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उत्तराखंड पलायन: सिर्फ़ हानि नहीं, सुनहरा मौक़ा भी लेकर आया है कोरोना संकट!
पलायन और भूतिया गांवों की लगातार बढ़ती संख्या से जूझते उत्तराखंड के लिए वर्ष 2020 में आया कोरोना संकट एक वरदान के रूप में उभर रहा है. ग्राम्य विकास एवं पलायन आयोग, उत्तराखंड, पौड़ी द्वारा नौ पेज की जारी ‘COVID-19 के प्रकोप के बाद उत्तराखंड के पर्वतीय जनपदों में लौटे Reverse Migrants की सहायता हेतु सिफ़ारिशें’ के अनुसार ये राज्य के लिए सुनहरा अवसर है जब सरकार राज्य में बढ़ते पलायन को रोक सकती है.
पलायन आयोग की सिफारिशों की माने तो कोरोना संकट घोषित होने के बाद से अप्रैल महीने के तीसरे सप्ताह तक राज्य के कुल 59360 प्रवासी मज़दूर जो देश और दुनियां के अलग अलग हिस्सों में रोज़गार के लिए पलायन किए थे वो अपने पैतृक राज्य वापस आ चुके हैं. पूरे हिंदुस्तान में लॉकडाउन घोषित होने से उत्तराखंड के लाखों नागरिक अभी भी राज्य से बाहर फंसे हुए हैं और लॉकडाउन खुलने के इंतज़ार में हैं ताकि वो अपने घर वापस आ सकें.
बाहर से लौटे उत्तराखंड के इन निवासियों में से कई ऐसे हैं जो उन भूतिया गांव से संबंध रखते हैं जहां कल तक सिर्फ़ कुछ पुराने घरों के खंडहर ही दिखाई पड़ते थे. कल तक हिमालय की गोद में शांत बैठे इन गांवों में चिड़ियों की चहचहाती हुई आवाज़ तक को कोई सुनने वाल नहीं था. पर पिछले कुछ दिनो से उन खंडहरों में फिर से कुछ चहचहाटों के साथ-साथ बच्चों की किलकारियां गूंजने लगी है और चूल्हों से धुंए उठने लगे हैं.
पर समस्या ये हैं कि इन चूल्हों पर चढ़े बर्तनों में अनाज कहां से आएगा, पानी कहां से आएगी? कभी मंडवा और बासमती धान के खेतों से लहलहाती धरती दशकों से बंजर पड़ी थी और जंगली जानवरों का घराना. वर्ष 2017 में नवनिर्वाचित उत्तराखंड की सरकार द्वारा पौड़ी शहर में गठित ‘ग्राम्य विकास एवं पलायन आयोग’ ने पिछले वर्ष सितम्बर 2019 में अपना रिपोर्ट जारी किया.
रिपोर्ट की माने तो 2011 में हुए भारतीय जनगणना ने पूरे उत्तराखंड में तक़रीबन 1048 ऐसे गांवों की पहचान की जिसे स्थानीय भाषा में ‘भूतिया गांव’ भी कहा जाता हैं. रिपोर्ट के अनुसार पिछले दस वर्षों में ऐसे भूतिया गांवों की संख्या में तक़रीबन 735 नए गांव जुड़ गए हैं.
इन गांवों को भूतिया इसलिए भी कहा जाता है क्योंकि यहां एक भी व्यक्ति नहीं रहता हैं. जो पहले रहते थे वो अपने बने बनाए घर और खेत छोड़कर दूसरे अलग-अलग शहरों में जाकर बस चुके थे और कभी वापस नहीं आते.
उत्तराखंड में कुल तेरह ज़िले हैं जिनमे से दस ज़िले पर्वतीय हैं. इसका मतलब यह है की ये दस ज़िले न सिर्फ़ पूरी तरह से ऊंचे-ऊंचे पहाड़ों और पर्वतों के बीच बसें हैं बल्कि उन पहाड़ों और पर्वतों की चोटियों के ऊपर भी बसे हुए हैं. इन दस ज़िलों में से भी पौड़ी गढ़वाल, अलमोडा और टिहरी तीन ऐसे ज़िले हैं जहां से पलायन भी सर्वाधिक हुए है और ऐसे तथाकथित ‘भूतिया गांव’ भी सर्वाधिक संख्या में यहीं हैं.
कोरोना संकट घोषित होने के बाद भारी मात्रा में लोगों के वापस अपने स्थानीय गांव आने की सूचना फैलते ही आनन-फ़ानन में इन दस पर्वतीय ज़िलों के अधिकारियों को अलर्ट कर दिया गया. ज़िला प्रशासन को अपने स्थानीय घरों में वापस आ रहे लोगों के बारे में हर तरह की जानकारियां इकट्ठा करने और उनकी मूलभूत ज़रूरतों को हर सम्भव पूरा करने का प्रयास करने के निर्देश जारी किए गए. ख़ासकर ‘भूतिया गांव’ में वापस आ रहे नागरिकों पर विशेष ध्यान देने को कहा गया है.
इन भूतिया गांवों में वर्षों से कोई नहीं रह रहा था तो बिजली और पानी जैसी मूलभूत सुविधाओं का कहीं कोई नामों निशान नहीं है. सड़क, स्कूल और स्वास्थ्य केंद्र आदि की तो आप निकट भविष्य में कल्पना भी नहीं कर सकते हैं. बंजर पड़ी ज़मीन पर खेती की उम्मीद भी कुछ उदासीन ही है. और उसके ऊपर से अगला खेती का मौसम शुरू होने में अभी कम से कम दो महीने बचे हुए हैं.
पर हज़ार परेशानियों, कठिनाइयों और ज़रूरी सुविधाओं के अभाव के बावजूद इस बात की संभावना मज़बूत है कि जब तक ये कोरोना संकट ख़त्म ना हो जाए पलायन से वापस आए लोग वापस शहरों की तरफ़ शायद ही अपना रुख़ दुबारा कर सकें. कई शोधों और विशेषज्ञों के अनुसार यह कोरोना संकट कम से कम एक वर्ष तो चलेगा ही क्योंकि इसी बीमारी के टीके की खोज और उसके बाद सभी लोगों का टीकाकरण करने में कम से कम एक वर्ष का समय लगेगा.
ग्राम्य विकास एवं पलायन आयोग द्वारा जारी सुझाव पत्र में इस बात की तरफ भी इंगित किया गया है कि कोरोना संकट के कारण राज्य में वापस आए लोगों में ज़्यादातर लोग अलग-अलग शहरों में होटेल, रेस्तराँ व निजी क्षेत्र में मज़दूरी या स्वरोज़गार करते थे. ये अर्थव्यवस्था का वहीं क्षेत्र है जिसमें उत्तराखंड में असीम संभावनाएं हैं.
अगर सरकार पलायन से वापस आए इन कुशल और प्रशिक्षित लोगों को ज़रूरी सुविधाएं और ऋण उपलब्ध करवाए तो शायद इनमें से ज़्यादातर लोग पहाड़ों में ही रुककर अपने जीवन यापन का रोज़गार सृजित कर पाएं. हालांकि सुझाव पत्र इस बात पर भी चिंता जता रहा है कि पलायन से वापस आए लोगों में से सिर्फ़ 30% लोग ही लॉकडाउन के ख़त्म होने के बाद भी अपने स्थानीय जगह पर रहना पसंद करेंगे. इन 30% में वो लोग भी हैं जो राज्य के भीतर ही अलग-अलग ज़िलों के शहरों में अपनी जीवन यापन कर रहे थे.
पर उत्तराखंड सरकार के पास अच्छा ख़ासा समय है. महामारी ख़त्म होने के बाद पलायन से आए ये लोग वापस जाने की सोचें उससे पहले अगर उत्तराखंड सरकार इनके गांव में जीवनयापन के लिए ज़रूरी सुविधाएं उपलब्ध करवा दे और रोज़गार के साधन बेहतर कर दे तो शायद ज़्यादातर लोग वापस नहीं जाएं. सरकार को लघु-क़ालीन और दीर्घ-क़ालीन योजनाएं बनानी पड़ेगी. फ़िलहाल लोगों के लिए पानी, बिजली और भोजन की सुविधा सर्वोपरि होनी चाहिए और अगले एक वर्ष में कृषि को बढ़ावा और रोज़गार के नए साधन सृजन करने की ओर सरकार को ध्यान देना चाहिए.
ग्राम्य विकास एवं पलायन आयोग ने फ़ोन के माध्यम से वापस आ रहे सभी लोगों का साक्षात्कार किया और उन कारणों की सूची बनाई जिसके कारण पलायन से वापस घर आए लोग लम्बे समय तक अपने पैतृक स्थान पर नहीं रहना चाहते हैं. इस सूची में बेहतर स्वास्थ्य, शिक्षा और रोज़गार के अभाव के साथ साथ खेत की जोतों का छोटा होना भी रेखांकित किया गया है.
हरित क्रांति के दौर से ही ऐसी धारणा बनी हुई है कि छोटी जोत पर आधुनिक कृषि सम्भव नहीं है और यही कारण है कि पंजाब और हरियाणा में हरित क्रांति सम्भव हो पाई पर बिहार जैसे राज्य में ये सम्भव नहीं हो पाया क्योंकि बिहार में पंजाब की तुलना में खेतों के जोत का आकार छोटा हैं. NSSO की रिपोर्ट की माने तो बिहार में तक़रीबन 80% से अधिक परिवारों के पास एक हेक्टेयर से भी कम ज़मीन है जबकि उत्तराखंड में इसके विपरीत 80% से अधिक परिवारों के पास एक हेक्टेयर से अधिक ज़मीन है.
इसका ये मतलब हुआ कि उत्तराखंड में लौटने वाले ज़्यादातर परिवार के पास ढाई एकड़ से अधिक ज़मीन हैं जिसपर वे तात्कालिक रूप से अपना गुज़र-बसर कर सकते हैं पर बिहार में पलायन से लौटने वाले ज़्यादातर लोगों के पास मज़दूरी के अलावा कोई अन्य जीविका का साधन नहीं है. बिहार में 52% परिवार ऐसे हैं जिनके पास तीन कट्ठा यानी की 0.04 हेक्टेयर से भी कम ज़मीन है. इस लॉकडाउन के दौर में बिहार के इस आधी से अधिक परिवारों को मज़दूरी कौन देगा?
इसमें कोई आश्चर्य वाली बात नहीं है कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पूरे हिंदुस्तान में एक मात्र मुख्यमंत्री हैं जिन्होंने पलायन से अपने-अपने घर वापस लौटने वाले लोगों का विरोध किया है. बिहार सरकार की ये चिंता जायज़ हैं कि अगर बिहार से पलायन करने वाले सभी मज़दूर राज्य में वापस आ जाएंगे तो उनका पेट कौन भरेगा क्योंकि उत्तराखंड के विपरीत बिहार से पलायन करने वाले ज़्यादातर लोगों के पास रत्ती भर भी ज़मीन नहीं हैं जिसपर वो अन्न उपजा सके.
प्रख्यात अर्थशास्त्री जीन डरेजे भी आगाह कर चुके हैं कि आगे आने वाले समय में इस महामारी के कारण सबसे अधिक संकट बिहार में आने वाली है. इतिहासकार डेविड अर्नोल्ड का कहना है कि किसी भी महामारी में दो महामारी छुपा होता है एक तो रोग से क्षति पहुंचती हैं और दूसरी, उस महामारी के कारण अर्थव्यवस्था के ध्वस्त होने के कारण जो चारों तरफ़ जो ग़रीबी, भुखमरी, और लूट-पाट मचती है. दोनो सामान तौर पर भयावह होती है.
19 अप्रैल 2020 को भारत सरकार लॉकडाउन में फंसे प्रवासी मज़दूरों के लिए एक गाइडलाइन जारी करती है जिसमें सभी राज्य सरकारों को ये निर्देश दी है कि राज्य में फंसे प्रवासी मज़दूरों को राज्य के उन कारख़ानो व अन्य रोज़गार स्थलों तक सुरक्षित पहुँचाये जहां उन्हें सुनिश्चित रोज़गार दिया जा सके ताकि राज्य की ठप्प पड़ी अर्थव्यवस्था में फिर से उत्पादन शुरू किया जा सके. गाइडलाइन में किसी भी मज़दूर को राज्य की सीमा से बाहर नहीं भेजने का भी निर्देश दिया गया है.
कितना अजीब हैं ना? जहां एक ओर केंद्र सरकार दूसरे राज्यों में फंसे प्रवासी मज़दूरों को वहीं रोककर रोज़गार देने पर तुली हुई है ताकि वो वापस अपने राज्य वापस ना आ पाए वहीं दूसरी तरफ़ उत्तराखंड सरकार है जो राज्य में वापस आए अपने नागरिकों को दुबारा पलायन करने से रोकने के लिए आनन फ़ानन में नीतियां बना रही है.
ग्राम्य विकास एवं पलायन आयोग, उत्तराखंड, पौड़ी, द्वारा पहाड़ी ज़िलों में पलायन से वापस आए लोगों को रोकने के लिए जिन सिफारिशों का ज़िक्र किया हैं उनमे प्रमुख हैं:
1. राज्य एवं जनपद स्तर पर इस मामले को देखने के लिए विशेष इकाई (Dedicated Cell) की स्थापना
2. पलायन से वापस आए सभी लोगों के बारे में विस्तृत जानकारी इकट्ठा करना जिनमें उनकी दक्षता और उनकी ज़रूरतों को आंकना शामिल है; उनके स्वरोज़गार के लिए ऋण व तकनीकी मदद मुहैया कराने के साथ-साथ जो लोग दुबारा पलायन नहीं करना चाहते हैं उनकी मदद के लिए विशेष पैकेज देना.
3. पलायन से वापस आए लोगों के लिए एक हेल्पलाइन नम्बर शुरू करना
4. पलायन से वापस आए लोगों को कृषि, पशुपालन, बाग़वानी, ट्रैवल-टूरिज़्म, होटेल इंडस्ट्री के प्रति आकर्षित करना.
5. भूतिया गांव में सभी न्यूनतम साधन जैसे पानी, बिजली, स्कूल, स्वास्थ्य केंद् और सड़क का साधन उपलब्ध करवाना.
लेखक: संजीव कुमार टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज में प्रोग्राम मैनेजर के पद पर कार्यरत हैं.
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