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स्क्रीन राइटर प्रेमचंद और सेंसरशिप
प्रसिद्ध हिंदी उपन्यासकार मुंशी प्रेमचंद और प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक भवनानी के सहयोग से लिखी गई ‘द मिल/मजदूर’ को बड़ी फिल्म कह सकते हैं. इस फिल्म की खास बात 'रियलिज़्म' है. मिल का भोपू, वहां का माहौल, धुआं, कारखाने में बहता पसीना और सिस्टम द्वारा बरती जा रही क्रूरता और तकलीफ से कपड़ा मिल का वातावरण तैयार किया गया है. किसी भारतीय फिल्म में अभी तक ऐसा चित्रण नहीं किया गया है.
चरित्र मिस पद्मा-मिस बिब्बो,(मिल मालिक सेठ हंसराज की बेटी), विनोद-एसबी नायमपल्ली, कैलाश-पी जयराज (शिक्षित बेरोजगार युवक), कैलाश की मान-ताराबाई, मिल मेनेजर-खलील आफताब, महिला मजदूर-अमीना, पति- एसएम परमेसर, मिल फोरमैन-एसआई पुरी, मिल मजदूर- भूडो अडवानी, नविन याज्ञनिक, ऍफ़एस शाह, अबु बकर
कथासार हम सेठ हंसराज टैक्सटाइल मिल देखते हैं. मिल में काम करने वाले मजदूरों को देखते हैं. वे ही उसे चलाते हैं. मिल के मालिक मृत्युशैया पर लेटे हैं. उनकी प्यारी बेटी पदमा (बिब्बो) बगल में बैठी रो रही है और दूसरे कमरे में उसका भाई विनोद (नायमपल्ली), फिल्म का खलनायक, मरणासन्न पिता को छोड़ मदिरापान कर रहा है. वह पिता के पास आकर झुकता है तो उसके मुंह से शराब की बू आती है. बूढ़े का दिल टूट जाता है. अभी पिता की लाश ठंडी भी नहीं हुई है कि विनोद उनकी वसीयत पढ़ना चाहता है.
वह भाग्यशाली है कि पिता ने उसे वंचित नहीं किया है. परंपरा के विरुद्ध जाकर उन्होंने बहन के साथ उसे बराबर का हिस्सेदार बनाया है. इसके बाद हम मिल में काम कर रहे मजदूरों की झलक देखते हैं. मजदूरों का झुंड उदास दिखाई देता है. उनकी उदासी और बढ़ जाती है, जब एक अधिकारी आकर नोटिस चिपका जाता है. नोटिस में वेतन की कटौती, काम के ज्यादा घंटे, छंटनी और अन्य बातें लिखी हैं.
पद्मा अपनी कार से मिल के गेट से निकलती है. एक आदमी उसकी कार से टकरा जाता है. उसे अधिक चोट नहीं आई है, लेकिन वह मूर्छित हो गया है.वह उसे लेकर अस्पताल में भर्ती करवाती है. उसे पता चलता है कि वह काम की तलाश में आया था. वह पढ़ा लिखा लेकिन भूखा है. पद्मा उसे ₹10 देती है, लेकिन वह नहीं लेता. उसे काम चाहिए. वह उसे घर ले आती है. मां से परिचय करवाती है. उस आदमी का नाम कैलाश (पी जयराज) है. वह उसे काम पर रख लेती है.
एक दृश्य में विनोद एक कोठे पर शराब पीता, जुआ खेलता और पैसे लुटाता दिखता है. अगले दिन वह दोपहर तक बिस्तर पर ही है और रात की हरकतों के सामान कमरे में बिखरे पड़े हैं.
अगले दृश्यों में तेजी से घटनाएं घटती हैं. मजदूरों की हालत असहनीय हो चुकी है. स्थितियां बेकाबू हो रही हैं. लगता है कभी भी हिंसा भड़क सकती है. मैनेजर की मिलीभगत और बदमाशियों से मजदूरों की नाराजगी बढ़ती रहती है. स्थिति गंभीर और आक्रामक हो जाती है, लेकिन युवक कैलाश उसे रोक देता है. वह मजदूरों के हिंसा पर होने की आलोचना करता है और अपनी मांगों के लिए शांतिपूर्ण रास्ता अपनाने की बात करता है. पद्मा और कैलाश बार-बार विनोद से आग्रह करते हैं कि वह मजदूरों की मांग सुने और वेतन कटौती आदि की नोटिस वापस ले ले. विनोद मना कर देता है तो पदमा अपने भाई के खिलाफ ही मजदूरों का नेतृत्व करती है. विनोद और मिल मैनेजर मिलकर हड़ताली मजदूरों की जगह दूसरों को लेकर मिल चलाने की कोशिश करते हैं, लेकिन पद्मा के भावनात्मक भाषण का उन पर असर होता है. वे मजदूर भी काम करने से मना कर देते हैं और हड़ताल जारी रहता है. मजदूर एकजुट होकर हड़ताल करते हैं.10 दिनों तक हड़ताल चलती है.
अगले दृश्य में शहरके गणमान्य लोग शांति सम्मेलन के जरिए समझौते करवाते हैं और हड़ताल खत्म हो जाती है.दृश्य आगे बढ़ता है. विनोद मिल की खूबसूरत मजदूर लक्ष्मीबाई (अमीना) पर फिदा है. वह मैनेजर की मदद से उसे वश में करना चाह रहा है. ऐसी स्थिति बनाई जाती है कि लक्ष्मीबाई को विनोद के घर जाना पड़ता है. विनोद की पहली कोशिश में ही वह उसकी पिटाई कर भागती है. घर पहुंचने पर उसका बीमार पति उस पर शक करता है और उसे चाकू घोंपना चाहता है. सेठ विनोद की चाल से लक्ष्मीबाई का गुस्सा ही बीमार पति की हालत खराब करता है. यह बात मजदूरों तक पहुंचती है तो वे फिर से विरोध में मैनेजर के खिलाफ खड़े हो जाते हैं.
जल्दी ही मैनेजर हिंसा और बदमाशी से स्थिति और गंभीर हो जाती है. मैनेजर का दुर्व्यवहार मजदूरों को नाराज करता है. फिर से कैलाश स्थिति संभालता है. वह उन्हें हिंसा पर उतरने से मना करता है. कैलाश मजदूरों को लेकर सेठ के दफ्तर पहुंचता है. उनसे शांतिपूर्वक हल निकालने और माफी मांगने की बात करता है. विनोद घबराहट में पुलिस को फोन कर देता है. वह कैलाश के शांतिपूर्ण रवैये पर गौर नहीं करता. गुस्से में वह कैलाश और उसके दो साथी मजदूरों पर गोली चला देता है. तभी पद्मा आ जाती है और पुलिस पर पहुंच जाती है. पुलिस विनोद को गिरफ्तार कर लेती है.
अगले दृश्य में कैलाश अस्पताल में दिख रहा है. गंभीर रूप से घायल कैलाश को डॉक्टर बचा लेते हैं. बाकी दोनों मजदूरों की जान चली जाती है. पद्मा कैलाश के लिए फूल ले आती है और उचित देखभाल के लिए उसे अपने घर ले जाती है.
कोर्ट में चल रहे मुकदमे में विनोद को 5 साल की सजा हो जाती है. एक दो महीने के तक मिल बंद रहता है. अगले दिन मिल खुलना है. मिल घाटे में चल रही है. हड़ताल के समर्थन में पद्मा के साधन खर्च हो चुके हैं. कम मजदूरी में मिल को चलाना अनिवार्य हो गया है. शुरू में मिल मजदूर असंतुष्ट होते हैं और नाराजगी भी जाहिर करते हैं. पद्मा उन्हें अपनी मुश्किलें बताती है तो उन्हें शर्मिंदगी होती है और वे उसके लिए कम मजदूरी में भी काम करने को तैयार होजाते हैं.
पद्मा ऑफिस लौटती है तो ₹50,000 की रकम उसके इंतजार में है. खुशी का समाचार फैल जाता है कि वेतन में कटौती नहीं होगी. खुशी की दूसरी खबर मिलती है कि पद्मा और कैलाश शादी करने जा रहे हैं. मिल में खुशी की लहर दौड़ जाती है. मजदूरों और मालिकों के बीच समझदारी बढ़ने का संदेश मिलता है.मुंशी प्रेमचंद की लिखी फिल्म ‘द मिल/मजदूर’ मुंबई में 5 जून 1939 को इंपीरियल सिनेमाघर में रिलीज हुई थी. हालांकि यह फिल्म 1934 में ही तैयार हो चुकी थी, लेकिन तब मुंबई के बीबीएफसी (बॉम्बे बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन) ने इस पर प्रतिबंध लगा दिया था. रिकॉर्ड के मुताबिक सितंबर 1934 को यह फिल्म सेंसर में भेजी गई. वहां 1 और 5 अक्टूबर को दो बार फिल्म देखी गई. सेंसर बोर्ड ने कुछ कट और सुधार की सलाह दी. निर्देशानुसार फिल्म की नई प्रति जमा की गई, जिसे 23 और 25 अक्टूबर को रिव्यू कमिटी ने देखा. देखने के बाद बोर्ड के सचिव ने लिखा ‘बोर्ड की राय में फिल्म का विषय मुंबई प्रेसिडेंसी के क्षेत्र में प्रदर्शन के उपयुक्त नहीं है इस फिल्म को अगले 6 महीनों तक प्रदर्शन का प्रमाण पत्र नहीं दिया जा सकता.’
बीबीएफसी के निर्देश से 'द मिल/मजदूर’ में बार-बार कट और सुधार किया गया, लेकिन हर बार किसी ने किसी कारण से फिल्म को प्रदर्शन की अनुमति नहीं मिली. हर बार थोड़ी फेरबदल से यही कहा गया कि मुंबई के हालात ऐसी फिल्म के प्रदर्शन के लिए ठीक नहीं है. उस दौर को याद करें तो मुंबई के अधिकांश सिनेमाघर टेक्सटाइल मिलों के आसपास थे. इस वजह से भी बीबीएफसी को लगता रहा होगा कि इस फिल्म के प्रदर्शन से मिल मजदूर अपने अधिकारों को लेकर जागृत होंगे और हड़ताल पर चले जाएंगे. कुछ लेखों में यह भी संकेत मिलता है कि 1934 में यह फिल्म लाहौर सेंसर बोर्ड से प्रमाण पत्र लेकर उत्तर भारत के सिनेमाघरों में पहुंची. लाहौर के सेंसर बोर्ड में यह फिल्म 120 फीट कट करके जमा की गई थी. कहते हैं प्रेमचंद के प्रिंटिंग प्रेस के मजदूरों ने फिल्म से प्रेरित होकर हड़ताल कर दी. मुंशी प्रेमचंद के प्रिंटिंग प्रेस में हड़ताल का हवाला मिलता है, लेकिन क्या वह इस फिल्म के प्रभाव में हुआ था. अगर ऐसा हुआ होगा तो यह रोचक प्रसंग है.
अजंता मूवीटोन के निर्माताओं ने बीबीएफसी के निर्देश से फिल्म के फिर से पंख कतरे और फिर से प्रमाण पत्र के लिए जमा किया. फिल्म के कारोबार के लिहाज से मुंबई में प्रदर्शन का विशेष कारण था. आंकड़ों के अनुसार तब फिल्मों के व्यवसाय का 47% मुंबई से ही होता था. आज भी कमोबेश यही स्थिति है. हिंदी फिल्मों के 35-40% हिस्सा मुंबई का होता है. इस बार फिर से मनाही हो गई. बताया गया कि फिल्म में मिल का जीवन और मैनेजमेंट का चित्रण उपयुक्त नहीं है. इस फिल्म के प्रदर्शन से नियोक्ता और मजदूरों के बीच का संबंध खराब हो सकता है. सीधा तात्पर्य यही था कि फिल्म के प्रभाव में मजदूर भड़क सकते हैं. कुछ समय के बाद निर्माताओं ने फिल्म का नाम बदलकर ‘सेठ की बेटी’ रखा और इस नाम के साथ आवेदन किया. फिर से मंजूरी नहीं मिली. मुमकिन है बीबीएफसी के सदस्य फिल्म की कहानी समझ और पहचान गए हों. अब की बीबीएफसी ने कहा कि यह फिल्म मजदूरों के असंतोष को उत्तेजित कर सकती है. अच्छी बात है कि अजंता मूवीटोन के निर्माता बार-बार की नामंज़ूरी के बावजूद निराश नहीं हुए. उल्लेख मिलता है कि सेंसर बोर्ड के एक सदस्य बेरामजी जीजीभाई मुंबई मिल एसोसिएशन के अध्यक्ष थे. उन्हें यह फिल्म अपने एसोसिएशन के सदस्यों के हितों के खिलाफ लगती होगी.
आखिरकार 1937 में कांग्रेस पार्टी की जीत हुई तो आज की तरह बीबीएफसी का फिर से गठन हुआ. नए सदस्य चुने गए. नए सदस्यों में बॉम्बे टॉकीज के रायसाहब चुन्नीलाल और चिमनलाल देसाई भी थे. फिल्म फिर से सेंसर के लिए भेजी गई. फिल्म 1200 फीट काट दी गयी थी. फिल्म के कथानक में तब्दीली कर दी गई. क्लाइमैक्स का सुर बदला दिया गया. तब एक हिंदी अखबार ‘विविध वृत्त’ में हिंदी समीक्षक ने लिखा कि ‘राज्य सरकार ने भवनानी को कहा कि गांधी का रास्ता ले लें. फिल्म रिलीज हो जाएगी.' और यही हुआ. फिल्म की तब्दीली को बीबीएफसी के नए सदस्यों ने स्वीकार किया और रिलीज के अनुमति मिल गई. अजंता मूवीटोन ने अपने प्रचार में लिखा कि हड़ताल होने से रोकने के लिए मालिक और मिल मजदूर एक साथ ‘द मिल/मजदूर’ फिल्म देखें.
बीबीएफसी ने पांच सालों तक लगातार जिस फिल्म को दर्शकों के बीच प्रदर्शित करने के लिए उचित नहीं समझा, क्योंकि वह मजदूरों को भड़का कर हड़ताल के लिए प्रेरित कर सकती है और मिल मालिकों के खिलाफ माहौल रच सकती है. कैसी विडंबना है कि उसी फिल्म के प्रचार में फेरबदल के बाद यह लिखा गया कि मिल मालिक और मिल मजदूर इसे साथ देखें तो हड़ताल रोकी जा सकती है. मुंशी प्रेमचंद फिल्म इंडस्ट्री के रवैए से बहुत दुखी थे. उन्होंने जैनेंद्र कुमार को इस आशय का पत्र भी लिखा था.1935 में वे लौट गए थे. हालांकि मुंबई में यह फिल्म उनकी मृत्यु के बाद 1939 में रिलीज हुई, लेकिन उनके जीवनकाल में ही निर्माता-निर्देशक सर्टिफिकेशन के लिए फिल्म में सुधार और काटछांट कर रहे थे. हो सकता है कि अपनी लिखी फिल्म के प्रति निर्माता-निर्देशकों के इस स्वार्थी रवैए से वे दुखी हुए हों. कम्युनिस्ट विचारों की फिल्म रिलीज़ होने के समय गांधीवादी हो गयी थी.
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