Newslaundry Hindi

गिर में शेर मर रहे, कूनो में इंतजार है, और गुजरात सरकार जिद पर अड़ी है

10 अगस्त को, विश्व सिंह दिवस के मौके पर सेंट्रल ज़ू अथॉरिटी ने एक वेबिनार आयोजित कराया जिसमें कई विशेषज्ञों के बीच गुजरात के प्रधान वन संरक्षक और मुख्य वन्यजीव प्रतिपालक, श्यामल टिकदर भी मौजूद थे

वेबिनार में बोलते हुए टिकदर अंग्रेजी में कहते हैं कि बाघ और शेर जैसे जीवों को हम समुदाय के परम्परागत संबंधों के आधार पर देखते हैं "ऐसे संबंध स्वामित्व को जन्म देते हैं और जाहिर सी बात है कि कोई भी अपना स्वामित्व नहीं छोड़ना चाहेगा."

टिकदर ने अपनी बातों से इशारा किया कि शेर जैसे जीव किसी एक स्थान पर अगर कम संख्या में होंगे तो बेहतर तरीके से संरक्षित किये जा सकते हैं. "कितने शेर एक समाज सहन कर सकता है? हम किसी टाइम बम पर बैठे हैं," उन्होंने कहा. साथ ही जोड़ा कि "लगभग 70 से 80 प्रतिशत शेर जंगली नहीं हैं."

गुजरात सरकार को टिकदर की ये बातें रास नहीं आईं, लिहाजा उन पर कर्रवाई करते हुए एक कारण बताओ नोटिस जारी कर दिया गया जिसमें कहा गया कि टिकदर के शब्द "गैरजिम्मेदार" "अवांछनीय" थे. इसके साथ ही एक प्रेस विज्ञप्ति भी जारी की गई जिसमें गुजरात सरकार के द्वारा किये गये शेर संरक्षण के कामों की सराहना थी. यह दुर्लभ अवसर था जब किसी बड़े नौकरशाह की बात को सरकार इतना गंभीर से ले गई क्योंकि जिस विषय पर टिकदर ने बोला उस विषय की राजनीति बहुत पुरानी है.

कूनो राष्ट्रीय उद्यान, शेरों के लिए चुना गया दूसरा घर

शिवपुरी पठार से जन्म लेने वाली कूनो नदी, कूनो राष्ट्रीय उद्यान के बीच से होती हुई आगे बढ़ती है. यह चम्बल नदी की एक महत्वपूर्ण सहायक नदी है. कूनो राष्ट्रीय उद्यान, जो कि श्योपुर जिले में आता है, इस महामारी के दौर में भी अपनी खूबसूरती से लोगों को आकर्षित कर रहा है. बरसात के मौसम हर साल की तरह इस वर्ष भी हरियाली ने इस उद्यान की खूबसूरती को चार चांद लगा दिया है. बरसात के महीनों में कूनो कई महीने बन्द रहने के बाद सितंबर में खुलेगा.

पर कूनो राष्ट्रीय उद्यान कई वर्षों से अपने राजा का इंतजार कर रहा है-जो कि अभी भी गिर में मौजूद है. गिर राष्ट्रीय उद्यान में इस वर्ष की जनगणना के हिसाब से 674 शेर हैं, गिर ने शेरों की संख्या में 2015 से 28.87 प्रतिशत की वृद्धि देखी जिसके बारे में हमारे प्रधानमंत्री ने भी ट्वीट किया था.

परंतु ये जनगणना पूनम अवलोकन विधि द्वारा की गई, जो डायरेक्ट बीट वेरिफिकेशन मेथड के नाम से भी जाना जाता है, जिसे वैज्ञानिक प्राचीन विधि कहते हैं, जो अवैज्ञानिक है और जिसके नतीजों पर पूरी तरह विश्वास नहीं किया जा सकता. बहरहाल जनगणना हर पांच वर्ष की तरह इस वर्ष भी होनी थी, जिसका दिन जून 5-6 के आस पास ही सुनिश्चित किया गया था परंतु कोरोना महामारी ने सरकार को ये जनगणना अंतरिम तरीके से करने पर मजबूर कर दिया.

1990 में वाइल्डलाइफ इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया, जो कि पर्यावरण मंत्रालय के अंतर्गत एक स्वायत्त संस्थान है और वाइल्डलाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया जो कि एक गैर सरकारी संस्थान है, ने कूनो को शेरों के लिए एक अच्छा पर्यावास माना. इसके बाद 1996 और 2001 के बीच लगभग 23 परिवार कूनो वाइल्डलाइफ सैंक्चुअरी के अंदर से हटाये गए जो कि ज्यादातर सहरिया आदिवासियों के थे और उसके बाद 1280 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र को कूनो वन्यजीव विभाग के लिए सीमांकित किया गया.

शेर, एक राजनीतिक विषय

शेर भारत में हमेशा से एक राजनीतिक विषय रहे हैं. अगर हम हाल ही कि राजनीति देखें तो, 2013 में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया था कि कुछ शेरों को छः महीने के अंदर गिर से कूनो में लाया जाय परंतु उस समय के गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद मोदी को ये मंजूर नहीं था. उनका तर्क था कि गुजरात शेरों को "गुजराती अस्मिता" से जोड़ कर देखता है

इसीलिये पहले गुजरात ने रिव्यु पिटीशन दाखिल किया फिर क्यूरेटिव पिटीशन दाखिल किया.इसके बाद भी कुछ नहीं हुआ तब गुजरात ने आईयूसीएन द्वारा निर्धारित अध्ययन करने की बात कही जो किसी भी वन्य जीव के स्थानांतरण के लिए जरूरी है.

मध्य प्रदेश सरकार का रवैया भी इस मुद्दे पर हमेशा ढीला-ढाला रहा. जब सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा गठित एक कमेटी ने मध्यप्रदेश सरकार से दिसंबर 2016 में कहा कि कूनो को राष्ट्रीय उद्यान घोषित करे, तब भी मध्य प्रदेश सरकार ने कूनो को राष्ट्रीय उद्यान घोषित करने में 2 साल लगा दिए. 2018 में जाकर मध्यप्रदेश सरकार ने कूनो को वाइल्डलाइफ सैंक्चुअरी से राष्ट्रीय उद्यान बना कर 413वर्ग किलोमीटर का संरक्षित क्षेत्र और बढ़ा दिया.

शिवराज सिंह सरकार हमेशा इस मुद्दे पर शांत रही क्योंकि जाहिर तौर वो प्रधानमंत्री मोदी को नाराज नहीं करना चाहती थी. जब पिछले विधानसभा चुनाव में सरकार बदली तो लगा अब नई सरकार इस मुद्दे पर जोर देगी. नए मुख्यमंत्री कमलनाथ ने कुछ ऐसा किया भी. उन्होंने 2019 में प्रधानमंत्री को एक पत्र लिखा जिसमें शेरों के स्थानांतरण की गुजारिश की गई. जिसके बाद ऐसे कयास लगाए जाने लगे कि शेर 2020 तक कूनो में आ जाएंगे.

यहां के लोकल लीडर भी इस बात से खुश थे कि शेरों के आने से पर्यटन संबंधी रोजगार उत्पन्न होंगे, कांग्रेस नेता और कूनो संघर्ष समिति के अध्यक्ष अतुल चौहान कहते है कि यहां सालाना फुटफॉल 2000 से 2500 के करीब रहता है अगर शेर यहां आते हैं तो ये बढ़ेगा जिस से यहां पर्यटन और रोजगार बढ़ेगा.

परन्तु न अभी तक शेर आये न ही शेरों के आने की कोई बात चर्चा में है.

28 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच जिसे मुख्य न्यायाधीश एसए बोबडे हेड कर रहे थे, ने अपने सात साल पुराने निर्णय को बदलकर अफ्रीकी चीते को भारत लाने की इजाजत दे दी. चीता ऐसा स्तनधारी जीव जो भारत में अंधाधुंध शिकार की वजह से पूरी तरह विलुप्त हो चुका है. सुप्रीम कोर्ट ने ये निर्णय नेशनल टाइगर कंज़र्वेटिव ऑथोरिटी (एनटीसीए) की याचिका पर दिया.

चीता के लिए कूनो नेशनल पार्क और नौरादेही वाइल्डलाइफ सेंक्चुअरी अच्छे वास माने गए. जिसके बाद कूनो में चीता के आने के भी कयास लगने शुरू हो गए.

वन्य जीव विशेषज्ञ रवि चेल्लम जो कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त विशेषज्ञ कमेटी का हिस्सा रहे हैं, कहते हैं, "ये 2013 के सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के बाद से एक स्थापित मामला है कि शेरों को गिर से कूनो में लाया जाना है, जबकि चीता को अफ्रीका से यहां भारत में एक प्रयोग के तौर पर लाना है."

अब जब मध्य प्रदेश में फिर से सरकार बदली है, ऐसा लग रहा है कि ये मामला नौकरशाही के पेंच में फंसकर फिर से गर्त में चला गया है.मध्य प्रदेश सरकार कुछ कहना नहीं चाहती, जबकि गुजरात द्वारा शेरों का स्थानांतरण न करने की जिद "अदालत की अवमानना" है.

प्रधानमंत्री का शेरों की संख्या बढ़ने पर किया गया ट्वीट दर्शाता है कि प्रधानमंत्री शेरों को कितना महत्व देते हैं और कोई भी नहीं चाहता कि वो उनकी नजरों में बुरा बने.

एक रिटायर फारेस्ट अफसर अपने नाम छुपाने की शर्त पर कहते हैं, "ये मामला अगर न्यायालय में नहीं गया होता तो नौकरशाही में ये हमेशा के लिए लटका हुआ रहता, और जितना मैं जानता हूं इसे अभी और खींचा जा सकता है. चूंकि ये सुप्रीम कोर्ट का आदेश है तो में मैं आशा करता हूं आज नहीं तो कल गुजरात शेरों को कूनो भेज देगा."

निचली रैंक के वन्य अधिकारी भी इस बात को महसूस करते हैं कि हमने कूनो में तैनात कुछ गार्ड और रेंज ऑफिसर्स से बात की.

"मैं यहां नया हूं, हम सुनते रहते हैं शेर आ रहे हैं फिर चीता आ रहे हैं. पर ऐसे अभी कोई जानकारी नहीं और अब तो वैसे भी कोरोना चल रहा है." वीरेंद्र कुमार, रेंज अफसर ने कहा.

30 साल के फारेस्ट गार्ड संतोष कुमार कहते हैं, "हैबिटैट तैयार है, अवैध शिकार की घटनाएं नियंत्रित है, लेकिन हम तो बस इंतजार में हैं."

डाउन टू अर्थ ने हाल ही में एक खबर छापी की गिर में 92 शेर जनवरी से अब तक मर चुके हैं और "केंद्र सरकार को शेरों की मत्यु दर की पूरी जानकारी थी." रिपोर्ट ये भी कहती है कि ये शेर कैनाइन डिस्टेम्पर वायरस (सीवीडी) की वजह से मारे गए हैं जो कि जंगली कुत्तों में मुख्यतः पाया जाता है. सीवीडी की वजह से 1994 में तंजानिया में 1000 के करीब शेरों की मृत्यु हुई थी जो ये दर्शाता है कि ये वायरस कितना खतरनाक हो सकता है.

विशेषज्ञ इस तरह के संक्रमण के बारे में कई बार आगाह कर चुके हैं. पिछले साल ही एक अध्ययन में 68 शेर और 6 लेपर्ड इस वायरस से संक्रमित पाए गए थे.

अकेली सीवीडीही नहीं जानवरों के शरीर पर चिपकने वाली किलिनी (टिक) जैसे कीड़ों से फैलने वाली बिमारी बैबिसियोसिस भी एक बहुत बड़ा खतरा है जिसने 2018 में 27 शेरों की जान ली थी.

चेल्लम कहते हैं, "आपके पास एक कटोरा है, आप उसमें 5 अंडे रखो, 50 रखो या 5000 हजार रखो खतरा तो हमेशा ही है. और शेर एक ऐसा जीव है जो हमेशा संरक्षित क्षेत्र से बाहर जाता है क्योंकि एक राष्ट्रीय उद्यान मात्र 1412वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला है. शेर बाहर जाते हैं और उनके लिए वे अच्छे कारणों से जाते हैं जैसे एक तो वे छोटे क्षेत्र में रह नही सकते दूसरा बाहर मिलने वाला आसान शिकार. नई जनगढ़ना के हिसाब से 50 प्रतिशत शेर मनुष्यों के करीब पर्यावासों में रह रहे हैं तो रिस्क जैसे ट्रैन, खाली कुंए, बिजली, ट्रैफिक इत्यादि से हमेशा है."

चेल्लम आगे कहते हैं, "चूंकि घरेलू पशुओं का टीकाकरण नहीं होता तो बीमारियों का खतरा भी और बढ़ जाता है."

शेरों के मनुष्य के वास के आस पास रहना आम बात है लेकिन शेरों की संख्या मनुष्य के आस पास के हैबिटैट में बढ़ना काफी खतरनाक है. विशेषज्ञ मानते हैं कि गिर के शेर मनुष्यों पर हमला कम करते हैं और अभी तक कोई बदले पर आधारित वन्य जीवों की हत्या गिर के आस पास नहीं देखी गयी है.

कूनो ने दो दशक के लगभग शेरों का इंतजार कर लिया जिसके लिए यहां के लोगोंने काफी त्याग किया है. 25 गांव और 1400 से अधिक परिवार अपना परंपरागत घर और व्यवसाय छोड़कर अन्य गांवों में रह रहे हैं. ये परिवार सहरिया ही नही बल्कि यादव, जाटव, ब्राह्मण, कुशवाह सभी तबके के लोग हैं.

कोरोना की वजह से हम इन गांव तक नहीं पहुंच पाए, इस विषय पर आगे कोई कहानी हम लेकर आएंगे. लेकिन जब हम कूनो नदी के किनारे बसे एक गांव से सईपुरा में गए तब हमें अगरा गांव के छोटे आदिवासी मिले. उन्होंने पार्क में पहुंच की बात कही, "अब तो पारक में जान नई दें, वे चले जाते अपने ढोरन ने ले, जिन्ने गार्ड जान्तु, हमन्ने कौन जान्तु. हमतो बैठे हैं नोइ, अब जे आग लगो पतो नैय्या का कोरोना आ गो."

“अब तो पार्क में जाने नहीं देते हैं.जिन्हें गार्ड जानते हैं वो तो अपने जानवरों के साथ चले जाते हैं. हमें कोई नहीं जानता. हम तो यहीं बैठे हैं. अह ये पता नहीं नई आग कोरोना आ गया है.”

Also Read: बाघ, वन और उपनिवेशवाद

Also Read: गुजरात के गिर में 5 माह में 92 शेरों की मौत