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"यदि हम समझ पाते कि रेगिस्तान ने हिंदुस्तान की नियति को तय किया है तो हम रेगिस्तान के साथ ऐसा मज़ाक नहीं करते"

राजस्थान के अरावली रेंज में घास के मैदान गम्भीर संकट के दौर से गुजर रहे हैं. सामुदायिक भूमि 2005-2015 के बीच लगभग 905 लाख हेक्टेयर से घटकर 730.2 लाख हेक्टेयर रह गई है. सामुदायिक भूमि या पंचायती जमीन में चारागाह, वन भूमि, तालाब, नदियां व अन्य क्षेत्र शामिल किया जाता है. जिन्हें ग्रामीण समुदाय के लोग उपयोग कर सकते हैं. ये भूमि ग्रामीण जीवन को भोजन, चारा, पानी, जलावन- लकड़ी और आजीविका प्रदान करती है. ये जमीन ग्राउंड वाटर को रीचार्ज करती है, जैव विविधता को बनाती है.कुदरत के अपने नियम और कायदे -कानून हैं. एक अच्छी स्थिति उसी को कहा जाता हैं जहां हम उन नियमों और कायदे कानूनों का पालन करें. कुदरत का आधारभूत नियम है. चारागाह और गोचर भूमि की उपलब्धता.

रेगिस्तान में चारागाह भूमि और गौचर भूमि की बाड़ाबंधी की जा रही है. वहां पर होटल और रिसोर्ट माफिया का कब्जा है. ये कहने की आवश्यता नहीं हैं कि ये लोग कौन हैं और इनको किनका संरक्षण प्राप्त है. जो भूमि बच जाती है उसे वन अधिकार क्षेत्र घोषित कर दिया जाता है. उस भूमि पर कुछ वर्षों बाद कुछ अन्य दबंग लोग कब्जा कर लेते हैं. ऐसा जैसमलमेर - बाड़मेर में देखा जा सकता. पुष्कर में खुलेआम देखा जा सकता है.भेड़- बकरी की एक बड़ी खासियत है जो उसे अन्य जानवरों से अलग बनाती है.

इसे थोड़ा बहुत चराकर कभी भी और कितनी बार भी दूध निकाला जा सकता है. भले ही एक बकरी एक दिन में 1 से 2 लीटर दूध और भेड़ आधे से एक लीटर तक दूध देती है. किंतु इनका दूध गाय भैंस के दूध से भी ज्यादा पोषण युक्त रहता है.भेड़- बकरी की एक बड़ी खासियत है जो उसे अन्य जानवरों से अलग बनाती है. इसे थोड़ा बहुत चराकर कभी भी और कितनी बार भी दूध निकाला जा सकता है. भले ही एक बकरी एक दिन में 1 से 2 लीटर दूध और भेड़ आधे से एक लीटर तक दूध देती है. किंतु इनका दूध गाय भैंस के दूध से भी ज्यादा पोषण युक्त रहता है. हमें ऊंट का तो पता है कि वो कई दिन बिना पानी पिये जिंदा रह सकता है.

लेकिन यदि बकरी गर्भवती नहीं है तो वो भी 70 दिन तक बिना पानी पिये जिंदा रह सकती है. जो उसे रेगिस्तान में ज्यादा खास बना देती है.कृषि और पशुचारक जीवन के मध्य सम्बन्धों में बदलाव राजस्थान के अकेले बाड़मेर, जैसलमेर और जोधपुर ज़िलें में 2 लाख ऊंट हैं. बाड़मेर ज़िलें में 95 लाख भेड़-बकरी, जैसलमेर में 85 लाख भेड़-बकरी जबकि जोधपुर में करीब 80 लाख भेड़-बकरियां हैं. यदि बीकानेर और जालौर ज़िले के आंकड़ों को भी शामिल किया जाए तो ये आंकड़ा काफी ज्यादा हो जाता है.

रेगिस्तान का नाम सुनते ही एकाएक हमारे दिमाम में ऐसी तस्वीर कौंध जाती है जहां दूर-दूर तक फैला मिट्टी का सैलाब, आसमान छूते रेत केटीले, चिल चिलाती धूप, धूल भरी आंधी, दूर छोर से आता ऊंटों का कारवां, रंग- बिरंगे कपड़े पहन कर नाचते-गाते लोग.

रेगिस्तान केवल इतना ही नहीं हैं. यहां की वनस्पति, रेंग ने वाले जीवों की बहुलता. यहां रहने वाले लोगों की जीवनशैली और उनका इस मिट्टी से नाता उसे खास बनाता हैं . वैसे तो दुनिया के सभी महाद्वीपों पर रेगिस्तान फैले हैं. भारतीय उपमहाद्वीप में स्थित थार का मरुस्थल की बात ही कुछ और है.

थार दुनिया का एकमात्र जीवंत मरुस्थल है जहां इतने बड़े स्तर पर जैव विविधता पाई जाती है. थार का रेगिस्तान बंजर भले ही हो किन्तु बेजान कतई नहीं हैं. लेकिन अब हम उसे बेजान बनाने पर तुले हैं. पिछले कुछ वर्षों में थार रेगिस्तान भी तेलंगाना, महाराष्ट्र और आन्ध्रप्रदेश बनने की राह पर है.

बेजान बनाने पर तुले

यहां की राज्य सरकारो ने ऐसी नीतियां और कार्यक्रम अपनाए हैं. जिनका खमियाजा आने वाली कई पीढ़ियों को उठाना पड़ेगा. यदि हम लिखने लगे तो ऐसे कदमों की एक लंबी सूची बन जाती है.

गोचर भूमि और औरण भूमि पर अवैध कब्जे और अन्य विकास गतिविधियों हेतु दिया जाना. कृषि व पशुपालन के आपसी सम्बन्ध को अलग करना. मोटे अनाज वाली फसलों के स्थान पर व्यापारिक फसलों को बढ़ावा तथा पारम्परिक तरीकों के स्थान पर कुओं और नलकूपों द्वारा सिंचाई. घुमन्तू जीवन शैली को स्थाई जीवन शैली में बदलने पर जोर आदि.

जैसमलमेर के पर्यावरणीय कार्यकर्ता चतरसिंह जाम की उम्र करीब 65 वर्ष है. सरकार के इन बेतरतीब निर्णयों पर सवाल खड़ा करते हुए वो कहते हैं, "सरकार में कुछ ज्यादा पढ़े-लिखे लोगों ने इस रेगिस्तान को हराभरा करने हेतु और यहां व्यापारिक कृषि कार्यों हेतु इंदिरा गांधी नहर का निर्माण किया है.”

चतर सिंह बताते हैं, "इस नहर के पानी से सिंचाई करके सीमा क्षेत्र पर घास लगाई गई है. जो सीमा क्षेत्र बिल्कुल निर्जन था. वहां पर इस हरियाली और घास की वजह से रेगिस्तान के पाकिस्तान के उस हिस्से से टिड्डियों के दल भोजन की तलाश में इस घास की और आकर्षित हुए हैं.

उसी घास और हरियाली का कमाल है कि पिछले कुछ वर्षों में राजस्थान के जैसलमेर, बाड़मेर, बीकानेर, जोधपुर, जालौर, पाली इत्यादि ज़िलें की फसलों को टिड्डी दल चंद घण्टों में चटकर जाता है.

चतर सिंह आगे कहते हैं, "बचाव केवल इतना है कि अभी तक ये टिड्डियां हमारे यहां अंडे नहीं देती हैं. यदि उन्होंने यहां अंडे दे दिए तो फिर इस सम्पूर्ण उत्तर और मध्य भारत का भगवान ही मालिक है."

समस्या केवल मरुस्थल तकसीमित नहीं

अब रेगिस्तान भी आत्महत्या के रास्ते पर चल रहा है और यहां बात केवल इंसान तक सीमित नहीं हैं बल्कि हम अरावली की दुर्लभ जैव विविधता को भी समाप्त करने पर तुले हुए हैं.

ये जैव विविधता ही अरावली को विश्व में अलग परिस्थिति की प्रदान करती है यदि ये जैव विविधता नहीं रहेगी तो ये पहाड़ महज घिसे- पिटे पत्थरों का एक ढेर होगा.

रेगिस्तान ने हमारी सोच को गढ़ा है. हमारी सौंदर्य कीसमझ को विस्तार दिया है. हमारे लोकगीतों, किस्सों कहानियों और कहावतों में रेगिस्तान का जब तक जिक्र नहीं आता वो अधूरी ही रहती हैं.

खेती- किसानी की तुलना

अब हम जरा महाराष्ट्र, तेलंगाना और आंध्रप्रदेश की तस्वीर देखते हैं. पिछले कुछ वर्षों में यहां किसानों ने रिकॉर्ड आत्महत्या करने की पहचान बनाई है. एनसीआरबी की 2019 में जारी रिपोर्ट के मुताबिक भारत में हर महीने 948 किसान, यानि हर दिन 31 किसान आत्महत्या कर रहे हैं.

बीते करीब दो दशकों में देशभर के 3.2 लाख से ज्यादा किसानों को आत्महत्या के लिए मज़बूर होना पड़ा है. अकेले महाराष्ट्र में कुल किसान आत्महत्या के 32.2 फीसदी मामले हैं. इन आत्महत्याओं के पीछे कई कारण जिम्मेदार रहे हैं. जिसमे सबसे मजबूत कारण है. फसल उत्पादन का मूल्य न मिल पाना. भले ही वो बारिश के आभव में हो या उत्पादन की मात्रा में कमी हो या फिर कोई प्राकृतिक आपदा हो.

किसान आत्महत्या के पीछे सबसे बड़ा कारण फसल के अलावा उसके पास अन्य किसी विकल्प का न होना है. इसी विकल्प हीनता की स्थिति को व्यापारिक फसलों ने ज्यादा गंभीर बनाया है. खाद्यान्न फसलों में लागत मूल्य भी कम लगता है, यदि फसल अच्छी न हो तो भी किसान पर ऋण का इतना बोझ नहीं पड़ता कि उसे अपनी जान देनी पड़े किन्तु व्यापारिक फसलों ने इस उत्पादन लागत को दोगुना कर दिया है.

इसका एक बड़ा कारण व्यापारिक फसलों पर निर्भरता भी है. मोटे अनाज वाली खाद्यान्न फसलें उस जलवायु के अनुरूप रहते हैं. वे बुरी से बुरी की परिस्थितियों में भी थोड़ा बहुत पैदावार देते हैं. यदि किसी वर्ष फसल अच्छी न हो तो भी वो उसी थोड़े से अन्न में अपना गुजारा कर लेता है. किंतु व्यापारिक फसल के मामले में ये सम्भव नहीं है.

आखिर क्या कारण है कि राजस्थान और गुजरात के रण वाले क्षेत्र में इतनी विकट परिस्थितियों के होते हुए जहां वर्ष 20 मिली मीटर से भी कम होती हैं. न पीने का पानी का कोई ठिकाना है और न हरे चारे का दूर- दूर तक कोई लेना-देना. मार्च से लेकर सितंबर का महीना तो साक्षात काल हैं. वहां लोग आत्महत्या क्यों नहीं करते?

इसी बात को स्पष्ट करते हुए प्रख्यात सामाजिक कार्यकर्ता अनिल गोस्वामी कहते हैं, “यहां के पशुचारकों और रेगिस्तान में रहने वाले लोगों के जीवन को देखा जाए तो इनके पास न तो सरकारी योजनाओं का कोई खास लाभ मिलता है और न ही उन लोगों को सरकारी विभागों का गणित समझ आता है. ये लोग अपने पशुओं की तासीर और उनका इलाज स्वयं ही करते हैं."

अनिल बताते हैं, "इतने अभावों और सीमित संसाधनों के बावजूद, यहां के किसान व पशुचारक न केवल जीवन जीते हैं बल्कि किसी भी अन्य राज्य की तुलना में जीवन को मजे से, नाचते गाते हुए खुशियां मनाते हुए जीते हैं. इसका कारण क्या है? जबकि इतनी विकट परिस्थितियों में तो यहां हिन्दुस्तान की सर्वाधिक आत्महत्या होनी चाहिए थी.”

अनिल आगे बताते हैं, "राजस्थान की इतनी विकट भौगोलिक और पर्यावरणीय दशाओं में यहां के लोगों ने अपने आप को कुदरत के अनुरूप ढाला है न कि अन्य राज्यों की बेवकूफियों को दोहराया है.

मसलन लोगों ने पानी और चरवाहों हेतु गोचर और औरण का विकास किया. कृषि के पशुपालन के साथ सम्बन्ध को मजबूत बनाया है. चरवाहा जीवन शैली को अपनाया हैं. व्यापारिक की बजाय पर्यावरण के अनुरूप मोटे अनाज वाली फसलों को प्राथमिकता दी है."

अनिल वर्तमान हालात पर चिंता प्रकट करते हुए कहते हैं, "हम अब व्यापारिक फसलों की ओर बढ़ रहे हैं ये बहुत ख़तरनाक हैं. लेकिन किसको कहें? जब ये उलूल-जुलूल काम लागू करवाने वाली सरकार ही है."

पारम्परिक ज्ञान को छोड़ना

रेगिस्तानी क्षेत्र में जोहड़/तालाब, बावड़ी, टांके और गूण जैसी संरचनाएं देखने को मिलती हैं. ये जोहड़/तालाब और बावड़ी पानी अधिग्रहण क्षेत्र का काम करते हैं. एक क्षेत्र विशेष का पानी बहकर इन संरचनाओं में चला जाता है, जिससे मिट्टी में वर्षा का जल संचय करने और भू जल स्तर को बढ़ाने में मदद मिलती है. किन्तु अब गांवों में इन जोहड़ के कैचमेंट एरिया को तोड़ा जा रहा है जिससे पानी के प्राकृतिक स्रोत बर्बाद हो रहे हैं तथा वर्षा जल का भी उचित उपयोग नहीं हो पा रहा .

राजस्थान व हरियाणा के फसल क्षेत्र में हर एक वर्ग हेक्टेयर भूमि पर, खासकर खेत के निचले हिस्से में एक 30- 40 फीट चौड़ा और लगभग इतना ही लंबा खेतों के मध्य एक कच्चा गढ़ा बना दिया जाता है जिसे आम भाषा में गूण कहा जाता है. बारिश के समय ये गढ़े (गूण) भर जाते हैं. ये गड्ढे दोहरा काम करते हैं. एक तो ग्राउंड वाटर को रिचार्ज करते हैं और दूसरा वर्षा के जल का संग्रहन करते हैं जो फसल के संवेदनशील अवस्था मे सिंचाई हेतु पानी उपलब्ध करवाते हैं.

इंदिरा गांधी नहर के आने के बाद तथा निरन्तर कुवों की खुदाई से वर्षा संरक्षण की इन पारम्परिक तकनीकों को धत्ता बताते हुए लोग इनको पाट रहे हैं. जो लंबे समय में उनके बर्बादी का कारण बनेगा. ये गूण केवल गड्ढे मात्र नहीं हैं. बल्कि हमारे पुरखों के सामूहिक ज्ञान की अभिव्यक्ति हैं. जीवन जीने के तौर तरीके हैं. किन्तु आज ये तौर तरीके भुलाए जा रहे हैं. जिनकी कीमत आने वाली पीढ़ियों को भी चुकानी पड़ेगी.

कृषि और पशुचारक जीवन के मध्य सम्बन्धों में बदलाव

राजस्थान के अकेले बाड़मेर, जैसलमेर और जोधपुर ज़िलें में 2 लाख ऊंट हैं. बाड़मेर ज़िलें में 95 लाख भेड़-बकरी, जैसलमेर में 85 लाख भेड़-बकरी जबकि जोधपुर में करीब 80 लाख भेड़-बकरियां हैं. यदि बीकानेर और जालौर ज़िले के आंकड़ों को भी शामिल किया जाए तो ये आंकड़ा काफी ज्यादा हो जाता है.

राजस्थान में केवल वर्षा के मौसम में घास-फूस या ज्वार-बाजरे की खेती होती है. रेगिस्तान में केवल एक ही फसल हो पाती है वो भी महज इतनी ही कि घर का खाने का खर्च भी बड़ी मुश्किल से चल पाता है.

यहां हर व्यक्ति के पास दो-चार बकरी, एक-दो भेड़ और एक-दो ऊंट अवश्य मिलेंगे. ये भेड़, बकरी और ऊंट यहां की परिस्थितियों के अनुरूप हैं. जो आंकड़े, कैर, जांटी, कीकर और बेरी की झाड़ियों को खाकर अपना गुजारा कर लेते हैं.

हमें ऊंट का तो पता है कि वो कई दिन बिना पानी पिये जिंदा रह सकता है. लेकिन यदि बकरी गर्भवती नहीं है तो वो भी 70 दिन तक बिना पानी पिये जिंदा रह सकती है. जो उसे रेगिस्तान में ज्यादा खास बना देती है.

भेड़- बकरी की एक बड़ी खासियत है जो उसे अन्य जानवरों से अलग बनाती है. इसे थोड़ा बहुत चराकर कभी भी और कितनी बार भी दूध निकाला जा सकता है. भले ही एक बकरी एक दिन में 1 से 2 लीटर दूध और भेड़ आधे से एक लीटर तक दूध देती है. किंतु इनका दूध गाय भैंस के दूध से भी ज्यादा पोषण युक्त रहता है.

पोषणता का आधार

बकरी का दूध बहुत गुणकारी होता है. इसमे जटिल प्रोटीन नही होता तो वह आसानी से पच जाता है और बच्चों को क्षय रोग से बचाता है. बकरी के दूध में प्लेटलेट्स बढ़ाने की क्षमता होती है. जिससे डेंगू, चिकनगुनिया और स्वाइन फ्लू की बीमारी का रामबाण इलाज है. जबकि भैंस और गाय के दूध में यह गुण नही होता. इसकी सबसे अच्छी बात यह है कि यह 20-24 महीने की उम्र से ही बच्चे देने लग जाती है.

आर्थिक क्रय शक्ति का आधार

भेड़-बकरी साल में दो बार बच्चे देती है. एक बच्चे को परिपक्व होने में दो साल का समय लगता है. ये भेड़ बकरी के बच्चे इनके तरल पैसे का काम करते हैं. जब कभी पैसों को आवश्यता महसूस हुई तो एक बच्चे को बेच देते हैं. साल के दो बार वे भेड़ व ऊंट की ऊन को उतारकर बेचते हैं. उससे कम्बल, साल और दरी इत्यादि बनाते हैं. उसके ऊपर अपने हाथों से कलाकारी और चित्रकारी भी बनाते हैं. जो इनके कला सौंदर्य की अभिव्यक्ति करता है. तथा उसका मूल्य बढ़ जाता है.

अधिकांश लोगों के पास अपनी जमीन नहीं है वे घुमन्तू चरवाहे हैं. किंतु जिनके पास जमीन है भी, वो भी बहुत थोड़ी है. ये लोग अपने रेवड़ की खाद का ही उपयोग करते हैं. केवल वर्षा के मौशम में ही फसल पैदा करते हैं. ऊंट या गाय से हल चलाते हैं. चूंकि जोत छोटी होती है. साल में एक बार ही मेहनत करनी है तो खेती का सब काम स्वयं से ही करने की कोशिस करते हैं. ये लोग उस मिट्टी के अनुसार मोटे खाद्यन फसल को लेते हैं.

इन सब कारणों से किसान की लागत कम अति है यदि खेती अछि न हो तो भी किसान उस स्ट्रेस को झेलने की ज्यादा क्षमता रखता है. कम से कम उसके ऊपर साहुकर के ऋण का बोझ नहीं रहता. या नाममात्र का रहता है जिसे वो एक- दो बकरी के बच्चे बेचकर चुका सकता है. इससे उसकी क्रय क्षमता कमजोर अवश्यहोती है किंतु बर्बाद कतई नहीं होती.

किन्तु अब रेगिस्तान में भी पशुचारक जीवन शैली को हेय दृष्टि से देखा जाने लगा है. जिसकी वजह से पशुचारक घुमन्तू समुदाय रायका, रैबारी, बागरी, देवासी लोग इस जीवन शैली को छोड़ रहे हैं.

सिरोही जिले के पशुचारक प्रकाश राय का कहते हैं कि पहले हमारे पास चारागाह थे. औरण व गोचर भूमि थी. जंगल थे. हमे इज्ज़त मिलती थी. जरूरत का अनाज मिलता था. किन्तु पहले धीरे धीरे चरवाहा कम हुए. जंगल की बाड़बंदी कर दी गई. हमारे प्रवास के रास्तों को समाप्त कर दिया गया. गोचर भूमि और औरण भूमि पर कब्जे हो गए.

प्रकाश आगे बताते हैं, "ये तो दिक्कतें थी ही अब हमें इस काम मे न तो इज्जत मिलती हैं और न ही पैसा मिलता है. किसान भी रासायनिक उर्वरकों का उपयोग करने लगा है उसे जैविक खाद से कोई वास्ता नहीं रह गया. पहले फसलों की कटाई हाथों से करते थे तो फसल का डंठल बच जाता था अब मशीनों से जड़ से काट देते हैं जिससे खेतों में भी कुछ नहीं बचता तो पशुओं को चरायें क्या."

प्रकाश आगे कहते हैं, "अब घुमन्तू पशुचारक समुदाय भी ऊँटों और भेड़- बकरी के रेवड़ की बजाय अन्य आर्थिक गतिविधियों की और रुख कर रहे हैं. वे गुजरात और मुंबई में कम्पनियों में मजदूरों के रूप काम को प्राथमिकता दे रहे हैं."

ये स्थिति खतरनाक है जो खेती और पशुपालन के सम्बंध को समाप्त कर रहा है. पशुचारक जीवन को छोड़ने का अर्थ है अपनी पोषणता, आर्थिक क्रय क्षमता तथा संकट सहन करने की क्षमता को खो देना तथा किसी कम्पनी में मजदूर बनने का मतलब है अपने आत्मनिर्भर जीवन शैली को छोड़कर दूसरे पर निर्भर बन जाना. इसके पर्यावरणीय तथा आर्थिक नुकसान तो होंगे ही इसके सामाजिक-सांस्कृतिक परिणाम भी भयंकर होंगे.

सिमटती गोचर और चारागाह भूमि

कुदरत के अपने नियम और कायदे -कानून हैं. एक अच्छी स्थिति उसी को कहा जाता हैं जहां हम उन नियमों और कायदे कानूनों का पालन करें. कुदरत का आधारभूत नियम है. चारागाह और गोचर भूमि की उपलब्धता.

रेगिस्तान में चारागाह भूमि और गौचर भूमि की बाड़ाबंधी की जा रही है. वहां पर होटल और रिसोर्ट माफिया का कब्जा है. ये कहने की आवश्यता नहीं हैं कि ये लोग कौन हैं और इनको किनका संरक्षण प्राप्त है. जो भूमि बच जाती है उसे वन अधिकार क्षेत्र घोषित कर दिया जाता है. उस भूमि पर कुछ वर्षों बाद कुछ अन्य दबंग लोग कब्जा कर लेते हैं. ऐसा जैसमलमेर - बाड़मेर में देखा जा सकता. पुष्कर में खुलेआम देखा जा सकता है.

भारत ने पिछले एक दशक में अपने घास के मैदान का 31 फीसदी हिस्से को खो दिया है. 2005 से 2015 के दौरान घास के इन मैदान का 56.5 लाख हेक्टेयर क्षेत्र घट गया है. ये आंकड़े संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन टू कॉम्बेट डेजर्टिफिकेशन (UNCCD) के समक्ष प्रस्तुत किये गये हैं. 2005 से 2015 के बीच घास के मैदानों का कुल क्षेत्रफल 180 लाख हेक्टेयर से घटकर 123 लाख हेक्टेयर रह गया है.

राजस्थान के अरावली रेंज में घास के मैदान गम्भीर संकट के दौर से गुजर रहे हैं. सामुदायिक भूमि 2005-2015 के बीच लगभग 905 लाख हेक्टेयर से घटकर 730.2 लाख हेक्टेयर रह गई है. सामुदायिक भूमि या पंचायती जमीन में चारागाह, वन भूमि, तालाब, नदियां व अन्य क्षेत्र शामिल किया जाता है. जिन्हें ग्रामीण समुदाय के लोग उपयोग कर सकते हैं. ये भूमि ग्रामीण जीवन को भोजन, चारा, पानी, जलावन- लकड़ी और आजीविका प्रदान करती है. ये जमीन ग्राउंड वाटर को रीचार्ज करती है, जैव विविधता को बनाती है.

पिछले कुछ समय से मरुस्थलीकरण भी बढ़ रहा है. मरुस्थलीकरण का सबसे बड़ा जिम्मेदार जल क्षरण हैं. 10.98 फीसदी क्षेत्र में मरुस्थलीकरण जल क्षरण की वजह से ही होता है. वनस्पति क्षरण से 9.91 फीसदी क्षेत्र, वायु क्षरण से 5.55 फीसदी, लवणता से 1.12 फीसदी और मानव बसावट से 0.69 फीसदी क्षेत्र होता है.

गोचर व औरण भूमि का महत्व

इन भूमियों में सेवण तथा धामण जैसी घास स्वाभाविक रूप से उगति और पनपती हैं जो पशुओं के लिए उत्तम आहार का काम करती हैं. गोचरों के महत्व को नकारा नहीं जा सकता. ये भी पर्यावरण के मजबूत प्रहरी हैं.यदि राजस्थान में कोचर छोड़ने की परंपरा नहीं होती तो पर्यावरण को निसंदेह बहुत बड़ी क्षति पहुंची होती.

वर्षा की कमी, मरुस्थलीय प्रसार एवं तेजी से बढ़ती जनसंख्या तथा पालतू पशुओं की बड़ी संख्या में उपस्थिति के कारण राज्य का पारिस्थिति की तंत्र अत्यंत नाजुक अवस्था में हैं. राजस्थान में बड़ी संख्या में उपस्थित औरणों और गोचरों ने पर्यावरण की रक्षा के लिए सबसे मजबूत पहरेदार सिद्ध हुए हैं.

औरण और गोचर क्षेत्र की वनस्पति पर्यावरण को ऑक्सीजन, कार्बनिक अवशिष्ट तथा पशु पक्षियों को आश्रय एवं भोजन देकर और मृदा अपरदन को रोककर पारिस्थितिकी तंत्र को मजबूत बनाती हैं.

ग्रामीण क्षेत्रों की आवश्यकताओं का अक्षय भंडार

यही वो भूमि है जहां पर घुमंतू समुदायों के तंबू लगा करते हैं. यहीं पर उनके पशु चरा करते हैं. यहीं पर उनके खेल तमाशे होते हैं. यही भूमि पर उनका मुख्य समाज के साथ जुगलबंदी होती हैं.

इसी भूमि से स्थानीय लोगों को जलाने हेतु लकड़ी ,पशु चारा, गोंद ,कोमट के बीच, खेजड़ी की सांगरिया, गूगल, शहद, विभिन्न प्रकार की औषधियां तथा विभिन्न प्रकार के वनस्पति उत्पाद प्राप्त होते हैं. इसलिए इन्हें स्थानीय लोगों के लिए प्राकृतिक संपदा का अक्षय गोदाम कहा जाता है.

औरण एवं गोचर ग्रामीण क्षेत्र में उपयोग में ली जाने वाली खाट बुनने के लिए मूंज, झोपड़ी बनाने के लिए लकड़ियां बाड़े की चारदीवारी तथा खेतों की मेड हेतु कांटों का उपयोग करते हैं. औरणों में पनपने वाला फोग तो ग्रामीण जीवन की धुरी कहा जा सकता है.

वरिष्ठ पत्रकार और "द न्यूज़ स्ट्रीट" की सम्पादक उमा कहती हैं, "ये भूमि तो ग्रामीण क्षेत्रो की आवश्यकताओं का अक्षय भंडार हैं. यही वो भूमि है जहां पर घुमंतू समुदायों के तंबू लगा करते हैं. यहां उनके पशु चरा करते हैं. यहीं पर उनके खेल तमाशे होते हैं. यही भूमि पर उनका मुख्य समाज के साथ जुगलबंदी होती हैं.

उमा आगे बताती हैं, "इसी भूमि से स्थानीय लोगों को जलाने हेतु लकड़ी, पशु चारा, गोंद, कोमट के बीच, खेजड़ी की सांगरिया, गूगल, शहद, अनेक प्रकार की औषधियां तथा विभिन्न प्रकार के वनस्पति उत्पाद प्राप्त होते हैं. इसलिए इन्हें स्थानीय लोगों के लिए प्राकृतिक संपदा का अक्षय गोदाम कहा जाता है."

'उमा' औरण एवं गोचर भूमि को रेगिस्तान की लाइफ लाइन मानती हैं वो कहती हैं, "ग्रामीण क्षेत्र में उपयोग में ली जाने वाली खाट बुनने के लिए मूंज, झोपड़ी बनाने के लिए लकड़ियां बाड़े की चारदीवारी तथा खेतों की मेड हेतु कांटों का उपयोग करते हैं. औरणों में पनपने वाला फोग तो ग्रामीण जीवन की धुरी है. औरण में खड़े देसी बबूल एवं विदेशी बबूल की झाड़ियां, जलाऊ लकड़ी से लेकर इमारती लकड़ी एवं पशु चारा तक उपलब्ध कराते हैं. गहरी जड़ों वाली बुई नामक झाड़ी ग्रामीण क्षेत्रों में झाड़ू की आवश्यकता पूरी करती है."

लेकिन गोचर और औरण भूमि पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं. रेगिस्तान में गोचर व औरण भूमि पर निरन्तर कब्जे हो रहे हैं. साथ ही सरकारें इस भूमि को अन्य गतिविधियों में उपयोग कर रही हैं. लॉक डाउन खुलने के बाद जैसमलमेर के देवीकोट के पास 610 वर्ष पुराने देगराय माता मंदिर के अंतर्गत आने वाली औरण भूमि को सोलर एवं विंड मिल कम्पनियों को आवंटित कर दिया तथा उस भूमि पर भू माफियाओं ने अवैध कब्जे भी कर लिए हैं. इसको लेकर पिछले काफी समय से लोगों ने प्रदर्शन भी किया.

मामला केवल जैसलमेर तक सीमित नहीं हैं बल्कि अन्य जिलों में भी गोचर भूमि पर अन्य गतिविधियां सुरु हो गई हैं. इन भूमियों पर सदियों से रहते आ रहे पशुचारकों व घुमन्तू समुदायों को भी वहां से हटाया जा रहा है. यदि यही ट्रेंड चला तो पशुचारक जीवन शैली जो पहले से अपने अंतिम चरण में है इस तरहाँ के निर्णयों से वो पूरी तराह से बर्बाद हो जाएगी. जिसका खामियाजा किसानों को व पशुपालकों को भुगतना पड़ेगा.

सामाजिकता और जुगलबन्दी पर संकट

राजस्थान व गुजरात के पशुचारक अपने पशुओं को आये दिन नहीं बेचते उनके अपने पशुओं को बेचने का स्थान उनके वार्षिक पशु मेले हैं. जहां वे अपने साल भर की जमा पूंजी को लेकर पहुंचते हैं. जैसे नवम्बर माह में पुष्कर का विश्व प्रसिद्ध पशु मेला, नागौर का पशु मेला, फरवरी माह का मरु महोत्सव तथा होली के समय लगने वाला बाड़मेर का चैत्री मेला.

ये मेले महज व्यापारिक मेले नहीं हैं. बल्कि इन मेलों से इन समुदायों की परम्परा उनकी सामाजिक सांस्क्रतिक गतिविधियां तय होती हैं. यहाँ वे अपने सम्पूर्ण कुटुम्ब से मिलते हैं. अपने दुख सुख साझा करते हैं. अपनी जीवन मे आने वाली कठिनाईयों को एक दूसरे को बताते हैं. उनका हल निकालने का प्रयास करते हैं. इन्हीं मेलों के जरिये वे अपने पशुओं के अपने सदियों से सीखे हुए ज्ञान को साझा करते थे. यही मेले उनके साल भर की यात्रा के शुरुवाती बिंदु हैं. ये मेले इन समुदायों की सहज अभिव्यक्ति थे.

इन मेलों को यहां के राजे रजवाड़ों का संरक्षण प्राप्त था. पिछले कुछ वर्षों में इन मेलों को उनकी परम्परा को समाप्त किया जा रहा है. अब ये मेले अधिकारियों के गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रेकॉर्ड में नाम दर्ज करवाने के औजार बन गए हैं. पुष्कर मेले को एक इवेंट कंपनी को दे दिया गया. उस कंपनी के साथ वहां के प्रशासन ने सांठ-गांठ करके मेले की परम्परा को बदल दिया गया.

मेले ग्राउंड को कंक्रीट का बना दिया गया. मिट्टी के धोरों की बाड़ाबंदी कर दी गई. पशुचार कों को मजबूरी में पक्की फर्श पर अपने ऊंटों, भेड़ बकरियों को बिठाना पड़ा. वहां उनको अपने पशुओं को चराने के लिए कुछ नहीं मिला. मेले में पशुओं के अधिकांश इवेंट समाप्त कर दिए गए.

यही हालत जैसमलमेर के मरु महोत्सव की हुई .वहां के कलेक्टर ने भी गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में अपना नाम दर्ज करवाने के चक्कर मे मेले की पूरी परम्परा को बदल दिया गया. कलेक्टर का पूरा ध्यान नाम लूटने के इवेंट पर था न कि यहां आने वाले पशुचारकों व पशुओं की समस्यओं पर.

ये पशुचारक जो इन मेलों से अपनी अन्य राज्यों की यात्रा की शुरुआत करते हैं. इनके टोलें हरियाणा-पंजाब तक जाते हैं. कुछ टोले मध्यप्रदेश होते हुए उत्तरप्रदेश और बिहार तक जाते हैं. कुछ टोले मध्यप्रदेश से छत्तीसगढ़ की और जाते हैं. ये सभी टोले सितंबर महीने तक वापस लौटते हैं.

साठा का अर्थ होता है पशुओं की अदला-बदली. ग्रामीण क्षेत्र में पशुपालक अपने पशुओं को सालभर दुहते हैं. उनसे खेती का काम लेते हैं. जब वे कमजोर हो जाते हैं तो उन पशुओं को वे इन पशुचार कों केरेवड़ में दे देते हैं. उनको कुछ अनाज दे देते हैं और बदले में हृष्टपुष्ट पशु ले लेते हैं. ये पशु चारे के लिए सालभर घुमते हैं उसे खुला चराते हैं तो वो एक साल में फिर वैसा ही हो जाता है. किंतु इस वर्ष ये सब नहीं हो पाया. लॉकडाउन से सभी पशु चारक बीच में फंस गए. वे अपने अंतिम बिंदु तो दूर आधे रास्ते भी नहीं जा सके.उनको वापस भेज दिया गया.

यहां वे अपने पशुओं को क्या चरायें? यहां न पानी है और न ही चारा. इसकी वजह से पशुचारकों ने अपने ऊंटों को गाय- बैलों यहां तककि अपनी भैंसों और भेड़ बकरियों को खुला छोड़ रहे हैं या फिर औने पौने दाम पर बेच रहे हैं. एक ऊंट को 500 रु में भी कोई लेने वाला नहीं हैं. जब इस कोरोना संकट के मामले में पशुपालन विभाग के निदेशक वीरेंद्र सिंह से बात की गई तो वे कहते हैं कि हमारे लिए इन पशु चारकों व उनके पशुओं के लिए कोई नीतिया कार्यक्रम नहीं हैं.

रेगिस्तान में कितने ही राजे- रजवाड़ों आये, बसे और यहां राज किया और चले गए. किसी ने भी रेगिस्तान को बदलने की कोशिश नहीं की. उन्होंने कभी भी रेगिस्तान के कायदे के साथ छेड़छाड़ नहीं किया. भले ही वे कितने भी सामंती या तानाशाह रहे हों .किन्तु रेगिस्तान की शर्तों पर जीवन जिया. यदि किसी ने ऐसा किया तो रेगिस्तान ने उसकी अस्मिता को मिटा दिया. हमें देखना है कि हम अपने इतिहास से कुछ सबक लेते हैं या हमारी आने वाली पीढ़ियों को शर्मिंदा होने का कोई अवसर छोड़ेंगे.

(अश्वनी शर्मा - स्कॉलर एवं एक्टिविस्ट. घुमन्तू समुदायों के लिए काम करने वाली संस्था नई दिशाएं के संयोजक हैं.

शेखर पाठक- पर्यावरणीय इतिहासकार, पद्मश्री, कई चर्चित पुस्तकों के लेखक. पहाड़ संस्था के संस्थापक. आईआईएएस, शिमला और नेहरू संग्रहालय एवं लाइब्रेरी के सीनियर फेलो रहे.)