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कोविड-19 के झटके से दोगुनी होगी गरीबी

अंतरराष्ट्रीयश्रम संगठन (आईएलओ) ने अप्रैल के दूसरे हफ्ते में कहा था कि भारत में अनौपचारिक क्षेत्र के 40 करोड़ मजदूर कोरोना वायरस के चलते गरीबी के कुचक्र में फंस जाएंगे. इसमें कोई विवाद नहीं है कि देश में गरीबी बढ़ेगी लेकिन सवाल यह है कि यह किस हद तक बढ़ेगी? हमने नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस (एनएसएसओ) और पूर्ववर्ती योजना आयोग के आंकड़ों के जरिए इस प्रश्न का उत्तर खोजने की कोशिश की.

पंचवर्षीय सर्वेक्षण में एनएसएसओ हर महीने उपभोग पर होने वाले खर्च (एमपीसीई) का अनुमान लगाता है. यह आंकड़ा आय का प्रतिनिधित्व करता है. योजना आयोग द्वारा की जाने वाली गरीबी के स्तर की गणना का यह आधार था. इसके ताजा आंकड़े साल 2011-12 (2017-18 की एनएसएसओ रिपोर्ट अभी जारी नहीं हुई है) के हैं. तब देश की 21.9 प्रतिशत आबादी यानी करीब 27 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे रह रहे थे. एनएसएसओ के एमपीसीई और योजना आयोग के राज्यवार गरीबी के आंकड़ों को आधार बनाकर हमने कोविड-19 से गरीबी के स्तर पर पड़ने वाले प्रभाव का आकलन किया.

हमने आय में कमी की स्थिति (इनकम शॉक सिनेरियो) का अनुकरण किया जिसमें व्यक्ति को तीन महीने (मार्च-मई) तक नुकसान हुआ हो. आय को पहुंचा नुकसान साल में औसतन 25 प्रतिशत एमपीसीई की कमी को प्रदर्शित करती है. हम यह मानकर चलें कि सभी वर्गों को समान नुकसान हुआ है और आय तीन महीने बाद कोरोना काल के पहले जैसी हो जाएगी.

आइए अब देखते हैं कि उत्तर प्रदेश की हमारी गणना क्या कहती है. 2011-12 में उत्तर प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी की सीमा का स्तर (प्रति व्यक्ति प्रति माह) 768 रुपए और शहरी क्षेत्रों में यह 941 रुपए थी. इसके आधार पर कह सकते हैं कि राज्य में गरीबी रेखा से नीचे रह रहे लोगों का अनुपात या प्रतिशत 29.4 था. जब हमने यहां 25 प्रतिशत इनकम शॉक की स्थिति लागू की और गरीबी रेखा की फिर से गणना की तो राज्य की गरीबी का अनुपात 57.7 प्रतिशत हो गया. जब हमने इस अनुपात को 2019-20 की अनुमानित जनसंख्या पर लागू किया तो पाया कि उत्तर प्रदेश में 7.1 करोड़ लोग कोविड-19 के झटके से गरीब हो सकते हैं.

इस तरीके को अन्य सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में प्रयोग करने पर पाया गया कि 25 प्रतिशत इनकम शॉक की स्थिति में भारत में गरीबी की दर बढ़कर 46.3 प्रतिशत हो जाएगी. यह 2011-12 के स्तर के मुकाबले दोगुने से अधिक और 1993-94 के स्तर से भी अधिक है. इसका अर्थ है कि भारत में 35.4 करोड़ गरीब बढ़ जाएंगे. इसके फलस्वरूप बाद में भारत में गरीबों की कुल संख्या 62.3 करोड़ हो जाएगी.

हमने 35 राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों में आकलन किया और पाया कि शॉक की स्थिति में 27 राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों में गरीबी दोगुनी से ज्यादा हो जाएगी. 35.4 करोड़ नए गरीबों में आधे पांच राज्यों- उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल और मध्य प्रदेश में होंगे.

अपनी गणना के दौरान हम कुछ मान्यताओं को मानकर चले. पहला, हम मानकर चले कि सभी वर्गों में इनकम शॉक समान होगा. लेकिन अब यह स्पष्ट हो चुका है कि अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाले निम्न वर्गों (जो पहले ही गरीब हैं या गरीबी रेखा की सीमा पर हैं) पर इसका सबसे बुरा असर पड़ रहा है. यह बताता है कि सभी वर्गों पर इनकम शॉक का समान असर नहीं है. दूसरा, बुरी से बुरी स्थिति में हम यह मानकर चलें कि आय में 25 प्रतिशत का नुकसान होगा. लेकिन दुख की बात यह है कि बड़ी संख्या में लोगों की नौकरियां जा रही हैं. इनमें से अधिकांश निम्न आय वर्ग के लोग हैं. इससे पता चलता है कि आय का झटका 25 प्रतिशत से बहुत अधिक है. तीसरा, हमारी मान्यता थी कि तीन महीने बाद आय की स्थिति कोविड-19 से पहले जैसी हो जाएगी. यह मान्यता अति आशावादी थी. आने वाले महीनों में आय का स्तर अर्थव्यवस्था की रिकवरी और नई नौकरियों के सृजन पर निर्भर करेगा.

फिर भी उपरोक्त विश्लेषण उपयोगी है क्योंकि यह कोविड-19 के गरीबी पर पड़ने वाले असर का कम से कम बुनियादी अनुमान बताता है. इसके आधार पर हम कह सकते हैं कोविड-19 के प्रभाव से गरीबी और आय की असमानता बढ़ेगी.

हमने एमपीसीई विश्लेषण एक सुझाव देने के लिए प्रयोग किया है. हमारी गणना बताती है कि अगर केंद्र सरकार डीबीटी के तहत प्रति व्यक्ति को हर महीने 312 रुपए देती है तो बहुत से राज्यों में अधिकांश लोग कोविड-19 से पहले के एमपीसीई के स्तर पर आ जाएंगे. यह तथ्य है कि कोविड-19 से पहले भी देश की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी. इसे देखते हुए भी देश में 62.3 करोड़ गरीब होने की आशंका है. डीबीटी के जरिए मदद पहुंचाने पर हर महीने 19,500 करोड़ रुपए खर्च होंगे.

अगर सरकार सहायता राशि बढ़ाकर 750 रुपए प्रति महीना कर देती है तो गरीबों को न केवल महामारी के आर्थिक संकट से उबरने में मदद मिलेगी बल्कि गरीबी की स्थिति भी सुधर जाएगी. डीबीटी के जरिए ऐसा करने के लिए सरकार को हर महीने 46,800 करोड़ रुपए खर्च करने होंगे. सरकार को यह डीबीटी राशि छह महीने तक भेजने पर विचार करना चाहिए. इसके साथ ही पीडीएस के जरिए दिया जाने वाला राशन भी बढ़ाना चाहिए और एलपीजी सिलिंडर पर सब्सिडी भी.

यह महामारी केवल सामाजिक और आर्थिक संकट लेकर नहीं आई बल्कि मानवीय संकट भी इसकी देन है. अनिश्चित भविष्य को देखते हुए गरीबों को आत्मनिर्भर और तैयार करके हम जानलेवा कोरोनावायरस का मुकाबला कर सकते हैं. डीबीटी को यह सुनिश्चित करने के लिए अभी लंबा सफर तय करना है.

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