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बिहार में 'विकास की जाति' पर बात करने से क्यों डरते हैं हिंदीपट्टी के राजनीतिक टिप्पणीकार!
पिछले तीस वर्षों की भारतीय राजनीति, खासकर उत्तर भारतीय राजनीति पर जब टिप्पणीकार टिप्पणी करते हैं तो सामान्यता इस बात का जिक्र करना नहीं भूलते कि किस तरह विभिन्न जाति के नेताओं ने सिर्फ अपनी जाति का विकास किया. वही टिप्पणीकार हालांकि जान-बूझकर इस बात को भूल जाते हैं कि बिहार में विकास भी जाति के आधार पर होता है. दरअसल, वहां आज तक जातिगत आधार पर ही विकास को गति मिली है या फिर उस गति को नियंत्रित किया गया है.
विकास की जाति पर बात करने के लिए सबसे मुफीद समय 1947 के बाद की कालावधि को रेखांकित किए जाने की जरूरत है. अखंड बिहार (1999 में झारखंड बना) में जितने भी उद्योग-धंधे लगे, अधिकांश दक्षिण बिहार में लगाए गए क्योंकि वहां खनिज संपदा पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध थी. जिन उद्योगों में स्थानीय खनिज संपदा को दोहन करने की जरूरत या गुंजाइश नहीं थी, उनसे सम्बंधित सभी फैक्ट्रियां उत्तर बिहार के बेगुसराय में लगीं. इसकी वजह यह थी कि बेगुसराय में भूमिहारों की बहुलता थी और राज्य के मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह खुद भूमिहार थे. आखिर वे फैक्ट्रियां मुंगेर में भी लगायी जा सकती थीं जो इतना पुराना शहर था; या फिर भागलपुर में भी लग सकती थीं या फिर पुर्णिया में उसे स्थापित किया जा सकता था; लेकिन वे फैक्ट्रियां अनिवार्यतः बेगुसराय में ही स्थापित की गयीं.
विकास की जाति को समझने का दूसरा सबसे सटीक उदाहरण मधेपुरा है. इसे समझने के लिए एक कहावत की मदद लिए जाने की जरूरत है. बिहार में यह कहावत काफी प्रचलित रही है. इसे लगभग हर बार चुनाव के समय दुहराया जाता है: ‘रोम पोप का, मधेपुरा गोप का और दरभंगा ठोप का’ (मतलब रोम में पोप का वर्चस्व है, मधेपुरा में यादवों का वर्चस्व है और दरभंगा में ब्राह्मणों का वर्चस्व है). मधेपुरा 1845 में सब-डिवीज़न था. आजादी के बाद सहरसा, मधेपुरा सब-डिवीजन के अंतर्गत एक थाना था. 1954 में सहरसा को ज़िला बना दिया गया और 1972 में कोसी कमिश्नरी का मुख्यालय भी. इस तरह एक थाना मुख्यालय, जो प्रखंड से भी छोटी इकाई है उसे पहले जिला और बाद में कमिश्नरी हेडक्वार्टर बना दिया जाता है. इसके उलट, अंग्रेज़ों के समय के मधेपुरा सब-डिवीजन को आज़ाद भारत में ज़िला बनाने के लिए काफ़ी लंबे समय तक संघर्ष करना पड़ा और इसे 156 वर्षों के बाद 1981 में ज़िला का दर्जा दिया गया.
अब इसके लिए स्थानीय राजनीति पर गौर करने की जरूरत है. कांग्रेस पार्टी में उस तरफ से ललित नारायण मिश्रा नेहरू की कैबिनेट में हेवीवेट मंत्री थे जो सहरसा के थे, लेकिन राज्य में मधेपुरा के भूपेन्द्र नारायण मंडल भी थे जो उस समय पिछडो़ं का प्रतिनिधित्व करते थे. दोनों की आपसी जातिगत और वैचारिक प्रतिद्वन्दिता में ब्राह्मण-नियंत्रित सत्ता निर्णायक रही और सहरसा बाजी मार ले गया. अब ‘मधेपुरा गोप का’ वाली कहावत को मधेपुरा के साथ किए गए भेदभाव के साथ जोड़कर देखें, तो समझ में आ जाएगा कि किस तरह विकास भी जाति को ध्यान में रखकर किया जाता है.
बिहार में जातिगत आधार पर ही विकास का मॉडल तैयार होता रहा है, लेकिन हम इस बात को मानने से लगातार इंकार करते हैं कि विकास की कोई जाति होती है. अगर यह हकीकत नहीं होता तो ऊपर के दोनों उदाहरण इस बात को प्रमाणित करने के लिए काफी हैं कि किस तरह सवर्ण नेतृत्व ने बहुसंख्य आबादी को नीचा दिखाया है. बिहार में विकास के हर मॉडल में जाति की भूमिका है. इसलिए वहां सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह हो जाता है कि अगर किसी खास भू-भाग का कायाकल्प होना है तो इससे बहुतायत रूप से किन-किन समुदायों को लाभ मिलेगा.
उदाहरण के लिए मधेपुरा को ही लें. अगर आजादी के कुछ वर्षों बाद ही उसे जिला बना दिया जाता तो उस क्षेत्र के बहुसंख्य दलित, पिछड़े व हाशिये की जातियों को इसका लाभ मिलता. यह भी सही है कि जनसंख्या में बहुलता के कारण उस विकास का सबसे अधिक लाभ यादवों को मिलता, लेकिन सवर्ण और खासकर ब्राह्मण नेतृत्व ने पिछड़े समुदाय को उस लाभ से ही जान-बूझ कर वंचित रखा.
जब लालू यादव राज्य के मुख्यमंत्री बने, तब उन्होंने मधेपुरा को तवज्जो दी. वहां बीएन मंडल के नाम पर विश्वविद्यालय खोला गया जबकि डॉ. जगन्नाथ मिश्रा अपने कार्यकाल में सहरसा से सटे बनगांव मेहिसी में मंडन मिश्र विश्वविद्यालय खोलने की घोषणा कर चुके थे. लालू यादव ने बीएन मंडल विश्वविद्यालय का उद्घाटन करते हुए कहा था कि मंडन मिश्र संस्कृत के विद्वान थे, तो उनके नाम पर संस्कृत विश्वविद्यालय बनना चाहिए लेकिन सामान्य विश्वविद्यालय उनके नाम पर क्यों हो. पिछले तीस वर्षों में काफ़ी कुछ बदला है। लालू-राबड़ी के काल में विश्वविद्यालय खोले गये और रेल की फ़ैक्ट्री लगायी गयी. नीतीश कुमार के कार्यकाल में जब तक शरद यादव की हैसियत थी, उस दौर में इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेज की स्थापना की गयी.
बिहार में जाति के आधार पर किस तरह विकास को प्रभावित किया गया है, उसका एक अन्य उदाहरण निर्मली और भपटियाही के बीच का रेल पुल है. निर्मली और भपटियाही (सरायगढ़) के बीच मीटर गेज लिंक 1887 में बनाया गया था जो 1934 के विनाशकारी भूकंप में तबाह हो गया. इसके बाद कोसी और मिथिलांचल के बीच रेल संपर्क पूरी तरह टूट गया. इस पुल के पुनर्निर्माण में 87 साल लग गए और जब यह पुल चालू हो जाएगा तो आज के दिन जिस निर्मली से सरायगढ़ की दूरी 298 किलोमीटर है, वह घटकर 22 किलोमीटर हो जाएगी. इस दूरी को तय करने के लिए दशकों तक निर्मली से सरायगढ़ तक का सफर दरभंगा-समस्तीपुर-खगड़िया-मानसी-सहरसा होते हुए तय करना होता है.
इसे दूसरे रूप में डी-कोड करके समझिए, तो पता चलेगा कि उस पुल का निर्माण उस समय भी नहीं हुआ जब देश के सबसे ताकतवर रेलमंत्री ललित नारायण देश सहरसा से आते थे. पुल का निर्माण इसलिए नहीं कराया गया क्योंकि इससे दलितों-बहुजनों को लाभ मिल सकता था. ललित नारायण मिश्र की तरफ से यह सोची-समझी रणनीति थी जिसके चलते उस रेल पुल का निर्माण नहीं करवाया गया.
वर्तमान समय में जाति का विकास देखना हो तो आप दरभंगा को देख लीजिए. नीतीश कुमार व नरेन्द्र मोदी के कार्यकाल में उत्तर बिहार का सबसे हैपनिंग शहर दरभंगा बन गया है. दरभंगा में एम्स दिया गया, जबकि वहां राज्य का सबसे प्रतिष्ठित मेडिकल कॉलेज था ही (उसे पुर्णिया या मुंगेर में भी दिया जा सकता था); एयरपोर्ट शुरू होने वाला है; सॉफ्टवेयर टेक्नॉलोजी पार्क बनाया जा रहा है; आइआइएम भी दिए जाने की योजना है. अगर कभी हुआ, तो दरभंगा मिथिला प्रदेश की राजधानी बनेगा. उस मिथिला का, जिसके बारे में कहा जाता था कि यह ज्ञान की नगरी है (इस विरोधाभास को भी समझने की जरूरत है कि जिसे ज्ञान की नगरी कहा जा रहा था वहां की 96 फीसदी जनसंख्या निरक्षर थी).
इसलिए किसका विकास हो रहा है मतलब किस जाति का विकास हो रहा है या फिर कह लीजिए कि विकास की जाति क्या है, इसे समझने का सबसे आसान तरीका यह जानना है कि किसके शासनकाल में किस जाति-समुदाय के लोगों की प्रतिमा लगायी जाती है; किसके नाम पर संस्थानों के नाम रखे जाते हैं; और किसके नाम पर सड़क का नामकरण हो रहा है. अगर उस काल का विवरण मिल जाय तो विकास की जाति के बारे में काफी आसानी से समझा जा सकता है और विकास की जाति का गहराई से पता लगाया जा सकता है.
हां, हम जानते हैं कि हर जाति या समुदाय के लोग अपने मिथक गढ़ने की भी कोशिश करते हैं, लेकिन सबसे असरकारी मिथक ताकतवर समुदाय ही गढ़ पाते हैं क्योंकि सांस्कृतिक रूप से वे हमारे दिलोदिमाग को नियंत्रित करते हैं. ऐसे मिथक सामान्यतया झूठे होते हैं, लेकिन ये दिमाग में काफी गहराई से बैठा दिये जाते हैं और लंबे समय तक असर करते हैं.
दुखद यह है कि हिंदीपट्टी के अधिकांश राजनीतिक टिप्पणीकार इस मसले पर बात नहीं करना चाहते क्योंकि उन्हें लगता है कि यह बताने से किसी की बनी-बनायी छवि खंडित हो जाएगी और कहीं न कहीं यह भी लगता है कि लालू प्रसाद यादव या अन्य पिछड़ी जातियों के नेता सवर्ण नेतृत्व को पीछे छोड़ देंगे!
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