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उन लोगों की कहानी जो घर के लिए पैदल निकले लेकिन पहुंच नहीं पाए!
‘‘बड़ा बेटा था. सब कुछ वही देखता था. बनारस से पुलिस का फोन आया कि वो मर गया है. अन्न-पानी बिना उसकी मौत हो गई. कोरोना के डर से समाज के लोगों ने लाश लाने से मना कर दिया, इसलिए हम लेने नहीं गए. पुलिस वालों ने ही अंतिम संस्कार कर दिया. हम यहां घास-फूस को बांधकर जलाए. रीतिरिवाज के हिसाब से अंतिम क्रियाकरम कर रहे हैं.’’
बिहार के बेगुसराय जिले के रहने वाले राम चंदर महतो ने हमें यह बात फोन पर बताई. उनके बेटे रामजी महतो की मौत बीती 16 अप्रैल की सुबह-सुबह वाराणसी में हो गई थी.
मौत के बाद रामजी महतो की दिलदहला देने वाली एक तस्वीर सामने आई. मुंह खुला हुआ और आंखें निकली हुई. शर्ट का एक मात्र बटन लगा हुआ था, जिससे पीठ से चिपका पेट साफ़ दिख रहा था. गर्दन के आसपास की हड्डियों को आसानी से गिना जा सकता था.
अपने बेटे की आखिरी तस्वीर को लेकर राम चंदर महतो कहते हैं, ‘‘दुबला पतला तो वो था लेकिन खाने-पीने की कमी की वजह से और सूख गया था. दस घंटे खाना पानी नहीं मिलता तो आदमी का चेहरा उतर जाता है वो तो न जाने कितने दिनों से भूखा पैदल चल रहा था.’’
भारत में कोरोना के आने की आहट के साथ ही मोदी सरकार ने 24 मार्च से पूरे देश में लॉकडाउन की घोषणा कर दी है. जिसके बाद यातयात के तमाम माध्यम बंद कर दिए गए और सरकार द्वारा लोगों से अपील की गई कि जो जहां है वहीं रहे. इसके बाद देश के अलग-अलग हिस्सों से बड़ी संख्या में दिहाड़ी मजदूरों का पलायन शुरू हो गया.
दिल्ली, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद और नोएडा से पलायन कर रहे बिहार और यूपी के सैकड़ों मजदूरों से इस रिपोर्टर की मुलाकात हुई थी. जिनका कहना था कि शहर में रहे तो कोरोना से शायद बच जाएं लेकिन भूख से ज़रूर मर जाएंगे.
एक तरफ पलायन जारी था तो दूसरी तरफ मजदूरों के मरने की ख़बरें भी आने लगी. 29 मार्च को दिल्ली से मुरैना के लिए निकले फूड डिलीवरी बॉय रणवीर सिंह की मौत आगरा में हो गई थी.
एक रिपोर्ट में घटना के बारे में बताते हुए सिकंदरा के एसएचओ अरविन्द कुमार ने बताया. “रणवीर अपने घर के लिए पैदल ही चल दिया था. ऐसा लग रहा है कि 200 किलोमीटर पैदल चलने के कारण उनके सीन में दर्द उठा. हालांकि, मौत से पहले पीड़ित ने दावा किया था कि उसने कुछ दूर की यात्रा एक ट्रक में की थी. पूरे एनएच-2 पर पुलिस खाना और पानी लेकर मौजूद थी लेकिन रणवीर की मौत बहुत दुखद है.’’ मजदूरों के पलायन के दौरान विचलित करने वाली ऐसी तमाम तस्वीरें सामने आईं.
उसके पास तीन सौ रुपए थे
इन्हीं तमाम मजदूरों की तरह रामजी महतो भी 25 मार्च को दिल्ली से अपने बहन के बेगुसराय स्थित गांव के लिए निकले लेकिन पहुंच नहीं पाए. उनकी 16 अप्रैल को वाराणसी में मौत हो गई.
जब सुबह के छह बजे सूरज अपने उजाले से अंधेरे को खत्म कर रहा था उसी वक़्त रामजी के परिवार पर अंधेरा छा गया. रामजी को अस्पताल ले जाने वाले रोहिनिया थाने के सब-इंस्पेक्टर गौरव पाण्डेय को सूचना मिली की इलाके में एक व्यक्ति गिरा हुआ है. वो सूचना के बाद वे वहां पहुंचे. न्यूजलॉन्ड्री से बात करते हुए गौरव पाण्डेय बताते हैं, ‘’16 अप्रैल की सुबह साढ़े छह बजे के करीब कॉन्स्टेबल ने सूचना दी तो मैं मौके पर पहुंचा. तुरंत एम्बुलेंस को फोन किया गया. एम्बुलेंस आई. एम्बुलेंस के अटेंडेंट ने बताया कि सांस फूल रही है. कोरोना संदिग्ध हो सकता है. दिल्ली से आ रहा था इसलिए लोग डर गए. वे हाथ लगाने से डर रहे थे उन्होंने कहा कि कोरोना मरीजों के लिए जो अलग से एम्बुलेंस है उसे बुलाई जाए. लेकिन उसकी हालात बिगड़ती जा रही थी. हमने कहा कि इसे ले चलिए ताकि जल्द से जल्द इसे इलाज मिल सके. एम्बुलेंस के लोगों अपने अधिकारियों से बात करने के बाद उसे ले जाने को राजी हुए और लेकर चले लेकिन तब तक देर हो चुकी थी.’’
जिस डर से एम्बुलेंस के अटेंडेंट ने रामजी महतो को समय से अस्पताल नहीं पहुंचाया वो बीमारी उनको थी ही नहीं उनकी मौत के बाद जब कोरोना का टेस्ट कराया गया तो वो नेगेटिव आया. यह जानकारी न्यूजलॉन्ड्री को सब-इंस्पेक्टर गौरव पाण्डेय ने दी.
पिछले 15 सालों से दिल्ली में रहकर ट्रक चलाने वाले रामजी महतो पांच भाई-बहनों में सबसे बड़े थे. 40 वर्षीय रामजी की शादी नहीं हुई है. रामजी अपनी मौत से पहले खुद से तीन साल छोटी बहन बहन नीला देवी से लगातार बात कर रहे थे. दरअसल वे नीला के ही घर जा रहे थे. बीते दिनों भी जब वे घर गए थे तो अपनी बहन के घर पर दो महीने तक रहकर आए थे.
नीला न्यूजलॉन्ड्री से बात करते हुए अपने पिता की कहीं बातों को भी दोहराती हैं, ‘‘भैया की भूख और प्यास से मौत हो गई. जब 25 मार्च को वो दिल्ली से चले थे तो उनके पास सिर्फ तीन सौ रुपए थे. वे वाराणसी में फंस गए थे. बराबर हम भाई से बात कर रहे थे. डेथ के दो दिन पहले भी उनसे बात हुई थी. बोले थे कि हमको भूख नहीं लग रहा है. हम उनको बोले कि जाकर अस्पताल में दिखा लो. फ्री में इलाज हो जाएगा. उनके पास ना पैसा था और ना ही कोई इंसान था. बस वो फंस गए.’’
नीला आगे बताती है, ‘‘वे बनारस में फंस गए थे. एक दिन कुछ पैसे के लिए बोले लेकिन हम उन तक कैसे पैसे पहुंचा सकते थे. लॉकडाउन के कारण घर से निकलना मुश्किल हो गया है. हमें नहीं लग रहा था कि हमारा भाई मर जाएगा. खाने-पीने का तकलीफ उसको भारी हो गया. उसके बिना वो मर गया. एक महीना पहले 300 रुपए लेकर निकला था तो रास्ते में वो खत्म हो गया होगा. खाने की कमी के कारण उनकी मौत हो गई.’’
अंतिम समय में भाई को नहीं देख पाने का अफ़सोस नीला देवी की बातों से साफ़ झलकता है. वो कहती हैं, ‘‘भाई थे मेरे. मेरे ही घर आ रहे थे. जब से यह सब हुआ बोलने का मन नहीं कर रहा है. दुःख तो बहुत है.’’
रामजी महतो के पिता राम चंदर महतो और उनकी मां दोनों डायबिटीज के मरीज हैं. इनके तीन बच्चों में से एक रामजी की मौत हो चुकी हैं. दूसरा बेटा लॉकडाउन के कारण पंजाब में फंसा हुआ है वहीं तीसरा बेटा भी बीमार रहता है. रामजी घर कम जाते थे लेकिन हर महीने अपने मां और पिता की दवाई और खाने पीने के लिए पैसे भेज दिया करते थे.
रामजी की मौत के बाद उनका शव परिवार के लोग लेने नहीं पहुंचे जिसके बाद पुलिस ने 21 अप्रैल को अंतिम संस्कार कर दिया. आखिर क्यों परिवार के लोग शव लेने नहीं पहुंचे इस सवाल के जवाब में राम चन्द्र कहते हैं, ‘‘पैसे की दिक्कत तो हमें है ही लेकिन जब उसकी मौत की सूचना मिली तो हमने समाज के लोगों से बात किया. सबने कोरोना के डर से लाश लाने से मना कर दिया. सब लोग यहां डरे हुए थे. शव को चार-पांच दिन हो भी गया था तो वो खराब भी हो गया होगा, इसलिए हमने पुलिस से शव लाने से मना कर दिया. हमने घास-फूस का शव बनाकर उसका अंतिम संस्कार करने के बाद आगे की प्रक्रिया शुरू कर दी है.’’
रामजी महतो की कमाई से ही उनके पिता और मां का गुजारा होता था. डायबिटीज के कारण उन्हें दवाई पर काफी खर्च करना पड़ता है. ऐसे में उनका असमय चले जाना किसी आपदा की तरह है. हालांकि इस आपदा में भी सरकार की तरफ से उन्हें कोई मदद नहीं मिली है. राम चन्द्र कहते हैं, ‘‘सरकार से हमें अभी तक कोई मदद नहीं मिली है. कोई भी नेता या अधिकारी हमसे मिलने नहीं आया है.’’
आपको बता दें कि बेगुसराय के सांसद केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह हैं. गिरिराज सिंह लम्बे समय से मोदी सरकार की आलोचना करने वालों को पाकिस्तान भेजने की बात करते रहते हैं लेकिन उनके ही संसदीय क्षेत्र का एक आदमी दिल्ली से पैदल घर लौटने पर मजबूर हुआ और उसकी रास्ते में ही मौत हो गई. गिरिराज सिंह अभी तक उस परिवार को कोई आर्थिक मदद तक नहीं दे पाए.
रामजी महतो के पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट को लेकर वाराणसी के चीफ मेडिकल अधिकारी डॉक्टर वीबी सिंह के ऑफिस में कई दफा कॉल करने पर उन्होंने थोड़ी देर में जानकारी की बात कही. जानकारी मिलते ही मौत का असली कारण पता चल जाएगा. हालांकि रामजी महतो के परिजनों की माने तो उनकी मौत भूख से हुई है.
एकलौती बेटी की मौत
भूख से मौत के डर से घर को निकले रामजी महतो अपने घर पहुंचने से पहले मरने वाले एकलौते नहीं हैं. ऐसे कई मामले देश के अलग-अलग हिस्सों में सामने आ रहे हैं. अभी तक आए आंकड़े लगभग 30 के करीब हैं.
छतीसगढ़ के बीजापुर जिले के मडकामी गांव की रहने वाली 12 वर्षीय जमलो की भी तेलंगना से लौटते हुए रास्ते में मौत हो गई. वो अपने घर भी नहीं पहुंच पाई थी.
मडकामी इलाका नक्सल प्रभावित इलाके में आता हैं. जंगल के बीच के इस गांव में फोन का नेटवर्क नहीं है. जिस कारण हम मृतक लड़की के परिजनों से बात नहीं कर पाए.
स्थानीय पत्रकार दंतेश्वर कुमार ने इस मामले पर रिपोर्ट किया था. न्यूज़लॉन्ड्री से बात करते हुए दंतेश्वर बताते हैं, “जमलो अपने मां सुकमती मडकम और पिता आंदोरम मडकम के साथ तेलंगना के पेरुर गांव में गई थी. यहां वो एक फॉर्महाउस पर मिर्च तोड़ने का काम करते थे. 24 मार्च को 21 दिनों तक के लिए लॉकडाउन में परिवार ने जैसे-तैसे अपना काम चलाया लेकिन जब लॉकडाउन बढ़ाया गया तो लड़की अपने परिजन और गांव के ही 11 अन्य मजदूरों के साथ घर के लिए निकली. 16 अप्रैल को तेलंगाना से तीन दिन पैदल चलने के बाद वह 18 अप्रैल को बीजापुर जिले के मोदकपाल पहुंच गई थी लेकिन वहां उसकी तबीयत खराब हो गई और मौत हो गई. इन तीन दिनों के अंदर वो सौ किलोमीटर जंगल-जंगल चली थी.’’
जमलो की मौत की वजह डीहाइड्रेशन बताया जा रहा है. पोस्टमार्टम रिपोर्ट को लेकर हमने बीजापुर जिला अस्पताल के मुख्य चिकित्सा अधिकारी डॉक्टर बीआर पुजारी से बात की तो उन्होंने बताया कि पोस्टमार्टम रिपोर्ट में मौत का कोई खास कारण पता नहीं चल पाया है. उसका बिसरा सुरक्षित रख लिया गया है. रिपोर्ट में यह भी सामने आया कि लड़की कहीं गिरी थी जिससे उसकी पसली में चोट आई थी हालांकि ये चोट इतनी गंभीर नहीं थी कि किसी की मौत हो जाए. चोट से यह ज़रूर हुआ होगा कि उसे पैदल चलने में परेशानी आई होगी. मौत का कारण अभी तक पता नहीं चल पाया है.’’
दंतेश्वर बताते हैं, ‘‘जब प्रशासन को लड़की की मौत होने की सूचना मिली तो उसे आनन फानन में बीजापुर जिला अस्पताल लाया गया. यहां लाकर पोस्टमार्टम करके शव को उसके मां-बाप को बुलाकर सौंप दिया गया. जमलो अपने मां-बाप की इकलौती बेटी थी.’’
बीजापुर से कांग्रेस के विधायक विक्रम मानडावी से जब इस मामले को लेकर न्यूजलॉन्ड्री ने संपर्क किया तो उन्होंने बताया कि इस इलाके से काफी संख्या में मजदूर इन दिनों तेलंगाना मजदूरी के लिए जाते हैं. वहां ये मिर्च तोड़ने का काम करते हैं. जब ये लोग वहां थे तो तेलंगना सरकार से बातचीत करके इंतज़ाम कराया जा रहा था लेकिन ये लोग पैदल निकल गए. बच्ची की मौत अफसोसजनक है. हमने तत्काल मुख्यमंत्रीजी से बात करके लड़की के परिजनों को पांच लाख की मदद दिलाई है. इसके अलावा जो मजदूर जहां फंसे हुए हैं वहां उन तक मदद पहुंचाने की लगातार हम कोशिश कर रहे हैं.
जमलो भूख मिटाने के लिए तेलंगाना गई थी और फिर वहां से भूख से जिंदगी बचाने के लिए घर के लिए पैदल भागी लेकिन उसकी मौत हो गई. वो घर नहीं पहुंच पाई.
मौत पर सवाल..
रामजी महतो और जमलो की तरह बिहार के वैशाली जिले के रहने वाले विलास महतो भी बदनसीब ही थे जिनकी लॉकडाउन के दौरान मौत हो गई.
48 वर्षीय विलास महतो की मौत को लेकर दो कहानी सामने आ रही है. एक तरफ जहां मीडिया रिपोर्टस में सामने आया कि विलास महतो इलाहाबाद से पैदल अपने घर के लिए निकल गए थे और रास्ते में उनकी मौत हो गई.दूसरी तरफ उनकी पत्नी मंजू देवी दूसरी ही कहानी साझा करती हैं.
बीते पन्द्रह साल से गांव के ही ठेकेदार के साथ इलाहाबाद के आसपास के इलाकों में सड़क निर्माण में मजदूरी करने वाले विलास महतो के तीन बेटे और दो बेटियां है. उनकी एक बेटी की शादी हो चुकी है.
एक तरफ जहां दावा किया जा रहा है कि उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में रहकर मजदूरी करने वाले विलास महतो लॉकडाउन के बाद काम बंद होने के कारण कुछ दिन तो शहर में रहे लेकिन जब उनकी स्थिति खराब हो गई तो वे अपने साथियों के साथ घर के लिए निकल गए. रास्ते में कहीं पैदल तो कहीं बस-ट्रक से चलते हुए विलास बिहार के रोहतास जिले के डेहरी थाने के इलाके में पहुंचे जहां उनकी तबियत बिगड़ गई जिससे उनकी मौत हो गई.
द क्विंट से बातचीत में डेहरी पुलिस के थाना इंचार्ज ने बताया था. “जब पुलिस को ख़बर मिली तो उस शख्स के शव को अस्पताल ले जाया गया. सासाराम के सदर अस्पताल में पोस्टमॉर्टम हुआ, फिर उसके बाद उसकी बॉडी वैशाली के कीरतपुर गांव भेज दी गई.”
द क्विंट से ही बातचीत में भगवानपुर थाना इंचार्ज सीवी शुक्ला ने बताया था कि विलास महतो इलाहाबाद में मजदूरी करते थे, लॉकडाउन के बाद वहां से चले थे, उनके अपेंडिक्स में दर्द उठा, लेकिन रास्ते में कहीं अस्पताल में दिखाए नहीं. पता चला है कि अपेंडिक्स फट गया जिस वजह से मौत हो गई.
हालांकि जब न्यूजलॉन्ड्री ने विलास महतो की पत्नी से फोन पर संपर्क किया तो उन्होंने बताया, ‘‘उनके पति की मौत तो इलाहाबाद में साइट पर ही हो गई थी. ठेकेदार ने झूठ बोला कि उनकी मौत पैदल चलकर आने की वजह से हुई है.’’
मंजू आरोप लगाती हैं कि उनसे मंगलवार (31 मार्च) को आखिरी बार जब बात हुई तो उनकी आवाज़ दबी-दबी लग रही थी. उन्होंने पहले मुझे बताया था कि उनकी तबीयत खराब है. बुखार ज्यादा हो गया. पैसे खत्म हो गए थे तो इलाज के लिए ठेकेदार से पैसे मांगा, लेकिन उसने नहीं दिया. फिर हमने एक अप्रैल को सूचना दी गई कि उनकी मौत हो गई. उन्होंने दो अप्रैल की देर रात 12 बजे शव का पोस्टमार्टम करके घर पहुंचा दिया.’’
मंजू एक बेहद गरीब से परिवार से ताल्लुक रखती हैं. उनके सास-ससुर की भी मौत हो चुकी है. विलास के अलावा घर में कमाने वाला अभी कोई नहीं है. विलास की मौत के बाद मंजू ने गांव के ही रहने वाले ठेकेदार संतोष चौहान के खिलाफ पंचायत बुलाई जिसमें उन्होंने कहा था कि तीन लाख रुपए दूंगा. मंजू बताती हैं कि उन्हें अभी तक ठेकेदार से एक रुपए नहीं मिला है. जिस तरह से वो बात कर रहा है लग भी नहीं रहा को वो कुछ देगा.
मंजू के पड़ोसी गांव के रहने वाले भोला जो स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता हैं, बताते हैं कि जो लोग विलास के साथ मजदूरी से लौटे थे वे आसपास के गांव के ही रहने वाले थे, उन्होंने बताया कि वे इलाहाबाद से पैदल ही चले थे लेकिन रास्ते में उनकी मौत हो गई लेकिन विलास की पत्नी कह रही है कि उनकी तबीयत पहले से ही खराब थी और मौत इलाहाबाद में ही हो गई थी. सही तो ठेकेदार ही बता सकते हैं.
अभी तक मंजू देवी को सरकार की तरफ से कोई भी सहायता राशी नहीं मिली है.
न्यूजलॉन्ड्री ने विलास के ठेकेदार से बात करने की कोशिश की लेकिन हमारी उनसे बात नहीं हो पाई. वहीं जब हमने रोहतास जिला अस्पताल के डिप्टी सुपरिंटेंडेंट केएन तिवारी से बात किया तो उन्होंने कहा, “मामला इतना पुराना है तो पोस्टमार्टम रिपोर्ट आ ही गया होगा. हालांकि मैं अभी आपको डिटेल नहीं बता सकता. काम की वजह से मैं अभी बाहर हूं.’’
कहानी जो भी हकीकत यह है कि विलास महतो अब नहीं रहे. जिस परिवार की जिम्मेदारी उनके ऊपर थी वो अनाथ हो गया.
अभी भी कई राज्यों में मजदूरों के फंसे होने की ख़बरें आ रही है. वे खाने की समस्या से परेशान होकर सोशल मीडिया पर लोगों से मदद मांग रहे हैं. सरकारी मदद अभी भी ज्यादातर मजदूरों तक नहीं पहुंच पाई है.
दिल्ली-एनसीआर में रिपोर्टिंग के दौरान इस रिपोर्टर ने पाया कि जो मजदूर फंसे हैं वो जल्द से जल्द अपने घरों को जाना चाहते हैं. सस्ते कमरे में रहते-रहते उनकी तबीयत बिगड़ती जा रही है. खाने के लिए रोजाना लम्बी लाइन में लगना और हंगामे के कारण पुलिस से मार खाना कई मजदूरों को परेशान कर रहा है. लॉकडाउन की स्थिति में भी वे भूख से खुद को बचाने के लिए पैदल अपने घरों को जाना चाहते हैं.
सरकार इंतजाम के दावे कर रही हैं लेकिन आए दिन मजदूर सड़कों पर निकल आ रहे हैं. हाल ही में बांदा बस डिपो और सूरत में हज़ारों की संख्या में मजदूर घर जाने की मांग के साथ उतर आए. पेट भरने में नाकामयाब शासन उन्हें लाठियों के दम पर घर में कैद कर दिया.
लॉकडाउन के एक महीने होने के बाद भी दिल्ली सरकार के मजदूरों तक राशन पहुंचाने के दावे पर सवाल उठ रहे हैं. 24 अप्रैल को दक्षिणी दिल्ली के आंबेडकर नगर इलाके से 29 मजदूर साईकिल से बिहार के कटिहार जिले के लिए निकले थे. दैनिक भास्कर की रिपोर्ट के अनुसार ये सभी खिड़की गांव में रहते थे. इन्हें पुष्पा भवन के पास रोका गया और समझाकर इन्हें वापस कमरे पर भेजा गया.
दिल्ली-पानीपत हाईवे पर स्थित वुडलैंड कंपनी के सामने अपना मेहनाता मांगने जमा हुए मजदूरों में से एक मजदूर कहते हैं, ‘‘आप मीडिया वाले हमारी बात कहते नहीं है तो सरकार सुनेगी कैसे. देखिए हमें दो महीने की सैलरी नहीं मिली. लॉकडाउन चल रहा है अब हम भूखे मरेंगे या पैदल घर जाना पसंद करेंगे. हम सब जल्द ही घर जाएंगे. पुलिस सड़कों पर रोकेगी, हम खेत-खेत से होकर जाएंगे.’’
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