Newslaundry Hindi

कोविड-19: जहां यूरोप चूक गया उससे भारत को सबक लेना चाहिए

(यह लेख 'द गार्डियन' में प्रकाशित हो चुका है. इसके लेखक लांसेट मेडिकल जर्नल के संपादक हैं. लेख का अनुवाद प्रभात ख़बर के दिल्ली ब्य़ूरो प्रमुख प्रकाश के रे ने किया है.)

चीन के डॉक्टरों और वैज्ञानिकों ने 24 जनवरी को नॉवेल कोरोना वायरस से होने वाली नई बीमारी का पहला विवरण प्रस्तुत किया था. उन्होंने बताया था कि कैसे निमोनिया के नए तरह के मामले हुबेई प्रांत की राजधानी और 1.1 करोड़ की आबादी वाले शहर वुहान में पिछले साल के दिसंबर महीने में पहली बार सामने आये थे. उस समय तक नयी बीमारी के 800 मामलों की पुष्टि हो चुकी थी.

जब यह बात सामने आई तब तक वह वायरस थाईलैंड, जापान और दक्षिण कोरिया पहुंच चुका था. इस पहली रिपोर्ट, जिसे लांसेट जर्नल में प्रकाशित किया गया था, में उल्लिखित 41 लोगों में से ज्यादातर को बुखार और खांसी के सामान्य लक्षण थे. आधे से अधिक लोगों को सांस लेने में तकलीफ हो रही थी. लेकिन सबसे अधिक चिंता की बात यह थी कि इन रोगियों में एक-तिहाई इतने ज्यादा बीमार थे कि उन्हें इंटेंसिव केयर यूनिट में भर्ती कराना पड़ा. अधिकतर का वायरल निमोनिया गंभीर रूप से जटिल हो चुका था. इन रोगियों में से आधे लोगों की मौत हो गयी.

चीनी वैज्ञानिकों ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी. उन्होंने लिखा था, “मौतों की संख्या तेजी से बढ़ रही है. ”स्वास्थ्यकर्मियों के लिए व्यक्तिगत सुरक्षा के साजो-सामान उपलब्ध कराने की पुरजोर सलाह दी गयी थी. यह भी कहा गया था कि किसी भी तरह के लक्षण का पता चलते ही वायरस की जांच तुरंत होनी चाहिए. चीनी वैज्ञानिकों का निष्कर्ष था कि मौतों की दर बहुत ज्यादा है. साथ ही उन्होंने यह निवेदन भी किया था कि इसके 'महामारी फैलाने की सामर्थ्य' को देखते हुए इस नये वायरस पर सावधानीपूर्वक निगरानी रखी जानी चाहिए.

यह जनवरी की बात है. इस चेतावनी के बावजूद ब्रिटिश सरकार को उस गंभीरता को पहचानने में आठ सप्ताह क्यों लग गए, जिसे अब हम कोविड-19 कह रहे हैं? वर्ष 2003 में एक नई वायरल बीमारी- सिवियर एक्यूट रेस्पिरेटरी सिंड्रोम (सार्स)- के खतरों को छुपाने के लिए चीनी प्रशासन की जमकर आलोचना हुई थी.

साल 2020 आते-आते चीनी वैज्ञानिकों की नयी पीढ़ी ने अपना सबक सीख लिया था. उनके आसपास महामारी के तेज प्रसार के अत्यधिक दबाव में रहते हुए उन्होंने अपनी पड़ताल को एक विदेशी भाषा में लिखने का समय निकाला और उसे हजारों किलोमीटर दूर एक मेडिकल जर्नल में प्रकाशित करने के लिए भेजा. बहुत जल्दी और बड़ी मेहनत से किया गया उनका यह काम दुनिया के लिए एक जरूरी चेतावनी था. हमें उन वैज्ञानिकों का बहुत आभारी होना चाहिए.

लेकिन ब्रिटिश सरकार के चिकित्सकीय और वैज्ञानिक सलाहकारों ने उनकी चेतावनी को अनसुना कर दिया. किन्हीं अनजान वजहों से वे इंतजार करते रहे और देखते रहे. ऐसा लगता है कि मंत्रियों को सलाह देनेवाले वैज्ञानिक मानते रहे कि इस नए वायरस का इलाज इंफ्लुएंजा की तरह किया जा सकता है. सरकार के विशेषज्ञ वैज्ञानिक सलाहकार ग्राहम मेडले ने लापरवाही के इस रवैये को जब तब प्रदर्शित किया है.

पिछले सप्ताह एक साक्षात्कार में उन्होंने ब्रिटेन के रुख के बारे में बताते हुए बहुत बड़ी संख्या में लोगों में एक नियंत्रित महामारी फैलाने की बात कही, जिससे 'सामुदायिक प्रतिरोधक क्षमता' विकसित हो सके. ब्रिटिश वैज्ञानिकों ने ऐसी स्थिति बनाने की सलाह दी, जिसमें आबादी के बहुसंख्यक हिस्से पर संक्रमण ही न हो. और, टीका नहीं होने की स्थिति में ऐसा करने के लिए उनके पास एक ही तरीका था कि ज्यादातर लोग संक्रमित हो जाएं और फिर उसलके प्रति प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर लें. मेडले ने सुझाव दिया कि हमें 'आदर्श स्थिति में' वैसे लोगों, जिनके संक्रमित होने की आशंका कम है, के बीच 'एक अच्छी बड़ी महामारी' की जरूरत हो सकती है. ब्रिटिश सरकार के मुख्य वैज्ञानिक सलाहकार सर पैट्रिक वैलेंस ने इंगित किया था कि देश की 60 फीसदी आबादी को संक्रमित करने का लक्ष्य है.

कई सप्ताह तक निष्क्रिय बैठने के बाद सरकार ने अपना रवैया बदलते हुए कहा है कि इंपीरियल कॉलेज के वैज्ञानिकों के नये सुझावों के कारण उसने ऐसा किया है. बीबीसी समेत कई पत्रकारों ने रिपोर्ट किया था कि 'विज्ञान बदल चुका है' और इसलिए सरकार ने उसी अनुसार प्रतिक्रिया दी है. लेकिन घटनाओं की यह व्याख्या गलत है. जनवरी से विज्ञान वही है. जो बदला है, वह यह कि सरकार के सलाहकारों ने आखिरकार यह समझा कि चीन में वास्तव में हुआ क्या है.असल में, इस सप्ताह आयी इंपीरियल कॉलेज के वैज्ञानिकों की भविष्यवाणी की जरूरत सरकार के लापरवाह रवैये के आकलन के लिए नहीं थी. कोई स्कूली छात्र भी हिसाब लगा सकता था.

ब्रिटेन की 60 फीसदी आबादी में एक फीसदी की मृत्यु दर का मतलब लगभग चार लाख मौतें हैं. इस रणनीति के नतीजे से गंभीर रूप से बीमार लोगों की भारी संख्या तुरंत राष्ट्रीय स्वास्थ्य योजना को ध्वस्त कर सकती थी. चीन से आयी पहली रिपोर्ट के बाद से ही ब्रिटेन के बेहतरीन वैज्ञानिक यह जानते थे कि कोविड-19 एक घातक बीमारी है. फिर भी उन्होंने बहुत कम काम किया और वह भी देर से.यह वायरस बहुत जल्दी यूरोप पहुंच गया था. इटली पहला यूरोपीय देश था, जहां बड़ी संख्या में मौतें हुईं. इटली के शोधार्थियों- एंड्रिया रेमुजी और जिसेप रेमुजी ने 12 मार्च को अपने त्रासद अनुभव की जानकारी दी थी. संक्रमण और बीमारी के हिसाब से अस्पतालों में बिस्तर नहीं थे. उन्होंने आशंका जतायी थी कि अप्रैल के मध्य तक स्वास्थ्य सेवा ध्वस्त हो जायेगी. गंभीर संक्रमण से मरनेवाले रोगियों की संख्या बहुत अधिक थी.

इन शोधार्थियों ने लिखा, “ये आकलन दूसरे यूरोपीय देशों पर भी लागू हो सकते हैं, जहां इतने ही संक्रमित लोग हो सकते हैं और उन्हें गहन देखभाल की उतनी ही जरूरत होगी.”और शायद सरकारी विशेषज्ञ चीन और इटली के वैज्ञानिकों के संकेतों को समझने में सामूहिक रूप से असफल रहे हैं. हमारे पास अवसर और समय है दूसरे देशों के अनुभवों से सीख लेने का.समय आने पर गलतियों को समझा जाना चाहिए. मैंने विश्व स्वास्थ्य संगठन के महानिदेशक डॉ टेडरोस एदनोम गेब्रेसस से फरवरी में जेनेवा में मुलाकात की थी. वे बहुत निराशा में थे. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए आपात स्थिति की घोषणा समय रहते नहीं करने के कारण उनकी आलोचना हुई थी. लेकिन जब उन्होंने ऐसा किया और विश्व स्वास्थ्य संगठन की मदद के लिए 675 मिलियन डॉलर की साधारण राशि की मांग की, तो उनके अनुरोध को अस्वीकार कर दिया गया.

ब्रिटेन अब इस नयी महामारी को परास्त करने के लिए सही कदम उठा रहा है, लेकिन हमने बहुमूल्य समय खो दिया है. ऐसी मौतें होंगी, जिन्हें रोका जा सकता था. तंत्र असफल रहा है. मुझे नहीं पता, ऐसा क्यों हुआ. लेकिन जब हम इस महामारी पर काबू पा चुके होंगे और जीवन कुछ हद तक सामान्य होने लगेगा, तब कठिन सवाल पूछे जायेंगे और उनके जवाब दिये जायेंगे. क्योंकि हम फिर असफल होने का जोखिम नहीं उठा सकते हैं. शायद हमें दूसरा मौका नहीं मिलेगा.

Also Read: एनएल टिप्पणी: कोरोना पर मिथक थोड़ने का भ्रम फैलाते चैनल और फांसी का पोस्टमॉर्टम

Also Read: कोरोना वायरस, सर्विलांस राज और राष्ट्रवादी अलगाव के ख़तरे