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आदर सहित ‘माफी हुजूर’ नहीं बोलूंगा
वर्ष 2012 में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी पर अदालत की अवमानना का एक मामला दर्ज किया गया. ऐसा ममता द्वारा अदालत में बढ़ते भ्रष्टाचार और विश्वसनीयता के क्षरण पर की गई टिप्पणियों के बाद हुआ. उन्होंने अपने एक भाषण में कहा था, "कई बार पैसों के बदले पक्षपाती निर्णय लिए जाते हैं. आजकल अदालत के निर्णय खरीदे जाते हैं. यह दुर्भाग्य का विषय है कि लोगों को न्याय खरीदना पड़ रहा है. मेरे इन वक्तव्यों के लिए मैं अदालत और जेल जाने को भी तैयार हूं.
कुछ दिनों बाद कोलकाता उच्च न्यायालय के तत्कालीन न्यायाधीश अरुण मिश्रा ने अवमानना के मामले को खारिज करते हुए कहा- "मुख्यमंत्री ने लक्ष्मण रेखा पार नहीं की." जज मिश्रा ने यह भी कहा कि किसी भी परिस्थिति में अदालत के निर्णय को मुख्यमंत्री के कथन की सहमति के रूप में न देखा जाए. पर इतना स्पष्ट है कि ममता बनर्जी के मामले में अदालत के निर्णय से एक कानूनी मिसाल कायम हुई कि जजों से प्रश्न या उनकी आलोचना करना अदालत की अवमानना नहीं है. इस मामले में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को संविधान के अनुच्छेद 19 और 21 के तहत मिलने वाले मौलिक अधिकारों को प्राथमिकता दी गई.
हाल के दिनों में वही न्यायाधीश अरुण मिश्रा, जो अब सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश हैं ने अपने सेवानिवृत्त होने से कुछ दिन पहले और संभवतः अपने आखिरी निर्णय में, उसी प्रकार के मामले को फिर से अपने सामने सुनवाई के लिए पाया. फर्क सिर्फ इतना है कि 7 साल बीत चुके हैं, सरकारें बदल चुकी हैं, सुप्रीम कोर्ट के चार न्यायाधीशों के द्वारा ऐतिहासिक प्रेस कॉन्फ्रेंस का आयोजन हो चुका है जिसमें जजों ने सुप्रीम कोर्ट के कामकाज में राजनीतिक दखलंदाजी की ओर इशारा किया. बहुत से वरिष्ठ न्यायाधीशों ने न्यायपालिका के सबसे कलंकित क्षणों के बारे में लिखा कि कैसे जज अमीर और ताकतवर लोगों का पक्ष लेते हैं, एक निवर्तमान मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगा जिसमें पीड़िता को सुनियोजित तरीके से चुप करा दिया गया और एक उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जिसने सत्ताधारी दल के खिलाफ कार्यवाही का आदेश दिया, उनका रातों-रात रहस्यमय तरीके से तबादला हो चुका है. कहने का मतलब यह कि अदालतों के नीचे से बह रही गंगोत्री में बहुत पानी बह चुकी है.
14 अगस्त को 3 न्यायाधीशों की एक बेंच ने वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण को उनके दो ट्वीट के लिए न्यायपालिका की आलोचना को अदालत की अवमानना माना. उनके सजा सुनाए जाने से एक दिन पहले सोशल मीडिया साइट ट्विटर ने प्रशांत भूषण के दोनों ट्वीट को खुद ही यह कहकर हटा दिया कि "कानूनी तकाजे के चलते इन्हें हटाया गया है." जब प्रशांत भूषण ने आलोचना को अवमानना के रूप में देखने के खिलाफ अपने तर्क पेश किये तो जस्टिस गवई इससे सहमत नहीं थे. उन्होंने इसके जवाब में कहा कि आलोचना तभी ठीक है जब आलोचक व्यवस्था में सुधार के प्रणेता हों न कि "जजों का न्यायाधीश या न्यायपालिका के रूप में खुलकर आलोचना" करने वाले जो उनके अनुसार "अदालत को अपमानित" करने वाला माना जाएगा.
ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है जब अदालत को आलोचना का सामना करना पड़ा है. जनवरी 2018 की सर्द सुबह में अचानक से दिल्ली का सियासी माहौल गरमा गया था जब सुप्रीम कोर्ट के चार न्यायाधीशों जस्टिस चेलामेश्वर, जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस मदन बी लोकुर और जस्टिस कुरियन जोसेफ खुद ही एक प्रेस कॉन्फ्रेंस के लिए अपने निवास के लॉन में आ जुटे थे. इतिहास में पहली बार देश के सर्वोच्च न्यायालय के चार वरिष्ठ सदस्य खुद ही मीडिया के सामने आए और इस अभूतपूर्व प्रेस कॉन्फ्रेंस में उन्होंने खुलासा किया कि जनतंत्र खतरे में है. तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के कामकाज पर लिखी गई एक चिट्ठी में इन चारों वरिष्ठ न्यायाधीशों ने स्थापित नियम कानूनों को नज़रअंदाज कर प्रशासनिक तौर पर अदालत के कामकाज में हस्तक्षेप करने का आरोप लगाया.
पिछले हफ्ते प्रशांत भूषण एक मामले की सुनवाई के दौरान भारत के महाधिवक्ता केके वेणुगोपाल ने कहा कि प्रशांत भूषण ने जो भी कहा उसमें कुछ नया या अलग नहीं है. उन्होंने कहा, "मैं ऐसे 9 जजों को जानता हूं जो यह कहते हैं की न्यायपालिका के ऊपरी स्तरों पर भ्रष्टाचार है और मैंने खुद 1987 में भारतीय विधि संस्थान में भाषण दिया था.”
परंतु जस्टिस अरुण मिश्रा ने अटार्नी जनरल को उनकी बात खत्म करने से पहले ही रोक दिया. दो दिन पहले फिर से केके वेणुगोपाल ने अदालत में प्रशांत भूषण के मामले की सुनवाई के दौरान फिर से पूछा- “प्रशांत भूषण के मामले में तीसरी पार्टी जजों की भी है. जिन पर भ्रष्टाचार का आरोप हैं, तो क्या उन जजों की बात सुने बिना कोई फैसला किया जा सकता है? इसे अदालत ने तुरंत यह कहते हुए खारिज कर दिया कि इससे एक कभी न खत्म होने वाली जांच-पड़ताल शुरू हो जाएगी.
7 साल पहले ममता बनर्जी पर हुए अवमानना के मामले में उनके वकील समरादित्य पाल ने अदालत से कहा था कि अगर मुख्यमंत्री यह साबित कर सकती हैं कि वह सच बोल रही हैं तो उन पर कोई केस नहीं बनता. हालांकि प्रशांत भूषण को अपने वक्तव्य के समर्थन में सबूत रखने की सहूलियत नहीं दी गई.
20 अगस्त को प्रशांत भूषण के कहने के बावजूद कि उन्हें पुनर्विचार अथवा माफी के बारे में विचार नहीं करना है, जस्टिस अरुण मिश्रा ने निर्णय लिया कि उन्हें यह समय दिया जाए. प्रशांत भूषण ने 142 पन्नों का एक हलफनामा दायर किया जिसमें उन्होंने अभिव्यक्ति की आजादी और संवैधानिक व्यवस्था का हवाला देते हुए बताया है कि कैसे सुप्रीम कोर्ट और पिछले चार मुख्य न्यायाधीशों ने जनतंत्र के पतन में महत्वपूर्ण योगदान दिया है. विचार करने का समय दिए जाने के बाद सोमवार को प्रशांत भूषण ने एक और हलफनामा दायर किया जिसमें उन्होंने कहा है कि माफी मांगना उनकी अंतरात्मा की अवमानना होगी, उनके वकील ने इस समयावधि के बढ़ाने को दबाव बनाने की मुहिम करार दिया.
मांंफी न मांगने के क्या परिणाम होंगे?
साल 2002 में उच्चतम न्यायालय को अरुंधति रॉय के द्वारा की गई टिप्पणियों पर खेद न जताना अच्छा नहीं लगा था. कानून का सम्मान बचाए रखने के लिए उच्चतम न्यायालय ने उन्हें अवमानना का दोषी माना और सांकेतिक तौर पर 2000 रुपए का अर्थदंड और एक दिन के कारावास की सज़ा दी. प्रशांत भूषण की तरह वह भी अपनी बात पर टिकी रहीं. उस एक रात जब वह जेल में थीं तब उनका हालचाल जानने के लिए प्रशांत भूषण जेल गए थे.
12 साल बाद भूषण खुद को उसी अदालत के सामने खड़ा पाते हैं. जब अदालत ने भूषण के खिलाफ अवमानना की कर्रवाई करने के लिए नोटिस जारी किया तब 130 से ज्यादा प्रतिष्ठित लोगों- जिनमें अरुंधती रॉय भी शामिल हैं- ने अदालत से पुनर्विचार करने और इस निर्णय को वापस लेने की मांग की. हस्ताक्षर करने वालों में पूर्व न्यायाधीश, सेवानिवृत्त वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी, राजनेता, पूर्व राजदूत और सामाजिक कार्यकर्ता शामिल हैं. इन सभी ने अदालत के इस क़दम को आलोचना के दमन का प्रयास बताया.
सोमवार को अदालत प्रशांत भूषण के मामले की सुनवाई के लिए फिर से बैठी. प्रशांत अपनी बात पर कायम रहे और वरिष्ठ अधिवक्ता राजीव धवन ने अदालत में भूषण की ओर से जिरह की कमान संभाली. उन्होंने पूछा कि अदालत को अवमानना के तहत मिली ताकत के मामले में व्यक्ति की अभिव्यक्ति की आज़ादी का मौलिक अधिकार कितना मायने रखता है.
भूषण के अविचलित रहने से अदालत अधर से में फंस गई. दोपहर लगभग 1:00 बजे जस्टिस मिश्रा पूछते हैं- "अगर इन्हें (प्रशांत भूषण) लगता है उन्होंने कुछ गलत नहीं किया, तो फिर क्या किया जा सकता है?" तदोपरांत मुख्य अधिवक्ता और जस्टिस मिश्रा की जिरह के दौरान महाधिवक्ता ने अदालत के "चौड़े कंधों" और आलोचना झेलने की क्षमता की गुहार लगाई. वही क्षमता जिसका उल्लेख अदालत ने स्वयं 2002 में अरुंधति रॉय के अवमानना के मामले को सुनते हुए किया था.
जस्टिस मिश्रा के यह कहने पर कि प्रशांत भूषण का मतभेद किसी निर्णय से हो सकता है न्यायाधीश से नहीं, केके वेणुगोपाल ने अदालत के सामने स्पष्ट करने का प्रयास किया कि प्रशांत भूषण ने खुद सर्वोच्च न्यायालय को संपूर्ण आदर देने में कभी हिचकिचाहट नहीं दिखाई है. बहुत से मामलों में भूषण को खुद अदालत की तरफ से एमाइकस क्यूरी अर्थात अदालत के मित्र के रुप में नियुक्त किया गया जो न्यायालय और भूषण का एक दूसरे के लिए परस्पर सम्मान दिखाता है. लाइव ला की रिपोर्ट के मुताबिक दोपहर के खाने की वेला में प्रशांत भूषण को "पुनर्विचार" के लिए 30 मिनट और दिए गए.
उसके पश्चात जब अदालत दोबारा बैठी तो भूषण के वकील ने अदालत से कहा कि केवल "कानून के शिकंजे" से बचने के लिए उनके मुवक्किल माफी नहीं मांगेंगे और उसके बाद उन्होंने अदालत से कुछ सवाल किया कि अगर किसी व्यक्ति पर अवमानना का आरोप है तो क्या उसे अपने बचाव का मौका नहीं मिलना चाहिए? इसके साथ ही उन्होंने अदालत से यह भी पूछा कि वह असल में प्रशांत भूषण से क्या नहीं करने को कह रहे हैं. उनके वकील राजीव धवन के अनुसार, "क्या अदालत ही अदालत की आलोचना रोकने का निर्देश दे सकती है? क्या अदालत उन्हें चुप करा सकती है? अंत में उन्होंने कहा- “हम माफी नहीं मांग रहे. हम अदालत से बड़प्पन की उम्मीद कर रहे हैं."
अंततः यह सुनवाई चिड़चिड़े नज़र आए जस्टिस मिश्रा के सवाल से खत्म हुई- "माफी मांगने में हर्ज क्या है?"
अदालत ने अपना फैसला सुरक्षित रखते हुए 10 सितंबर को अगली तारीख तय की है.
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