Newslaundry Hindi
भारत में लॉकडाउन और पत्रकारिता
लॉकडाउन में नागरिकों के दमन की ख़बरें सबसे ज्यादा केन्या व अन्य अफ्रीकी देशों से आई थीं. उस समय ऐसा लगा था कि भारत का हाल बुरा अवश्य है लेकिन उन गरीब देशों की तुलना में हमारे लोकतंत्र की जड़ें गहरी हैं. हमें उम्मीद थी कि हमारी सिविल सोसाइटी, जो कम से कम हमारे शहरों में मजबूत स्थिति में है, उस तरह के दमन की संभावना को धूमल कर देगी.
लेकिन यह सब कुछ बालू की भीत ही था. आधुनिकता और नागरिक अधिकार संबंधी हमारे नारे सिर्फ ऊपरी लबादे थे.पिछले दिनों विश्व के प्राय: सभी प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों ने रेखांकित किया है कि लॉकडाउन के दौरान भारत, नागरिक अधिकारों के अपमान में दुनिया में अव्वल रहा. दुनिया भौचक होकर भारत की हालत देख रही है. एक पर्दा था, जाे हट गया है. तूफ़ानी हवा के एक झोंके ने हमें नंगा कर दिया है.
न्यूयार्क टाइम्स ने अपनी 15 फरवरी, 2020 की रिपोर्ट में चीन के लॉकडाउन को माओ-स्टाइल का सामाजिक नियंत्रण बताते हुए, दुनिया का सबसे कड़ा और व्यापक लॉकडाउन बताया था.
लेकिन भारत में लॉकडाउन के बाद समाचार-माध्यमों ने भी नोटिस किया कि “चीन और इटली नहीं, भारत का कोरोना वायरस लॉकडाउन दुनिया में सबसे कठोर है. भारत की संघीय सरकार ने पूरे देश के लिए समान नीति बनाई. जबकि चीन में लॉकडाउन के अलग-अलग स्तर थे. भारत के विपरीत, बीजिंग में, बसें चल रहीं थीं..लॉकडाउन के एक सप्ताह बाद ही यात्री और ड्राइवर के बीच एक प्लास्टिक शीट लगाकर टैक्सी चलाने की इजाजात दे दी गई थी. केवल कुछ प्रांतों से घरेलू उड़ानों और ट्रेनों की आवाजाही को रोक दिया गया था, सभी नहीं.”
जबकि भारत में हमने देखा, न सिर्फ पूरे देश का आवगमन रोक दिया गया, बल्कि जरूरी काम से घर से बाहर निकलने वालों की भी पुलिस ने इतनी पिटाई की कि कई जगहों से कथित लॉकडाउन के उल्लंघन पर पुलिस की पिटाई से होने वाली मौतों की भी खबरें आईं. बिहार में पुलिस ने लॉकडाउन तोड़ने की सजा स्वरूप दो युवकों की गोली मार कर हत्या कर दी.
तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव ने देश-व्यापी लॉकडाउन शुरू होने से पहले ही अपने राज्यवासियों को चेतावनी दी कि लॉकडाउन तोड़ने वालों को देखते ही गोली मारने का आदेश जारी किया जा सकता है तथा आवश्यकता पड़ी तो राज्य में सेना को भी तैनात किया जाएगा.
लॉकडाउन की घोषणा होते ही दिल्ली से सटे लोनी से भारतीय जनता पार्टी के विधायक नंदकिशोर गुर्जर ने एक वीडियो जारी कर कहा कि “लोनी में बिना पुलिस को बताए और अनुमति लिए अगर कोई बाहर निकले तो पुलिस ऐसे देशद्रोहियों की टांग तोड़ दे. अगर तब भी न मानें तो उनके टांग में गोली मार दी जाए क्योंकि ये लोग भी किसी आतंकवादी से कम नहीं हैं... ये लोग देशद्रोही हैं.” ये घटनाएं और बयान सिर्फ बानगी हैं. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन जैसे कुछ अपवादों को छोड़ दें तो अधिकांश प्रशासकों के रवैए में महामारी से लड़ने की संवेदनशीलता की बजाय हिंसक क्रूरता झलक रही थी.
जैसा कि बाद में वैश्विक अर्थ-शास्त्र और राजनीति पर लिखने वाले भारतीय निवेशक व फंड मैनेजर रूचिर शर्मा ने भी न्यूर्याक टाइम्स के अपने लेख में चिह्नित किया कि भारत के अमीरों ने लॉकडाउन को अपनी इच्छाओं के अनुरूप पाया, लेकिन गरीबों के लिए इसकी एक अलग ही दर्दनाक कहानी थी. नरेंद्र मोदी को उनकी निरंकुश और हिंदुत्व केंद्रित कार्यशैली को लगातार कोसते रहने वाला भारत का कथित उदारवादी, अभिजात तबके ने संपूर्ण तालाबंदी के पक्ष में नरेन्द्र मोदी द्वारा घोषित लॉकडाउन पीछे लामबंद होने में तनिक भी समय नहीं गंवाया
काम की तलाश में अपने गृह-क्षेत्रों से दूर गए मजदूरों ने जो अकथनीय पीड़ा झेली है, उसकी नृशंसता से भारत का सत्ताधारी वर्ग और मीडिया लगभग असंपृक्त बना रहा.
हमारे पास इससे संबंधित कोई व्यवस्थित आँकड़ा नहीं है कि इस सख्त लॉकडाउन के कारण कितने लोग मारे गए. स्वभाविक तौर पर सरकार कभी नहीं चाहेगी कि इससे संबंधित समेकित आँकड़े सामने आएं, जिससे उसकी मूर्खता और हिंसक क्रूरता सामने आए.
बेंगलुरु के स्वतंत्र शोधकर्ताओं - तेजेश जीएन, कनिका शर्मा और अमन ने अपने स्तर पर इस प्रकार के आंकड़े विभिन्न समाचार-पत्रों-वेबपोर्टलों में छपी खबरों के आधार पर जुटाने की कोशिश की है. उनके अनुसार जून के पहले सप्ताह तक 740 लोग भूख से, महानगरों से अपने गांवों की ओर पैदल लौटने के दौरान थकान या बीमारी से, दुर्घटनाओं से, अस्पतालों में देखभाल की कमी या अस्पताल द्वारा इलाज से इंकार कर देने से, पुलिस की क्रूरता से और शराब के अचानक विदड्राल – के कारण मारे जा चुके हैं.
हालांकि वे अपने संसाधनों की सीमाओं, भाषा संबंधी दिक्कतों और स्थानीय संस्करणों के बहुतायत के कारण सभी प्रकाशित खबरों को नहीं जुटा पाए हैं. लेकिन अगर सभी समाचार-माध्यमों में प्रकाशित खबरों के आधार पर आँकड़े जुटा भी लिए जाएं तो क्या वे सच्चाई की सही तस्वीर प्रस्तुत करने में सक्षम होंगे?
लगभग दो दशक तक सक्रिय पत्रकारिता के अपने अनुभव के आधार कह सकता हूं कि - कतई नहीं! लॉकडाउन द्वारा मार डाले गए लोगों की संख्या अखबारों में छपी खबरों की तुलना में कई गुना अधिक है.
इसे एक उदाहरण से समझें. लॉकडाउन में ढील देकर, अपने गांवों से दूर महानगरों में फंस गए कामगारों को घर पहुंचाने के लिए भारत सरकार ने जब एक मई से “श्रमिक ट्रेनें” चलाने की शुरूआत की तो बहुत सारी श्रमिक ट्रेनों और बहुत सारे प्लेटफार्मों से 9 मई से 27 मई के बीच, महज 18 दिन में 80 लोगों की लाशें बरामद हुईं. यह मामला सुप्रीम कोर्ट में भी पहुंचा. कोर्ट में सरकार ने कहा कि इनमें से एक भी श्रमिक भूख, दवा की कमी अथवा बदइंतजामी से नहीं मरा है, बल्कि वे पहले से ही ‘किसी’ बीमारी से पीड़ित थे. सरकार चाहे जो कहे, लेकिन ये बात किसी से छुपी नहीं है कि ये मौतें किन कारणों से हुई हैं.
ट्रेन का सफर, बच्चों को गोद में लेकर गृहस्थी का सामान उठाए हजारों किलोमीटर के पैदल सफर की तुलना में निश्चित ही कम जानलेवा था. इन पैदल चलने वालों में हजारों बूढ़े-बुज़ुर्ग, महिलाएं (जिनमें बहुत सारी गर्भवती महिलाएं भी थीं), बच्चे-बच्चियां, दिव्यांग और बीमार लोग भी थे. न कहीं खाने का ठिकाना, न पानी का, न सोने का.
लेकिन उपरोक्त शोधकर्ताओं द्वारा जुटाई गई अखबारों की कतरनों के अनुसार, पचास से कम लोगों की मौत पैदल चलने के दौरान थकान, से हुई, जबकि लगभग 150 लोग इस दौरान दुर्घटनाओं के शिकार हुए.
ट्रेन में सफर के दौरान महज 18 दिनों में जिस जानलेवा थकान और बदहवासी ने 80 लोगों से उनका जीवन छीन लिया, उसने पिछले ढाई महीने में पैदल चल रहे लाखों में से कितने लोगों की जान ली होगी? जब देश भर की स्वास्थ्य सुविधाएँ कोविड के नाम पर बंद कर दी गईं थीं तो न जाने कितने लोग तमाम बीमारियों और दुर्घटनाओं के कारण बिना इलाज के मर गए होंगे?
इन प्रश्नों का उत्तर पाने के लिए हमें यह देखना होगा कि पत्रकारिता कैसे काम करती है; ट्रेन में हुई मौतों के आंकड़े मीडिया संस्थानों को कैसे मिले? क्या ये आंकड़े मीडिया संस्थानों ने खुद जुटाए? क्या उनके संवाददाताओं ने अलग जगहों से इन लाशों के मिलने की खबरें भेजीं? उत्तर है - नहीं! हमारे अखबारों के पास न तो इतना व्यापक तंत्र है कि वे यह कर सकें, और न ही वे इसके लिए इच्छुक रहते हैं. हमारे मीडिया संस्थानों का काम राजनीतिक खबरों, राजनेताओं के वक्तव्यों और वाद-विवाद से संबंधित खबरों को जमा करने और प्रेस कांफ्रेंस आदि में कुछ प्रश्न करने तक सीमित हो चुका है.
इसके अतिरिक्त जो कुछ भी प्रसारित होता है, वह सामान्यत: विभिन्न संगठनों द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्तियाें या सरकारी अमले द्वारा उपलब्ध करवाई गई सूचनाओं की प्रस्तुति भर है. वास्तव में कोई भी संवाददाता अब ‘फील्ड’ में नहीं है. समाचार माध्यम में अपने संवाददाताओं के बीच ‘बीटों’ का बंटवारा इस प्रकार करने की परिपाटी है, जिससे कि उनकी मुख्य भूमिका सरकारी विभागों के प्रवक्ता भर की होकर रह जाती है. जिला मुख्यालय और कस्बों से होने वाली पत्रकारिता भी डिस्ट्रिक मैजिस्ट्रेट, पुलिस कप्तान, प्रखंड विकास पदाधिकारी या स्थानीय थानों द्वारा उपलब्ध करवाई गए जूठन से संचालित होती है.
बहरहाल, ट्रेनों में हुई इन मौतों के आंकड़े रेलवे सुरक्षा बल (आरपीएफ) ने जारी किए. आरपीएफ ने मीडिया संस्थानों को बताया कि इन ट्रेनों में 23 मई को 10 मौतें, 24 मई को 9 मौतें, 25 मई को 9 मौतें, 26 मई को 13 मौतें, 27 मई को 8 मौतें हुई. सभी मीडिया संस्थानों में ट्रेनों में हुई मौतों से संबंधित आप यही खबर पाएंगे. यहां तक कि उन सब ख़बरों के वाक्य विन्यास, प्रस्तुति सब एक तरह के हैं.
चूंकि सीआरपीएफ ने 9 मई से 27 मई के बीच हुई मौतों के ही आँकड़े दिए तो सभी मीडिया संस्थानों ने उन्हें ही प्रसारित किया. आरपीएफ ने एक मई से 9 मई के बीच और 27 मई के बाद श्रमिक ट्रेनों में हुई मौतों के आंकड़े नहीं जारी किए हैं. इसलिए मीडिया संस्थानों के पास यह जानने का कोई साधन नहीं है कि इस बीच ट्रेनों में कितने लोगों की मौत हुई.
इसी प्रकार, अगर किसी पैदल सफर कर रहे व्यक्ति की मौत होने पर अगर संबंधित थाना पत्रकारों को सूचित करता है तो उसकी खबर वहां के स्थानीय अखबारों में आ जाती है. अगर थाना पत्रकारों को ये सूचना न दे, तो सामान्यत: वह मौत अखबारों में दर्ज नहीं होती है. लॉकडाउन के दौरान तो इसकी संभावना और भी नगण्य थी क्योंकि पुलिस की पिटाई के भय से छोटे पत्रकार तो सड़क पर निकलने की हिम्मत ही नहीं कर रहे थे. इसलिए, इन मौतों से सम्बंधित जो खबरें मीडिया में आ सकीं, वे चाहें जितनी भी भयावह लगें, लेकिन वास्तविक हालात जितने भयावह थे, उसका वो एक बहुत छोटा हिस्सा थीं.
कोविड-19 से अभी तक 7 हजार लोगों की मौत को आंकड़ों में दर्ज किया गया है. हालांकि ये आंकड़े भी संदेहास्पद ही हैं क्योंकि इंडियन कौंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) की नई गाइड लाइन के अनुसार इनमें निमोनिया, हृदयाघात आदि से हुई मौतों के आंकड़े भी जोड़ दिए जा रहे हैं.
दूसरी ओर, लॉकडाउन से अब तक लाखों लोगों की जान जा चुकी है. भारत में मध्यवर्ग के परिवारों द्वारा बड़ी संख्या में सामूहिक आत्महत्याओं का सिलसिला 8 नवंबर, 2016 को प्रधानमंत्री मोदी द्वारा घोषित नोटबंदी के बाद शुरू हुआ था, जिनमें 2019 तक आते-आते कुछ गिरावट आने के संंकेत मिलने लगे थे. भारत में इन चीजों को अलग से देखने के लिए बहुत कम अध्ययन होते हैं. लेकिन जाति की राजनीति की लाभ-हानि का अध्ययन करने वालों के लिए यह जानना दिलचस्प होगा कि नोटबंदी के बाद सामूहिक आत्महत्या के लिए विवश होने वाले ज्यादातर परिवार निम्न-वैश्य परिवारों (वैश्य समुदाय की दो श्रेणियां हैं, सामान्य वर्ग में आने वाला ‘उच्च वैश्य’ और अन्य पिछडा वर्ग के अंतर्गत आने वाला ‘निम्न-वैश्य’) के थे. स्वयं प्रधानमंत्री मोदी इसी सामाजिक समूह से आते हैं.
वर्ग के आधार पर देखें तो इनमें से ज्यादातर मध्यम व उच्च मध्यमवर्ग के थे, जिनके रोजगार नोटबंदी में चौपट हो गए और कर्ज बढ़ता गया. लॉकडाउन के उपरांत आर्थिक तंगी के कारण मध्यवर्ग के बीच आत्महत्याओं का जो सिलसिला शुरू हुआ है, वह अगले कितने वर्षों तक जारी रहेगा, यह कोई नहीं जानता.
(साभार - जन विकल्प)
Also Read: प्रवासी मजदूर: नए दौर के नए अछूत
Also Read: लॉकडाउन: बदल रहा भारत में पलायन का चरित्र
Also Read
-
TV Newsance 310: Who let the dogs out on primetime news?
-
If your food is policed, housing denied, identity questioned, is it freedom?
-
The swagger’s gone: What the last two decades taught me about India’s fading growth dream
-
Inside Dharali’s disaster zone: The full story of destruction, ‘100 missing’, and official apathy
-
August 15: The day we perform freedom and pack it away