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2019 में जीवाश्म ईंधन के लिए दी गई 36 लाख करोड़ रुपए की सब्सिडी
वैश्विक स्तर पर 2019 में जीवाश्म ईंधन (फॉसिल फ्यूल) के लिए करीब 36,10,934 करोड़ रुपए (47,800 करोड़ डॉलर) की सब्सिडी दी गई. यह जानकारी ओईसीडी और आईईए द्वारा किये गए विश्लेषण में सामने आई है. इसमें उन्होंने 77 देशों के आंकड़ों का विश्लेषण किया है. ध्यान देने वाली बात है कि जब सारी दुनिया जलवायु संकट से त्रस्त है उसके बावजूद कई देश फॉसिल फ्यूल के लिए भारी भरकम रकम सब्सिडी के रूप में दे रहे हैं.
यह सब्सिडी फॉसिल फ्यूल के उत्पादन और उपयोग के लिए दी गई थी. हालांकि 2018 की तुलना में देखें तो सब्सिडी में करीब 18 फीसदी की गिरावट आई है. इससे पहले 2018 में फॉसिल फ्यूल के लिए 43,96,576.4 करोड़ रुपए (58,200 करोड़ डॉलर) की सब्सिडी दी गई थी. विश्लेषण में सब्सिडी में कमी आने के लिए तेल की कीमतों में आई भारी गिरावट को वजह माना है
2018 की तुलना में देखें तो जीवाश्म ईंधन की खपत के लिए दी जा रही सब्सिडी में करीब 27 फीसदी की गिरावट आई है, जो करीब 9,06,511 करोड़ रुपए (12,000 करोड़ डॉलर) के बराबर है. विशेष रूप से ईरान, सऊदी अरब, चीन, रूस, इंडोनेशिया, मिस्र, भारत और वेनेजुएला आदि देश तेल और गैस के उपयोग को सब्सिडी दे रहे हैं.
2019 के लिए जारी आंकड़ों के अनुसार फॉसिल फ्यूल उत्पादन के लिए दी जा रही सब्सिडी में करीब 38 फीसदी की वृद्धि हुई है. यह वृद्धि 44 विकसित और विकासशील देशों द्वारा उत्पादन के लिए दी जा रही सब्सिडी का परिणाम है. यदि फॉसिल फ्यूल उत्पादन को देखें तो कोयले के उपयोग और थर्मल पावर प्लांट को दी जा रही सब्सिडी में कमी आई है, जबकि अन्य फॉसिल फ्यूल्स जैसे तेल और प्राकृतिक गैस के लिए दी जा रही सब्सिडी बढ़ रही है.
ज्यादातर सब्सिडी उसके बुनियादी ढांचे के विकास, कॉरपोरेट ऋण को खत्म करने के लिए बजट में दिया जा रहे समर्थन और उत्पादन के लिए टैक्स में दी जा रही छूट के रूप में दी जा रही है. ओईसीडी के महासचिव एंजेल गुरिया ने फॉसिल फ्यूल के लिए दी जा रही सब्सिडी पर दुःख जताया है. उनके अनुसार फॉसिल फ्यूल के उत्पादन को दी जा रही सब्सिडी में 2020 में भी वृद्धि होने का अंदेशा है. कुछ देश फॉसिल फ्यूल और उससे जुड़े उद्योगों को अभी भी सहायता दे रहे हैं.
गुरिया के अनुसार जीवाश्म ईंधन के लिए दी जा रही सब्सिडी सार्वजनिक धन का दुरूपयोग है,जो न केवल ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को बढ़ा रहा है. साथ ही हमारे वातावरण को भी दूषित कर रहा है. आज हमारी प्राथमिकता कोविड-19 के संकट से उबरने की होने चाहिए. हमें सब्सिडी का उपयोग लोगों की भलाई और पर्यावरण के फायदे लिए किया जाना चाहिए. जिससे अधिकतम लाभ प्राप्त हो सके.
विश्लेषण के अनुसार हमारी प्राथमिकता फॉसिल फ्यूल (कोयला, तेल और गैस) को समर्थन करने की जगह ऊर्जा के सतत साधनों जैसे सोलर, विंड आदि के विकास की होनी चाहिए. आईईए द्वारा लगाए गए अनुमान के अनुसार 2020 में खपत के लिए दी जा रही सब्सिडी घटकर 13,59,766 करोड़ रुपए (18000 करोड़ डॉलर) की रह जाएगी. जोकि 2007 से अब तक सबसे कम होगी. यह कमी फॉसिल फ्यूल की कीमतों में आ रही गिरावट और कोविड-19 के चलते खपत में आई कमी का परिणाम है.
क्या होगा सब्सिडी का परिणाम
अभी हाल ही में एनओएए द्वारा जारी आंकड़ों से पता चला है कि मई 2020 में वायुमंडलीय कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर 417.1 पीपीएम पर पहुंच गया है. कार्बन डाइऑक्साइड के इस बढ़ते स्तर के लिए फॉसिल फ्यूल के उपयोग से हो रहा उत्सर्जन प्रमुख रूप से जिम्मेदार है. इससे पहले मई 2019 में कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) का स्तर 414.8 भाग प्रति मिलियन रिकॉर्ड किया गया था.
1959 में कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा का वार्षिक औसत 315.97 था, जो कि 2018 में 92.55 अंक बढ़कर 408.52 के उच्चतम स्तर पर पहुंच गया था. गौरतलब है कि 2014 में पहली बार वातावरण में मौजूद कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर 400 पीपीएम के पार गया था. यदि औसत देखा जाए तो 1959 से लेकर 2018 तक हर वर्ष वायुमंडल में मौजूद कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा में 1.57 पीपीएम की दर से वृद्धि हो रही है
यदि फॉसिल फ्यूल से हो रहा उत्सर्जन इसी तरह से जारी रहता है तो वैश्विक तापमान में हो रही वृद्धि को कम नहीं किया जा सकेगा. मानव द्वारा किये जा रहे उत्सर्जन के चलते औद्योगिक क्रांति से लेकर अब तक पृथ्वी की सतह का औसत तापमान पहले ही 1 डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है. कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन और नाइट्रस ऑक्साइड जैसी गैसों में हो रही बेतहाशा वृद्धि हमारी आने वाली पीढ़ियों के लिए पृथ्वी को और अधिक खतरनाक बना रही है.
2015 के पेरिस समझौते के अनुसार यह जरुरी है कि तापमान में होने वाली वृद्धि को औद्योगिक क्रांति से पूर्व के स्तर से 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखना है और संभव हो तो 1.5 डिग्री सेल्सियस के लिए प्रयास करना है. पर जिस तरह से फॉसिल फ्यूल को सपोर्ट किया जा रहा है उससे उत्सर्जन के और बढ़ने की आशंका है .इससे पेरिस समझौते के लक्ष्यों को हासिल करना नामुमकिन नहीं तो कठिन जरूर है. इसके परिणामस्वरूप मौसम की चरम घटनाओं जैसे बाढ़, सूखा, तूफान, बेमौसम बारिश और उसमें आ रही अनिमियतता, ओलावृष्टि जैसी आपदाओं में हो रही वृद्धि साफ देखी जा सकती है.
इसका ने केवल इंसानों पर बल्कि अन्य जीव-जंतुओं और पेड़ पौधों पर भी प्रतिकूल असर पड़ रहा है. जिसका परिणाम न केवल हमारे दैनिक जीवन पर पड़ रहा है. बल्कि इसके कारण हमारी कृषि व्यवस्था को भी भारी नुकसान उठाना पड़ रहा है. जिससे खाद्य संकट का खतरा और गहराता जा रहा है. यह सचमुच हमारी लिए बड़ी चिंता का विषय है, यदि हम आज नहीं चेते तो भविष्य में हमारी आने वाली नस्लों को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है. जिस तेजी से हम अपने ग्रह को बर्बादी की और धकेल रहे हैं, उससे मुमकिन है कि हमें जल्द ही अपने लिए नए विकल्प तलाशने पड़ेंगे.
(साभार डाउन टू अर्थ)
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