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लोक से विच्छिन्न नए राजनीतिक राम

अयोध्या में पांच अगस्त को राम मंदिर के भूमि पूजन कार्यक्रम की तैयारी ज़ोरों पर है. महामारी के दौरान तमाम शहरों से लचर स्वास्थ्य सुविधाओं की खबरों के बीच उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री द्वारा गर्भगृह से लेकर श्रीराम जन्मभूमि कार्यशाला तक, तराशे गए पत्थरों का बारीकी से निरीक्षण किया जा रहा है. मुख्यमंत्री ने अयोध्यावासियों से भूमि पूजन का दीपोत्सव से स्वागत करने का आह्वान भी किया है. तीन अगस्त से ही भूमि पूजन को लेकर समारोह की शुरुआत हो जाएगी. सभी मठों-मंदिरों में रामचरितमानस का पाठ शुरू करने की योजना है. बस, सब तरफ रामनाम की ही धुन होगी.

इस सब के बीच ज्योतिषाचार्यों के बीच राम मंदिर के शिलान्यास की तारीखों को लेकर बहस चल रही है. मान्यताओं के अनुसार हिन्दी कैलेंडर से देवशयनी काल में शुभ कार्य नहीं किए जाते हैं. यानि हिन्दी कैलेंडर के अनुसार तारीख़ को लेकर धर्माचार्यों के बीच दुविधा है. तो फिर सैकड़ों वर्षों से अपने आराध्य राम को गर्भगृह दिलाने की आस संजोए आराधकों को यह तारीख़ ही क्यूं सर्वश्रेष्ठ लगी?

राजनीति में तारीखों का सांकेतिक महत्व होता है. भारतीय राजनीति में बीते कुछ वर्षों में यह सांकेतिकता प्रबलतम हुई है. गाय से लेकर गोमूत्र तक– राजनीतिक सांकेतिकता कुछ इस तरह बढ़ी है कि जनता का भावबोध (मनुष्यता-बोध भी) इसी से निर्मित होने लगा है. और जब इन राजनीतिक संकेतों की उद्घोषणा करने वाले स्वयं प्रधानमंत्री हों तो किसी प्रश्न का सवाल ही कहां उठता है.

प्रधानमंत्री मान्यवर हैं, नमो हैं– उनका कहना ही तो कहना होता है. प्रचार-प्रसार में उनके आगे सब नतमस्तक हैं. उनका अपना कैलेंडर है, जिसमें उनकी योजनाओं को लॉन्च की जाने वाली तारीखों के अनुसार ही भूमि-पूजन, उद्घाटन आदि कार्यक्रम तय कर दिये गए हैं. फिर आमतौर पर बिल्ली के रास्ता काटने पर रास्ता बदल देने वाली या कोरोना माई को दिया-घंटी से भगाने की कोशिश करने वाली धर्मभीरु जनता की बिसात ही क्या! धर्म, मान्यता, अध्यात्म, कर्मकांड– सब इनके नियामकों के नियंत्रण में है. जब जहां जैसा चाहा, वैसा बना दिया.

तभी तो भारतीय जनता पार्टी की आनुषांगिक इकाईयों द्वारा 14 फरवरी को भगत सिंह का शहीदी दिवस मनाने की घोषणा होती है, और जनता 23 मार्च के बजाय 14 फरवरी को ही शहीदी दिवस मनाने सड़कों पर आ जाती है. गांधी की हत्या की साजिश रचने वालों की पूजा भी यही लोग कर रहे हैं और राजनीतिक आह्वान पर खादी और चरखा ‘मेक इन इंडिया’ का स्वदेशी प्रतीक भी बन जाते हैं.

राम मंदिर के शिलान्यास की तारीख़ का आधार भी यही सांकेतिकता है– बीते वर्ष पांच अगस्त, 2019 को जम्मू और कश्मीर की विशेष सांविधानिक स्थिति को समाप्त करने की घोषणा हुई थी. गौरतलब है कि जम्मू-कश्मीर में व्याप्त अशांति पिछले एक वर्ष से और बढ़ी है. कश्मीर से ख़बरें बाहर न आने देने की कोशिशों में सरकार ने अभी तक इन्टरनेट सुविधाओं की बहाली नहीं की है.

तो क्या राम मंदिर के शिलान्यास की तारीख़ का आधार मात्र राजनीति ही है. राम अब किसी की आस्था का प्रतीक नहीं हैं, राजनीतिक नेता हो गए हैं. रामकथा अब किसी परंपरा की वाहक नहीं, राजनीतिक जोड़तोड़ का आलंबन हो गयी है. राम मंदिर के शिलान्यास की तारीख का आधार अध्यात्म, परंपरा या धर्म नहीं, एक ऐसे निर्णय का वार्षिकोत्सव मना लेने और उसका राजनीतिक लाभ लेने की आतुरता है जिसकी अलोकतांत्रिक प्रक्रिया ने एक पूरे भूगोल में असंतोष को बढ़ाने का ही काम किया है.

हालांकि राम के राजनीतिक रूपक का प्रयोग पहले भी हुआ है. संस्कृत विद्वान शेल्डन पोलोक के मुताबिक तुर्की हमलों के परिणामस्वरूप हिंदुस्तान में 12वीं से 16वीं शताब्दी के मध्य काफी संख्या में राम मंदिर बनाए गए, क्षेत्रीय भाषाओं में रामायण के विविध रूपांतर की रचना की गयी. अवधी में तुलसीदास का रामचरितमानस भी इसी समय में रचा गया. ‘बुराई के खिलाफ अच्छाई की स्थापना’ का कार्य करते शक्तिशाली दैवीय राजा राम इस समय में धार्मिक प्रतीक के विपरीत एक राजनीतिक भूमिका में ही थे जिसकी सांकेतिकता का राजनीतिक इस्तेमाल तत्कालीन हिन्दू राजाओं ने प्रमुखता से किया.

1920 में बाबा रामचंद्र की अगुवाई में अवध के किसान आंदोलन का एक नया अभिवादन ‘सीता राम’ ज़मींदारों के समक्ष आम तौर पर सिर झुका कर ‘सलाम’ करने वाले किसानों के लिए नया राजनीतिक-समतावादी (उस दौर में) औज़ार बना. सीता-राम के नारे का प्रयोग उस दौर में किसान आंदोलन के लिए बेहद प्रभावशाली था, जिसने ज़मींदारों के सशस्त्र दल से सामना करने के लिए हज़ारों किसानों को इकट्ठा करने का काम किया था. बाबा रामचंद्र की अगुवाई में किसान आंदोलन की रणनीति ने नेहरू को भी चकित कर दिया था.

गांधी ने भी ‘रघुपति राघव राजा राम’ और ‘ईश्वर अल्लाह तेरो नाम’ को गुनगुनाते हुये ‘राम, अल्लाह और गॉड सब एक हैं’ का राजनीतिक संदेश दिया और विनोबा ने ‘अवतार व्यक्ति का नहीं विचार का होता है’ कहते हुये ‘राम के रूप में सत्य की महिमा’ के प्रकट होने की बात की.

राम नए रूपों में निरूपित होते रहे हैं, आगे भी होते रहेंगे. भारतीय परंपरा में विविध रूपों में मान्य राम कभी सगुण उपासना के पात्र बनते हैं, तो कभी निर्गुणवादियों के ‘आतमराम’ के रूप में सर्वात्मा का बोध कराते हैं–

आतम ज्ञान जाहि घट होई, आतम राम को चीन्है सोई.

कंबोडिया के लखाओं खमेर नृत्य-नाटिका से लेकर केरल और लक्षद्वीप के मैपिला गीतों में रामकथा अपने-अपने संदर्भों के साथ व्याख्यायित होती है. बौद्ध जातक कथाओं (दशरथ-जातक) में राम-सीता के नए सम्बन्धों के साथ राम इक्ष्वाकु वंश के विशुद्ध राजवंशी के रूप में निरूपित होते हैं, तो उत्तर भारत में प्रचलित तुलसीदास के रामचरितमानस के धैर्यवान राम ‘लोक’ के राम बनते हैं–

सौरज धीरज तेहि रथ चाका. सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका॥

बल बिबेक दम परहित घोरे. छमा कृपा समता रजु जोरे॥

तमिलनाडु के कंबरामायनम से लेकर जैनियों के पौमचरियम तक रामकथा से सम्बद्ध लगभग तीन हज़ार से अधिक ग्रन्थों में राम अलग-अलग रूपों में देखे-समझे जाते हैं– अपने-अपने संदर्भों के साथ. स्वयं वाल्मीकि के राम ‘रामायण’ में एक रूप में दिखते हैं, तो उन्हीं के ‘योगवशिष्ठ’ में दूसरे रूप में. रामकथा की विविधता ही तो है कि भगवान सिंह के उपन्यास का शीर्षक ‘अपने अपने राम’ लोकोक्तीय संदर्भ बन जाता है.

‘लोक’ के राम अपने शील, मर्यादा, विनम्रता जैसे मानवीय गुणों की उत्कृष्टता के साथ मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में पूजे, गाये, विचारे जाते रहे हैं. पुरुषोत्तम यानि पुरुषों में उत्तम. पिता के लिए आदर्श पुत्र, जनता के अपने राजा राम. इस राम की अपनी सीमाएं भी हैं और कमियां भी. यही सीमाएं हैं कि कोई अपनी बेटी को सीता के पति जैसा पति मिले का आशीर्वाद नहीं देता. वैसे क्या कोई मां कौशल्या के बेटे जैसा बेटा भी चाहेगी– यह भी सोचने की बात है. स्त्रीवादी दृष्टिकोण से देखें तो राम मर्द ही हैं. हां अपने शील-मृदु-शांत स्वभाव के नाते पुरुषों में सर्वोत्तम हैं, लेकिन अपनी सीमाओं के साथ सीता के बिना अधूरे हैं. इसीलिए लोक के गीतों, बोलियों, जीवन में ‘सिया-रामचंद्र’ और ‘सीता-राम’ के रूप में बसे रहे हैं.

लेकिन वर्ष 1989 से राम बहुत तेज़ी से बदले हैं. राम अब शील-मृदु-शांत नहीं रह गए हैं. धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ा कर क्रुद्ध राम एक नया राजनीतिक नारा बन गए हैं. अब तक के राजनीतिक निरूपणों में राम धैर्य और सत्य के प्रतीक थे. अब राम बिलकुल नए रूप में एक बेहद निष्ठुर-हिंसक भीड़ की अगुवाई में खड़े कर दिये गए किसी स्वयंभू के राजनीतिक प्रयोगों का अस्त्र बन गए हैं. राम कथा के भावोत्पूर्ण ‘बोल सियावर-रामचंद्र की जय’ की अभी राम को ज़रूरत नहीं. ‘जय श्री राम’ के नारे साथ अब ये बिलकुल नए ‘मर्दोत्तम’ होते राम हैं.

वर्ष 1992 में बाबरी मस्जिद का विध्वंस, अयोध्या में सैकड़ों घरों को आग के हवाले कर दिये जाने और लगभग सोलह से ज़्यादा लोगों की जान जाने के साथ ही इन नए राम का अपने परिपूर्ण रूप में निरूपण हुआ है. एक पुराना मुहावरा है– मुंह में राम, बगल में छुरी. अब ये छुरी बगल में नहीं रह गयी है. सामने हाथ में ले ली गयी है ‘राम रक्षा’ के प्रतिज्ञ भाव के साथ.

राम-रक्षा में जुटी इस भीड़ के सोचने-समझने की शक्ति का पूरा दारोमदार राजनीतिक सांकेतिकता पर है. स्वयंभू ‘राणा’ हैं, और ‘राम रक्षा’ में जुटी भीड़ ‘चेतक’- जो सिर पर भगवा बांधे किसी अबूझे धार्मिक प्रतिशोध में अश्वमेध यज्ञ पर निकली है. झारखंड, असम, पश्चिम बंगाल से लेकर दिल्ली, गुजरात, उत्तर प्रदेश तक जय श्रीराम के नारों के साथ ‘राम-रक्षा’ में जुटी इस भीड़ के खाते में दर्जनों दंगे, हिंसा, हमले, हत्या के मामले दर्ज़ हैं. वैसे कानूनी भाषा में यह भीड़ अब तक ‘अज्ञात’ ही है जो पांच अगस्त को अपने राम की रक्षा करने और उनको गर्भगृह दिला सकने का दीपोत्सव मनाएगी.

यह झूठ भी फैलाया गया कि राम मंदिर के हजारों फीट नीचे ताम्र-पत्र में एक टाइम कैप्सूल भी दबाया जाएगा, ताकि भविष्य में मंदिर से जुड़े तथ्यों को लेकर कोई विवाद न रहे. राम जन्मभूमि परिसर की ऐतिहासिकता पर बात करने वाले राम-रक्षकों का अपना भरोसा इतना कमज़ोर है कि क़ानूनी संरक्षण में विवादित ज़मीन पर मनमुताबिक फैसला लिए जाने के बाद भी धरती के भीतर राम का कृत्रिम इतिहास गढ़े जाने की तैयारी है. अब क्या मान लिया जाए कि ‘राम’ का वर्ष 1989 से निरूपित राजनीतिक रूप ‘राम-रक्षा’ के बाद अब नए गर्भगृह में स्थापित होकर शांत पड़ जाएगा?

धार्मिक विश्वास-मान्यताओं से परे जाकर राम मंदिर के शिलान्यास की तारीख का चुनाव तो ऐसे संकेत नहीं देता.

हिन्दू धर्म में अंतिम यात्रा के समय राम नाम के जाप का चलन है– राम नाम सत्य है, सत्य बोलो गत है. इसको कहने का उद्देश्य अंतिम यात्रा में साथ चल रहे परिजनों को यह समझाना होता है कि जीवन में और जीवन के बाद भी केवल राम नाम ही सत्य है. एक दिन सब कुछ यहीं छोड़कर जाना है और साथ सिर्फ हमारा कर्म ही जाता है. सो आत्मा को गति सिर्फ और सिर्फ राम नाम से ही मिलेगी.

महाभारत में एक प्रसंग में युधिष्ठिर कहते हैं –

अहन्यहनि भूतानि गच्छंति यमममंदिरम्.

शेषा विभूतिमिच्छंति किमाश्चर्य मत: परम्॥

आशय यह कि मृतक को श्मशान ले जाते समय ‘राम नाम सत्य है’ कहते हैं, लेकिन घर लौटते ही राम नाम को भूलकर लोग फिर से माया मोह में लिप्त हो जाते हैं.

प्रश्न यह है कि इस नए भारत के क्रुद्ध राम का नाम क्या अपने आध्यात्मिक अर्थों में अब भी ‘सत्य’ ही है, या फिर उन्हें ही ‘मोह-माया’ में रूपांतरित कर दिया गया है.

पांच अगस्त को नए राजनीतिक प्रतीकों में गढ़े ‘राम’ के मंदिर के शिलान्यास की तैयारी अपने आख़िरी दौर में है. भूमि पूजन के लिए प्रधानमंत्री समेत अतिथियों के स्वागत की तैयारी ज़ोर-शोर से चल रही है. गर्भगृह में रामलला को स्थापित होना है. लेकिन ये नए राम अब ‘लोक’ के भाव से अलग हो चुके हैं. ‘अपने-अपने राम’ के सहज बोध का अब कोई स्थान नहीं. राम अब एक ही रूप में दिखते हैं– प्रचंड रूप में- विविधता और लोक-मंगल के सौंदर्य से छिन्न. ‘जय श्रीराम’ के उन्मादी कोलाहल के बीच अवस्थित-रक्षित नए राम बड़े अजनबी लगते हैं. मंदिर के प्रांगण में सिमटते ‘राम’ का यह नया राजनीतिक वनवास क्या पूरा हो गया? लगता तो नहीं.

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