Newslaundry Hindi

मनरेगा में तीन करोड़ से ज्यादा लोगों ने मांगा काम, क्या कहते हैं यह आंकड़े

6,19,097 यह संख्या महज चार महीनों में महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना के तहत प्राकृतिक संसाधनों के निर्माणों की है. यह ग्रामीण भारत में मौजूद प्रचुर पूंजी- श्रम का उपयोग करते हुए गांवों के विकास के लिए मनरेगा जैसे सार्वजनिक श्रम कार्यक्रमों की जरूरत की संभावनाओं को दिखाता है. मनरेगा में काम की मांग इससे पहले कभी इतनी नहीं रही जितनी कोरोना वायरस आपदा के दौरान रही है. देश में मई, जून और जुलाई महीने में लगातार तीन करोड़ से ज्यादा लोगों ने काम मांगा है.

सरकारों ने इस मांग को पूरा करने के लिए काम शुरू किया, खासकर सामुदायिक एवं निजी तालाब जैसे निर्माणों को बनाने पर ध्यान दिया गया जिससे भविष्य में आर्थिक अवसर पैदा किए जा सकें. इसका नतीजा यह हुआ कि लोग अपने गांव में ही आजीविका सुनिश्चित करने के लिए मनरेगा में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने लगे. मनरेगा में रोजगार को लेकर बुरे माने जाने वाले मई, जून और जुलाई में सबसे ज्यादा रोजगार की मांग हुई.

मई माह में जब पूरा देश लॉकडाउन में था उस वक्त शहरों से लौटे करीब 3.6 करोड़ प्रवासी परिवारों ने मनरेगा के तहत काम मांगा. चार करोड़ से ज्यादा परिवारों ने जून माह के पहले 25 दिनों में काम की मांग की. 2012-13 से 2019-20 तक जून में काम की औसत मांग 2.36 करोड़ परिवार थी. इसके उलट अप्रैल माह में 2013-14 के बाद सबसे कम काम (1.28 करोड़ परिवार) की मांग की गई है. यह स्थिति तब थी जब कोरोना वायरस के कारण पूरे देश में लॉकडाउन था और इसकी वजह से हजारों बेरोजगार प्रवासी श्रमिकों को शहरों में ही रहने के लिए मजबूर किया गया.

मनरेगा के तहत 2012-13 से 2019-20 तक औसत 2.15 करोड़ परिवारों ने हर महीने काम की मांग की. राज्यों के आंकड़ों का विश्लेषण करने से पता चलता है कि जून महीने में मांगे गए काम का 57 फीसदी सिर्फ पांच राज्यों से था, जहां बड़ी संख्या में असंगठित मजदूर लौट कर आए. इसमें उत्तर प्रदेश में (62 लाख), राजस्थान (53 लाख), आंध्र प्रदेश (44 लाख), तमिलनाडू (41 लाख) और पश्चिम बंगाल में 35 लाख शामिल है.

पिछले सात सालों (2013-14 से 2019-20) की तुलना में कम से कम 26 राज्यों में ज्यादा परिवारों ने अकेले जून महीने के शुरूआती 25 दिनों में काम की मांग की है. कर्नाटक में औसत से 225 फीसदी ज्यादा मांग हुई. अन्य 10 राज्यों में भी मनरेगा के तहत काम की मांग लगभग दोगुनी हो गई. इसी तरह, मई माह में पश्चिम बंगाल में मनरेगा के तहत काम करने वाले परिवारों की संख्या 214.5 प्रतिशत, ओडिशा 113.5 प्रतिशत और बिहार में 62.1 प्रतिशत थी. ये वे राज्य हैं जहां से सबसे ज्यादा मजदूर देश के दूसरे हिस्सों में काम करने जाते हैं. संक्षेप में कहें तो राजनीतिक छींटाकशी और मजाक का विषय बना मनरेगा हमारी अर्थव्यवस्था और आजीविका पर खतरा बनकर आई वैश्विक महामारी के समय में सरकार के सबसे बड़े सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रम के तौर पर उभर कर सामने आया है.

2014 में सत्ता में आने के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने संसद में दिए अपने पहले भाषण में मनरेगा को पिछली कांग्रेस सरकारों की विफलता का स्मारक करार दिया था. मोदी ने मनरेगा में लोगों से गढ्ढे खुदवाने को उनकी गरिमा से खिलवाड़ करने वाली योजना बताया, लेकिन लोगों की नौकरियां जाने के बाद पैदा हुआ श्रमिक संकट जब काबू से बाहर हो गया तब मोदी ने मनरेगा को ही ग्रामीण भारत में राहत देने का सबसे बड़ा हथियार बनाया. इस साल केन्द्र सरकार ने मनरेगा के लिए 1.20 लाख करोड़ रुपए का बजट दिया है. इसमें जुलाई माह में दिए गए अतिरिक्त 40 हजार करोड़ रुपए की राशि भी शामिल है.

दिल्ली और अन्य केन्द्र शासित प्रदेशों को छोड़कर सभी राज्यों में मनरेगा के तहत प्रवासियों के लिए विशेष प्रावधान किए गए. कांग्रेस के लिए (जिनकी सरकार के कार्यकाल 2005 में मनरेगा लागू किया गया) यह समय पीएम मोदी को जवाब देने का सटीक वक्त था. कांग्रेसी सत्ता वाले राज्य राजस्थान और छत्तीसगढ़ में सरकार ग्रामीण क्षेत्रों में आए रोजगार के संकट से निपटने के लिए मनरेगा को ही संकटमोचक बना रही है.

वहीं, दूसरी ओर ग्रामीण लोगों को आज भी 2009 का वो साल याद है जब पूरे देश में भयंकर सूखा पड़ा. उस साल भी मनरेगा में उस समय तक का सबसे ज्यादा काम मांगा गया था. 2009 में कांग्रेस को वापस सत्ता का स्वाद चखाने में मनरेगा का बड़ा योगदान रहा. जैसा कि आंकड़े दिखा रहे हैं, इस साल हुई काम की मांग ने 2009 का रिकॉर्ड भी तोड़ दिया है.

आंकड़ों के अनुसार, इस वित्तीय वर्ष के शुरुआती चार महीने अप्रैल से जुलाई में मनरेगा के तहत होने वाले प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन (एनआरएम) से संबंधित काम बड़ी मात्रा में हुए हैं। सिर्फ इन चार महीने में हुए कामों ने बीते पूरे साल में हुए कामों का रिकॉर्ड तोड़ दिया है. एनआरएम श्रेणी में मृदा एवं जल संरक्षण, भू-जल पुनर्भरण, सिंचाई, ड्रेनेज संबंधी, पौधरोपण और भूमि संबंधी कार्य शामिल हैं. अप्रैल 2019 से मार्च 2020 के बीच 5.5 लाख कार्य एनआरएम श्रेणी में हुए हैं, लेकिन इस साल अप्रेल से जुलाई तक इस श्रेणी में 6.10 लाख कार्य किए गए हैं. भूमि संबंधी कार्यों को छोड़कर, एनआरएम श्रेणी में होने वाले कार्यों ने सिर्फ चार महीने में बीते पूरे साल के कामों को पीछे छोड़ दिया है.

मनरेगा के तहत वाटर हार्वेस्टिंग के लिए खेतों में बड़ी संख्या में तालाब बनाए गए हैं. ये तालाब निजी खेतों की सिंचाई में काफी मददगार साबित हुए हैं. बीते कुछ सालों में ऐसे तालाबों के निर्माण को मनरेगा में प्राथमिकता मिली है. इस वित्तीय वर्ष के शुरुआती चार महीनों में जब काम की मांग बढ़ी तो इन संरचनाओं के निर्माण में भी काफी उछाल आया. मनरेगा मजदूरों ने 2019-20 के पूरे साल में बनाए गए तालाबों का 25 फीसदी इन चार महीनों में ही बना दिए. बनाए गए तालाबों की जल भंडारण क्षमता 61 मिलियन क्यूबिक मीटर है, जिनमें से प्रत्येक की क्षमता करीब 1,200 क्यूबिक मीटर है. इसी तरह, पिछले साल की तुलना में इन चार महीनों में 35 फीसदी कुएं बनाए जा चुके हैं.

आंकड़े बताते हैं कि इस साल अप्रैल से जुलाई तक आंध्रप्रदेश और पश्चिम बंगाल में मनरेगा के तहत सबसे ज्यादा काम पूरे हुए हैं. हालांकि पश्चिम बंगाल एक ऐसा राज्य है जहां से सबसे अधिक मजदूर दूसरे राज्यों में पलायन करते हैं, लेकिन यह जानना बेहद दिलचस्प है कि 2019-20 की तुलना में इस साल बड़ी संख्या में शुरू हुए काम पूरे हुए हैं. जहां, 2019-20 में एनआरएम के तहत 6,956 काम पूरे हुए थे, वहीं, इस साल 2020-21 में अब तक 72,253 कार्य पूरे हो चुके हैं. ये बीते साल से 10 गुने से भी ज्यादा हैं। वहीं, बिहार राज्य जहां सबसे ज्यादा मजदूर लौट कर आए हैं, वहां 2019-20 की तुलना में इस वित्तीय वर्ष के चार महीनों (अप्रैल-जुलाई) में नौ गुना ज्यादा काम पूरे किए गए हैं.

वित्तीय वर्ष 2006-07 से 2019-20 तक 1.01 करोड़ जल संबंधी संरचनाओं का काम पूरा हुआ और इसमें करीब 2.01 करोड़ रुपए खर्च हुए. मनरेगा में जल संबंधी परियोजनाओं और खर्च की राशि बीते पांच सालों से लगातार घट रही है. आंकड़ों से सामने आया है कि वित्तीय वर्ष 2014-15 से 2019-20 तक मनरेगा के तहत होने वाले सभी कामों का 35.14 प्रतिशत पैसा सिर्फ जल संरक्षण संबंधी कामों पर ही खर्च किया गया है.

मिशन वाटर कंसर्वेशन कार्य में एनआरएम पर खर्च हुए कामों की तुलना में देखें तो जो काम 2019-20 में किया गया है, इस साल उसका लगभग 60 प्रतिशत इसी कार्य पर खर्च हुआ है. इसीलिए इसमें कोई संदेह नहीं है कि कोरोना काल में एनआरएम विशेषकर जल संरक्षण पर काफी काम किया गया है.

अब ग्रामीण क्षेत्रों में बढ़े हुए काम की मांग को पूरा करना है. राज्यों का ध्यान मनरेगा के तहत व्यक्तिगत कार्य या संपत्ति निर्माण पर है जो भविष्य में लोगों द्वारा ही काम में लिया जाएगा. ये मनरेगा योजना में लोगों की भागीदारी के लिए एक और प्रोत्साहन का कार्य है. इस वित्तीय वर्ष के पहले चार महीनों में करीब 3,36,272 व्यक्तिगत लाभ के काम किए गए हैं जो बीते साल के कुल कामों का करीब पांचवां हिस्सा है. इसमें से 1,99,820 कार्य ग्रामीण आवास श्रेणी में हैं, लेकिन 33 प्रतिशत काम भूमि विकास, मवेशी और पौधरोपण के लिए बुनियादी ढांचों के निर्माण के लिए है.

(डाउन टू अर्थ से साभार)

Also Read: ‘मन की बात’ करने वाले ‘मनरेगा’ की बात क्यों करने लगे?

Also Read: मनरेगा का पारिस्थितिकी, लोक संस्कृति पर क्या प्रभाव है