Newslaundry Hindi
यह सांप्रदायिकता कोरोना है
अभी जब मैं यह लिख रहा हूं, देश-दुनिया में कोरोना अपनी कहानी के अगले पन्ने लिख रहा है. भारत में उसने अभी तक 4000 से ज्यादा लोगों को दबोचा है और 60 से ज्यादा लोगों को उठा ले गया है. आंकड़ा बहुत बड़ा नहीं है लेकिन यह जिस तेजी से रंग बदल रहा है उससे यह जरूरी हो गया है कि हम आपस में न लड़ें, बीमारी से लड़ें. लेकिन आदमी का दुर्भाग्य तो यही है न कि वह आपस में लड़ कर भले कट मरे लेकिन लड़ता है जरूर!
दिल्ली के निजामुद्दीन इलाके में मुसलमानों की एक रूढ़िवादी जमात तबलीग़ी जमात का अंतरराष्ट्रीय आॉफिस है- निजामुद्दीन मरकज. देश का जागरूक, तरक्कीपसंद मुसलमान समाज इससे कोई निस्बत नहीं रखता है. वो इसे मुसलमानों का आरएसएस कहते हैं. इसी मरकज से कोरोना से संक्रमित लोगों की बड़ी संख्या मिली है. इतनी बड़ी संख्या में कोरोना संक्रमित लोग किसी जगह से दिल्ली में अब तक नहीं मिले थे.
इसी 13-14 मार्च 2020 को इस अंतरराष्ट्रीय केंद्र पर देशी-विदेशी 5000 लोगों का धार्मिक सम्मेलन हुआ था. सम्मेलन में आए प्रतिनिधि बाद में देश के विभिन्न इलाकों में गये. यहां से कोरोना के फैलाव की वह भयंकर कहानी शुरू हुई जो अब फैलती हुई दानवाकार हुई जा रही है. लोग मरे भी हैं, अलग-थलग भी कर दिए गये हैं और सारे देश में छानबीन हो रही है कि इन्होंने कहां, कितनों को संक्रमित किया है. यह असंभव-सा काम संभव बनाने में वे लोग जुटे हैं जिन्हें इससे भी जरूरी काम करने थे.
कुछ लोगों की शैतानियत भरी अंधता, बेहद गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार और धार्मिकता की अधार्मिक समझ ने आग में घी डालने का काम किया है. तबलीगी जमात ने पूरे होशोहवाश में यह काम किया है. मरकज के प्रमुख हजरत मौलाना साद को हम सुनें व उनका रवैया देखें तो लगता ही नहीं है कि इन महाशय का अक्ल से कोई नाता भी है.
यह मानसिक कोरोना है. नहीं, यह जमात कोरोना बीमारी फैलाने में नहीं लगी थी, यह अपने लोगों को मानसिक कोरोना की जकड़ में रखने में लगी रही है, लगी हुई थी. इन्हें अपने जमात के इस अंधविश्वास को और गहरा करना था कि खुदा, कुरान और मस्जिद और उनका मौलाना सब किसी भी ‘शक्ति’ से ज्यादा शक्तिमान हैं. इनका धंधा ही धोखे पर चलता है जैसे सारे धर्म-संगठनों का चलता है. ऐसे अंधों में भी ये सबसे बड़ी अंधता के शिकार हैं.
अब जब कि सब पकड़े गये हैं, पकड़े जा रहे हैं और इनका ‘निजामुद्दीन मरकज’ बंद कर दिया गया है, हमें यह पूरा मामला दिल्ली सरकार, दिल्ली पुलिस और भारत सरकार के हवाले कर देना चाहिए और अपना पूरा ध्यान करोना से सुरक्षा, दूसरों की मदद और सावधानियां रखने में लगाना चाहिए. यही सब कोरोना से लड़ने और उसे हराने का तरीका है.
लेकिन ऐसा कैसे हो भला? देश में अविकसित बुद्धि वाले ‘बच्चों’ की संख्या कम तो नहीं है. इन अल्पबुद्धि विशाक्त ‘बच्चों’ ने इस सारे मामले को हिंदू-मुसलमान में बदल डाला है और कोरोना सांप्रदायिक हो गया है. अब इसकी मारक क्षमता हजार गुना बढ़ गई है. तबलीगी जमात के बारे में कहते हैं कि यह जमीन के नीचे (कब्र) और आसमान के ऊपर (स्वर्ग) की जिंदगी की बात करती है. लेकिन मुसलमान हों कि हिंदू कि कोई और, सबका समाज तो धरती पर रहता है न! उसे धरती पर कैसे जीना है और धरती पर कैसे मरना है, यह बताना-सिखाना ही सच्चा धर्म है, धार्मिक काम है.
नीचे और ऊपर की जिन्हें फिक्र है उन्हें वहीं जा कर धरती पर रहने वाले समाज का इंतजार करना चाहिए. हमें यह देखना और समझना चाहिए कि संकट के इस दौर में हमें वही और उतना ही कहना-लिखना-दिखाना-बताना चाहिए जितना संकट का मुकाबला करने में सहायक हो. बाकी बातें दबा देने की, पीछे कर देनी हैं. ठीक वैसे ही जैसे सांप्रदायिक दंगों के वक्त संप्रदायों का नाम नहीं लेने की समझदारी की जाती है.
आखिर कोरोना से ठीक पहले दिल्ली के आयोजित दंगे के वक्त भड़काऊ भाषण देने वाले अपराधियों पर मुकदमा चलाने की बात अदालत ने क्यों की थी? किसी भी आग में घी डालना अमानवीय है, अनैतिक है. कोई पूछे कि मुंबई के वर्ली पुलिस कैंप में 800 पुलिस का जमावड़ा क्यों था, जिनमें से एक कांस्टेबल को कोरोना निकला है और अब सबको अलग-थलग किया जा रहा है? और ये 800 पुलिसकर्मी अपनी जिम्मेवारी निभाने कितनी जगहों पर, कितने लोगों के बीच गये कोई पता कर भी सकता है क्या?
लेकिन जब आपने पुलिस को ही समाज में स्वतंत्र छोड़ा है और उसे ही हर जिम्मेवारी निभानी है तो उनके कैंपों का, उनके जमावड़े का आप विरोध कैसे कर सकते हैं? मुंबई का ही वर्ली कोलिवाडा वहां का सबसे खतरनाक संरक्षित इलाका घोषित किया गया है और वहीं से निकल कर तीन लोग सैर करते पकड़े गये तो कोई हंगामा किया जाए कि क्या और कैसी निगरानी-व्यवस्था है?
मध्यप्रदेश में विधायकों को जिस तरह भेंड़-बकरियों की तरह होटलों-होटलों में घुमाया गया, खरीदा गया और फिर सरकार गिराने के लिए उनका जमावड़ा किया गया, क्या वह कोरोना के खतरे से सावधान करने का तरीका था? और अयोध्या में रामलला की मूर्ति का मुख्यमंत्री द्वारा स्थानांतरण इसी वक्त करने की योजना क्यों बनी और कैसे उसकी अनुमति हुई? सवाल तो यह भी किया जाना चाहिए कि हरिद्वार जैसे स्थानों पर भीड़ लगी है और वहां से निकल कर लोग यहां-वहां जा रहे हैं तो वह कैसे होरहा है? क्या ये सवाल हंगामा करने लायक नहीं हैं? हैं, लेकिन क्या अभी हंगामा किया जाना चाहिए? अभी अपनी सामाजिक व निजी कमजोरियों पर पछताते हुए हमें सावधानी और एकता की ही बात नहीं करनी चाहिए?
इस कोरोना-काल से जो बचेंगे वे इन सारे मामलों की जांच भी करें और सजा भी दें और आगे के यम-नियम भी बनाएं- जरूर बनाएं; लेकिन अभी तो इसे अधिकारियों के हाथ में सौंप कर हमें अभी की चुनौती का एकाग्रता से मुकाबला करना चाहिए न? वे सारे लोग, संगठन और चैनल और एंकर देश के लिए कोरोना से भी ज्यादा खतरनाक हैं जो इसे सांप्रादायिक कोरोना में बदल रहे हैं.
कहते हैं कि इस कोरोना विषाणु की उम्र 14 दिनों की होती है, इतिहास बताता है कि सांप्रदायिक कोरोना की उम्र हजारों साल की है. लाखों के थाली व ताली बजाने और दीप जलाने से भी यह मरता नहीं है. इसके लिए मन के दीप जलाना जरूरी है.
Also Read: ‘क’ से कोरोना नहीं, ‘क’ से करुणा
Also Read
-
Gujarat’s invisible walls: Muslims pushed out, then left behind
-
Let Me Explain: Banu Mushtaq at Mysuru Dasara and controversy around tradition, identity, politics
-
गुरुग्राम: चमकदार मगर लाचार मिलेनियम सिटी
-
Gurugram’s Smart City illusion: Gleaming outside, broken within
-
Full pages for GST cheer, crores for newspapers: Tracking a fortnight of Modi-centric ads