Newslaundry Hindi
कोरोना के गुमनाम योद्धा: ‘हममें से ज्यादातर जिदंगी और मौत का खेल खेल रहे हैं’’
कोरोना संक्रमण के इस दौर में जहां एक ओर लोग घरों में खुद को महफूज किए हुए हैं वहीं कुछ ऐसे भी जीवट हैं जो असहाय लोगों की सेवा में दिन-रात अथक मेहनत कर रहे हैं. इन्हीं में एक नाम है 25 वर्षीय राहुल का.
सुबह हो या शाम राहुल अकेले ही पूर्वी दिल्ली के दो से तीन बड़े पक्के रैनबसेरों में पहुंचकर साफ-सफाई का काम पूरा करते हैं. इन दिनों 200 से अधिक मजदूरों को खाना परोसने में मदद भी करवाते हैं. बिना किसी सुरक्षा और विशेष प्रशिक्षण के वह पूरे मनोयोग से अपने काम में डटे हुए हैं.
नियम के मुताबिक हर रैनबसेरे के पास एक सफाईकर्मी होना चाहिए. कोरोना संक्रमण के डर से और तनख्वाह नहीं मिलने के कारण रैनबसेरों में सफाईकर्मियों की कमी बनी हुई है. दिल्ली सरकार ने 23 मार्च को एक पत्र जारी कर रैनबसेरों में सफाईकर्मियों की नियुक्ति को लेकर आदेश भी जारी किया है, हालांकि अभी तक सफाईकर्मी आए नहीं हैं.
राहुल का अस्थायी ठिकाना पूर्वी दिल्ली में गाजीपुर थोक पेपर मार्केट में स्थित सबसे बड़ा रैनबसेरा ही है. वे कहते हैं कि मैं 24 घंटे यहीं रहता हूं. हां, मुझे पता है कि कोरोना संक्रमण फैला हुआ है लेकिन क्या करूं? पेट का सवाल है. यह मेरा रोज का काम है. इसे रोज की ही तरह पूरे मन से निभा रहा हूं.
राहुल के जीवन की नाव दुखों के सागर में ही बह रही है. बजाए इसके वे न टूटे हैं और न ही उन्होंने हार मानी है.
राहुल का जन्म बिहार के सीतामढ़ी जिले में हुआ. जिला मुख्यालय से 20-25 किलोमीटर दूर अक्टा बाजार में उनका पुश्तैनी घर है. राहुल बताते हैं कि वे 11 वर्ष के थे जब उनके माता-पिता का देहांत हो गया. तीन बड़े भाई थे लेकिन कोई सहारा नहीं बना. 2011 में एक गांव वाले की मदद से दिल्ली आ गए. कुछ वर्ष चाय की दुकानों पर काम किया फिर सफाई का काम करने लगे. 2013 में उन्हें अक्षरधाम रैनबसेरे का काम मिला. 7 हजार रुपये प्रतिमाह वेतन के साथ वे इसी काम में लगे हुए हैं.
दिल्ली-एनसीआर में 27 से 29 मार्च के बीच लाखों की संख्या में मजदूरों का पलायन हुआ था. इसके बाद 29-30 मार्च की रात से पुलिस प्रशासन ने आनंद विहार और अन्य मार्गों से पैदल जा रहे मौजूद मजदूर परिवारों को दिल्ली के बीच रैनबसेरों में लाकर छोड़ दिया है. यहां रुकने के साथ ही दो वक्त का खाना बांटा जा रहा है.
इन रैनबसेरों की देखभाल के लिए सुपरवाइजर और कर्मी नियुक्त हैं. हालांकि, यह सभी एनजीओ के जरिए ठेके पर नियुक्त कर्मी है, जिन्हें कोरोनो संक्रमण को लेकर कोई प्रशिक्षण नहीं दिया गया है.
दिल्ली शहरी आश्रय सुधार बोर्ड की तरफ से 225 स्थानों पर रैनबसेरों की व्यवस्था बेघरों के लिए की गई है. कोरोना संक्रमण के दौरान दिल्ली से पलायन करने वाले मजदूरों को इन्हीं रैनबसेरों में रुकवाया गया है. इन रैनबसेरों में आरसीसी, पोर्टा केबिन, अस्थायी भवन, टेंट आदि शामिल हैं. कोरोना संक्रमण में एक मीटर की दूरी का ख्याल करते हुए इनमें 23,478 लोग रुक सकते हैं. करीब 7852 लोग अभी रैनबसेरों में रुके हैं.
पूर्वी दिल्ली में गाजीपुर थोक पेपर मार्केट समेत करीब 13 रैनबसेरों की देखभाल का जिम्मा 63 वर्षीय रमेश कुमार शर्मा पर है. राजस्थान में जयपुर के रहने वाले रमेश कुमार ने बताया कि वे सुपरवाइजर हैं और उनके अधीन करीब 30 लोग इन रैनबसेरों पर काम कर रहे हैं. उन्होंने कहा,'' हममें से ज्यादातर लोग जिदंगी और मौत का खेल खेल रहे हैं. क्योंकि हम बाहर से आने वाले इतने लोगों के बीच काम कर रहे हैं. कब किस व्यक्ति से हममे कोरोना संक्रमण हो जाए क्या मालूम?''
रमेश कुमार आगे कहते हैं, ''हमें किसी तरह का बीमा नहीं मिलेगा. हम इसकी मांग भी कर रहे हैं. यदि कोई ऐसी विपदा होती है तो हमारा परिवार क्या करेगा? हम अपने घर भी नहीं जा पा रहे. इन रैनबसेरों की देखभाल करने वालों में 90 फीसदी लोग दूसरे राज्यों से हैं. इसके बावजूद किसी पर कर्ज है तो किसी को नौकरी खोने का डर है. सभी जोखिम में भी काम कर रहे हैं. तमाम लोग बड़े लोगों से प्रेरणा लेकर भी काम करते हैं, हम भी कर रहे है लेकिन हमारे पास भविष्य का अंधेरा है. यह बात हमें कचोटती है.''
कोई चिकित्सक या जांच व्यवस्था इन मजदूरों के लिए अभी उपलब्ध नहीं हुई है. हमें भी भय है लेकिन दायित्व भी है. हम इसे निभा रहे हैं, अगर हमारे लिए भी सरकारों ने कुछ सोचा तो बेहतर होगा. हमें तनख्वाह एक गैर सरकारी संस्था की तरफ से मिलती है. दिल्ली शहरी आश्रय सुधार बोर्ड ने यह काम गैर सरकारी संस्थाओं के बीच ही बांट रखा है. इन संस्थाओं ने हमें नियुक्त किया है.
रैनबसेरे में काम करने वाले ज्यादातर लोगों के पास कोरोना संक्रमण से बचाव का बुनियादी उपकरण नहीं मौजूद है. इनके पास सर्जिकल मास्क है जो एक या दो दिन में खराब हो जाता है. इसके अलावा खाना परोसने से लेकर तमाम मुश्किलों का सामना इन्हें खुद रैनबसेरों में करना पड़ रहा है. कई रैनबसेरों में कर्मियों को ठेका वाले एनजीओ की तरफ से तनख्वाह भी नहीं दिया गया है.
यह वे गुमनाम हीरों हैं जो कोरोना संक्रमण की लड़ाई चुपचाप और भविष्य का अंधकार लेकर लड़ रहे हैं.
(डाउन टू अर्थ से साभार)
Also Read
-
Punjab’s darkest floods in 3 decades: As governance failures drown villages, stories of hope surface
-
Job cuts, production hit, forced discounts: Trump tariff’s toll on Noida’s textile dream
-
As Modi’s visit looms, tracing the missed warnings that set Manipur on fire
-
‘Will get your delivery done elsewhere’: Cong MLA RV Deshpande’s sexist remark for woman journalist
-
सिस्टर रूथ केस: एक नन का अंतहीन संघर्ष