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स्मृतिशेष: रघुवंश बाबू का जाना भारतीय राजनीति को रिक्त कर गया है
राजनीतिक बीट कवर करने वाले एक पत्रकार का किसी एमएलए, एमपी या मंत्री से मिलना कोई बड़ी बात नहीं होती है. आप चूंकि इस पार्टी या उस मंत्रालय को कवर कर रहे होते हैं इसलिए यह आपके रोजमर्रा के काम का हिस्सा होता है. इसमें न तो कुछ भी नया है और न ही आकर्षक. इसके बावजूद कुछेक मंत्री या नेता से जब आप मिलते हैं तो आपको उनके प्रति लगाव पैदा हो जाता है, आदर पैदा होता है. रघुवंश बाबू ऐसे ही बिरले नेताओं में शुमार थे. साथ ही, जब आप उनके यहां एक पत्रकार के रूप में पहुंचते तो खाली हाथ नहीं लौटते थे. कोई न कोई खबर हाथ लगती ही थी.
रघुवंश बाबू ठेठ बिहारी व गंवई अंदाज में रहते थे, लेकिन मंत्रालय और विभाग पर जितना दबदबा उनका था वह सिर्फ गंवई अंदाज से नहीं आ सकता था. मंत्रालय पर उनकी जैसी पकड़ व जानकारी थी, वह रघुवंश बाबू के काम को देखे बगैर आप कल्पना ही नहीं कर सकते हैं. ग्रामीण विकास मंत्रालय कितना महत्वपूर्ण है इसे रघुवंश बाबू के काम को देखकर जाना जा सकता था. पांच साल के बाद जब वह मंत्री नहीं रहे, तब यह भी पता चला कि शीर्ष पर ऐसे आदमी के होने से विभाग की गरिमा कैसे बढ़ती है!
जब 2004 में उन्हें ग्रामीण विकास मंत्रालय का काम सौंपा गया, तब तक इस मंत्रालय के काम के बारे में बहुत लोगों को पता नहीं था. यह भी पता नहीं था कि इस मंत्रालय में रहकर पूरे देश का कायाकल्प भी किया जा सकता है. नरेगा और बाद में मनरेगा (महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी एक्ट) की परिकल्पना को सरजमीं पर उतारने में जो भूमिका रघुवंश बाबू ने निभायी थी, अगर उनके अलावा कोई और मंत्री होता तो शायद नरेगा जितना प्रभावशाली हुआ, किसी भी परिस्थिति में नहीं हो सकता था. हां, इसका श्रेय कुछ हद तक सोनिया गांधी को भी दिया जाना चाहिए जिसके चलते पांच साल तक अबाध उन्हें उस विभाग का मंत्री बने रहने दिया गया. देश के दूरदराज के गांव-गांव में सड़कों का जिस तरह जाल बिछाया गया, वह सिर्फ और सिर्फ रघुवंश बाबू की देन है.
जब वे ग्रामीण विकास मंत्री बने तो उनके भदेसपन का कुछ नौकरशाहों ने फायदा उठाना चाहा. उनकी बोलचाल, रहन-सहन, भदेसपन ने उन स्मार्ट नौकरशाहों के मन में यह बैठा दिया राजनीतिक समीकरण के चलते उन्हें यह विभाग मिला है, लिहाजा उनके भदेसपन से लाभ उठाया जा सकता है. इसके उलट कुछ हफ्ते के बाद ही सारे नौकरशाह कतारबद्ध हो गये! उन चालाक नौकरशाहों ने समझ लिया था कि इस भदेसपन के पीछे एक दृढ़निश्चयी व विज़नरी व्यक्ति का दिमाग है.
अपने विभाग के काम को लेकर वह जरूरत से ज्यादा सजग थे. जहां काम में कमी दिखायी देती थी उसके लिए वह अतिरिक्ति सावधानी बरतते थे. इसे सुचारू ढ़ंग से लागू करने-करवाने के लिए सरकारी स्तर से लेकर राजनीतिक स्तर तक लगे रहते थे. वर्ष 2007-08 के दौरान जब ऑडिट में बिहार में नरेगा का काम लगातार पिछड़ रहा था तो वह अच्छे अभिभावक की तरह हर हफ्ते बिहार के मुख्यमंत्री को इसे किस तरह लागू किया जाए, यह सलाह देते हुए लगातार पत्र लिख रहे थे. उनके लगातार चिट्ठी लिखने पर मैंने नई दुनिया अखबार में एक स्टोरी की थी. इस सिलसिले में इतनी चिट्ठी लिखने पर जब मैंने पूछा, तो उन्होंने इसका जवाब बस यह दिया था: “अगर किसी बच्चा से होम टास्क ठीक से पूरा नहीं हो पाता है तो शिक्षक अतिरिक्त मेहनत करता है. मैं अतिरिक्त मेहनत करता हूं.”
इस जवाब का मतलब इतना भर नहीं था. वह बिहार में मंत्री रहे थे, उनकी पार्टी की कुछ महीने पहले तक सरकार थी और वह जानते थे कि किस रूप में बिहार आर्थिक बदहाली से जूझ रहा है. उन्हें लगता था कि ग्रामीण विकास मंत्रालय से मिले पैसे का ठीक से सदुपयोग हो जिससे कि केन्द्र सरकार का पैसा बिना इस्तेमाल किये फिर से केन्द्र को वापस न हो जाए.
अगर नरेगा के कार्यान्वयन में किसी गड़बड़ी की शिकायत कहीं दिखती थी तो तत्काल उस विभाग से जुड़े संबधित पदाधिकारी को वह तलब करते थे. निजी तौर पर एक-आध बार ऐसा भी हुआ कि मैंने उनसे किसी गड़बड़ी के बारे में बताया तो उनका जवाब होता था कि ‘’ऊ खबर लिखिए अपने अखबार में पहले’’! और जब खबर छप जाती थी, तो फिर उससे जुड़े पदाधिकारी को बुलाकर खबर दिखाते हुए पूछते थे, ‘’ई देखिए त, का छप रहा है अखबार में, इसको दुरुस्त करवाइए!’’ एक बार तो ऐसा भी हुआ कि मैंने उनसे किसी खबर के बारे में बात की और उन्होंने हमेशा की तरह मुझे कहा कि इसे लिखिए. तीन-चार दिनों तक वह खबर मैं लिख नहीं पाया. एक दिन अचानक रघुवंश बाबू का फोन आया और उन्होंने पूछाः ‘’हम डेली क्लिपिंग देख रहे हैं, लेकिन उसमें आप जिस खबर की बात उस दिन कह रहे थे, ऊ देखइबे नहीं कर रहा है? का हुआ उस खबर का?’’
उनके मंत्री रहने के दौरान शायद ही ग्रामीण विकास मंत्रालय कवर कर रहा कोई पत्रकार होगा जो आपको बताए कि वह किसी खबर को छुपाने की कोशिश करते थे. सच कहिए तो वह प्रोत्साहित करते थे कि अगर उनके मंत्रालय में अगर कोई गड़बड़ी चल रही है तो अखबार उसे उजागर करे.
कृषि भवन में उनके कार्यालय का दरवाजा हर दिन पत्रकारों के लिए खुला रहता था. अगर वह दिल्ली में होते थे तो अनिवार्यतः अपने कार्यालय आते थे या फिर अपने आवासीय कार्यालय में पत्रकारों से जरूर मिलते थे. एक दिन उनके कार्यालय में बांग्ला अखबार का एक पत्रकार आया और अपना विजिटिंग कार्ड देते हुए बोला कि पिछले दिनों उसने एक टीवी चैनल ज्वाइन कर लिया है. इस पर रघुवंश बाबू का जवाब थाः ‘’अच्छा, तो अब से पढ़ना-लिखना बंद?’’ कुछ दिनों के बाद वह रिपोर्टर फिर से अखबार में लौट आया. उस दिन रघुवंश बाबू ने जो उनसे कहा था, शायद वही उनके इतनी जल्दी फिर से प्रिंट मीडिया में लौटने का मार्ग प्रशस्त किया होगा.
रघुवंश बाबू का दरवाजा सभी के लिए हमेशा ही खुला रहता था. उनके घर में कभी भी कोई बिना रोकटोक के आ जा सकता था. इसका लाभ कुछ लोग अलग तरह से उठाने की कोशिश भी करते थे, लेकिन रघुवंश बाबू से इस तरह का लाभ लेना बहुत ही मुश्किल काम था. वे एम्स में सबके इलाज के लिए उदारतापूर्वक चिट्ठी लिखा करते थे. वह मानते थे कि लोगों का स्वास्थ्य बेहतर होना चाहिए. इसी उदारता का लाभ उठाने में कुछ लोग उनसे गलत करवाने के लिए भी पहुंच जाते थे. चूंकि दरवाजा सबके लिए खुला होता था इसलिए किसी को उन तक पहुंचने में दिक्कत नहीं होती थी, लेकिन ज्यों ही वह व्यक्ति- चाहे वह कोई भी क्यों न हो- निजी लाभ के लिए सिफारिश करने की बात शुरू करता, रघुवंश बाबू धीरे-धीरे टेबल पर रखे अखबार को ऊपर उठाने लगते थे और कुछ ही पल में अपने मुंह के ऊपर रखकर सोने का उपक्रम करने लगते थे. जब सिफारिशी व्यक्ति को लगता कि वह सो गये हैं तो वह चुपचाप कमरा छोडकर निकल जाता था. उसके निकलते ही रघुवंश बाबू फिर से सक्रिय हो जाते थे!
मकर संक्राति के दिन हर साल 14 जनवरी को एक बड़ा जमावड़ा करना उनका प्रिय शगल था जिसमें सभी तरह के लोग शामिल होते थे. खासकर पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता, बिहार के हर धडे के लोग, नौकरशाह, पार्टी के नेता. जब तक रघुवंश बाबू सांसद रहे, अशोक रोड के बंगले में हर साल लोग जमा होते रहे. बिना किसी भेदभाव के.
रघुवंश बाबू का न होना बिहार और भारतीय राजनीति में रिक्तता छोड़ गया है. इसकी कमी सबसे ज्यादा लालू यादव को अखरेगी। और उसके बाद परिवर्तन चाहने वाले उन लोगों को भी अखरेगी जो मानते हैं कि राजनीति से परिवर्तन नहीं हो सकता, लेकिन रघुवंश बाबू उनके मन में भी आस जगाकर रखते थे.
(साभार - जनपथ)
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