Newslaundry Hindi
श्वेत-अश्वेत' महज प्रचलन या नस्लवाद का वर्चस्व?
अमेरिका में पुलिसिया दमन से मारे गए जॉर्ज फ्लॉएड की मौत के बाद दुनिया भर में नस्लवाद के खिलाफ आंदोलन हो रहे हैं. हर ज़ुबान में बहुत कुछ लिखा जा रहा है. हिन्दी में भी टिप्पणियों और लेखों का अंबार है. पश्चिमी मुल्कों में पिछले कई सालों से चल रहे आंदोलन 'ब्लैक लाइव्स मैटर' को लेकर हिन्दी में कैसे लिखा जाए, यह एक समस्या है. 'ब्लैक' लफ्ज़ ही समस्या है. 'ब्लैक' का शाब्दिक अर्थ तो काला है, पर काला कैसे लिखें! 'काला' तो बुरा माना जाता है!
हिन्दी में अमेरिका के काले लोगों के लिए 'अश्वेत' शब्द प्रचलन में रहा है. यह एक नस्लवादी शब्द है. इस बात को समझकर कई लोगों ने इसकी जगह 'काला' लिखना शुरू किया है.
आज भी अंग्रेज़ी में 'ब्लैक' शब्द का इस्तेमाल होता है. 'ब्लैक लाइव्स मैटर'. अंग्रेज़ी में भी 'ब्लैक' कोई अच्छा लफ्ज़ नहीं था. 'ब्लैक स्पॉट' यानी काला धब्बा बुरा ही माना जाता है. सब कुछ निगल लेने वाले भौतिक पिंड को 'ब्लैक होल' इसीलिए कहा गया था कि वह समझ से परे है, डरावना है. फिर भी काली शक्ल के लोगों के लिए 'ब्लैक' का इस्तेमाल नहीं रुका.
तो हिन्दी में 'काला' कहने में क्या समस्या है? लोग कहेंगे कि 'अश्वेत' शब्द प्रचलन में है, इसमें क्या बुरा है. अंग्रेज़ी में 'ब्लैक पीपुल' कहते हैं तो कोई ज़रूरी नहीं कि हम 'काले लोग' कहें. हमारी ज़ुबान में काला अच्छा नहीं माना जाता है, इसलिए 'अश्वेत' ठीक है. ‘तम' से 'ज्योति' को कौन बेहतर नहीं मानेगा!
हिंदुस्तान जैसे मुल्क में इंसानों में भेदभाव करने वाली नस्ल, जाति, जेंडर, मजहब आदि सभी धारणाओं के पीछे एक गहरा वैचारिक वर्चस्व है. आम तौर पर इसकी गहराई का अंदाज़ा हमें नहीं होता है. एक मिसाल से बात सामने रख सकते हैं. अरुणा राजे की चर्चित फिल्म 'फायरब्रांड' में एक दृश्य है, जिसमें एक मनोरोग का डॉक्टर नायिका सुनंदा को एक जानवर वाला गुड्डा देता है और उसे कहता है कि मान लो यह वह दरिंदा है जिसने तुम्हारा रेप किया था. अब तुम अपना सारा गुस्सा इस पर निकाल दो. सुनंदा धीरे-धीरे गुस्से में आती है, हिंस्र हो उठती है और सालों से अंदर दबी हुई घुटन का बदला कुछ पलों में उस खिलौने जानवर को मार-पीट कर लेती है.
यह फिल्म बहुत ही संवेदनशील सोच के साथ बनाी गई है. पता नहीं देखने वालों में कितनों ने गौर किया होगा कि डॉक्टर आल्मारी में पड़े भालू, चिंपांजी वगैरह तीन-चार गुड्डों में से चुन कर जो गुड्डा सुनंदा को देता है, वह एक काला चिंपांजी है. उसी के पास एक भूरा भालू था. चिंपांजी की तुलना में भालू ज्यादा दरिंदगी दिखला सकता है. कहानी लिखने वाले ने अगर काले चिंपांजी को ही दरिंदा चुना है, तो इसके पीछे एक रंगभेदी सोच है. यह पढ़कर लोग मुझ पर हंसेंगे.
सुनंदा खुद सांवली है, पूरी कहानी में जाति, जेंडर और रिश्तों के बारे में गहरी संवेदना साफ दिखती है, बस एक गुड्डे के प्रसंग से मैं कैसे कह सकता हूं कि इसमें रंगभेद है! दरअसल यह मसला किसी भी गैरबराबरी के संबंध में लागू हो सकता है. जैसे सांप्रदायिकता या जातिवाद सिर्फ तब नहीं होते जब किसी की हत्या होती है. मुसलमान दोस्त को तबलीगी जमात द्वारा कोरोना फैलाने पर मजाक सुनाना भी सांप्रदायिक है. और ऐसे नाज़ुक और हौले किस्म का भेदभाव आम है. इसका कैसा असर पड़ता है, इस पर एक रोचक प्रसंग अमेरिका के प्रसिद्ध कानूनविद प्रो केनेथ बैन्क्रॉफ्ट क्लार्क से जुड़ा है.
1954 में जब अमेरिका में नागरिक अधिकार आंदोलन चल रहे थे, क्लार्क ने तालीम में नस्ल के आधार पर भेदभाव के एक मामले में अदालत में एक रिपोर्ट पेश की, जिसमें यह दिखलाया गया था कि काले बच्चों पर गुड्डों के रंग का क्या असर पड़ता है. काले बच्चों ने काले रंग की गुड़ियों से खेलने से मना किया और वे गोरे गुड्डों को पसंद करते थे, क्योंकि उन्हें बचपन से यह सीख मिल गई थी कि काला होना निकृष्ट होना है. उनकी इंसानियत उनसे छीन ली गई थी.
भाषा में नाज़ुक ढंग से वैचारिक वर्चस्व को लागू करना गैरबराबरी को बनाए रखने का सबसे कारगर तरीका है.
'वह काली है, पर सुंदर है.' 'चमड़े को गोरा बनाने के लिए फेयर ऐंड लवली क्रीम खरीदिए'. हमारे समाज में ऐसी बातें आम हैं. इसलिए इसमें अचरज क्या कि लोग इस बात को नहीं समझ पाते कि 'अश्वेत' एक नस्लवादी शब्द है. लोगों को यह छोटी सी बात लगती है, जैसे जाति, जेंडर और संप्रदाय पर मजाक सुनकर कोई बुरा मान जाए तो यह कइयों को छोटी सी बात लगती है.
दरअसल तमाम किस्म के भेदभाव छोटी लगती बातों से ही शुरू होते हैं, और वक्त के साथ बड़ा रूप अख्तियार कर लेते हैं. क्या हम गोरे लोगों को अकृष्ण या अश्याम कहेंगे? पंजाबी को गैरबंगाली और बंगाली को गैरपंजाबी कहते हैं? तो काले लोगों को गोरों के संदर्भ में क्यों पहचाना जाए? इस बात को समझने में भारी ज़हनी कसरत की ज़रूरत नहीं होनी चाहिए.
अंग्रेज़ी में पिछले कई सालों से अमेरिका के काले लोगों को अफ्रीकन-अमेरिकन (African-American) कहा जाता है. इसके पहले अफ्रो-अमेरिकन (Afro-American) कहा जाता था और उससे भी पहले सिर्फ ब्लैक कहा जाता था. साठ के दशक में ब्लैक इज़ ब्यूटीफुल (Black is beautiful) नामक आंदोलन भी हुआ था. उन्नीसवीं सदी में 'negro' (छोटे 'n' के साथ नीग्रो) के खिलाफ लड़ाई हुई तो ‘Negro' (बड़े ‘N' के साथ) शब्द आया. फिर उसकी जगह ब्लैक - यह लंबी लड़ाई चली.
उन्नीसवीं सदी की शुरूआत तक काले लोगों को अमेरिका में इंसान नहीं माना जाता था. धीरे -धीरे उत्तरी राज्यों में उन्हें कानूनन इंसान का दर्जा मिला. पर दक्षिणी राज्यों में 1862 से 1868 तक चले गृहयुद्ध के बाद ही यह मुमकिन हुआ. कल्पना करें कि गुलामी से छूटे उस वक्त के सबसे बड़े काले नेता फ्रेडरिक डगलस को 12 जुलाई, 1854 में वेस्टर्न रिजर्व कॉलेज में बाकायदा तर्कों के साथ समझाना पड़ा था कि नीग्रो नस्ल के लोग इंसानियत का हिस्सा हैं!
गृहयुद्ध के बाद कानूनन जो बराबरी मिली, धीरे-धीरे नए कानून बनाकर वह छीन ली गई. बीसवीं सदी में मैल्कम एक्स और ब्लैक पैंथर आंदोलन के आक्रामक और मार्टिन लूथर किंग के शांतिपूर्ण आंदोलनों के बाद काले लोगों को मतदान की योग्यता और दीगर नागरिक अधिकार वापस मिले.
मैं पिछले दो दशकों से लगातार इस बात पर कहता रहा हूं, और उम्मीद है कि आप इस पर सोचेंगे. हिन्दी समाज के लिए शर्मनाक बात है कि 'अश्वेत' शब्द आज भी प्रचलन में है. 'अश्वेत' शब्द अफ्रीकी मूल के लोगों का अपमान है. हमें काला या सांवला या अफ्रीकी-अमेरिकन कहना चाहिए. 'सांवला' भी दरअसल 'काला' से बचने की एक कोशिश है, फिर भी 'अश्वेत' से तो बेहतर है. अश्वेत-श्वेत न कहकर काले-गोरे कहने में क्या हर्ज है? अगर आपको लगता है कि यह मामला छोटी सी बात है तो आप अमेरिका में नस्लवाद के खिलाफ काले लोगों की लंबी लड़ाई से अनजान हैं.
यह ज़रूरी है कि शब्दों का इस्तेमाल करते हुए हम गंभीरता से सोचें. हमें लग सकता है कि हम तरक्की-पसंद हैं, बराबरी में यकीन रखते हैं और एक छोटी सी बात को बेमतलब तूल देने की ज़रूरत नहीं है. ऐसा सोचते हुए हम व्यवस्था के पक्ष में खड़े हो जाते हैं और भूल जाते हैं कि गैरबराबरी कैसी भी हो, वह नाइंसाफी है और इंसानियत के खिलाफ है.
पिछली पीढ़ियों में यह समझ कम थी और अक्सर शक्ल से जुड़े शब्दों का इस्तेमाल बुराई को चिन्हित करने के लिए किया जाता था. एक मिसाल अली सरदार जाफरी के लिखे प्रसिद्ध गीत 'कौन आज़ाद हुआ' का है, जिसमें 'काले बाज़ार मे बदशक्ल चुड़ैलों की तरह कीमतें काली दुकानों पर खड़ी रहती हैं' का इस्तेमाल है. हमें सचेत होकर ऐसे लफ्ज़ों से बचना होगा. 'काला धन' जैसी कुछ बातें तुरंत नहीं हटेंगी, पर हो सकता है भविष्य में बेहतर विकल्प निकल आएं. अंग्रेज़ी में यह कोशिश बेहतर है, क्योंकि सारी दुनिया के तरक्कीपसंद लोग इस पर सोचते हैं. हमारे समाज और यहां के बुद्धिजीवी अभी तक सामंती मूल्यों की जकड़ में हैं, इसलिए यहां लोगों में यह एहसास कम है कि हमारी ज़ुबानों में ऐसे बदलाव होने चाहिए.
वक्त के साथ 'नारी' या 'महिला' की जगह 'स्त्री' या 'औरत' का इस्तेमाल बढ़ा है. प्रयोजन को देखते हुए प्रचलित शब्दों को बदला जाना कोई ग़लत बात नहीं है. शायद कभी हम 'सवर्ण' शब्द पर भी सोचें. जो वर्ण में है, वह सवर्ण है- तो क्या दलित वर्ण-व्यवस्था के बाहर रह कर दलित हैं? क्या वे अवर्ण हैं या कुवर्ण हैं? दलित का सही विलोम 'दलक' ही हो सकता है.
भाषा पर नए सिरे से गंभीरता से सोचने की ज़रूरत है. कृत्रिम तत्सम शब्दावली बनाने वाले कौन हैं? क्या वे पूरे समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं या कि वे एक छोटे हिस्से के वर्चस्व को बाकी सब पर लागू कर गैरबराबरी को पुख्ता करते हैं? क्या 'श्वेत' हिन्दी प्रदेश में बोला जाने वाला आम लफ्ज़ है? अगर नहीं तो सामान्य गोरा, चिट्टा, सफेद जैसे शब्दों की जगह ऐसे कृत्रिम शब्द को हमने क्यों स्वीकार किया? एक शब्द उम्दा या घटिया कैसे बन जाता है!
(लेखक हिंदी के वरिष्ठ कवि हैं और हैदराबाद में रहते हैं)
Also Read
-
CEC Gyanesh Kumar’s defence on Bihar’s ‘0’ house numbers not convincing
-
Hafta 550: Opposition’s protest against voter fraud, SC stray dogs order, and Uttarkashi floods
-
TV Newsance 310: Who let the dogs out on primetime news?
-
If your food is policed, housing denied, identity questioned, is it freedom?
-
The swagger’s gone: What the last two decades taught me about India’s fading growth dream