तो केरल के कोड़िकोड (कैलीकट) में हुए उस मामले को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता जिसमें एक पिता ने अपने बेटे की खोज में केरल की तत्कालीन कांग्रेस सरकार को हिला कर रख दिया था. लेकिन प्रशासन और पुलिस को बेनकाब करने की बावजूद भी उन्हें अंतिम संस्कार करने के लिए भी अपने बेटे का शव नहीं मिला. यह कहानी भले ही अख़बारों में कई बार छप चुकी हो लेकिन इसे जितनी बार दोहराया जाए उतना कम है.

पी राजन

हम बात कर रहे हैं कोड़िकोड इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्र पी राजन की. केरल पुलिस ने उनको 29 फरवरी, 1976 को कॉलेज के हॉस्टल से हिरासत में लिया था. इस घटना की जानकारी कॉलेज के तत्कालीन प्रिंसिपल ने ख़त लिखकर उनके पिता टीवी इचारा वारियर को दी थी. लेकिन उस दिन के बाद से उनका बेटा गायब हो गया और मरते दम उन्हें दोबारा अपने बेटे का चेहरा देखना नसीब नहीं हुआ.

वारियर हिंदी के प्रोफेसर थे जो कोड़िकोड के गवर्नमेंट आर्ट्स एंड साइंस कॉलेज से रिटायर होने के बाद कोच्चि में रहने लगे थे. उस वक़्त देश में आपातकाल चल रहा था. इस मामले में दायर एक कानूनी याचिका के मुताबिक अपने बेटे के गायब हो जाने के बाद उन्होंने कई पुलिस थानों के चक्कर लगाए लेकिन उन्हें अपने बेटे के बारे में कुछ भी पता नहीं चला.

लगभग 10 दिन तक थानों के चक्कर काटते-काटते उन्हें सिर्फ इतनी जानकारी मिल पायी थी कि उनके बेटे को तिरुअनंतपुरम के तत्कालीन पुलिस उप महानिरीक्षक (डिप्टी इंस्पेक्टर जनरल), अपराध शाखा के निर्देश पर गिरफ्तार किया था. इसके बाद 10 मार्च, 1976 को उन्होंने  केरल के तत्कालीन गृहमंत्री के. करुणाकरण से मिलकर मदद की गुहार लगाई. करुणाकरण ने तब उन्हें भरोसा दिया था कि वह उनकी मदद करेंगे. बेटे की खोज में प्रोफेसर वारियर ने भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, गृहमंत्री के साथ-साथ केरल के सभी सांसदों और केरल के तत्कालीन गृह सचिव से भी मदद की गुहार लगाई थी.

पी राजन के पिता टीवी इचारा वारियर, जिन्होंने बेटे के लिए लंबी लड़ाई लड़ी

जनवरी 1977 के अंत तक जब इंदिरा गांधी ने लोकसभा चुनावों की घोषणा कर दी, तब बहुत से राजनैतिक कैदियों को छोड़ा जाने लगा था. प्रोफेसर वारियर को उम्मीद थी कि अगर पुलिस ने उनके बेटे को आपातकाल के दौरान गिरफ्तार किया होगा तो वो उसे भी छोड़ देंगे. उनको उस वक़्त यह भी नहीं पता था कि उनका बेटा है कहां. लगभग दस महीने से अपने बेटे की तलाश की जद्दोजहद में लगे प्रोफेसर वारियार को हल्की सी उम्मीद की किरण तब दिखी जब उस वक्त के मशहूर कम्युनिस्ट नेता वी. विश्वनाथन मेनन ने उन्हें तत्कालीन प्रदेश सरकार में गृहमंत्री के. करुणाकरण द्वारा भेजा गया एक पत्र दिखाया जिसमें करुणाकरण ने राजन की रिहाई विचाराधीन है वाली बात लिखी थी. लेकिन जल्द उनकी उम्मीद टूट गयी क्योंकि वह खत लगभग डेढ़ महीने पुराना था. यह खत मेनन द्वारा राजन की रिहाई की दरख्वास्त के जवाब में आया था.

करुणाकरण के इस जवाब के बाद प्रोफेसर वारियर ने एक बार फिर पुलिस अधिकारियों से अपने बेटे के बारे में मालूमात करना शुरू किया. उन्होंने कन्नूर, तिरुअनंतपुरम और त्रिशूर स्थित केन्द्रीय जेलों के चक्कर काटे, इस उम्मीद से कि शायद उन्हें उनके बेटे की कुछ खबर मिल जाय. उन्होंने उस  दौरान वहां बने कई पुलिस कैम्पों की भी ख़ाक छानी लेकिन उन्हें हर जगह उन्हें निराशा हाथ लगी.

अपने बेटे को खोने के गम में उनकी पत्नी की मानसिक स्थिति भी बिगड़ गयी थी और उन्हें अस्पताल में भर्ती करना पड़ा. इसके बाद प्रोफेसर वारियर ने केरल के तत्कालीन मुख्यमंत्री सी. अच्युता मेनन से अपने बेटे का पता करने के लिए मदद मांगी, लेकिन वहां भी उन्हें निराशा ही हाथ लगी. मेनन ने उनसे कह दिया था कि वह इस मामले में ज़्यादा कुछ नहीं कर सकते क्योंकि इस मामले की निगरानी करुणाकरन कर रहे हैं. चारो तरफ से निराश होकर प्रोफेसर वारियर ने मदद के लिए जनता का रुख किया. उन्होंने खुद ही अपने बेटे की गुमशुदगी और जद्दोजहद के बारे में लिखकर पर्चे बांटना शुरू कर दिया. इसके बाद 25 मार्च 1977 को उन्होंने केरल हाईकोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया. वहां उन्होंने बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर की. अपनी याचिका में उन्होंने पूछा था कि क्या 29 फरवरी, 1976 को पुलिस ने उनके बेटे को गिरफ्तार किया था और क्या उनका बेटा पुलिस हिरासत में हैं. उन्होंने अपनी याचिका में यह भी अपील की थी कि अगर उनका बेटा राजन पुलिस की हिरासत में है तो उसे अदालत में पेश किया जाय.

अदालत में मामला पहुंचने के बाद समूचे केरल में इसको लेकर हंगामा शुरू हो गया. लेकिन फिर भी मौजूदा सरकार कह रही थी कि राजन को पुलिस ने गिरफ्तार नहीं किया है. जहां अदालत में जवाबी कार्यवाई के दौरान पुलिस के आईजी और डीआईजी पद के अधिकारी साफ़-साफ़ झूठ कह रहे थे कि पुलिस ने राजन को कभी गिरफ्तार ही नहीं किया वहीं करुणाकरण अदालत में अपना जवाब पेश करते वक्त साफ मुकर गए कि उन्हें राजन की गिरफ्तारी के बारे में पता था. इतना ही नहीं उन्होंने यह भी दावा किया कि वो कभी प्रोफेसर वारियर से नहीं मिले.

मुकदमा दायर करने के बाद प्रोफेसर वारियर ने अपने वकील साथी रामकुमार और ईश्वरा अय्यर के निर्देशों पर बड़ी मशक्कत कर अपने बेटे के इंजीनियरिंग कॉलेज के 11 छात्रों को अदालत में गवाही देने के लिए राजी कर लिया. ये वही छात्र थे जिनमें से कुछ ने पुलिस को कॉलेज से राजन को हिरासत में लेते हुए देखा था और कुछ वो थे जिन्हें पुलिस ने राजन के साथ कक्कायम स्थित पुलिस कैंप में यातनाएं दी थी.

पुलिस उप-महानिरीक्षक (अपराध शाखा) जयराम पडिकल

13 अप्रैल, 1977 को अदालत में सभी गवाह पेश हुए. अदालत इस नतीजे पर पहुंची कि राजन को पुलिस ने गिरफ्तार कर कक्कायम पुलिस कैंप में प्रताड़ित किया था और इस मामले में तत्कालीन मुख्यमंत्री करुणाकरन, पुलिस महानिरीक्षक वीएन राजन, पुलिस उप-महानिरीक्षक (अपराध शाखा) जयराम पडिकल, कोड़िकोड के तत्कालीन पुलिस अधीक्षक लक्ष्मणन के साथ-साथ तत्कालीन गृह सचिव नारायणसामी को बंदी प्रत्यक्षीकरण आदेश जारी कर राजन को अदालत में पेश करने का निर्देश दिया.

करुणाकरण और पुलिस अधिकारियों ने सुप्रीम कोर्ट में इस फैसले के खिलाफ याचिका दायर की, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने भी केरल हाईकोर्ट के फैसले को सही ठहराते हो राजन को अदालत में पेश करने के निर्देश दिए. इस मामले की सुनवाई के दौरान केरल के सभी छात्र संगठन एकजुट होकर आंदोलन कर रहे थे. अखबारों ने भी इस मामले को जोर-शोर से उठाया था. सुप्रीम कोर्ट के इस निर्देश के बाद मुख्यमंत्री की ताजपोशी के एक महीने के भीतर ही करुणाकरण को अपनी कुर्सी गंवानी पड़ी थी. केरल हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने राजन को पेश करने के आदेश तो दे दिए थे, लेकिन राजन कभी अदालत में पेश नहीं हुए.

जैसे-जैसे इस मामले की कानूनी कार्यवाही आगे बढ़ती जा रही थी वैसे-वैसे पुलिस और प्रशासन का चेहरा बेनकाब होता जा रहा था. 23 मई, 1977 को केरल हाईकोर्ट में हुई एक सुनवाई के दौरान, पुलिस महानिरीक्षक वीएन राजन और गृह सचिव नारायणसामी ने अदालत में दाखिल अपने शपथपत्रों में उनके द्वारा दिए हुए पहले के बयानों को खारिज करते हुए दावा किया कि राजन को अदालत के सामने इसलिए पेश नहीं किया जा सकता क्योंकि वह ज़िंदा नहीं हैं. कक्कायम पुलिस कैंप में उन्हें लोहे और लकड़ी की छड़ों से लगातार पीटे जाने के चलते उनकी मृत्यु हो गयी. वीएन राजन और नारायणसामी ने अदालत के सामने अपनी बात रखते हुए कहा था कि राजन की मौत के बारे में उन्हें 17 मई को ही जानकारी प्राप्त हुयी थी, जब केरल सरकार के आदेश पर मामले की न्यायिक जांच कर रहे अधिकारी ने कोड़िकोड स्थित पेराम्बरा की जिला अदालत में जांच की रिपोर्ट दाखिल की थी. उनके द्वारा दिए गए पिछले बयानों के सम्बन्ध में उन्होंने कहा था कि वो बयान उन्होंने पुलिस उपमहानिरीक्षक जयराम पडिकल और कोड़िकोड पुलिस अधीक्षक के लक्ष्मणा द्वारा दी गई गलत जानकारी के आधार पर दिए थे.

गौरतलब है कि 13 जून, 1977 को इस मामले में अपना आदेश सुनाते हुए केरल हाईकोर्ट ने कहा कि मौजूदा सबूतों से ज़ाहिर होता है कि 29 फरवरी, 1976 को पुलिस ने राजन को उसके कॉलेज से गिरफ्तार किया और प्रताड़ित कर मार दिया. अदालत ने अपने आदेश में के करुणाकरण, पुलिस उप महानिरीक्षक जयराम पडिकल और कोड़िकोड पुलिस अधीक्षक के लक्ष्मणा के खिलाफ झूठे सबूत पेश करने के चलते अभियोजन शुरू करने के आदेश दिए. साथ ही सभी दोषी पुलिकर्मियों के खिलाफ कार्रवाई का आदेश दिया.

हालांकि कक्कायम पुलिस कैंप में राजन को प्रताड़ित कर मारने में केरल पुलिस की अपराध शाखा के अधिकारियों के साथ कोड़िकोड पुलिस के अधिकारी भी शामिल थे. लेकिन इस मामले में अपराध शाखा के अधिकारियों को मुख्य आरोपी बनाया गया. पडिकल के साथ-साथ दो अन्य पुलिस अधिकारी कुंजीरामन नाम्बियार और मुरली कृष्णदास की भी गिरफ्तारी हुयी थी. सभी पर हत्या का मुकदमा दायर हुआ, लेकिन सबूतों के अभाव में कोर्ट ने हत्या की धारा हटाते हुए उन्हें सिर्फ एक साल की सजा दी. एक साल की सजा के खिलाफ उन्होंने मद्रास हाई कोर्ट में याचिका दायर की थी और बरी हो गए थे. इसके अलावा कोड़िकोड पुलिस के एक तत्कालीन सब इंस्पेक्टर पुल्लिकोडन नारायणन को भी कक्कायम कैंप में राजन को प्रातड़ित कर मारने के चलते गिरफ्तार किया था लेकिन उसे भी रिहा कर दिया गया. यही पडिकल आगे जाकर केरल के डीजीपी बने.

क्या हुआ था राजन के साथ

26 फ़रवरी 1976 को प्रोफेसर वारियर आखरी बार अपने बेटे राजन से कोड़िकोड के मुथालाक्कूलम इलाके में स्थित केरल भवन लॉज के अपने कमरे में मिले थे. इस मुलाक़ात के दो दिन बाद राजन कोड़िकोड विश्वविद्यालय के एक विद्यार्थी समारोह में फारूक कॉलेज गए थे. रात भर वो कॉलेज में ही थे. अगले दिन सुबह जब वह चाथमंगलम स्थित अपने इंजीनियरिंग कॉलेज पहुंचे तो पुलिस उन्हें गिरफ्तार कर अपने साथ ले गयी थी.

असल में 28 फरवरी की रात को कयन्ना पुलिस थाने पर हमला हुआ था. हमलावर पुलिस थाने से बंदूकें लूट ले गए थे. पुलिस ने इस हमले में नक्सलियों का हाथ होने की बात कही थी और इस मामले की जांच के लिए कक्कायम में पुलिस कैंप बनाया था. कक्कायम पुलिस कैंप वायनाड़ के जंगलों में मौजूद केरल राज्य विद्युत बोर्ड की एक इमारत में बनाया गया था. 29 फरवरी से पुलिस ने इस मामले में छात्रों और आसपास के इलाके के युवाओं की गिरफ्तारी शुरू की थी. इसी के तहत उन्होंने राजन को भी गिरफ्तार किया था बावजूद इसके कि पुलिस थाने पर हुए हमले की रात वो फारूक कॉलेज में थे.

पुलिस राजन को पहले कोड़िकोड ले गयी थी उसके बाद उन्हें कक्कायम पुलिस कैंप ले जाया गया था जिसकी बागडोर पुलिस उपमहानिरक्षक जयराम पडिकल के हाथ में थी. कक्कायम पुलिस कैंप में पुलिस वाले पडिकल के आदेश पर युवाओं की गिरफ्तारियां करके लाते थे और उसके बाद उन्हें प्रताड़ित किया जाता था. उनको वहां पहले बेहरहमी से पीटा जाता था. पीटने के बाद उन्हें सिर्फ चड्ढी में एक बेंच पर लिटा कर उनके हाथ-पैर बांध दिए जाते थे और उनके मुंह में एक कपड़ा ठूंस दिया जाता था. इसके बाद एक भारी भरकम लकड़ी/लोहे के गोल आकार के लट्ठे को उनकी जांघों और शरीर पर घुमाया जाता था. मलयालम में टॉर्चर के इस तरीके को "ऊरुतल" कहा जाता है. इसमें इतनी असहनीय पीड़ा होती है कि दर्द के मारे व्यक्ति बेहोश हो जाता है.

अपने बेटे की याद में लिखी एक मलयालम किताब ओरु अच्चन्टे ओरमाकुल (यादें एक पिता की/ मेमोरीज़ ऑफ़ अ फादर) में प्रोफेसर वारियार ने इस मामले को लेकर उनकी जद्दोजहद के बारे में शुरू से लेकर अंत तक लिखा है. राजन के साथ कैंप में टॉर्चर का शिकार हुए तीन छात्रों चाथमंगलम राजन, बेनहर और कोरू ने उन्हें बताया था कि सबसे पहले पुलिस ने राजन को ही यातना देना शुरू किया था. पुलिस वाले उनसे थाने से लूटी गई बंदूक के बारे में पूछ रहे थे. "ऊरुतल" के अंत में और यातनाओं से बचने के लिए उन्होंने बोल दिया था कि वो पुलिस को बंदूक लाकर देंगे. इसके बाद पडिकल ने पुलिसवालों को राजन को अपने साथ जीप में ले जाकर बंदूक ढूंढ़ने का आदेश दिया था. लेकिन जब राजन ने बताया कि उस बंदूकों के बारे में कुछ भी नहीं पता है और सिर्फ यातनाओं से बचने के लिए उसने ऐसा कहा था, तो सब-इंस्पेक्टर पुल्लिकोडन नारायणन ने उन्हें मारना-पीटना शुरू कर दिया था. वह उनके पेट में अपने भारी जूतों से ज़ोर ज़ोर से लाते मार रहा था. थोड़ी देर बाद एक ज़ोर की चीख के साथ वह पीछे गिरे और छटपटाते हुए अचानक से शांत हो गए और फिर दोबारा नहीं उठे.

गौरतलब है कि इस मामले में सबसे हैरत की बात यह है कि राजन का मृत शरीर कभी उनके घर वालों को नहीं  मिला और पुलिस ने सबूतों को ख़त्म करने के लिए उनके शरीर के साथ क्या किया इसको लेकर केरल में आज भी कई कहानियां हैं. प्रोफेसर वारियर ने अपनी किताब में जो लिखा है उसके मुताबिक पुलिस ने शायद राजन की हत्या के बाद उनके शरीर को एक जंगल में ले जाकर शक्कर के साथ जला दिया था जिससे हड्डियों का भी नामोनिशान ना रहे.

इसके अलावा यह भी कहा जाता हैं कि उनके मृत शरीर को एक बहुत बड़े पतीले में शक्कर के साथ जला दिया गया था. पुलिस द्वारा उनके शरीर को गायब करने से जुड़ी कुछ अन्य कहानियों के मुताबिक़ उनके शव को कक्कायम बांध में फेंक दिया गया था या उनके शरीर के टुकड़े करके सूअरों को खिला दिए गया था. लेकिन आज तक कोई भी कहानी सही तरह से साबित नहीं हुयी है कि राजन को मौत के घाट उतारने के बाद पुलिस ने उनके शरीर के साथ क्या किया था. उनका शरीर ना मिलने की वजह से दोषी पुलिसवालों को इस मामले में ठीक से सज़ा नहीं मिल पायी थी और इस खौफनाक अपराध में पुलिस के खिलाफ हत्या के आरोप साबित नहीं हो पाए थे.

थॉमस जॉर्ज जो उस ज़माने में राजन के साथ पढ़ते थे कहते हैं, "जिस रात कयन्ना पुलिस थाने में नक्सलियों ने हमला किया था उस रात राजन फारूक कॉलेज में एक कार्यक्रम में हिस्सा ले रहे थे. वह बहुत अच्छे गायक थे. जब सुबह वो कॉलेज लौटे तो तकरीबन साढ़े पांच बजे उन्हें आरईसी फ़िल्टर हाउस  के सामने से पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था. वहां से पुलिस उन्हें एक अन्य छात्र जोसफ चाली को गिरफ्तार करने के लिए 'ई' हॉस्टल लेकर आयी थी. मैं उस वक़्त वहां मौजूद था. क्राइम ब्रांच के इंस्पेक्टर ई श्रीधरन की अगुवाई में आयी हुयी पुलिस हमारे सामने ही राजन से पूछताछ कर रही थी. थोड़ी देर बाद वो राजन और चाली को एक नीले रंग की गाड़ी में बिठाकर अपने साथ ले गए थे. उनको गाड़ी में बिठाने के बाद ही मारना-पीटना शुरू कर दिया था. पहले उन्हें कोड़िकोड के एक लॉज में ले जाया गया था और बाद में शाम को वायनाड के जंगलों में बनाये हुए कक्कायम पुलिस कैंप में. कक्कायम पुलिस कैंप में लगभग चार सौ लोगों को गिरफ्तार कर लाया गया था.

जॉर्ज कहते हैं, "असल में कयन्ना पुलिस थाने में हुए हमले में पुलिसवालों ने एक नक्सलवादी को 'भाग राजा' कहते हुए सुना था. सिर्फ इस बिना पर पुलिस ने राजन नाम के सात लोगों को गिरफ्तार किया था जिनमें से एक पी. राजन भी थे. राजन और अन्य लोगों को कैंप में ऊरुतल के ज़रिये प्रताड़ित किया गया. उसमें इतनी पीड़ा होती है की रीढ़ की हड्डी पर झटके लगते है और लगातार जांघों में रोलर घुमाने के चलते जांघ की हड्डी, मासपेशियों से अलग हो जाती है. हद से ज़्यादा टार्चर के चलते राजन की मौत हो गयी. इस मामले में कोर्ट में गवाही देने वाले केरल राज्य विद्युत बोर्ड के कर्मचारी थॉमस और मरियम लोनापन ने कहा था कि उन्होंने पुलिस को एक बोरी में लाश ले जाते हुए देखा था. आगे की पुलिस पड़ताल में पता चला था कि राजन के शरीर को पुलिस ने पेट्रोल छिड़क कर जला दिया था और कक्कायम बांध के पास मौजूद उराककुज़ी के जलप्रपात में बहा दिया था."

जॉर्ज आगे कहते हैं, "इस मामले में सब कुछ पुलिस के खिलाफ होने के बावजूद भी उन्हें सजा नहीं मिली. अदालत ने लाश ना मिलने के चलते इसे हत्या का मामला नहीं माना. राजन की लाश के बारे में दी गयी गवाहों की गवाही को नहीं माना गया. कननगोटू राजन नाम के एक नक्सलवादी जिसने पी राजन को प्रताड़ित होते हुए दम तोड़ते देखा था कि गवाही पर भरोसा नहीं किया गया और साथ ही साथ सरकारी डॉ विशालाक्षा मेनन के कथन जिसमें उन्होंने कहा था कि ऊरुतल के चलते मौत हो सकती है को भी अदालत ने खारिज कर दिया था. इस लड़ाई में अच्छाई के ऊपर बुराई की जीत हुयी थी और हमारी न्याय व्यवस्था राजन को न्याय देने में असफल रही."

पत्रकार अप्पुकुट्टन वल्लिककुन्नू

75 साल के अप्पुकुट्टन वल्लिककुन्नू वो पत्रकार है जिन्होंने राजन की मौत के मामले की सच्चाई उजागर की थी. वह कहते हैं, "कक्कायम पुलिस कैंप केरल विद्युत विभाग के एक संस्थान में बनाया गया था. कैंप के पते के बारे में बिजली विभाग की यूनियन के मेरे कुछ सूत्रों से पता चला था. जब मैं वहां पहुंचा था तब तक पुलिस ने उस जगह की पूरी साफ सफाई करवा दी थी. मुझे वहां के गेट के बाहर सिर्फ कुछ फाड़े हुए कागज़ मिले थे जिनमे से एक कागज़ पर मल्लपुरम की दो हथियारबंद पुलिस कंपनियों का ज़िक्र था जिन्हें पहले पुलिस कैंप की सुरक्षा के लिए बुलाया गया था. कुछ ना मिलने पर मैं वहां से उदास होकर लौट गया. लौटते वक्त हमारी गाड़ी को एक चेक पोस्ट पर रोका गया था जहां हमारा नाम वगैरह एक रजिस्टर में लिखा गया. मैं हताश होकर घर पर बैठा था तभी मुझे ख्याल आया कि चेक पोस्ट पर मौजूद पुराने रजिस्टरों में ज़रूर उन लोगों के भी नाम होंगे जो कक्कायम पुलिस कैंप में गए थे. मैं तड़के फिर से वहां गया और दिन भर काफी जद्दोजहद करने के बाद देर रात को मुझे वो रजिस्टर मिला जिसमे डीआईजी जयराम पडीकल, डीआईजी मधुसुधानन, कोड़िकोड के तत्कालीन पुलिस अधीक्षक लक्ष्मणा और अन्य पुलिस वालों के नाम थे जो राजन की मौत के समय वहां के गेस्ट हाउस में रह रहे थे. इस खबर के छपने के बाद लोगों को पुलिस की सच्चाई के बारे में पता चल गया था.

वल्लिककुन्नू ने उस अंजान पत्र के बारे में भी बताया जो उन्हे उस दौरान एक पुलिस सिपाही ने लिखा था. "तुम्हे राजन की लाश का कभी पता नही चल पाएगा. मैं तुम्हारी खबरें पढ़ता हूं, मेरा भी राजन की उम्र का बेटा है इसलिए तुम्हे पत्र लिखकर बता रहा हूं. राजन की मौत के बाद पुलिस उसके शरीर को जीप में रखकर उराकुयी झरने के पास ले गयी थी और वहां उसे दफना दिया था. लेकिन फिर अगले दिन बड़े पुलिस अधिकारियों के आदेश पर पुलिस दोबारा वहां गयी और राजन के दफनाए हुए शरीर को बाहर निकाल उसे पेट्रोल और शक्कर डालकर जला दिया था. जलाने के बाद जो कुछ बचा था उसे उराकुयी में फेंक दिया था." वह कहते हैं," कई सबूत होने के बावजूद भी दोषी पुलिस वालों को इसलिए सज़ा नही मिल पाई क्योंकि राजन के शव का कभी पता नहीं चल पाया.

राजन का केस भारतीय लोकतंत्र के ऊपर एक धब्बा है. उनकी  मौत के बाद उनकी मां अपना मानसिक संतुलन खो बैठी थीं और मरते दम अपने बेटे का इन्तज़ार करती रहीं. उन्होंने अपने बेटे को देने के लिए बहुत से सिक्के इक्कट्ठा कर रखे थे. अपनी मौत के पहले उन्होंने प्रोफेसर वारियर को सिक्कों की वह थैली देते हुए कहा था कि जब भी राजन आये उन्हें वो सिक्के दे देना. प्रोफेसर वारियर खुद आजीवन अपने बेटे को न्याय दिलाने के लिए लड़ते रहे लेकिन उनके बेटे के कातिलों को माकूल सज़ा ना हो सकी. आज भी इस देश में हर साल बहुत से लोग पुलिस हिरासत में मार दिए जाते हैं और उनके परिवारों को आजीवन उसका दंश झेलना पड़ता है.

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