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दो भवन, एक विरासत और एक कपूर खानदान
कल से मीडिया में ख़बर तैर रही है. ख़बर है कि पाकिस्तान ने ‘कपूर हवेली’ को म्यूजियम बनाने में असमर्थता जताई है. असमर्थता की वजह फंड की कमी बताई गयी है. कहा जा रहा है कि दो साल पहले ऋषि कपूर ने पाकिस्तान सरकार से आग्रह किया था कि ‘कपूर हवेली’ को म्यूजियम बना दिया जाए. पाकिस्तान की ताजा असमर्थता पर हैरानी जाहिर करती इन खबरों का आशय यही है कि पाकिस्तान को ‘कपूर हवेली’ को संरक्षित करने के साथ म्यूजियम बनाने पर ध्यान देना चाहिए. पाकिस्तान की असमर्थता से हम भारतीयों की भावना को ठेस पहुंची है. पाकिस्तान ऐसा कैसे कर सकता है?
हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के पहले खानदान की पैतृक निशानी को बचाने की जिम्मेदारी से पाकिस्तान कैसे मुंह मोड़ सकता है? कपूर खानदान के कलाकार पीढ़ियों से हम सभी के प्रिय रहे हैं. दशकों से हम उनकी फिल्में देखते आ रहे हैं. वे हमारा मनोरंजन करते रहे. वे हमारे जीवन का अटूट हिस्सा बन गए हैं.
आइए ‘कपूर हवेली’ के बारे में जान लें. ‘कपूर हवेली’ पृथ्वीराज कपूर के पिता और राज कपूर के दादा दीवान बशेश्वरनाथ ने 1918 से 1922 के बीच बनवाई थी. वर्तमान पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा सूबे के जिला पेशावर में किस्सा ख्वानी बाज़ार में यह हवेली स्थित है. इसी हवेली में पृथ्वीराज कपूर और राज कपूर का जन्म हुआ था.
हम सभी जानते हैं कि पृथ्वीराज कपूर रंगमंच के साथ फिल्मों में काम करने के उद्देश्य से पहले कोलकाता और बाद में मुंबई में सक्रिय रहे. विभाजन के समय उनका पूरा परिवार अनेक हिंदू परिवारों की तरह भारत आ गया. वैसे बता दें कि उसी गली में दिलीप कुमार के पूर्वज भी रहते थे. वे पाकिस्तान नहीं लौटे. उन्होंने मुंबई को ही अपना ठिकाना बनाया. किस्सा ख्वानी बाजार में दोनों यानी राज कपूर और दिलीप कुमार के पुश्तैनी मकान आज तक संरक्षित हैं. हर साल उनकी तस्वीरें छपती हैं. दिलीप कुमार तो कई दफा पेशावर गए. कुछ सालों पहले रणधीर और ऋषि कपूर भी वहां गए थे.
पाकिस्तान की असमर्थता पर हैरान हो रहे पत्रकारों और पाठकों को जरा यथार्थ से रूबरू करवाया जाय. हमें अपनी गिरेबां में झांकने की आदत डाल लेनी चाहिए. ‘कपूर हवेली’ की चिंता में हमें नहीं भूलना चाहिए कि अपने ही देश में, मुंबई के चेंबूर इलाके में स्थित आरके स्टूडियो कपूर खानदान की लापरवाही और रखरखाव के अभाव में पहले जला और फिर बिक गया. भरतीय सिनेमा की बेशकीमती धरोहर आरके स्टूडियो को संभालने में कपूर परिवार की जगप्रसिद्ध संतानों ने कोई सक्रियता नहीं दिखाई. वह आरके स्टूडियो जो आजादी के बाद के भारतीय सिनेमा की अहम विरासत था, खुद पृथ्वीराज कपूर की यादों का जीत-जागता स्मारक था.
कपूर खानदान ने हिंदी सिनेमा और देश की लोकप्रिय फिल्म संस्कृति की प्रमुख निशानी को बचाने और संभालने की कोशिश तक नहीं की. इस तरफ राज्य और केंद्र की सरकारों ने भी ध्यान नहीं दिया. आम दर्शकों/नागरिकों ने कभी नाराजगी या हैरानी जाहिर नहीं की. सभी ने इसे कपूर परिवार का निजी मामला मान लिया. हमने कपूर परिवार की असमर्थता और सरकारों की बेखयाली पर कभी गौर नहीं किया. सवाल नहीं उठाया.
आप सभी जानते होंगे कि आरके स्टूडियो को गोदरेज प्रॉपर्टीज ने खरीद लिया है और वहां आलीशान लग्जरी अपार्टमेंट बनाकर बेचने का काम शुरू हो गया है. यहां के अपार्टमेंट की कीमत 5.7 करोड़ से शुरू होती है. खरीदारों के लिए यह दर्प की बात है कि वे गोदरेज आरकेएस में रहते हैं. इसके गेट पर आरके स्टूडियो लिखा हुआ है और ऊपर में आरके फिल्म्स का प्रसिद्ध प्रतीक चिन्ह भी है.
राज कपूर के निधन के बाद स्टूडियो की देखभाल की जिम्मेदारी मुख्य रूप से बड़े बेटे रणधीर कपूर ने निभाई. लंबे समय तक स्टूडियो फ्लोर शूटिंग के लिए किराए पर दिए जाते रहे. हर साल गणेसोत्सव मनाया जाता रहा. उस अवसर पर कपूर परिवार वहां एकत्रित होता था. फिल्मों का निर्माण मुंबई के पश्चिमी उपनगर में सिमटने के बाद चेंबूर स्थित आरके स्टूडियो में फिल्मों की शूटिंग बिल्कुल कम हो गई. टीवी के कुछ सीरियल और गेम शो की शूटिंग ही होती थी. वे महीनों के लिए फ्लोर बुक कर लेते थे. स्टूडियो के आधुनिकीकरण के लिए जरूरी निवेश करने से कपूर परिवार कन्नी काटता रहा.
उन्होंने राज कपूर के मशहूर कॉटेज और बाकी भवनों के रखरखाव पर भी ध्यान नहीं दिया. राज कपूर की फिल्मों में इस्तेमाल किए गए परिधान और बाकी सामानों को एक हॉलनुमा कमरे में ठूंस-ठूंस कर रखा गया था. फिल्मों के कॉस्ट्यूम शीशे की अलमारियों में यूं लटके दिखाई पड़ते थे, मानो छोटे शहरों के लॉन्ड्री और ड्राई क्लीनर्स की अलमारियां हों.
कपूर परिवार को कायदे से आरके स्टूडियो को संग्रहालय का रूप दे देना चाहिए था. शुरू में कपूर परिवार के उत्तराधिकारी तो यही कहते रहे कि वे आरके स्टूडियो को जागृत करेंगे और फिल्में बनाएंगे, लेकिन हमने देखा कि इस दिशा में कभी किसी ने प्रयास नहीं किया. राज कपूर के मशहूर पोते-पोतियां (रणबीर कपूर, करीना कपूर और करिश्मा कपूर) हमेशा ऐसी किसी योजना से अनभिज्ञता जाहिर करते रहे.
वर्तमान स्थिति पर गौर करें तो यह सुकून की बात है कि पाकिस्तान में ‘कपूर हवेली’ और दिलीप कुमार की पुश्तैनी संपत्ति अभी तक बची हुई है. ‘कपूर हवेली’ के वर्तमान मालिक ने दबाव में ही सही उसे तोड़ने और गिराने की योजना छोड़ दी है, लेकिन बारिश और मौसम की मार से खंडहर हो रही हवेली की मरम्मत भी नहीं कराना चाहता.
सरकारी योजना थी कि ‘कपूर हवेली’ का बाहरी ढांचा जस का तस रखा जाएगा और अंदरूनी ढांचे में थोड़ी फेरबदल से मूल हवेली को दुरुस्त कर दिया जाएगा. पाकिस्तान ने फिलहाल असमर्थता जाहिर की है. ऐसा कोई संकेत नहीं दिया है कि वह हवेली तोड़ या ढहा दी जाएगी. पकिस्तान असमर्थ है तो भारत सरकार अपनी पहल पर उस ऐतिहासिक ‘कपूर हवेली’ को म्यूजियम बनाने का काम कर सकती है.
हम हवेली के लिए चिंतित हैं कि हवेली बची रहे, लेकिन यहां हिंदुस्तान में स्टूडियो बिक गया. कपूर हवेली 102 साल पुरानी थी तो आरके स्टूडियो भी तो 72 साल पुराना था. कपूर हवेली तो सिर्फ एक परिवार का पुराना पुश्तैनी मकान है, जबकि आरके स्टूडियो हमारी लोकप्रिय संस्कृति की यात्रा का चश्मदीद, एक अमूल्य विरासत थी. यहां अनेक फिल्मों ने आकार लिया था. देश की स्मृति पर छाप छोड़ी. उस स्टूडियो के चप्पे-चप्पे में हिंदी सिनेमा का इतिहास दर्ज था.
वास्तव में हम अपनी विरासत और संपत्ति की हिफाजत पर ध्यान नहीं देते. भारतीय सिनेमा के 107 सालों के इतिहास में मुंबई और दूसरे शहरों में फिल्म निर्माण की गतिविधियां रही हैं. एक-एक कर सारी निशानियां मिट रही हैं. पाकिस्तान का लाहौर विभाजन के पूर्व हिंदी और पंजाबी सिनेमा का गढ़ रहा है. हम हिन्दुस्तानी लाहौर को भूल चुके हैं, क्योंकि वह पाकिस्तान में है. मुंबई में पुराने स्टूडियो टूट गए. वहां बहुमंजिला इमारतें खड़ी हो गई हैं. फिल्म स्टारों ने अपने बंगले स्वयं तोड़कर वहां अपार्टमेंट खड़ा कर दिए. स्टूडियो और बाकी भवनों की जगह रिहाईशी और कमर्शियल इमारतें खड़ी हो रही है. इमारतों में तब्दील हो रहे स्टूडियो के संरक्षण और हिफाजत पर किसी का भी ध्यान नहीं है.
महबूब, फिल्मिस्तान, कमालिस्तान, चांदीवली और फिल्मालय स्टूडियो अभी फंक्शनल हैं. अगर उनके संरक्षण और सिमटते शूटिंग स्पेस पर समय रहते ध्यान नहीं दिया गया तो देर-सवेर वे भी बिक या बदल जाएंगे. ‘कपूर हवेली’ के बहाने देश में मौजूद या नष्ट हो रही फिल्मी इमारतों को बचाने और संरक्षित करने का अभियान चलना चाहिए. जो अपने हाथ में है उसका बाजार कीमत पर सौदा कर लिया जाय और जो दूसरे देश में है उसके लिए हायतौबा मचाई जाय, यह बात गले नहीं उतरती.
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