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भारतीय मजदूर संघ: कोई तानाशाह सरकार भी मजदूरों के साथ ऐसा बर्ताव नहीं कर सकती
लॉकडाउन के बाद से ही पूरे देश से मजदूरों के पलायन से जुडी मार्मिक तस्वीरें वायरल हो रही हैं. लॉकडाउन के लगभग दो महीने बाद भी सरकार उन्हें उनके घर पहुंचाने का कोई ठोस इंतजाम नहीं कर पाई है. इस कारण आज भी मजदूर देश की सड़कों पर पैदल या अपने अन्य साधनों से घर लौट रहे हैं. इस पूरे प्रकरण पर देश में मौजूद मजदूर संगठन क्या कर रहे हैं. उनका इस बारे में क्या नजरिया है. इस बारे में न्यूजलॉन्ड्री के रिपोर्टर मोहम्मद ताहिर ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से जुड़े “भारतीय मजदूर संघ” जो खुद को देश का सबसे बड़ा मजदूर संगठन बताता है, के क्षेत्रीय संगठन मंत्री पवन कुमार से बातचीत की. मजदूरों के पलायन और तमाम राज्य सरकारों द्वारा श्रम कानूनों में किए गए बदलावों पर उनकी राय.
लॉकडाउन के बाद मजदूरों का इतने बड़े पैमाने पर पलायन हुआ है, इसके लिए कौन जिम्मेदार है?
इसके लिए वास्तव में दो लोग जिम्मेदार हैं- एक, जिन्होंने इन मजदूरों की मार्च- अप्रैल की सैलरी नहीं दी और अब मई का भी थर्ड वीक आ गया है, इसकी भी नहीं दी. दूसरे, सरकारी एजेंसियों ने भी सैलरी दिलाने में कोई इंटरेस्ट नहीं लिया. तो ये दोनों इसके लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं.
आपको नहीं लगता कि सरकार की भी कहीं न कहीं इसमें विफलता है?
मैंने बताया न, सरकारी एजेंसी जिनकी सैलरी बंटवाने की जिम्मेदारी थी, चाहे वह केंद्र सरकार का लेबर विभाग हो या राज्य का. डीएम और दूसरे ऑफिसर सब इसके लिए जिम्मेदार हैं. आप देखिए! कैसी त्रासदी है, 25 मार्च को लॉकडाउन होता है और 6 अप्रैल को एक रिपोर्ट आती है जो 4 अप्रैल को प्रिंट होती है, जिसमें लिखा है कि एम्प्लॉयर सैलरी नहीं दे सकता. यानि जिसने 25 दिन काम कर लिया उसका भी पैसा नहीं मिलेगा. यानि उस 8-10 दिन में ही सारा सर्वे भी हो गया और ये रिपोर्ट भी बन गई कि सैलरी नहीं दे सकते.
क्या आप मानते हैं कि लॉकडाउन के बाद जब मजदूरों ने घर जाना शुरू किया तो सरकार को इसका सही इंतजाम करना चाहिए था? और सरकार इसमें फेल रही है?
बिल्कुल करना चाहिए था. सरकार हर लेवल पर फेल है. मैंने कहा न, अगर सरकार डंडा चलाकर पैसा दिला देती तो मजदूर कुछ खरीद लेता, कुछ खा लेता, वो जाता ही नहीं. किराएदार ने किराया मांगना शुरू कर दिया, स्कूलों ने फीस मांगनी शुरू कर दी. इस वजह से ये समस्या हुई. फिर मजदूर ने सोचा कि जब मरना ही है तो अपने घर जाकर क्यों न मरूं. इसलिए मजदूर निकलना शुरू हुआ.
मजदूर संघों या आपके ‘भारतीय मजदूर संघ’ ने इस संवेदनशील मसले पर अब तक क्या किया है?
हमने 27 मार्च को प्रधानमंत्री जी, वित्त मंत्रीजी और श्रम मंत्रीजी को पहला पत्र लिखा था. इसमें हमने लिखा कि असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की समस्याओं पर तुरंत ध्यान दीजिए. साथ ही अपने सुझाव भी सरकार को भेजे. सरकार ने उसको नोटिस भी किया, और असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को 1 लाख 70 हजार करोड़ का पैकेज भी दिया. लेकिन नीचे जो स्टेट मशीनरी है, वो न तो सही से राशन बांट पा रही है और न ही उन्हें शेल्टर जैसी सुविधाएं दे पाई.
लेकिन कहीं न कहीं ऊपर से सरकार की भी ढील इस पर आप मानेंगे या नहीं?
मैंने आपसे बिलकुल फर्स्ट सेंटेंस क्या कहा! सरकारी मशीनरी का मतलब पीएम टू सीएम टोटल आ जाता है इसमें. कैबिनेट सेक्रेटरी से लेकर गेट के बाहर खड़ा दरबान सब सरकारी मशीनरी के अंदर ही आता है न. और अगर आप कहना चाहते हो सरकार! हां, यस. सरकार मतलब पोलिटिकल गवर्मेंट. हां, यस. सब जिम्मेदार हैं.
सरकार ने अभी जो 20 लाख करोड़ के पैकेज का ऐलान किया है, इस पर आपकी क्या प्रतिक्रिया है. क्या इससे हालात में कोई सुधार आएगा.
अगर आप टोटल को एनालाइज करेंगे तो मुझे लगता है कि मजदूर के खाते में नगदी में 2-2.5 लाख करोड़ रुपया आया है, बाकि सारा तो कर्जा ही है. चाहे शिशु मुद्रा लोन हो, या रेहड़ी वाले को 10,000 रुपए ये तो कर्ज ही देंगे. और इस 2-2.5 लाख करोड़ को भी कब तक देंगे, वित्तमंत्री ने ये भी स्पष्ट नहीं किया. हालांकि कुछ सेक्टरों के लिए पैसा देकर कुछ अच्छा काम भी किया. लेकिन कोयला की कमर्शियल माइनिंग करेंगे, डिफेन्स को कोर्पोरेटाइज करेंगे और सरकार ने इस सेंटेंस को कई बार जोर देकर कहा कि हम ‘कोर्पोरेटाइज’ कर रहे हैं न कि ‘प्राइवेटाइज.’ मेरे मन में उस समय भी एक सवाल था जो मैंने एक पत्रकार मित्र से कह कर पुछवाया भी, कि 20 साल पहले भी तो आपने इस टेलीफोन का कोर्पोरेटाइजेशन किया था उसका क्या हुआ? आज वो पूरी तरह निजीकरण के रास्ते पर चला गया.
असल में कोर्पोरेटाइजेशन, निजीकरण का ही एक रास्ता है. इन्होंने कहा कि हम स्पेस टेक्नोलॉजी भी खोल देंगे, एयरपोर्ट भी बेच देंगे. भारतीय मजदूर संघ के नाते एक बड़ा सवाल जो हमने खड़ा किया है कि अभी तक कोविड-19 के इस घटनाक्रम में प्राइवेट सेक्टर की भूमिका बिल्कुल नगण्य रही है. आपको कहीं न तो प्राइवेट सेक्टर के अस्पताल न कोई प्राइवेट एजेंसी इस दौर में आगे खड़े दिखाई देंगे. जो भी आगे थे वो या तो सरकारी क्षेत्र या अर्द्धसरकारी क्षेत्र या पब्लिक सेक्टर से थे. मल्टीनेशनल कम्पनियों से एक और सवाल है जिन्होंने पीएम फंड में एक पैसा नही दिया, किसी ने एक पैसा दिया हो तो, ये ऑन रिकार्ड है. तो क्या फायदा है इनका.
तो क्या आप ये कह रहे हैं कि इस पैकेज का कोई खास फायदा नहीं होने वाला है?
बिल्कुल, सिर्फ कर्जे बटेंगे. अभी मजदूर सड़क पर मर रहा है बाद में कर्जे से मरेगा, सिर्फ इतना ही है.
इसी बीच एक तरफ जहां पलायन हुआ वहीं कुछ राज्य सरकारों ने, जिनमें बीजेपी शासित राज्य भी है, श्रम कानूनों में बदलाव कर दिया.
सहमत हूं. 13 राज्यों की सरकारों ने श्रम कानूनों से छेड़छाड़ करने की कोशिश की है. यूपी, एमपी, गुजरात सहित कई राज्यों ने कर भी दिया है. इस पर “भारतीय मजदूर संघ” का ये मानना है कि अगर आप देखेंगे तो आज भी संगठित क्षेत्र के 60% लोग इससे प्रभावित होते थे. अब उनके लिए भी कानून समाप्त कर दिया है.
मेरा सर्वप्रथम इस पर ये कहना है कि दुनिया की कोई डिक्टेटरशिप गवर्मेंट (तानाशाही सरकार) भी इस तरह का व्यवहार नहीं करती जिस तरह का व्यवहार हिंदुस्तान के मजदूरों के साथ इस समय में हुआ है. ये आईएलओ कन्वेंशन 144 का खुला उल्लंघन है, जो देश की संसद ने बनाया है. जिसमें ये कहा गया है कि त्रिपक्षीय वार्ता के माध्यम से मजदूरों की समस्याओं को सुनकर सुलझाया जाएगा. और इन्होंने वार्ता करना तो दूर फॉर्मेलिटी भी नहीं की, न केंद्र ने, न राज्य ने.
रही बात ‘भारतीय मजदूर संघ’ की तो हमने इस कानून के खिलाफ 20 मई को पूरे देश में सरकार के प्रोटोकॉल के तहत (मास्क, सोशल डिस्टेंस आदि) यूनिट लेवल पर 11,000 से ज्यादा जगहों और 600 से ज्यादा जिलों में हर सेक्टर (बैंकिंग,रेलवे, इंश्योरेंस आदि) में विरोध प्रदर्शन किया है.
इस प्रदर्शन में आपने सरकार से क्या मांगे की?
हमारे 4 बड़े मुद्दे थे. एक, प्रवासी मजदूरों के घर जाने और रहने खाने की व्यवस्था की जाए. दूसरा, सैलरी का भुगतान कराया जाए. तीसरा, श्रम कानूनों में जिस भी राज्य सरकार ने छेड़छाड़ की है, उसे वापस लिया जाय. साथ ही इसमें एक कदम आगे बढ़कर राष्ट्रपति महोदय से भी अपील की है कि ये ऑर्डिनेंस अन्त में आपके पास आएंगे, तो आप कृपया इन पर हस्ताक्षर न करें. क्योंकि आप देश के गार्जियन हैं. मजदूरों के गार्जियन के नाते, मजदूरों की सुरक्षा करें. और चौथा मुद्दा, इंडस्ट्री का निजीकरण न किया जाए. कहीं स्थानीय लेवल पर कुछ मुद्दे भी होंगे. लेकिन मुख्य मुद्दे ये चार ही थे, जिस कारण पूरे देश में प्रदर्शन किया था. सारी सेंटर लीडरशिप सड़क पर थी, जिसमें से दिल्ली, बंगाल सहित कई जगह कुछ लोगों की गिरफ्तारी भी हुई है.
अगर आपकी इन मांगों पर सरकार कोई एक्शन नहीं लेती तो फिर आगे आपका क्या प्लान है?
30-31 मई को हम इंटरनेट के माध्यम से बड़ी-बड़ी कन्वेंशनस करेंगे. एक अच्छी बात ये हुई है कि 5 केन्द्रीय और कुछ स्वतंत्र संगठनों ने हमारा समर्थन किया है. वे भी कल हमारे साथ रोड पर थे. और हमें आगे जहां तक भी जाना पड़ेगा, जाएगे. हम तब तक लड़ेंगे, जब तक सरकार इन सब चीजों को ठीक नहीं करती और कानूनों को रोलबैक नहीं करती.
इस दौरान जैसा कि आप कह रहे हैं कि सरकारी मशीनरी फेल रही तो एक सवाल ये भी है कि कहीं न कहीं मजदूर संगठन भी फेल तो नहीं हो गए हैं?
‘भारतीय मजदूर संघ’ की अगर में बात करूं तो हमने शुरू से लगातार सरकार से वार्ताएं की हैं. अभी पीछे 6 तारीख को श्रम मंत्री ने ट्रेड यूनियन के साथ मीटिंग भी की. जिसमें हमने मजबूती के साथ अपने पक्ष रखा. हम प्रोटोकॉल के तहत जो कुछ कर सकते थे, करना चाहिए था, हमने वो सब कुछ किया.
अभी जो इतने बड़े स्तर पर मजदूरों का पलायन हो रहा है. देश के भविष्य के सन्दर्भ में आप इसे कैसे देखते हैं?
भविष्य में, कोरोना के बाद मुझे जो लगता है पहले मजदूर आता था लेकिन अब उद्योगों को मजदूरों के पास जाना पड़ेगा. और अगर वास्तव में आप देखेंगे, थोड़ा अगर मैं आपको पीछे ले जाऊं तो हमारी इंडस्ट्रियल पॉलिसी 3 चीजों को ध्यान में रखती थी. लोगों को रोजगार देना है, क्षेत्रीय असंतुलन दूर करना है और देश का विकास करना है. बाद में कुछ डिस्ट्रिक्ट लेवल की पॉलिसी आई. 1991 में एलपीजी की जो पालिसी सरकार लाई, जहां उद्योगपति चाहे तो उसने इसके बाद नोएडा, गुरुग्राम, मानेसर से बाहर निकलने की जरूरत ही नहीं समझी. आप देखो, हरियाणा का 48% रेवेन्यू गुरुग्राम से आता है. अब जब सारे उद्योग आप एक जगह लगा दोगे तो मजदूर मजबूरन आएगा. उद्योग बाहर निकालिए ना. खाली पूंजीपतियों का ध्यान क्यूं रखते हो कि इसे एयरपोर्ट या कुछ और मिल जाए. दूसरा, देश में बहुत सी इंडस्ट्री ऐसी हैं जो बंद पड़ी है, तो सरकार उनका अधिग्रहण करे और वहां काम चालू कराए क्योंकि बिजली, पानी की सुविधा वहां पहले से ही है. तीसरे जो ये लेबर स्पेशल ट्रेनें जा रहीं हैं तो ये खाली वापस आ रही हैं, जो बड़ा दुखदायी है. जो मजदूर आना चाहे, जो रूटीन में अपने घर पहले गए थे, तो उन्हें लाने में सरकार को क्या कष्ट है? हमारे पास पर्याप्त मात्रा में मजदूरों के समाचार आते हैं कि हम आना चाहते हैं तो उन्हें लाना चाहिए.
एक बड़ी बात हम और कहना चाहते हैं कि जो बड़े उद्योग अभी नहीं खुले हैं उन्हें खोलना चाहिए. ऐसे उद्योग जिसमें 10-5 करोड़ लोग काम करते हैं तो निश्चित रूप से मजदूर काम में भी लग जाएगा और जाना भी नहीं चाहेगा. और देश का पहिया भी घूम जाएगा. जैसे बीड़ी उद्योग में लगभग 3-4 करोड़ लोग काम करते हैं जो घर में बैठ कर बीडी बनाते हैं तो वो घर पर ही रहकर काम कर सकता है.
आप कहना चाह रहे हैं कि ‘वर्क फ्रॉम होम’ जिसमें घर से काम हो सके, इस तरह के उद्योग खुल जाने चाहिए.
वो तो ये करता ही आया है. हालांकि ‘वर्क फ्रॉम होम’ से मुझे आपत्ति है. आप बताओ ये बीड़ी वर्कर, जो ज्यादातर ‘वर्क फ्रॉम होम’ ही करते हैं, इनका मालिक-मजदूर सम्बन्ध है क्या? इनको सोशल सिक्योरिटी है क्या? कल ये ‘वर्क फ्रॉम होम’ के नाम पर सोशल सिक्यूरिटी खत्म करेंगे, फिर मालिक-मजदूर सम्बन्ध खत्म करेंगे तो ग्रेच्युटी और रिटायरमेंट के लाभ से भी वंचित हो जाएंगे. जब तक शरीर में ताकत है तब तक काम करो, फिर निकलो अपने रास्ते. ये भारत के मजदूरों के खिलाफ एक अलग तरह की साजिश है.
लॉकडाउन के दौरान मजदूरों की जो हालत हुई है या जैसी मार्मिक तस्वीरें आई हैं तो क्या आपको लगता है कि सरकार इसे ओर बेहतर तरीके से डील कर सकती थी? आखिर चूक कहां हुई.
बिल्कुल कर सकती थी. हमने सरकार से कहा और आपके माध्यम से भी कह रहे हैं कि एक बार 4-5 दिन के लिए फुल फ़ोर्स से 20-25 हजार ट्रेन चला दो. ये मजदूर घर पहुंच जाएगा, घर तो जा ही रहा है न. आपसे तो फिर भी नहीं रुक पा रहा, चाहे पैदल जाए या रिक्शा से या किसी ओर चीज से. 2-4 दिन में घर पहुंच जाएंगे, कम से कम सड़क पर मार्मिक दृश्य तो नहीं दिखेंगे.
रही बात कोरोना फैलने की तो ये जो पैदल जा रहे हैं, ये नहीं फैलाएंगे क्या? और मेरा आकलन इस पर भी थोड़ा अलग है. बीमारी है पासपोर्ट की और सजा भुगत रहे हैं राशन कार्ड वाले. ये गरीब मजदूर लाए हैं क्या कोरोना?
अन्त में, क्या आप ये मानते हैं कि इस इतने असंवेदनशील मसले पर अभी भी देश की राजनीतिक पार्टियां, राजनीति करने में ही लगी हुई हैं.
(हंसते हुए) आज व्हाट्सएप पर मुझे एक संदेश आया जिसमें एक ऑटो के पीछे लिखा था कि भरोसा रखिए, बढ़ते-बढ़ते कल को मैं भी बस बन जाऊंगा. क्या तमाशा है! गरीब-मजदूर के साथ मजाक करते हैं. देखिए दो बातें हैं, प्रियंका गांधी की 1000 बस की बात थी तो ये राजस्थान और पंजाब सरकार की बसें थीं, न की कांग्रेस पार्टी की. पार्टी और सरकार अलग होती हैं. दूसरे जो कांग्रेस ने लिस्ट दी उसमे आप कह रहे हैं कि इतने गलती से ऑटो के नम्बर आ गए. और पंजाब, राजस्थान का मजदूर भी आज पैदल जा रहा है, क्या ये बसें उन्हें नहीं दी जा सकती थीं. क्या तमाशा है ये, सब मजदूरों की राजनीति करने में लगे हुए हैं. मजदूरों की मदद कोई नहीं कर रहा.
मैं तमाम राजनीतिक पार्टियों पर एक सवाल कर सकता हूं. आप बताइए, हर स्टेट में हर किसी राजनीतिक पार्टी का कितना बड़ा-बड़ा नेटवर्क है. एक-आध को छोड़कर कितने राजनीतिक पार्टी के लोग सड़क पर मजदूरों की मदद करने उतरे हैं. क्यों नहीं सेवा की इन्होंने, वोट तो इन मजदूरों से ले लेते हैं, अब पीछे क्यों हट गए. जितना भी काम किया सामाजिक संगठनों ने किया. हमने भी मजदूर संघ के नाते अपनी ताकत के हिसाब से अपना काम किया. हमारा सबसे यही विनम्र निवेदन है कि इस समय हर कोई चाहे राजनीतिक पार्टी हो या मजदूर संघ, मजदूरों पर राजनीति करने की बजाए इनकी सेवा करें. जिससे ये अपने घर या काम पर सुरक्षित आसानी से पहुंच जाएं.
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