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हिंदी क्षेत्र में पेरियार के दर्शन-चिंतन की दस्तक देती किताब

उस ईश्वर को नष्ट कर दो, जो तुम्हें शूद्र कहता है. उन पुराणों और महाकाव्यों को नष्ट कर डालो जो ईश्वर को शक्तिशाली बनाते हैं. यदि कोई ईश्वर वास्तव में दयालु, हितैषी और बुद्धिमान है; तो उसकी प्रार्थना करो.’ (सुनहरे बोल, पेरियार, पृष्ठ-44)

स्वार्थी सत्ताएं अपने ‘महापुरुष’ भी सुविधानुसार गढ़ती हैं. वे उन्हीं को ‘महान’ घोषित करती हैं, जो उनकी सत्ता को वैधता प्रदान करते हैं. इस कोशिश में वास्तविक और पुरोगामी नायक बरबस पीछे ढकेल दिए जाते हैं. इतिहास में इसके अनगिनत उदाहरण हैं. जैसे, साहित्य की कसौटी पर कबीर की काव्य-चेतना तुलसी से कहीं आगे है. मगर मध्यकाल के महाकवि माने गए तुलसी, जो रामकथा की आड़ में ब्राह्मणवाद की पुनर्स्थापना कर, रैदास, कबीर जैसे संत-कवियों की सामाजिक क्रांति पर पानी फेरने का काम करते हैं.

उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी के वास्तविक जननायक ज्योतिबा फुले, आयोथी थास, अय्यंकाली, ईवी रामासामी पेरियार, डॉ. आंबेडकर जैसे युगदृष्टा थे. भारत को आधुनिक और एकीकृत राष्ट्र में ढालने में उनका योगदान किसी भी कांग्रेसी नेता से कहीं ज्यादा था. बावजूद इसके आजाद भारत में डॉ. आंबेडकर को दलितों के नेता, तथा पेरियार को दक्षिण भारत तक सीमित कर दिया गया. परिणामस्वरूप, स्वाधीनता संग्राम के दौरान भारतीय जनमानस में जन्मी परिवर्तन की चाहत, असमय काल-कवलित होने लगी.

अच्छी बात यह है कि पिछले कुछ वर्षों में एलीट तबके की इस साजिश के विरुद्ध बहुजन समाज में जागृति आई है. सोशल मीडिया पर बहुजन एकता के अभियान चलाए जा रहे हैं. वर्चस्वकारी एलीट संस्कृति के समानांतर सामाजिक न्याय, समानता और बंधुत्व पर आधारित लोकोन्मुखी जनसंस्कृति की पुनर्स्थापना की कोशिशें निरंतर जारी हैं.

‘फारवर्ड प्रेस’ द्वारा प्रकाशित पुस्तक, ‘पेरियार: दर्शन चिंतन और सच्ची रामायण’ इसी दिशा में महत्वपूर्ण रचनात्मक अवदान है. इसका महत्व इसलिए भी है कि हिंदी पट्टी में पेरियार के बारे में लोगों की जानकारी बहुत सीमित है. अधिकांश उन्हें ‘सच्ची रामायण’ के लेखक के रूप में जानते हैं. वहीं कुछ उन्हें दक्षिण भारत में लंबे समय तक चले हिंदी विरोधी आंदोलन के प्रखर नेता के रूप में जानते हैं.

पुस्तक को दो हिस्सों में बांटा गया है. पहले खंड में पेरियार के चुनिंदा भाषण और वे लेख हैं जिन्हें उन्होंने अपनी ‘आत्मसम्मान आंदोलन’ की पत्रिका ‘विदुथलाई’ और ‘कुदीअरासु’ के लिए लिखा था. दूसरे खंड में ‘सच्ची रामायण’ के रूप में रामायण का पुनर्पाठ दिया गया, जो अपने लेखन से आज तक उनकी सर्वाधिक विवादित कृति मानी जाती है. पेरियार की यह पुस्तक उनके रामायण संबंधी विस्तृत अध्ययन का परिणाम है.

पुस्तक में कुछ स्थानों पर हालांकि वे सपाट नजर आते हैं. लेकिन रामायण को पढ़ते-पढ़ाते समय आस्थावादी जिस तरह से ‘समर्पण’ की अपेक्षा रखते है, उसे देखते हुए पेरियार का विमर्श काफी बौद्धिक सिद्ध होता है. उनका मानना था कि राम बेहद साधारण व्यक्ति हैं, ‘ये कथाएं (रामायण और महाभारत) एक बार फिर इसलिए थोपी गई थीं कि इनके कथानायकों, उनके रिश्तेदारों तथा सहायकों को अलौकिक और अतिमानवीय माना जाए तथा उन्हें पूज्य मानते हुए जनसाधारण द्वारा उनकी पूजा-अभ्यर्थना कि जाए’. (पेरियार: दर्शन चिंतन और सच्ची रामायण, फारवर्ड प्रेस, पृष्ठ 118)

प्रसंगवश बता दें कि पेरियार ने ‘सच्ची रामायण’ की रचना की थी, किंतु वे ‘सच्ची रामायण’ लिखकर ‘पेरियार’ (महान) नहीं बने थे. यह पुस्तक उनके रचनात्मक अवदान का बहुत छोटा-सा हिस्सा है. इसमें रामकथा नहीं है. बल्कि रामायण के प्रमुख पात्रों के चरित्रों की साहसी और तर्कसम्मत समीक्षा है.

‘रामायण’ तथा उसके कथापात्रों का आकलन प्राय: आस्था और विश्वास को केंद्र में रखकर किया जाता है. अकादमिक विमर्श भी लोक-आस्था से बंधे होते हैं. इसलिए ‘सच्ची रामायण’ पढ़ते समय आस्थावान हिंदू-मानस में उसके लेखक के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण बन जाता है. श्रद्धा के आवेग में पाठक भूल जाता है कि पेरियार अपने समकालीनों में सर्वाधिक बुद्धिवादी और सबसे लोकप्रिय नेता थे. उनकी लोकप्रियता के मूल में थी, भारतीय समाज की ‘यूटोपियन’ संकल्पना. लाभ-हानि, यश-अपयश की चिंता किए बगैर, उसके लिए निरंतर प्रयत्नरत रहना.

आदर्श समाज संबंधी पेरियार की संकल्पना, सहअस्तित्व और ज्ञान-विज्ञान की नींव पर टिके समाज की थी. अंध-श्रद्धा स्वार्थपरता का दूसरा नाम है. वह न केवल समाज, अपितु व्यक्ति के अपने विकास के लिए भी अपकारी सिद्ध होती है-

‘अंध श्रद्धालु… मान लेते हैं, जो उन्होंने सीखा है, वही एकमात्र सत्य है. बुद्धिवादियों का यह तरीका नहीं है. वे ज्ञानार्जन को महत्व देते हैं. अनुभव से काम लेते हैं. उन सब वस्तुओं से सीखते हैं, जो उनकी नजर से गुजर चुकी हैं.’ (पेरियार: दर्शन चिंतन और सच्ची रामायण, फारवर्ड प्रेस, पृष्ठ-29)

अंध-श्रद्धा के नाम पर तर्क और विवेक को किनारे कर देने का मामला साधारण श्रद्धालुओं तक सीमित नहीं है. धर्माचरण के क्षेत्र में जो जितना बड़ा है, वह उतना ही भीरू और आडंबरवादी हैं-

‘हमारे धार्मिक नेता, विशेषकर हिंदू धर्म के अनुयायी; धर्माचार्यों से भी गए-गुजरे हैं. यदि धर्माचार्य लोगों को 1000 वर्ष पीछे लौटने की सलाह देता है, तो नेता उन्हें हजारों वर्ष पीछे ढकेलने की कोशिश में लगे रहते हैं. ये जनता को सदियों पीछे धकेल भी चुके हैं. बुद्धिवाद न तो धर्माचार्यों को रास आता है, न ही हमारे हिंदू नेताओं को. उन्हें केवल अवैज्ञानिक, मूर्खतापूर्ण और बुद्धिहीन वस्तुओं से लगाव है.’ (वही, पृष्ठ-30)

आलेखों की श्रेणी में ‘भविष्य की दुनिया’ को प्रथम स्थान पर रखना संपादकीय बुद्धिमत्ता का प्रतीक है. असल में यही वह दरवाजा है जिससे गुजरकर पेरियार को समझा जा सकता है. दूसरे शब्दों में पेरियार के समाज और धर्म से संबंधित विचारों को समझने के लिए पहले खंड के आलेख कुंजी का काम करते हैं. ‘भविष्य की दुनिया’ को पढ़ते समय लगता है मानो कोई सैद्धांतिक भौतिकवादी जीवन-जगत में ज्ञान-विज्ञान के नैतिक प्रयोग की संभावनाओं पर विचार कर रहा हो. इस लेख पर टिप्पणी करते हुए अंग्रेजी समाचारपत्र ‘दि हिंदू’ ने पेरियार को ‘बीसवीं शताब्दी का एचडी. वेल्स’ कहा था. इसमें वे ऐसे कई आविष्कारों की परिकल्पना करते हैं, जो आज हमारे रोजमर्रा के जीवन का हिस्सा हैं-

‘यातायात के साधन मुख्यतः हवाई होंगे और वे तीव्र गति से काम करेंगे. संप्रेषण प्रणाली बिना तार की होगी. सबके लिए उपलब्ध होगी और लोग उसे अपनी जेब में उठाए फिरेंगे. रेडियो प्रत्येक के हेट में लगा हो सकता है. छवियां संप्रेषित करने वाले उपकरण व्यापक रूप से प्रचलन में होंगे. दूर-संवाद अत्यंत सरल हो जाएगा और लोग ऐसे बातचीत कर सकेंगे मानो आमने-सामने बैठे हों. आदमी किसी से भी कहीं भी और कभी भी तुरंत संवाद कर सकेगा. शिक्षा का तेजी से और दूर-दूर तक प्रसार करना संभव होगा. एक सप्ताह तक की जरूरत का स्वास्थ्यकर भोजन संभवतः एक कैप्सूल में समा जाएगा जो सभी को सहज उपलब्ध होंगे.’ (वही, पृष्ठ-36)

पेरियार के धर्म, दर्शन और ईश्वर संबंधी विचारों को जानने के लिए भी पुस्तक में काफी सामग्री है. उनके एक भाषण को ‘ईश्वर, धर्म, आत्मा और जीवन’ शीर्षक से संकलित किया गया है. यह भाषण उन्होंने सलेम विश्वविद्यालय के दर्शनशास्त्र के विद्यार्थियों के समक्ष प्रस्तुत किया था. उसे पढ़ते समय हम पेरियार के अंदर मौजूद तर्कवादी से रू-ब-रू होते हैं. इसमें वे ईश्वर, आत्मा, जीवन, मानव-प्रकृति आदि की समीक्षा करते हैं. अपनी सहज, प्रवाहपूर्ण भाषा में, बिना भारी-भरकम शब्दों की मदद के, वे धर्म और आडंबरवाद का अंतर स्पष्ट कर देते हैं.

पेरियार स्वयं-घोषित नास्तिक थे, किंतु उनकी नास्तिकता धर्म-दर्शन की उथली समझ की देन नहीं थी. तर्कवादी दार्शनिक की तरह वे ईश्वर, आत्मा, धर्म आदि उन सभी प्रतीकों पर गहन चिंतन करते हैं, जिनमें विश्वास के कारण किसी मनुष्य को आस्थावादी मान लिया जाता है-

‘यदि यह सत्य है कि ईश्वर का साक्षात्कार तथा उसकी प्राप्ति केवल धर्म के माध्यम से संभव है, तो उसके लिए इतने सारे धर्म क्यों होने चाहिए? क्या धार्मिक और दिव्यात्मा मनुष्यों की कोई सीमा नहीं होनी चाहिए? ...धार्मिक युद्धों का औचित्य क्या है? धर्म के नाम पर इतने नरसंहार क्यों होते हैं. मनुष्यता को इतने सारे कष्ट और पीड़ाएं क्यों झेलनी पड़ती हैं? कहा जा सकता है कि ये किसी दैवीय शक्ति की देन न होकर मनुष्य की अज्ञानता के कारण उत्पन्न हुई है.’ (वही, पृष्ठ-82)

पेरियार के लिए धर्म पुरोहित वर्ग की राजनीति है. धर्म के नाम पर रचा गया साहित्य उसे मान्यता प्रदान करता है. वे रामायण को धार्मिक ग्रंथ मानने से भी इन्कार करते थे. उनका कहना था कि ‘ब्राह्मणवादियों का साहित्य अज्ञानता का साहित्य है.’ (वही, पृष्ठ-57)

मनुष्य की विवेकशीलता के लक्षणों यानी तर्क, विवेक तथा ज्ञान-विज्ञान से उसका कोई नाता नहीं है. धर्म की आड़ में सामाजिक भेदभाव, ऊंच-नीच, अमीरी-गरीबी आदि को दैवीय ठहराकर, वास्तविक समस्या से किनारा कर लिया जाता है. धर्म यहां जाति का सुरक्षा-कवच है. पेरियार ‘रामायण’ को साहित्यिक कृति मानने से इन्कार करते हैं. उनके अनुसार वह ‘मनु की संहिता की तरह’ राजनीतिक कृति है. (वही, पृष्ठ-58)

धर्म का सहारा लेकर ब्राह्मणों ने खुद को समाज के शिखर पर, तथा बाकी वर्गों को किसी न किसी रूप में दास बनाए रखा. गौरतलब है कि जातीय संरचना में दासता पिरामिडीय आकार लिए होती है. जैसे-जैसे पिरामिड के आधार की ओर जाते हैं, दासता का अनुपात उत्तरोत्तर बढ़ता चला जाता है. इसलिए पेरियार जब कहते हैं कि इस ‘इस देश को जाति-व्यवस्था द्वारा बर्बाद कर दिया गया है’- तो हमें कोई आश्चर्य नहीं होता. इसके लिए वे ब्राह्मणों को जिम्मेदार ठहराते हैं.

उनके अनुसार- ‘ब्राह्मण आपको ईश्वर के नाम पर मूर्ख बना रहे हैं. वे आपको अंधविश्वासी बनाते हैं. वे अस्पृश्य के रूप में आपकी निंदा कर, बहुत ही आरामदायक जीवन जीते हैं. वे आपकी तरफ से भगवान को प्रार्थना करके खुश करने के लिए आपके साथ सौदा करते हैं. मैं इस दलाली के व्यवसाय की दृढ़तापूर्वक निंदा करता हूं.’ (वही, पृष्ठ-44)

भारतीय समाज की जातीय संरचना तथा उसके विरोध में पेरियार के जीवनपर्यंत संघर्ष को समझने के लिए वी गीता द्वारा लिखित भूमिका, ‘जाति का विनाश और पेरियार’ एक दस्तावेजी रचना है. उससे पता चलता है कि पेरियार किस तरह एक ही समय में, कई अलग-अलग मोर्चों पर, एक साथ लड़ रहे थे-

‘यद्यपि मैं पूरी तरह से जाति को खत्म करने को समर्पित था, लेकिन जहां तक इस देश का संबंध है, उसका एकमात्र निहितार्थ था कि मैं ईश्वर, धर्म, शास्त्रों तथा ब्राह्मणवाद के खात्मे के लिए आंदोलन करूं. जाति का समूल नाश तभी संभव है जब इन चारों का नाश हो. केवल आदमी को गुलाम और मूर्ख बनाने के बाद ही जाति को समाज पर थोपा जा सकता था.’ (वही, पृष्ठ-3)

पेरियार स्त्री समानता के प्रबल पक्षधर थे. पुस्तक में उनके दो आलेख ‘पति-पत्नी नहीं, बनें एक-दूसरे के जीवनसाथी’ तथा ‘महिलाओं के अधिकार’ शामिल किया गया है. जिस दौर में तिलक जैसे नेता सामाजिक सुधारों को ‘राष्ट्रवाद के लिए खतरा’ मान रहे थे. यह कहकर कि ‘स्त्री का दिमाग पुरुष के दिमाग से औसतन 5 औंस कम होता है’ (महराट्टा, 13 नवंबर 1887) तिलक अपने अजब-गज़ब विज्ञानबोध का परिचय दे रहे थे- पेरियार महिलाओं के लिए समान अवसर और बराबरी कि मांग कर रहे थे. ऐसे समाज में ‘महिलाओं के अधिकार’ की बात कर रहे थे, जिसमें ‘जमींदार अपने नौकरों और ऊंची जाति के लोग नीची जाति के लोगों के साथ जिस प्रकार का व्यवहार करते हैं, पुरुष उससे भी बदतर व्यवहार अपनी स्त्री के साथ करता है. महिलाएं हर क्षेत्र में अस्पृश्यों से भी अधिक उत्पीड़न, अपमान और दासता झेलती हैं.’ (वही, पृष्ठ-103)

पेरियार ‘पति और पत्नी जैसे शब्दों को अनुचित मानते थे. ‘वे एक-दूसरे के साथी और सहयोगी हैं. गुलाम नहीं. दोनों का दर्जा समान है.’ (वही, पृष्ठ-109) यही कारण है कि स्त्रियां उन्हें ‘पेरियार’ (महान) कहकर बुलाती थीं.

कुल मिलाकर यह पुस्तक ईवी रामास्वामी पेरियार और उनके माध्यम से भारतीय समाज की ग्रंथियों से साक्षात करने का अवसर देती है. पेरियार के आंदोलन का केंद्र मुख्यतः दक्षिण भारत था. परंतु जिन परिस्थितियों और संघर्षों का उल्लेख इस पुस्तक में हुआ है, वे पूरे भारत में एक समान थीं. इसलिए इस पुस्तक कि जितनी महत्ता दक्षिण भारत को समझने के लिए है, उतनी ही शेष भारत के लिए भी है. साथ ही, पुस्तक में पेरियार के बहाने, हिंदी भाषी पाठकों के मानस को मथने के लिए भरपूर खुराक मौजूद है. यह ऐसी पुस्तक है जिसे बिना किसी पूर्वाग्रह के, हर हाल में पढ़ा जाना चाहिए.

पुस्तक: पेरियार: दर्शन चिंतन और सच्ची रामायण (पेरियार के मूल लेखों का चयनित संकलन)

भूमिका: वी गीता

प्रकाशक: फारवर्ड प्रेस, नई दिल्ली

(लेख में प्रस्तुत विचार लेखक के निजी विचार हैं. न्यूज़लॉन्ड्री का इन विचारों से सहमत होना आवश्यक नहीं.)