Newslaundry Hindi
कोरोना: महामारी को धर्म से जोड़ने का इतिहास
कोरोना पहली ऐसी महामारी नहीं है जब उसके बहाने साम्प्रदायिकता का माहौल बनाया गया हो. एक सौ चौबीस साल पहले प्लेग के बहाने साम्प्रदायिकता का ऐसा माहौल बनाया गया कि प्लेग की रोकथाम में कामयाबी हासिल करने वाले अंग्रेज अधिकारियों की कट्टरपंथियों ने हत्या कर दी.
अंग्रेजो की सरकार ने भारत में 1897 में महामारी अधिनियम लागू किया.भारत में प्लेग 1896 में चीन से आया था.19 फरवरी,1897 को पुणे में युवाउप जिलाधिकारी वॉल्टर चार्ल्स रैंड को प्लेग नियंत्रण का अतिरिक्त कार्यभार दिया गया. रैंड ने पाया कि पुणे प्लेग का गढ़ बन चुका था जो कि राष्ट्रवादी नेता बाल गंगाधर की राजनीतिक गतिविधियों का स्थानीय केन्द्र था.
पुणे में प्लेग के गंभीर ख़तरे से निबटने के लिए आवश्यक सुविधाओं में बढ़ोतरी के इरादे से उप जिलाधिकारी वॉल्टर चार्ल्स रैंड ने हिन्दू, मुस्लिम और पारसी सामुदायिक प्लेग अस्पताल खोलने की सलाह दी. बाल गंगाधर तिलक के एक जीवनीकार के अनुसार उन्होंने अन्य हिन्दू नेताओं के साथ मिल कर अपने खर्च से हिन्दू प्लेग अस्पताल की स्थापना कीजिसके नियम इस तरह से बने कि उसमें अछूतों की भर्ती नहीं की जाएगी.
लेकिन उप जिलाधिकारी वॉल्टर चार्ल्स रैंड के प्लेग के रोकथाम के उपायों को जल्द ही साम्प्रदायिक रंग देने का अभियान खतरनाक मोड़ पर पहुंच गया.गोपाल कृष्ण गोखले ने अपने इंग्लैंड प्रवास के दौरान 2 जुलाई,1897 को ‘द मैनचेस्टर गार्डियन’ के समक्ष यह आरोप लगाया कि अंग्रेज़ सिपाहियों ने भारतियों की धार्मिक संवेदनशीलता की अवमानना की है. उन्होंने जानबूझ कर लूटपाट और आगज़नी की. वे लोगों के घरों, रसोई और धार्मिक स्थलों में घुसे और उन्हें अपवित्र किया.उन्होंने महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार किया और ज़बरदस्ती अस्पताल भेजने के पहले सरेआम उनका निरीक्षण किया. गोखले ने यहां तक आरोप लगाया कि दो महिलाओं के साथ अभद्रता की गई जिनमें से एक ने आत्महत्या कर ली.
तत्कालीन सरकार ने गोखले के इन आरोपों की जांच की और उन्हें निराधार पाया. लॉर्ड सैंड्हर्स्ट, बॉम्बे प्रेसीडेंसी के गवर्नर के मुताबिक यह आरोप दुर्भावना से प्रेरित थे. जब इस बात की सूचना हाउस ऑफ कॉमन्स के सामने भी आ गई तो गोखले ने महामहिम राज्यपाल, प्लेग समिति के सदस्यों और प्लेगरोधी संचालन में लगे सैनिकों से क्षमा याचना कर ली.
यही नहीं पुणे में द्वेषपूर्ण माहौल बनाने के लिए कई भड़काऊ घटनाओं को हवा दी गई. ऐसी ही एक घटना के अनुसार, एक अंग्रेज़ सिपाही ने डर से सहमी एक ब्राह्मण युवती के ऊपर मंदिर से उठाया हुआ फूल फेंक दिया था. इस घटना की पुष्टि किये बिना इसे ब्राह्मणों के मान से जोड़ दिया गया. इसे इतना तूल दिया गया कि पुणे का ब्राह्मण वर्ग बुरी तरह भड़क गया. गोपाल कृष्ण गोखले के अखबार ‘सुधारक’ में यहां तक छपा.
‘धिक्कार है तुम पर! तुम्हारी माताओं, बहनों और बेटियों के अपमान पर भी तुम चुप हो. जानवर भी ऐसे सहनशील नहीं होते. क्या तुम सब नपुंसक हो गए हो? सैनिकों के अत्याचार से अधिक तुम्हारी कायरता और निष्क्रियता मर्म को आहत करती है.’
सुधारक आगे लिखता है- ‘उनके हाथ अभी तक सिर्फ चोरी कर रहे थे पर अब तुम्हारी स्त्रियों तक पहुंच रहे हैं. क्या यह सब देख कर भी तुम्हारा खून नहीं खौलता? शर्म करो! क्या यह मान लिया जाए कि भारतियों से अधिक डरपोक कोई नहीं? क्यों तुम बूढ़ी औरतों की तरह रोते हो? क्या तुम इन आतताइयों को सबक नहीं सिखा सकते?’
जब कभी कोई एक मीडिया संस्थान अपने अनुकूल माहौल बनाने में कामयाब होता दिखता है तो दूसरे मीडिया संस्थान भी कैसे उसके पीछे-पीछे चलने का दबाव महसूस करने लगते हैं, यह उस दौरान भी देखने को मिला. उस समय गोखले के दुष्प्रचार के कारण यह हुआ कि पुणे वैभव, मोदावृत्त, प्रतोद और ज्ञान प्रकाश जैसे प्रकाशन भी जल्दी ही सुधारक की भड़काऊ भाषा बोलने लगे. उनके शब्दों और लेखन में अजीब सी समानता थी.
दरअसल चार्ल्स रैंड के खिलाफ अभियान कोइस हद तक बढ़ाने में तिलक की भूमिका थी. तिलक ने 25 अप्रैल,1897 के दिन मराठा में संपादकीय लिखा जिसका शीर्षक था- लार्ड सैंड्हर्स्ट से एक निवेदन. उन्होंने लिखा-‘चार्ल्स रैंड की प्लेग कमिश्नर के तौर पर नियुक्ति दुर्भाग्यपूर्ण है.’यही नहीं, तिलक ने यह भी चुनौती पेश की कि अंग्रेज हुकूमत कभी इस तरह उन्हें अपमानित नहीं कर सकेंगे जैसे उन्होंने डॉ. गोखले को किया. तिलक कायह कहना तो उनके मकसद को और स्पष्ट कर देता है-‘जिस प्रकार एक अंग्रेज का घर ही उसका महल है, उसी प्रकार एक ब्राह्मण का घर उसका मंदिर है. जिस जगह हम रहते या पूजा करते हैं, वहां किसी अंग्रेज का जूते पहन कर घुस आना अपराध है.’
इस तरह के माहौल के बीच 22 जून,1897 के दिन चार्ल्स रैंड पर उग्र भीड़ ने जानलेवा हमला किया. हमले में रैंड के साथी लेफ्टिनेंट आयर्स्ट ने मौके पर दम तोड़ दिया और आखिरकार चार्ल्स रैंड ने भी 3 जुलाई को दम तोड़ दिया.चार्ल्स रैंड के बारे में यह कहा जाता है कि 2 माह (19 फरवरी से अप्रैल तक) से भी कम समय में उन्होंने पुणे को प्लेग मुक्त कर दिया था. लेकिन प्लेग के ख़त्म होने के बावजूदहत्यारों के मन से साम्प्रदायिक द्वेष ख़त्म न हुआ.इस हत्या का मुख्य कारण धर्मान्धता से प्रेरित अफवाहें थीं.
प्रो. परिमला वी राव ने चार्ल्स रैंड के प्रति बाल गंगाधर तिलक के नफरत की पृष्ठभूमि पर गहन शोध किया है.1894 में चार्ल्स रैंड सतारा में खोटी समझौता अधिकारी के पद पर तैनात थे.बाल गंगाधर तिलक के बारे में यह कहा जाता है कि कैसे उन्होंने गणेश चतुर्थी के उत्सव को राजनीतिक रंग दिया था. सतारा में अपनी तैनाती के दौरान चार्ल्स रैंड ने गणेश उत्सव में राष्ट्रवादियों के राजनीतिक संगीत बजाने पर रोक लगा दी थी.यही नहीं उन्होंने 11 ब्राह्मणों को आदेश का उल्लंघन करने पर सज़ा भी दिलवाई थी.
चार्ल्स रैंड एक समुदाय विशेष के विरूद्ध है यह प्रचारित करने में पहले ही कामयाबी मिल चुकी थी. शायद यही कारण कि तिलक द्वारा चार्ल्स रैंड की अगुवाई वाले प्लेग समिति के ख़िलाफ दुष्प्रचार का किसी ने सार्वजनिक तौर पर विरोध नहीं किया. और भी कई कारण थे जिनके कारण स्थिति बिगड़ती गई. माना तो यह जाता है कि भारत में और कहीं भी प्लेग से लड़ने में संलग्न लोगों के ख़िलाफ ऐसी भावनाएं नहीं देखी गईं जैसी कि पुणे में देखी गई थी. वहां इसे राष्ट्रवादी गौरव के साथ जोड़ कर देखा जाने लगा.
चार्ल्स रैंड की हत्या के आरोप में दामोदर चापेकर, उसके दो भाई बालकृष्ण और वासुदेव और महादेव विनायक रानाडे कोफांसी की सजा सुनाई गई थी. एक अन्य खांडू विष्णु साठे को नाबालिग होने के कारण दस साल के कठोर कारावास की सज़ा दी गई.
दिलचस्प हैं कि हम आज कारोना के खिलाफ उसी 100 साल पुराने तरीके सेलड़रहे हैं लेकिन सौ साल पहले उन तरीकों का जो विरोध कर रहे थे उनका भी तुष्टिकरण कर रहे हैं. भारतीय डाक विभाग ने 8 जुलाई 2018 को दामोदर हरी चापेकर की 120वीं पुण्यतिथि पर एक डाक टिकट जारी किया है.
Also Read
-
TV Newsance 310: Who let the dogs out on primetime news?
-
If your food is policed, housing denied, identity questioned, is it freedom?
-
The swagger’s gone: What the last two decades taught me about India’s fading growth dream
-
Inside Dharali’s disaster zone: The full story of destruction, ‘100 missing’, and official apathy
-
August 15: The day we perform freedom and pack it away