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लॉकडाउन: औरतें इसकी एक अदृश्य कीमत चुका रही हैं
युद्ध, पराधीनता, अपहरण, असुरक्षा… इन शब्दों के अर्थ किसी के लिए भले नहीं रहे लेकिन एक स्त्री के लिए इनका अर्थ हमेशा से बना हुआ है. समाज में व्याप्त किसी भी विषय-वस्तु की छाप औरत पर ज़रा ज़्यादा पड़ती है.
बीते एक हफ्ते में यूट्यूब पर एक वीडियो तेजी से वायरल हुआ है. यूट्यूब के अलग-अलग चैनलों पर इसके मिलियन से अधिक व्यूज़ हैं. इसे घाना की एक अश्वेत महिला ने एक स्टोर में चोरी से बनाया है. महिला घाना के राष्ट्रपति से वहां लागू लॉकडाउन को खत्म करने की अपील कर रही है. वजह बेहद परेशान करने वाली है. वह बता रही है कि कैसे घर में बंद उनका पति हर समय सेक्स की मांग करता है, सेक्स के लिए दबाव डालता, मना करने पर हिंसा भी करता है. यह विश्वव्यापी लॉकडाउन का एक और चेहरा है जो कुरूप और दुखद है.
एक जमाने से युद्ध में पुरुष हारते हैं, प्रजा पराधीन होती है और हारी हुई सेना की स्त्रियों की योनि में विजयी हुए पुरुषों का वीर्य स्मृति-चिह्न के रूप में उत्सर्जित किया जाता है. स्त्री के लिए अपहरण भी अपहरण नहीं होता, उसके माथे पर गढ़ दिया जाता है ब्रह्माण्ड में मौजूद आख़िरी प्रश्नचिह्न. असुरक्षा के तमाम अर्थों को गूंथकर बनती है एक लड़की. ज़ाहिर है उस लड़की के जीवन में यह लॉकडाउन भी सिर्फ़ घर की क़ैद भर नहीं होगी.
मनुष्य की उत्पत्ति से लेकर अबतक जीवन का अधिकांश समय दहलीज़ के भीतर बिता देने वाली महिलाओं के लिए इस लॉकडाउन के कुछ ख़ास मायने नहीं हैं. सूर्यास्त के बाद दालान न लांघने की ट्रेनिंग में पारंगत स्त्री इस तरह के लॉकडाउन से जन्मना परिचित हो जाती है. बदलते वक़्त की दुहाई देने वाले समाज ने औरतों को घर के बाहर की दुनिया ज़रूर दिखायी है लेकिन इससे उनके घर के भीतर की ज़िंदगी में बहुत बदलाव हुआ हो, ऐसा नहीं लगता.
लॉकडाउन ने बिना किसी भेदभाव के स्त्री-पुरुष सभी को घर के भीतर ला दिया है. यह वो वक़्त हो सकता था जब हम एक-दूसरे के साथ वो पल बिताते जिसकी हमें तमन्ना थी, जब हम गहरी सांस लेकर आसमान को निहारते, अपनों को थोड़ा और समझते, वो सबकुछ करते जो हमने ‘काश’ में समेट रखा था लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है. लोगों के घरों में रहने से अचानक ही घरेलू हिंसा में भयानक वृद्धि हुई है और यह बदलाव भारत तक सीमित नहीं है, फ्रांस, यूके, अमेरिका और स्पेन जैसे देशों से भी डराने वाले आंकड़े आ रहे हैं.
संयुक्त राष्ट्र संघ के आंकड़ों के मुताबिक फ्रांस में 17 मार्च को हुए लॉकडाउन के बाद घरेलू हिंसा में 30% की वृद्धि हुई है. लॉकडाउन के पहले दो सप्ताह में स्पेन में घरेलू हिंसा के लिए एमरजेंसी नंबर पर 18% व सिंगापुर में 30% अधिक कॉल्स आयीं. एनबीसी की रिपोर्ट के अनुसार हालिया सप्ताह में अमेरिका की कानून प्रवर्तन एजेंसियों ने घरेलू हिंसा के मामलों में 35% की वृद्धि दर्ज़ की.
यूके में 23 मार्च से 12 अप्रैल के बीच घरेलू शोषण के कारण 16 मौतें दर्ज़ की गयीं. इतनी अवधि में उत्पीड़न से औसतन 5 महिलाओं की मौत होती थी. यह पिछले 11 वर्षों में अबतक की सबसे बड़ी संख्या है. भारत में लॉकडाउन के पहले ही सप्ताह में राष्ट्रीय महिला आयोग को 257 शिकायतें मिलीं. आयोग की अध्यक्षा रेखा शर्मा के अनुसार इसमें लगातार इजाफ़ा हो रहा है. उनके पास ई-मेल के ज़रिए शिकायतें आ रही हैं.
ज़ाहिर है यह संख्या बहुत कम है क्योंकि अमूमन शिकायतें पुलिस के पास ही आती हैं, भारत-भूमि की महिलाएं मेल कर शिकायत दर्ज़ करना अपना हक़ समझें इतनी परिपक्वता आने में अभी बहुत वक्त लगेगा. दूसरा यह कि लॉकडाउन के बाद वे पुलिस या किसी एनजीओ का सहारा भी कम ही ले पा रही हैं. वे महिलाएं जिनके पास अपने घर चले जाना विकल्प था, अब लहूलुहान हो एक कमरे के कोने में सिकुड़ी हुई हैं. इनके बावजूद एक बड़ा वर्ग है जो हिंसा को घोलकर पीने का आदी हो चुका है, जो हिंसा का सामान्यीकरण करता है जैसे कुछ हुआ ही नहीं.
यूएन के विशेषज्ञ इसे शैडो पैंडेमिक (छाया महामारी) कह रहे हैं जिसका कोई आकलन नहीं है. मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि घर में बंध जाने के कारण और आर्थिक परिस्थितियों के दबाव में पुरुष में उत्तेजना बढ़ी मानी जा सकती है, जिस वजह से ये आंकड़े सामने आये हैं. उनके बीच परस्पर बातचीत का समय बहुत बढ़ गया है और वे बाहरी दुनिया से कट गये हैं इसलिए हिंसा में वृद्धि हुई है.
कई विशेषज्ञ शराब न मिलने को भी इसका कारण बता रहे हैं. कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और फ़्रांस जैसे देश इस दिशा में लगातार काम कर रहे हैं. सरकार ऐसी एजेंसियों की फंडिग कर पूरा सहयोग कर रही है जो घरेलू हिंसा व अन्य प्रकार की प्रताड़नाओं से शोषित महिलाओं की मदद कर रहे हैं. दूसरी ओर भारत में इसपर सरकार का उदासीन रवैया नज़र आ रहा है. टीवी पर घरेलू हिंसा, उत्पीड़न व जागरुकता संबंधी कार्यक्रम या अभियान जैसे मामूली काम भी यहां नहीं दिख रहे हैं.
यूएन के सेक्रेटरी जनरल एंटॉनियो ग्युटर्स ने सभी सरकारों से इस महामारी में महिला सुरक्षा को प्राथमिकता देने की अपील की है लेकिन सवाल यह है कि क्या सुरक्षाघरों की फंडिंग और सुविधाओं या शराब की बिक्री जैसी चीज़ें समाधान हैं? हम क्षणिक सुकून की दरकार में इस बात को क्यों दरकिनार करते हैं कि समस्या संसाधनों की होकर भी नहीं है. मनोवैज्ञानिकों के कह देने से कि घर में क़ैद पुरुष झुंझला गये हैं, उनकी झुंझलाहट, प्रताड़ना को जायज़ ठहराया जा सकता है?
उनकी स्थिति को आधार बनाकर महिलाओं को उनका ग्रास बना देना कहां उचित है और कोई भी औरत मार खाकर क्यों जाए अपने मायके या किसी एनजीओ की दहलीज़ पर? लेकिन हम यह सवाल उस समाज से कैसे करें जहां नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वेके डेटा में 52% महिलाएं और 42% पुरुष यह स्वयं स्वीकारते हों कि बिना कारण कोई पत्नी पर हाथ नहीं उठाता, कम से कम एक ज़रूरी कारण होता ही है.
ज़रूरी है सम्मान से पहले समानता को समझने की ताकि उस प्रश्नचिह्न को, जो महिला के माथे पर सदा से अंकित रहा है, कभी पुरुष के सामने लाकर भी खड़ा किया जा सके.
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