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मनरेगा का पारिस्थितिकी, लोक संस्कृति पर क्या प्रभाव है

हिंदुस्तान में इस समय तीन चीजों पर सभी का फोकस है- कोरोना महामारी, खाद्य आपूर्ति और मनरेगा. इन तीनों बिंदुओं के सन्दर्भ में केंद्र और राज्य सरकारों के अपने-अपने दावे हैं. मीडिया भी सरकारों के सामने घुटना टेके हुए हैं. उसको सब जगह हरियाली ही हरियाली नजर आ रही है.

मनरेगा को लेकर राजस्थान सरकार का कहना है कि उसने कोरोना के समय 54 लाख लोगों को रोजगार दिया. उत्तर प्रेदश का आंकड़ा 70 लाख जबकि गुजरात का कहना है कि उसने 6.7 लाख लोगों को मनरेगा के तहत रोजगार दिया है. कुछ राज्य दैनिक मनरेगा मजदूरी बढ़ाने का ढोल पीट रहे हैं जैसे हरियाणा का दावा 309 रुपए प्रति दिन मजदूरी. केंद्र सरकार मनरेगा के बजट को डबल करने की बात कह रही है.

मतलब मनरेगा योजना आंकड़ों की बाजीगरी में उलझ गई है. क्या मनरेगा का मकसद संख्या बल बढ़ाना था? क्या मनरेगा केवल पैसे बांटने का जरिया थी? आखिर मनरेगा योजना का असल दर्शन क्या था? इसमें किस तरह की संभावनाएं हैं? क्या हमने उसकी 10 फीसदी सम्भवनाओं को भी बनाया?

सुबह के 11 बजे हैं. सूरज तपने लगा है. मिट्टी को छूने पर ऐसा लग रहा है की जैसे किसी ने जलते हुए अंगारों को हाथ मे उठा लिया हो. मोबाइल फ़ोन 46 डिग्री तापमान दिखा रहा है. हम जोधपुर ज़िलें में, लूनी तहसील के बाकराशनी गांव मेंहैं. ये गांव तनावड़ा पंचायत के अंतर्गत आता है.

यहां मनरेगा का कार्य चल रहा है. इस तपती रेत में कुछ महिलाएं मिट्टी खोद रही हैं. इन्ही में एक अधेड़ उम्र की औरत मिट्टी का गड्ढा खोदते हुए हमें बार-बार देख रही है. वो कुदाल को इतनी तेजी से जमीन पर पटकती है, जैसे धरती को दो टुकड़ों में चीर देगी. महिला का नाम मनबरी है. मनबरी की उम्र करीब 50 वर्ष है.

मनरेखा के तहत काम करती महिलाएं

मनबरी 'भील भोपा' समुदाय से ताल्लुक रखती है. ये समुदाय सदियों से किस्सागोई का काम करता रहा हैं. राजस्थान के मौखिक इतिहास, लोक परंपराओं, देवी-देवताओं के आख्यान को अपने खास लोक वाद्य 'रावनहत्थे' की मधुर धुन पर सुनाता हैं. इसमें भोपा अपने रावनहत्थे के साथ गाता है और भोपी उसके पीछे-पीछे टेर लगाती है.

मनबरी भले ही पढ़ी-लिखी नहीं है किंतु वो एक रात में 12 हज़ार शब्द गाती है. उसको सैंकड़ों लोकगीत, परम्परा और राजस्थान का मौखिक इतिहास जुबानी याद है. मनबरी ने ये काम अपने बड़कों से सीखा है. मनबरी राजस्थान के उन थोड़े से बचे जानकार भील भोपा हैं, जिन्हें मारवाड़ी शैली में रावनहत्थे ओर राजस्थान के मौखिक इतिहास, परम्परा और लोक देवताओं की स्तुति याद है.

मनबरी कहती हैं, "पिछले 50 दिन से मनरेगा के काम मे लगी हुई हूं, मुझे एक सप्ताह में 21 वर्ग फुट जिसकी गहराई 3 फुट हो, का गड्ढा खोदना है. उसकी मिट्टी को नजदीकी सड़क पर डालना हैं. मैंने कितने गड्ढे खोद दिए. कभी 80 रुपए आता है तो कभी 90.कभी कभार 120 रुपए. अधिकारी लोग दफ्तर में बैठकर हमारे काम का पैसा लगा देते हैं.

"मनबरी आगे कहती हैं, "हम पढ़े लिखे नहीं हैं. गाना-बजाना हमारी परम्परा रही है. हम तो गांव-गांव, ढाणी-ढाणी घूमते थे और राजस्थान के किस्से कहानियां सुनाते थे. पिछले 5 महीने से सब बन्द हैं. हम पढ़े-लिखे होते तो आज इस स्थिति में नहीं होते. मेरे बच्चे भी बेलदारी करते हैं, लेकिन उनको मैं रावनहत्थे में नहीं लगाऊंगी. इसमें कुछ नहीं हैं.

"मनबरी के अलावा यहां मेघवाल, भील, जाट ओर बिश्नोई समुदाय की महिलाएं भी गड्ढे खोदने के काम में लगे हुए हैं. गड्ढे बाकराशनी गांव से गुड़ा गांव को जाने वाली सड़क पर मिट्टी डालने के लिए खोदे जा रहे हैं. यहां के स्थानीय निवासी मुकेश कहते हैं, "मैं कितने वर्ष से देख रहा हूं, इस रास्ते पर हर वर्ष मनरेगा के कार्य से मिट्टी डालते हैं और बारिश आने पर ये बालू रेत वापस बहकर गड्ढे में आ जाती है. दूसरी तरफ हमारे दोपहिया वाहन भी इस रास्ते पर नहीं चल पाते."

यही हालात बारा ज़िलें में हैं. सूरज तालाब से मिट्टी निकालने में लगे हुए हैं. सूरज 'कंजर' समुदाय से आते हैं. सूरज के अलावा ममता, सरस्वती, पार्वती, रुमा, आशा, संगीता, पप्पु ओर कैलाश भी कंजर समुदाय से आते हैं. इनकी एक और खासियत है. ये लोग "चकरी" लोक नृत्य के जाने-माने कलाकार हैं. सूरज इस टीम के मुखिया हैं. इसमें कोई भी पढ़ा-लिखा नहीं हैं किंतु अपनी परम्परा की सुंदर समझ है. सूरज पिछले एक महीने से जोहड़ से मिट्टी हटाने में लगे.

सूरज बताते हैं, "कंजर समुदाय अपने ख़ास लोक नृत्य "चकरी" के लिए जाना जाता है. इस लोक नृत्य की खासियत यह है कि इसमें महिलाओं को 80 कली का घाघरा पहनना होता है. इस नृत्य की गति अन्य सभी नृत्यों से अधिक होती है. नृत्यांगना के शरीर का लोच, 100 से ज्यादा चकरी, गीत के शब्दों के साथ उसकी जुगलबन्दी और परम्परा का ज्ञान आवश्यक होता है.

कंजर समुदाय की महिलाएं

"सूरज कहते हैं, "यदि कोई चार-पांच महीने इस कला से दूर रहे तो उसको वापस अपनी लय पकड़ने में कई वर्ष लग जायेंगे. ये नृत्य कोई एक दो साल में नहीं सीखा जाता बल्कि हमारे बच्चे जन्म से इसे सीखना शुरू करते हैं,तब कहीं जाकर 20/25 वर्ष के होने तक इसको सीखते हैं. उसके बाद मंच पर अपने अभिनय के दौरान इसे सीखते हैं. हम जब दिन भर यहां मिट्टी खोदेंगे तो हमसे ये कैसे उम्मीद कर सकते हों कि हम इन चकरी को भी चलाएंगे?”

डूंगरपुर के जोरानाथ कालबेलिया की उम्र करीब 70 वर्ष है. अपने ख़ास लोक वाद्य 'बीन' की धुन पर लहरिया बजाते हैं. लहरिया एक तरह का गीत होता है, जिसमें 15/20 कालबेलिये मिलकर बीन की धुन पर इसे गाते हैं. जोरानाथ को 70 से ज्यादा लोकगीतों की समझ हैं. वे राजस्थान के उन 5 गिने चुने कालबेलियों में शामिल हैं जिनको सुरमा बनाने, जन्म घुट्टी बनाने और अपने पारम्परिक आभूषण बनाने का ज्ञान है. जोरानाथ पिछले 2 महीने से मनरेगा के काम मे लगे हुए हैं.

ये भील भोपा, कंजर, कालबेलिया कौन हैं? इनका काम क्या है? इनके लोक वाद्य रावनहत्थे, कंजरी, बीन इनके लोकगीत ओर नृत्य का क्या मायने हैं? आखिर मनरेगा से रोजगार मिल रहा है, इसमें गलत क्या है? इन सब सवालों का जवाब उदयपुर के लोक कलाविद विलास जानवे देते हैं.

विलास जानवे कहते हैं, "मैं पिछले 50 वर्ष से लोककला के क्षेत्र से जुड़ा हूं. ऐसी स्थिति कभी नहीं देखी जहां लोक कलाकार मनरेगा में गड्ढे खोद रहे हों. हम समझते हैं कि ये सब कोरोना की वजह से है जबकि ये सब इन कला केंद्रों और इन पदों पर बैठे अधिकारियों की असंवेदनशीलता की बदौलत है."

विलास जानवे आगे कहते हैं, "ये गड्ढे खोदने वाले तो फिर भी मिल जाएंगे किन्तु ये लोक कलाकार कहां से लायेंगे? ये कोई मशीन थोड़े है कि बटन दबाया ओर बन गया कलाकार. उनके हर दिन का रियाज, उनकी मनोदशा, उनका स्वास्थ्य, उनका परिवेश, उनके कद्रदान ओर उनके जजमान ये सभी तथ्य मिलकर किसी लोक कलाकार को गढ़ते हैं."

लोक संस्कृति के समापन का दौर

प्रख्यात संस्कृतिकर्मी राजीव सेठी का कहना है कि कोरोना के जख्म समय के साथ भर जायेंगे किन्तु मनरेगा ने जो गड्ढे लोक संस्कृति में खोदे उनको भरने में न जाने कितनी सादिया लगें."

राजीव सेठी आगे सवाल उठाते हुए कहते हैं, "हमारे लोक व्यवहार, आचार विचार, विभिन्न परम्पराओं के सामूहिक और सीखे हुए ज्ञान की अभिव्यक्ति ही हमारी लोक संस्कृति है. ये उसी लोक में बनती है और उसी लोक की मान्यताओं को आगे बढ़ाती है. ये लोक कलाकार यही काम करते रहे हैं."

राजीव आगे कहते हैं, "ये लोक संस्कृति हमे अपने परिवेश को समझने की दृष्टि देती है. अपने पुरखों की मान्यताओं से परिचय करवाती है. ये उस दिये कि भांति है जो बिना रुके निरन्तर जगमगाता रहता है. उसकी बत्ती को बदल देते हैं किंतु वो दिये पर असर नहीं डालती. यही सम्बन्ध हमारी लोक संस्कृति और लोक कलाकार के मध्य है."

लोक संस्कृति हमें बुनती है

हमारी ये लोक परम्पराएं, मान्यताएं और सामूहिक विचार हमें गढ़ते हैं. विपरीत परिस्थितियों में बुनते हैं. इन्ही विचारों में विभिन्न समस्याओं का समाधान छुपा होता है. इनमें दुख, सुख, प्रेम और मौन के भाव छुपे हैं. इनकी अभिव्यक्ति अलग- अलग तरीके से होती है. यही अभिव्यक्तियां हमें समाज के तौर पर स्थापित करती हैं. ये अभिव्यक्ति कोई एक दिन में नहीं बन जाती इनके लिए वर्षों का रियाज, परिवेश ओर उसके कद्रदान चाहिए होते हैं.

कला का तकनीकी पक्ष भले ही कुछ भी हो किन्तु उसका मर्म एक है और वो है 'मुक्ति'.यदि कला में मुक्ति की धुन नहीं हैं तो वो कला नहीं, लष्ट है. लोक कला हमें जाति ओर धर्म के बंधनों से मुक्त करती है. किसी विचारधारा के कट्टर समर्थक या विरोधी होने से दूर हटाती है, लिंग विभेद ओर अमीर-गरीब के फर्क से मुक्त करती है.

समाज की परम्पराएं ओर प्रबन्धन का इतिहास

जब हम अपने समाज और इतिहास पर दृष्टि डालते हैं तो पाते हैं कि हमारी परम्पराओं में शुरुआत से ही प्रकृति संरक्षण का मूल्य मौजूद रहा है. ये मूल्य सामूहिकता की अभिव्यक्ति के रूप में परिलक्षित होते हैं. ऐसा नहीं है कि ये किसी एक क्षेत्र से सम्बंधित हैं. ये मूल्य अलग-अलग भूगोल में अलग- अलग तरीके से पालन किया जाता है.

रेगिस्तान में इस मूल्य के पालन के तरीकों में ग्यारस, पूर्णिमा का व्रत, निर्जला एकादशी, कैर का दलिया, सड़क बोलना, बाबा भैय्ना, हरदेव की लापसी इत्यादि ये सभी तरीके हरियाणा और राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्रों में देखने को मिलते हैं.

मनरेगा में काम करती महिलाएं

ग्रामीण क्षेत्र के लोग एकादशी के दिन या कैर के दलिया के दिन पूरा गांव मिलकर सामूहिक रूप से गांव में बने जोहड़ की छंटाई करता है.व्यक्ति की शारीरिक क्षमता के अनुरूप कांप मिट्टी के 5/10/ 20 बड़े ढेले उठाकर उसकी मेड़ पर लाकर डालता है.

हरियाणा के अधिकांश जोहड़ (तालाब) के किनारे एक चबूतरा मिलता है. लोगों का ऐसा मानना हैं कि वे जोहड़ के देवता हैं. किसी समय के वे संत हुए हैं. वर्ष के जून महीने में एक दिन उनका दिन मनाया जाता हैं. उस दिन सभी के घर मे लापसी बनती हैं. लापसी एक तरह का हलवा है जिसमें घी नहीं डलता. सभी लोग बड़े चाव से पहले हरदेव को भोग लगाकर आते हैं. वहां जोहड़ की छंटाई करते हैं. वहां दूब घास/ सेवण घास लगते हैं जो दुधारू पशुओं के लिए अमूल्य हैं तथा मिट्टी का क्षरण रोकती है.

राजस्थान और हरियाणा के ग्रामीण क्षेत्र में एक त्यौहार मनाया जाता है जिसे कैर का दलिया कहा जाता है. ये त्यौहार मार्च ओर अप्रैल महीने के दौरान मनाया जाता है. इसमें रेगिस्तान की महत्वपूर्ण वनस्पति कैर की पूजा की जाती है. पानी के हौज/ गूण की मिट्टी निकाली जाती है. कैर के पेड़ बालू रेत में होते हैं, इनसे टिंट नाम का फल मिलता है जो छोटे बेर के जितना होता है. कच्चे टिंट को अचार और सब्जी के रूप में खाया जाता है जबकि लाल होने पर उसे फल के तरीके से खाया जाता है. "गूण" एक 30/40 वर्ग फिट का कच्चा गड्ढा होता है जिसकी गहराई करीब 10 से 15 फिट होती है. ये खेतों में बने होते हैं, जिनमे वर्षा का पानी भरा रहता है. इस पानी का उपयोग किसान अपनी खेती में करते हैं. ये गूण हरियाणा व राजस्थान में व्यापक तौर पर देखने को मिलती है.

मनरेगा की पिछले 15 वर्ष की गतिविधियों ने इन सामूहिकता के मूल्यों को कमजोर कर दिया है. चूंकि अब पर्यावरण संरक्षण के इन स्थानीय तरीकों में आर्थिक मूल्य जुड़ गया है जिससे धीरे धीरे न केवल वो सामूहिकता समाप्त हो रही है बल्कि अब लोगों का इन संरचनाओं से भावनात्मक रिश्ता भी समाप्त हो रहा है. अब उस जोहड़ व गूण की छंटाई मनरेगा के जरिये हो रही हैं ये ठीक है किंतु इससे जो सामुहिकता थी वो कमजोर पड़ रही है. उस जोहड़ छंटाई के साथ जो अन्य गतिविधियां जुड़ी हुई थी वो तो सब समाप्त ही हो गई.

इंसान ओर कुदरत के भावनात्मक रिश्ते पर संकट

जब ये लेख लिखा जा रहा है तो राजस्थान और हरियाणा में हरियाली तीज का त्यौहार बड़ी धूमधाम से मनाया जा रहा है. गांव की जोहड़/तालाब की पाल पर लगे पेड़ से लटके झूले तथा नजदीक पहाड़ी पर जाकर स्थानीय झाड़ियों के कांटों पर अंकुरित चने लगाकर आना. उस पहाड़ी, जोहड़ और उस पाल के प्रति अपनी अटूट श्रद्धा दिखाता है.

गांव की सभी महिलाएं एकत्रित होकर मंगलगान गाती हुई पहले झूला झूलती हैं. फिर जोहड़ से पानी अपनी हाथ की हथेली पर रखकर पहाड़ी पर जाकर उस झाड़ी की जड़ में डालती हैं. उस झाड़ी के कांटे पर अंकुरित चना लगा देती हैं. वो एक हथेली का पानी उस झाड़ी के लिए वरदान हैं. वो हरी भरी हो जाती है.

मनरेगा लोगों के हाथ में पैसे दे रहा है लेकिन सामूहिकता समाप्त हो रही है. वहां पेड़ लगाने के नाम पर, वहां चेक डेम बनाने के नाम पर, जोहड़ की पाल को सुंदर बनाने के नाम पर वहां लोगों के स्वतंत्र आवाजाही बाधित हो रही है. इस वर्ष मनरेगा कार्य से भिलवाड़ा ज़िले के अंतर्गत आने वाली ग्राम पंचायत' ब्राह्मणों की सरेरी' में तालाब/जोहड़ का सुंदरीकरण किया गया है. वहां के सरपंच का कहना है कि हम इसे देखने आने वालो से पैसा लेंगे. इससे क्या होगा? इससे आम इंसान वहां जाना कम कर देगा. लंबे समय में उसका उस जोहड़ ओर पहाड़ से लगाव समाप्त हो जाएगा.

जो बच्चे उस जोहड़ की पाल/मेड़ पर, वहां लगे पेड़ों पर खेलकर, उस पहाड़ी पर मोर के बच्चों को पकड़ते हुए बड़े हुए हैं उनका उन संरचनाओं से एक भावनात्मक रिश्ता जुड़ जाता है. मनरेगा के जरिये किये जा रहे कार्यों ने इस भावनात्मक रिश्ते को समाप्त कर दिया है. जब वे बच्चे वहां जाएंगे नहीं ओर उनके साथ जियेंगे नहीं तो उनके लिए वे महज संरचनाएं हैं.

हम लोग ये भूल गए कि ये परम्परा, लोक रीतियां, सामूहिकता और लोक कलाओं को किताबों के जरिए पढ़कर या यू-ट्यूब के जरिए नहीं सीख सकते. ना ही इसको ट्वीटर पर हैशटैग के जरिये आगे बढ़ाया जा सकता है.

पारिस्थितिकी को बिगाड़ने का उपक्रम

कुदरत के अपने कुछ नियम कायदे हैं. इन नियम कायदों का अपना एक सटीक पैमाना है. भले ही वो पहाड़ हो, रेगिस्तान या फिर कोई मैंग्रोव सभी इन नियमों से बंधे हुए हैं. एक अच्छी पर्यावरणीय स्थिति उसे माना जाता है जब हम कुदरत की भाषा को समझें. उस स्थान विशेष के पारिस्थितिकी के नियम कायदों का पालन करें.

भारत के उत्तर पश्चिम में थार का महान रेगिस्तान स्थित है. जिसके एक ओर दूर-दूर तक फैले रेत के टीले, धूल भरी आंधियां तो दूसरी तरफ विश्व की सबसे पुरानी पर्वत श्रृंखला 'अरावली पर्वत श्रृंखला' फैली है. थार दुनिया का एकमात्र रेगिस्तान हैं, जहां इतने बड़े स्तर पर जैव विविधता पाई जाती है.

रेगिस्तान ओर अरावली कि पारिस्थितिकी ज्यादा संवेदनशील हैं. क्योंकि वर्षा के अभाव में यहां मौजूद ख़ास वनस्पति, यहां की मिट्टी, अरावली पर्वत श्रंखला ओर यहां मौजूद अन्य संरचनाएं उसे खास बना देती हैं.

अरावली की पहाडियां

रेगिस्तान की पारिस्थितिकी को समझने, अरावली पर्वत माला की भूमिका को जानने ओर यहां चल रहे मनरेगा के कार्यों को देखने के बाद एक ही विचार दिमाग में आता है कि हम न कुदरत को समझना चाहते हैं, न पारिस्थितिकी के नियमों को जानना चाहते हैं और न ही हमारे पास मनरेगा का कोई स्थायी विचार है.

राजस्थान सरकार का दावा है कि उन्होंने लॉकडाउन के दौरान 54 लाख लोगों को रोजगार दिया है, गुजरात सरकार ने 6.7 लाख लोगों को जबकि हरियाणा सरकार का दावा है कि वे मनरेगा में सबसे ज्यादा 309 रुपए दिहाड़ी मजदूरी देते हैं.

ये रोजगार किस क्षेत्र में दिया? किस कीमत पर दिया? उस रोजगार से क्या सर्जन हुआ? क्या कोई उत्पादन गतिविधियां चलाई? क्या कोई पूंजीगत निर्माण हुआ? क्या वर्तमान में चल रही योजनाओं में इससे कुछ बूस्ट मिला?

जैसमलमेर, बाड़मेर, जोधपुर, बीकानेर जैसे ज़िले जो रेगिस्तान का हृदय बनाते हैं. वहां के पर्यावरण में नमी नाममात्र की है. यदि जैसलमेर ओर बाड़मेर ज़िले की बात की जाए तो वहां चिकनी मिट्टी महज तीन से चार फुट तक ही मिलती हैं. जबकि बारिश 15 मिली मीटर से भी कम होती है. हम ये भी जानते हैं कि चिकनी मिट्टी पानी को रोक कर रखती है जबकि बालू रेत में वो पानी नीचे चला जाता है.

मनरेगा में होने वाली गतिविधियों में इसी तीन फीट के गहरे गड्ढे खुदवाए जा रहे हैं. उस चिकनी मिट्टी को वहां से निकाला जा रहा है. इससे चिकनी मिट्टी का तल निरन्तर समाप्त होता जा रहा है. अब जो सरकार ये दावा कर रही है कि हमने इतने लाख लोगों को रोजगार दिया यदि हम उसकी कीमत समझें तो शायद ये मिट्टी रेगिस्तान के लिए अमूल्य है. किन्तु मनरेगा के कितनी भी साइटों पर जाकर देखेंगे तो मिट्टी के गड्ढे खोदे जा रहे हैं.

अकेले जैसमलमेर, बाड़मेर ओर जोधपुर में 2000 से ज्यादा मनरेगा साइटों पर काम हुआ है. यदि इससे ये अनुमान लगाया जाए कि आखिर हमने रोजगार देने के नाम पर रेगिस्तान के कितने हज़ार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को बर्बाद किया? क्या उसकी कोई कीमत हो सकती है? क्या हम मनरेगा के जरिये कोई अन्य गतिविधि नहीं चला सकते?

जैसलमेर के रहने वाले जाने माने पर्यावरणीय कार्यकर्ताचतर सिंह जाम हैं. उन्होंने रेगिस्तान में बहुत से तालाब, खड़ीन ओर पहाड़ी क्षेत्र में नेसटा का निर्माण किया है. चतर सिंह मनरेगा की योजना को रेगिस्तान को बेजान बनाने की योजना करार देते हैं.

चतर सिंह का कहना है, "एक ही तालाब को कितनी बार खोद दिया? उस तालाब की गहराई बढ़ी या नहीं? कम से कम इसका मूल्यांकन होना चाहिए. रेगिस्तान में बालू रेत है. जिसमें पानी नहीं रुकता थोड़ी बहुत चिकनी मिट्टी है उसको भी खुदाने पर लगे हुए हैं."

अरावली की पहाडियां

चतर सिंह आगे कहते हैं, "हर वर्ष ही उन्ही रास्तों पर मिट्टी डाली जा रही है. हवा से वो मिट्टी उड़कर वापस उन गड्ढों में चली जाती हैं. अगले साल फिर मिट्टी खोदते हैं. ये पता करें कि इस काम का रिजल्ट क्या मिला? क्या उससे कुछ निर्मित हुआ? गांव में पेड़ लगाओ.अजमेर जिले के तिलोनिया गांव में मनरेगा से पेड़ लगाने के लिए पिछले ढाई महीने में 250 लोगों ने गड्ढे खोदे हैं. कह रहे हैं कि वहां पेड़ लगाएंगे ओर घास लगाएंगे जिससे पशुचारकों के लिए घास हो सकेगी. ये कितनी बेहूदी बात है. जहां गोचर हैं, जहां लाखों पशु चरते हैं. जिसको हमारे बुजर्गों ने तैयार किया था उसे तो हम बिजली कम्पनी को दे रहे हैं. जैसलमेर में अभी इतने बड़े ओरण को सोलर कंपनी को दिया है."

चतर सिंह कहते हैं, "कुछ काम प्रकृति को भी करने दो. हज़ारों पेड़ लगाने की बात होती है, उसमें 20 से 30 फीसदी पेड़ पहले साल बचते हैं. दूसरे साल मुश्किल से 2 से 3 फीसदी. इसके साथ पानी का बजट अलग से. यदि पानी का प्रबंधन हो सके, जैसे हमारे यहां टंके ओर गूण जैसे संरचना बने तो पेड़ पौधे तो अपने आप आ जाएंगे. मैंने ये करके दिखाया है, इसके उदाहरण हमारे सामने हैं फिर भी हम आंखे क्यों मूंदे हुए हैं."

थार रेगिस्तान के एक सीमा पर अरावली पर्वत श्रृंखला पसरी हुई है जो गुजरात से लेकर दिल्ली तक फैली है. अरावली पर्वत श्रृंखला राजस्थान में निरंतर रूप से फैली हुई है जबकि हरियाणा व दिल्ली में कटे छटे रूप में दिखलाई पड़ती है. जब भी अरावली की बात होती है तो हम यही कहते हैं कि ये विश्व की सबसे पुरानी पर्वत श्रृंखला हैं. जो अब काफी घिस गई है. लेकिन अरावली केवल इतना नहीं हैं जहां एक तरफ ये रेगिस्तान के प्रसार को रोकती हैं वहीं दूसरी तरफ ये जल विभाजक की भूमिका निभाती है. अरावली की दुर्लभ जैव विविधता उसे खास बनाती हैं. अकेले अरावली पर 60 से ज्यादा प्रकार के पेड़ पौधे पाये जाते हैं जो अन्य कहीं नहीं मिलते.

अरावली पर्वत माला में एक पेड़ मिलता है जिसे "धाऊ" के नाम से जानते हैं. इस पेड़ की खासियत यह है कि ये पहले लता/बेल की भांति पत्थरों पर लेटा रहता है. करीब 8/10 वर्ष बीत जाने के बाद खड़ा होने लगता है. 20 वर्ष का होने पर यह पूर्ण पेड़ का रूप लेता है. इसको नाममात्र का पानी चाहिए होता है. यदि पानी नहीं होता तो इसका रंग लाल हो जाता है और पानी होने पर हरा हो जाता है.

धाऊ के पेड़ पर 8 प्रकार की छिपकलियां मिलती हैं. रेगिस्तान में वैसे ही रेंगने वाले जीवों की बहुलता है. अरावली में 200 से ज्यादा प्रकार के पक्षी मिलते हैं जिसमें कितनी तरह के उल्लू, मोर, बटेर, सोन चिड़ी, बया इत्यादि प्रसिद्ध हैं. अरावली में लोमड़ी, सियार, भेड़िया, पहाड़ी बिल्ली से लेकर कितने जंगली जीव मिलते हैं. समस्या ये है कि 10 साल तक ये लता/बेल की भांति रहता है जिसके कारण पढ़े लिखे व्यक्ति के लिए महज वो झाड़ी है.

मनरेगा के कार्यों के नाम पर हम अरावली पर्वत श्रंखलाके अंतर्गत आने वाली पहाड़ियों की इस दुर्लभ विविधता को समाप्त कर रहे हैं. उदयपुर ज़िले के खेड़वाड़ा के अंतर्गत जवास पंचायत में अरावली की पहाड़ी परमनरेगा का कार्य चल रहा है. मनरेगा कार्य के तहत 5 चेक डैम का निर्माण किया गया है और पहाड़ी को साइड से काटकर एक रोड बनाई गई है. चेक डैम बनाने और रोड बनाने का कार्य बड़ा अनूठा है. पहाड़ी के ऊपर से बड़े-बड़े पत्थरों को नीचे गिराया जाता है. इससे पत्थर टूट जाते हैं. उन टूटे हुए पत्थरों को नीचे चिनाई में लगाया जा रहा है.

इन पत्थरों के नीचे गिरने पर इनके बीच में आने वाले नन्हें पौधे जिसमें धाऊ शामिल हैं. धाऊ अपने जन्म के पहले 10 वर्ष अधिक सवेदनशील रहता हैं. पेड़ खत्म हो रहे हैं. टूटने ओर गिरने की आवाज से पशु पक्षी यहां से पलायन कर गए. यहां के ग्रामीण लोगों का कहना है कि पहाड़ का सीधा पानी गांव में आता है, घरों में घुस जाता है इसलिए चेक डैम बना दिये हैं. इससे पहाड़ का पानी जो नीचे जोहड़ में जाता था. पहले वहां बीच मे घरों का निर्माण कर दिया अब उस पानी को रोकने के चेक डैम बना दिये. अलग रास्ता बना दिया. मनरेगा का यह काम दिखा रहा है कि हमारे लिए अरावली का मायने क्या है?

राजस्थान और हरियाणा के बॉर्डर पर ढोसी का पहाड़ स्थित है जो कि राजस्थान में अरावली पर्वत श्रृंखला का अंतिम बिन्दु है. ये सुषुप्त ज्वालामुखी का उदाहरण हैं. इस पर्वत से बरसात का पानी इस पहाड़ के करीब 15 किलोमीटर के इलाके को कवर करता है. उस पानी से एक छोटी बरसाती नदी भी निकलती है जिसे "दोहान पच्चीसी" कहा जाता है. ये नदी राजस्थान और हरियाणा की सीमा बनाती है.

मनरेगा के तहत यहां गांवों में कच्चे रास्ते बनाये गए हैं. इन बेतरतीब बनाये गए रास्तों से पहाड़ से निकलने वाले पानी का मार्ग अवरुद्ध कर दिया. वहां हर दो किलोमीटर के स्थान में एक कच्चा चेक डैम बना दिया. जिससे बरसाती नदी में पानी भी नहीं आ सकता. ये नदी का पानी कई गांवों की जीवन रेखा बनता था वो भी समाप्त कर दिया. इसका लंबे समय का प्रभाव ये बनेगा की भूजल रिचार्ज नहीं हो सकेगा. इस नदी के किनारे जो पेड़ पौधे लगे थे जो जीव जंतु आते थे वे भी धीरे धीरे या तो समाप्त हो जाएंगे या फिर पलायन कर लेंगे.

पर्यावरणीय पत्रकार और द न्यूज़स्ट्रीट की सम्पादक उमा बताती हैं, "हमारे लिए ये अरावली के पहाड़, महज घर बनाने के लिए पत्थरों का ढेर बनकर रह गए हैं. हम ये भूल गए हैं कि हमारेकिस्से, कहानियां, जीवन दृष्टि, हमारे लोकाचार इन्ही पहाड़ों ने तय किये हैं."

उमा आगे कहती हैं, "हमारी इन्हीं नीतियों का कमाल है कि अलवर ज़िले में अरावली से कभी साहिबी नदी निकलती थी. जो यहां के जीवन और जैव विविधता का आधार थी. हमने उसको मार दिया. आज इस मनरेगा से हम सिरोही, पाली ओर डूंगरपुर में भी यही कर रहे हैं. अकेले राजस्थान के अरावली पर्वत श्रंखला के 31 पहाड़ जड़ से गायब हो गए हैं ओर इससे हमारे ऊपर कोई फर्क ही नहीं पड़ रहा है. हम मनरेगा के जरिये उनको बचा सकते थे. जबकि हम लोग फर्जी कामों में लगे हैं, तालाब का सौन्दर्यीकरण कर दिया, अब यहां हम देखने वालों से टिकट लेंगे. ये क्या मजाक है?आखिर कितने बार उसका सुंदरीकरण करेंगे?"

राजस्थान के टोडा भीम के अंतर्गत आने वाली ग्राम पंचायत भंडारी ओर खोहरा बहुत कुछ कहानी बयान कर देते हैं. यहां मनरेगा के कार्य के तहत नदी क्षेत्र के अंतर्गत आने वाली भूमि जो कि शामलात भूमि के अंतर्गत शामिल हैं. यहां से बड़े स्तर पर मिट्टी को काटा जा रहा है. इससे यहां करीब 50 मीटर की दूरी पर खड़े हरे पेड़ों के गिरने की स्थिति आ गई है. उधर उस मिट्टी से एक रास्ता बनाया जा रहा है. ये रास्ता एक तरह से बांध का काम भी करेगा.

ये काम किसी भी सूरत के लिहाज से ठीक नहीं हैं न तो पर्यावरण के लिहाज से, न पानी के प्रबन्धन के लिहाज से न मिट्टी के कटाव ओर अपरदन के लिहाज से, न ही चारागाह के लिहाज से. न ये अर्थव्यवस्था के लिए ठीक है.आखिर ये प्रोजेक्ट चल कैसे रहे हैं?एक तरफ पेड़ लगाने की बात है तो दूसरी तरफ उन्हें गिराने में लगे हैं. एक तरफ मिट्टी के अपरदन की बात करते हैं तो दूसरी तरफ इतने व्यापक पैमाने पर मिट्टी को काट रहे हैं.

अरावली का इतिहास कोई सौ-पचास वर्ष का इतिहास नहीं हैं बल्कि हजारों साल में यह बना है. हमारी सामूहिक स्मृतियों, लोकाचारों ओर सौंदर्य-प्रेम की अभिव्यक्ति में भी ये पहाड़ ओर रेगिस्तान रचा बसा है. आखिर हम ये बात कब समझेंगे की इंसान 'पहाड़' को नहीं उपजा सकता.

(लेखक घुमन्तू समुरेगिसदायों के साथ काम करने वाली संस्था "नई दिशाएं" के संयोजक हैं.)

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