Newslaundry Hindi
भारत: 85 फीसदी किसानों के लिए 41 हजार कृषि बाजारों की जरूरत
“मेरे पास कुल छह बीघा खेत है. अब कि रबी सीजन में समूचे खेत में गेहूं की बुआई की थी, लेकिन सिर्फ 4 कुंतल पैदा हुआ. बारिश और ओला गिरने के कारण इस बार गेहूं की पैदावार नहीं हुई. कुल 9 लोगों का परिवार है तो खाने के लिए रखना पड़ेगा. पिछले बरस (2019) में गेहूं की उपज अच्छी थी. करीब 1500 रुपए प्रति कुंतल के भाव से 8 कुंतल गेहूं मंडी में बेचा था.”
उत्तर प्रदेश के श्रावस्ती जिले में गिलौला ब्लॉक के पचदौरी चक गांव में रहने वाले 55 वर्षीय कामता प्रसाद बड़े भारी मन से यह जवाब देते हैं. वे कहते हैं जब उपज अच्छी होती है तो बाजार के लिए मेरे पास दो विकल्प रहते हैं एक 23 किलोमीटर दूर शहर की मंडी में जाऊं या फिर बिचौलिए को सस्ती कीमत पर बेच दूं. बतौर किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) का लाभ वे आजतक नहीं ले पाए.
कामता प्रसाद के लिए मंडी तक अपना गेहूं पहुंचाना आसान नहीं होता है. वे बताते हैं कि उन्हीं की तरह छोटे किसानों का एक समूह पहले मंडी तक अपना माल पहुंचाने के लिए एकजुट होता है. एक ट्रॉली का जुगाड़ होता है. 20 रुपये प्रति कुंतल बोरे के हिसाब से हर किसान को मंडी तक का किराया देना होता है. इसके बाद दो रुपये पल्लेदार और पांच रुपये तौल के लिए खर्च करना पड़ता है. इस तरह 27 रुपये प्रति कुंतल खर्च करने के बाद वे अपना गेहूं मंडी को सुपुर्द कर देते हैं. 2019 में तय 1925 रुपये की एमएसपी से करीब 450 रुपये कम दाम पर उन्होंने मंडी को गेहूं बेचा था.
इस देश में कामता प्रसाद अकेले ऐसे दुर्भाग्यशाली किसान नहीं है. बल्कि किसानों की आय डबल करने का सुझाव देने वाली दलवई समिति की रिपोर्ट में कहा गया था कि इस देश का 85 फीसदी किसान छोटा और सीमांत किसान है, जो 40 फीसदी बाजार के लायक सरप्लस कृषि उत्पादन करता है लेकिन उसके पास एक भी ऐसा आसानी से उपलब्ध होने वाला बाजार नहीं है जो उसके उत्पाद की उचित कीमत देता हो.
इन्हीं छोटे और सीमांत किसानों के जरिए देश के भीतर साल-दर-साल अनाज उत्पादन में बढ़ोत्तरी जारी है. देश में 1960-61 में जहां 8.3 करोड़ टन अनाज उत्पादन हुआ था वहीं, 2019-20 में रिकॉर्ड अनाज उत्पादन 29.19 करोड़ टन ( सरकार का दूसरा एडवांस अनुमान) है.
केंद्रीय कृषि मंत्रालय आंकड़ों के मुताबिक वित्त वर्ष 2019-20 का अनाज उत्पादन बीते पांच वर्षों (2013-2017) के औसत अनाज उत्पादन से 2.6 करोड़ टन अधिक है. वहीं, देश में 2018-19 में कुल 28.52 करोड़ और 2017-18 में 27.56 करोड़ टन अनाज उत्पादन हुआ था. लेकिन इतने उत्पादन में से सरकार 20 से 30 फीसदी के बीच ही गेहूं और चावल की सरकारी खरीद कर पाती है, जिसका अधिकतम लाभ बड़े और मझोले किसान उठाते हैं.
छोटे और सीमांत किसान अब भी बाजार के लिए अनपूछे हैं. 1970 में गठित राष्ट्रीय कृषि आयोग ने अपनी सिफारिश में कहा था कि वर्ष 2000 तक करीब 30 हजार (थोक-खुदरा) संयुक्त बाजार किसानों के लिए होना चाहिए. साथ ही यह बाजार गांवों के नजदीक 5 किलोमीटर की परिधि में बनाए जाने चाहिए. इसी तरह की समान सिफारिश 2004 के राष्ट्रीय किसान आयोग की सिफारिश में भी की गई थी. वहीं, अब 17वीं लोकसभा में केंद्रीय कृषि मंत्रालय की स्थायी समिति ने अपनी हालिया “कृषि बाजार की भूमिका और साप्ताहिक ग्रामीण हाट” की सिफारिश व कार्रवाई वाली रिपोर्ट में कहा है कि राष्ट्रीय किसान आयोग कि सिफारिश के मुताबिक भारत में पांच किलोमीटर की परिधि या 80 वर्ग किलोमीटर दायरे के बजाए अभी औसत 469 किलोमीटर दायरे में एक कृषि बाजार है. करीब 41 हजार संयुक्त कृषि बाजार ही राष्ट्रीय आयोग के मानक (पांच किमी परिधि पर एक बाजार) को पूरा कर सकते हैं. यानी 41 हजार संयुक्त कृषि बाजार किसानों को उनके उत्पादन का सही मूल्य दिलवा सकते हैं. बहरहाल केंद्र सरकार तमाम योजनाएं और बजट के ऐलान को भले ही सुधार की श्रेणी में गिनवाती हो लेकिन किसानों की मदद वाले ऐसे बाजार सिर्फ सिफारिशों में ही बने हुए हैं. किसानों तक बाजार आज भी दूर है.
केंद्रीय कृषि मंत्रालय की स्थायी समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि देश में भले ही किसान खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित कर रहे हों लेकिन वे अपने उत्पाद का उचित दाम पाने से वंचित हैं. समिति ने गौर किया कि चावल और गेहूं की सरकारी खरीद केंद्र (एफसीआई) और राज्यों की एजेंसियों के जरिए की जाती है. जो एक बड़ा प्लेटफॉर्म है जहां किसानों से उनका उत्पाद खरीदा जाता है. हालांकि समिति ने पाया कि 2002-03 से 2017-18 तक सरकार 134.0 करोड़ टन गेहूं उत्पादन का सिर्फ 35.82 करोड़ टन (26.77 फीसदी) गेहूं ही खरीद पाई जबकि 155.7 करोड़ टन उत्पादन में से सिर्फ 48.76 करोड़ टन चावल (31.30 फीसदी) की खरीद कर पाई. वहीं छोटे किसान बाजार की दूरी, भुगतान में देरी, सरकारी खरीद सेवाओं तक पहुंच का न होना, अधिकारियों की मनमानी के कारण अपनी फसल का उचित मूल्य पाने से वंचित रहे.
वहीं किसानों की आय दोगुना करने का सुझाव देने वाली दलवई समिति की रिपोर्ट में भी यह कहा है कि गेहूं और चावल की खरीद या मार्केट इन्वेंशन स्कीम ज्यादातर बड़े किसानों को ही लाभ पहुंचाती है. ऐसी योजनाएं छोटे और सीमांत किसानों को नजरअंदाज कर देते हैं. ऐसे में प्रभावी बाजार व्यवस्था के लिए यह मुकम्मल उपाय नहीं हो सकते हैं.
भारत में कृषि उत्पादों की बिक्री के लिए कुल 8900 विनिमयित बाजार हैं. वहीं प्रत्येक गांव में औसतन 12 किलोमीटर की परिधि में बाजार हैं. 1970-2011 के बीच खेतिहर परिवारों और उनके उत्पादन में काफी बढ़ोत्तरी हुई है. मिसाल के तौर पर 1970 में देश में 19 राज्यों और 356 जिलों में 7 करोड़ भूमि वाले परिवार थे. 2011 में 30 राज्यों के 700 जिलों में 12 करोड़ खेतिहर परिवार हैं जो अरबों टन का उत्पादन करते हैं. 1970 के मुकाबले भारत के पास ज्यादा अच्छी सड़कें और गांव व शहरों का जुड़ाव अच्छा है लेकिन अत्यधिक उत्पादन को संभालने वाले बाजार नहीं हैं. जिससे यह खतरा हमेशा रहता है कि किसानों को उनके उत्पादन की क्या कीमत मिलेगी.
दलवई समिति की रिपोर्ट के मुताबिक देश को 30 हजार थोक और ग्रामीण खुदरा संयुक्त बाजार ही किसानों को उनकी आय दोगुना करने में मददगार हो सकते हैं. देश को 10,130 थोकबिक्री बाजारों की जरूरत है. अतिरिक्त 3568 थोक बाजारों के साथ ही यदि 6,676 मुख्य मार्केट यार्ड (पीएमवाई) को मजबूत किया जाए और मौजूदा सब मार्केट यार्ड को स्वायत्त थोक बाजार बना दिया जाए तो इससे बाजार संकट का हल निकल सकता है. इस अनुमान में साताहिक और अलग-अलग अवधि पर लगने वाले स्थानीय बाजार या हाट शामिल हैं.
सरकार का कहना है कि मॉडल एग्रीकल्चरल प्रोड्यूस मार्केट कमेटी एक्ट, 2003 (एपीएमसी एक्ट, 2003) को 22 राज्यों और संघ शासि प्रदेशों में संशोधित किया गया है. महाराष्ट्र, कर्नाटक, गुजरात, राजस्थान और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में वैकल्पिक बाजार चैनल्स भी विकसित किए हैं इनमें प्राइवेट मार्केट, प्रत्यक्ष बाजार, किसान-ग्राहक बाजार शामिल हैं. हालांकि मध्य प्रदेश में फार्मर्स प्रोड्यूसर ऑर्गेनाइजेशन (एफपीओ) का संगठन चलाने वाले ही मध्य भारत कंसोर्टियम प्राइवेट लिमिटेड के योगेश द्विवेदी कहते हैं कि किसानों को उचित कीमत दिलाने के लिए बनाए गए वैकल्पिक चैनलों जैसे एफपीओ आदि को अब भी फंड व्यवस्था की एक बड़ी लड़ाई लड़नी पड़ती है. कई बार कर्ज का बड़ा ब्याज भी एफपीओ को भरना पड़ता है. ऐसे में बिना सपोर्ट यह व्यवस्था अभी बहुत ज्यादा कारगर नहीं हो पाई है.
सरकार का कहना है कि एपीएलएम एक्ट 2017 इस बात की पूरी स्वतंत्रता देता है कि किसान और पशुपालक अपनी पैदावार या उत्पादन को सीधा खरीदार को बेच सकते हैं. या बाजार के चैनल में शामिल होकर खुद से उसकी कीमत मांग सकते हैं. नाबार्ड के एक वरिष्ठ अधिकारी बातचीत में कहते हैं कि बिना प्रशिक्षण किसान बाजार का बेहतर हिस्सा नहीं बन सकता है. शॉर्टिंग-ग्रेडिंग करना उसे सिखाना पड़ेगा. या फिर किसी एजेंसी को इस काम के लिए किसान को सहयोग देना होगा.
छोटे और सीमांत किसानों को उनके उत्पादन की असली कीमत न मिलने में कई अन्य दुविधाएं भी हैं बहरहाल बेहद अल्प बाजार का उनके लिए उपयोगी न होना एक बड़ा सकट है. ऑर्गेनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक को-ऑपरेशन एंड डेवलपमेंट व इंडियन काउंसल फॉर रिसर्च ऑन इंटरनेशनल इकोनॉमिक रिलेशन (आईसीआरआईईआर) की संयुक्त अध्ययन रिपोर्ट के मुताबिक 2000-01 से 2016-17 के बीच किसानों को उनकी उचित लागत न मिलने के कारण 45 लाख करोड़ रुपये का नुकसान (जीडीपी का करीब 20 फीसदी) हुआ है.
Also Read: मंदी की मार पहुंची किसान के द्वार
Also Read
-
TV Newsance Live: What’s happening with the Gen-Z protest in Nepal?
-
How booth-level officers in Bihar are deleting voters arbitrarily
-
Why wetlands need dry days
-
Let Me Explain: Banu Mushtaq at Mysuru Dasara and controversy around tradition, identity, politics
-
South Central 43: Umar Khalid’s UAPA bail rejection and southern leaders' secularism dilemma