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आपदा में ‘राजनीति’: दो कहानियां, तीन किरदार
नरेंद्र मोदी जी ने कहा, “जब राज्य के अहंकारी मुख्यमंत्री ने उनके द्वारा भेजी गयी सहायता लौटा दी तो उन्हें बुरा लगा था. जब प्रदेश के लोग आपदा से परेशान थे तब इस ‘अहंकारी’ नेता को उनके दुखों और तकलीफ़ों की चिंता नहीं थी.”
भाजपा के वरिष्ठ नेता और संप्रति भारतीय गणराज्य के पशुपालन, डेयरी व मत्स्य पालन मंत्री श्री गिरिराज सिंह ने कहा, “मुख्यमंत्री का यह काम असांस्कृतिक है और सांवैधानिक मर्यादा के खिलाफ है.”
भाजपा प्रवक्ता और संप्रति भारतीय गणराज्य की वित्त मंत्री श्रीमति निर्मला सीतारमण ने कहा, “यह सहायता पीड़ितों के प्रति सहानुभूति और एकजुटता की भावना से दी गयी थी. प्रदेश के मुख्यमंत्री ने क्या केवल आर्थिक मदद ठुकराई है या उसके साथ सहानुभूति की भावना, एकजुटता व आत्मीयता भी लौटाई है.”
प्रधानमंत्री और भाजपा के शीर्षस्थ नेताओं के ये बयान तब के हैं जब 2008 में बिहार में कोसी नदी में भयंकर बाढ़ आयी थी और बिहार की बड़ी आबादी इसकी वजह से दुख और तकलीफ में थी. ऐसे में गुजरात सरकार ने 5 करोड़ रुपये की आर्थिक मदद बिहार सरकार को भेजी थी.
बाद में सन 2010 में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक पटना में आयोजित हो रही थी और अतिउत्साह में बिहार भाजपा के कार्यकर्ताओं ने पटना शहर में बाढ़ सहायता से संबंधित मोदी के पोस्टर लगा दिये थे. इससे बुरी तरह नाराज़ नाराज़ होकर तत्कालीन (निरंतर बने हुए) मुख्यमंत्री नितीश कुमार ने वह मदद लौटा दी थी.
इसे नितीश कुमार की नरेंद्र मोदी के प्रति नापसंदगी के तौर पर देखा गया क्योंकि यह समय था जब नितीश कुमार उनके बरक्स विपक्ष के प्रमुख चेहरा बन रहे थे. हालांकि बिहार की सत्ता में वो भाजपा के ही साथ थे.
बाद में 2017 में बिहार में फिर से कोशी नदी ने तबाही मचाई. बिहार की जनता फिर से उसकी विभीषिका में फंस गयी और फिर गुजरात सरकार को बिहार की जनता के प्रति सहानुभूति उमड़ी, फिर से आपदा में एकजुटता दिखाने का कर्तव्य भाव पैदा हुआ. फिर से पांच करोड़ की आर्थिक मदद पेश की गयी. यह चेक लेकर गुजरात के मंत्री भूपेंद्र सिंह चुडास्मा (जिन्हें गुजरात हाईकोर्ट ने चुनाव में फर्जीवाड़े का दोषी माना) पटना गए और एक छोटे समारोह में नीतीश कुमार ने वह सहायता स्वीकार की.
अब तक कोशी की बाढ़ और गंगा में बहुत पानी बह चुका था. नीतीश कुमार राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) से बाहर होकर कांग्रेस व राजद के साथ भारी बहुमत से जीत कर कुछ समय मुख्यमंत्री रह चुके थे फिर किसी ‘अनिर्वचनीय वजहों’ से राजद से नाता तोड़कर वापिस एनडीए में आ चुके थे.
नीतीश जिन नरेंद्र मोदी को राष्ट्रीय फ़लक पर अपना प्रतिद्वंदी मानते आए थे वो गुरूर अब तक टूट चुका था और अब फिर उन्हीं ‘अनिर्वचनीय कारणों’ कारणों से उन्हीं की मातहती स्वीकार चुके थे.
खैर वक़्त बदलता है. पसंद, नापसंद भी बदलती है.
2017 को बीते 3 साल हो चुके हैं. नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री हैं. नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री हैं. आदित्यनाथ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं. प्रियंका गांधी उत्तर प्रदेश कांग्रेस की प्रभारी हैं.
पचास दिनों से ज़्यादा बीत जाने के बाद देश के मजदूर नागरिक निराश, हताश और लाचार होकर देश के नेशनल हाइवेज़, स्टेट हाइवेज नाप रहे हैं. जोखिम लेकर किसी भी साधन से घर जा रहे हैं. सरकारी तंत्र और वाहन मालिकों के आपसी सुनियोजित गठजोड़ के साथ ट्रकों, डंपरों, हाथरिक्शा, टैंपो आदि किसी भी साधन से मजबूरन हजारों रुपए खर्च करके भी जा रहे हैं.
उत्तर प्रदेश और बिहार की बड़ी आबादी आजीविका के लिए महानगरों में थी जो अब घर लौट रही है. उनकी परेशानियां निरंतर मीडिया में नमूदार हो रही हैं.
इस बार कांग्रेस के दिल में पीड़ा उठी. पहले इन मजदूर नागरिकों को रेल के टिकट खरीदने की पहल की. उस पर जम कर राजनीति हुई. फिर प्रियंका गांधी ने उत्तर प्रदेश से इन्हें लाने के लिए एक हजार बसों की सहायता की पेशकश की. इस पर भी भरपूर राजनीति हुई. दो-ढाई दिन चले इस सनसनीखेज हाई वोल्टेज़ ड्रामे का अंत आखिरकार हुआ.
सभी बसें खाली ही लौटा दी गईं. देश के सबसे वंचित मजदूर नागरिक अपने शरीर को सलीब की तरह लटकाए पहले की तरह राजमार्ग नाप रहे हैं.
योगी आदित्यनाथ ने बिहार के मुख्यमंत्री की तरह यह मदद लौटा दी. जैसे तब नीतीश कुमार का अहम तुष्ट हुआ होगा, वैसे ही आदित्यनाथ के अहंकार की तुष्टि हो चुकी होगी.
जैसे भाजपा को बुरा लगा था. वैसे ही कांग्रेस को बुरा लगा होगा. ज़ाहिर है.
जैसे 2008 में भाजपा ने पीड़ितों के साथ सहानुभूति, एकजुटता का भ्रातृत्व भाव का इज़हार किया होगा ठीक उसी तरह इस बार कांग्रेस ने भी किया होगा.
हालांकि इस बार लेख के शुरू में जिनके बयान उद्धृत दिये गए उनके बयान नहीं आए. अगर आते तो देश की जनता को यकीन करना चाहिए कि ये महानभूतियां वही दोहराते जो उन्होंने तब एक प्रदेश के मुख्यमंत्री के लिए कहे थे.
मसलन यह अहंकार है, अनाचार है, सांवैधानिक मर्यादाओं के खिलाफ है. हो सकता है वो यह नहीं कहते या कुछ ऐसा कहते जिससे अहंकार को सांस्कृतिक आचरण घोषित किया जा सकता था, वो इस कदम को सांवैधानिक मर्यादायों के अनुकूल भी बता सकते थे, या वह सब कहते जो उनके अन्य नेता कह रहे हैं कि इस मदद के बहाने प्रियंका और कांग्रेस राजनीति कर रही हैं. बदली परिस्थितियों में यह कहना ही मानवता, संविधान, सहयोग, सहानुभूति और एकजुटता के अनिवार्य लक्षण घोषित किए जाते. और सबसे बड़ी बात यह राजनीति करने जैसा आपराधिक कृत्य कदापि न होता.
इन दो कहानियों में एक ऐसा चरित्र है जो अलग अलग भूमिकाओं में मौजूद है. वो है भाजपा. जिसका दावा है कि वो ऐसे मामलों में राजनीति नहीं करती. पहली कहानी में वो प्रियंका गांधी की जगह हैं और दूसरी कहानी में वो नितीश कुमार की जगह.
अब जब इस दूसरी कहानी की परतें धीरे-धीरे खुल रही हैं तो यह साबित हो रहा है कि प्रियंका गांधी और कांग्रेस ने इस पूरे मामले में गंभीर राजनीति की है. यहां यह लिख कर ज्ञान बघारने की ज़रूरत नहीं है कि प्रियंका गांधी वाड्रा टेनिस की खिलाड़ी नहीं हैं और कांग्रेस खो-खो की टीम का नाम नहीं है. बेशक प्रियंका गांधी वाड्रा देश के सबसे पुराने राजनैतिक दल की सक्रिय राजनेता है और फिलहाल वो उत्तर प्रदेश में इस दल का काम देख रही हैं. इस राजनैतिक दल को देश कांग्रेस के नाम से जानता है.
ये राजनीति है. विपक्ष में होने की राजनीति. ये राजनीति है देश के परेशान हाल नागरिकों और जनता को उनके घर सुरक्षित पहुंचाने की. ये राजनीति है प्रदेश सरकार को उसके जनता के प्रति अपने कर्तव्य याद दिलाने की. नीचा दिखाने की राजनीति कहना सभ्य नहीं होगा लेकिन शर्मिंदा करने की राजनीति तो यह हो ही सकती है. प्रदेश सरकार पर एक मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने की राजनीति.
हमें नहीं भूलना चाहिए कि कांग्रेस को एक दल के तौर पर उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में तमाम नुकसान के वाबजूद लगभग 7 प्रतिशत वोट मिले हैं और और लोकसभा चुनाव में भी लगभग इतने ही. अभी राजस्थान में उसकी सरकार हाल ही में बनी है और उत्तर प्रदेश में भी चुनाव दूर हैं. ऐसे में यह राजनीति चुनाव प्रेरित तो कतई न थी और अगर होती भी तो लोगों की याददाश्त इतनी हल्की है वो एक कृतिम लहर में धुल जाती है. आखिर सत्तर सालों में कुछ नहीं होने की बात इसी स्मृति लोप के बल पर तो कही जाती रही है.
राजस्थान के उप-मुख्यमंत्री ने आज देश के सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय द्वारा जारी एक आदेश का हवाला देते हुए बताया कि 30 जून, 2020 तक सभी वाहनों की फिटनेस या पंजीयन से संबंधित तमाम औपचारिकताओं से छूट दी गयी है. फिर ऐसे में फिटनेस के नाम पर इतना बड़ा छल मजदूरों के साथ क्यों किया गया.
इस पूरे मामले में जिस सक्रियता के साथ उत्तर प्रदेश सरकार ने इस मदद को ठुकराया उसे दुनिया ने देखा. और शायद पहली कहानी से सबक लेते हुए ही प्रियंका ने यहां तक कहा कि आप इन बसों पर आप अपना झण्डा, अपने पोस्टर लगवा दीजिये, हमें कोई एतराज़ नहीं है. अगर मांगते तो शायद वो यह भी अनुबंध कर लेतीं कि भविष्य में कभी इसका श्रेय नहीं लेंगी.
यह पूरा तमाशा देश ने देखा जिसे ‘सरकारात्मक खबरों की आदी मीडिया’ ने कांग्रेस और प्रियंका गांधी की सस्ती राजनीति करार दे दिया.
एक नागरिक के तौर पर हमें केवल यह दिखलाई पड़ रहा है कि आज की बहुमत वाली सरकारें और बहुमत पा लेने की काबिलियत अर्जित कर चुकी राजनीति में शर्मिंदगी, नैतिक और मनोवैज्ञानिक दवाबों की कोई जगह बची नहीं है. परेशानहाल जनता की सुध लेने के बजाय उभरते हुए प्रतिद्वंद्वियों को किनारे लगाना और अपने अहम की तुष्टि करना ज़्यादा श्रेष्ठ काम मान लिया गया है.
इन दो कहानियों से शायद हमें आज की प्रभुत्वशाली राजनीति का ‘चाल, चरित्र और चेहरा’ समझने में कुछ मदद मिले.
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