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पलायन और मजदूर: ‘मरेंगे तो वहीं जहां उनकी जिंदगी है’
जिधर नज़र उठाइए, लोग चले जा रहे हैं. विभाजन के बाद हिंदुस्तान में हो रहा यह सबसे बड़ा विस्थापन है. सिर पर बैग रखे, कमर पर बच्चों को टिकाए, यही जीवन भर की कमाई है जिसे लेकर ये मजदूर शहरों से अपने गांव लौट रहे हैं. इन पलायन करते मजदूरों पर प्रख्यात कवि, लेखक और गीतकार गुलज़ार साहब ने एक सामयिक कविता लिखी हैं. जिसमें वो कहते हैं मजदूर तो शहर सिर्फ अपना शरीर लेकर आया था, जबकी उसकी आत्मा गांव में ही बसती है.
पलायन करते मजदूरों के महत्व और उनके बिना वीरान होते शहर, खेत-खलिहानों में लगी फसलें और अपनों का प्यार. पढ़े गुलज़ार की कविता-
महामारी लगी थी
घरों को भाग लिए थे सभी मज़दूर, कारीगर.
मशीनें बंद होने लग गई थीं शहर की सारी
उन्हीं से हाथ पाओं चलते रहते थे
वगर्ना ज़िन्दगी तो गाँव ही में बो के आए थे.
वो एकड़ और दो एकड़ ज़मीं, और पांच एकड़
कटाई और बुआई सब वहीं तो थी.
ज्वारी, धान, मक्की, बाजरे सब
वो बँटवारे, चचेरे और ममेरे भाइयों से
फ़साद नाले पे, परनालों पे झगड़े
लठैत अपने, कभी उनके.
वो नानी, दादी और दादू के मुक़दमे
सगाई, शादियाँ, खलियान,
सूखा, बाढ़, हर बार आसमाँ बरसे न बरसे.
मरेंगे तो वहीं जा कर जहां पर ज़िंदगी है
यहाँ तो जिस्म ला कर प्लग लगाए थे !
निकालें प्लग सभी ने,
‘चलो अब घर चलें‘ - और चल दिये सब,
मरेंगे तो वहीं जा कर जहां पर ज़िंदगी है !
- गुलज़ार
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