Newslaundry Hindi
एनएच-24: धूल के गुबार के बीच कारवां के कारवां पलायन कर रहे हैं
“रास्ते में लोग खिचड़ी खिला रहे थे सुबह से बस वही खाए हैं.”
अपने कंधे पर पांच साल के बेटे को बैठाए उत्तर प्रदेश के बरेली जिले के लिए पैदल निकले राजूपाल हमसे बात करते-करते सड़क किनारे बैठ जाते हैं. उनकी पत्नी पीछे रह गई हैं.
पूर्वी दिल्ली के गांधीनगर में एक कंपनी में काम करने वाले राजूपाल गुरुवारको सुबह छह बजे अपने परिवार के साथ निकले थे. हमसे जब उनकी मुलाकात हुई गाजियाबाद के विजय नगर के पास तब दोपहर के दो बज चुके थे. नेशनल हाइवे 24 पर ऐसे लोगों का छोटा-छोटा समूह बिखरा हुआ है, जो अपने पीठ पर बैग या सिर पर गठरी लादकर अपने घर-गांव की ओर लौट रहा है.
ये वो लोग हैं जो दिल्ली और एनसीआर के इलाकों में रोजी-रोटी की तलाश में, एक अदद बेहतर जिंदगी की तलाश में आए थे, लेकिन जिंदगी ने इनके लिए कुछ और ही तय कर रखा था. अब यहां न ठीक से खाने को है, न कमाने को है, लौट जाने के लिए भी सिर्फ दो पैर हैं.
राजूपाल कहते हैं, ‘‘मैं कपड़े की कंपनी में प्रेस करने का काम करता हूं. वहां आमदनी तो बहुत नहीं है. अभी होली में परिवार के साथ घर गया था, उसमें जो कुछ बचत थी वो खत्म हो गई. होली के बाद घर से लौटते ही कोरोना के कारण काम बंद हो गया. पास में कुछ था ही नहीं. अगर एक महीने काम किया होता तो अगला एक महीना आराम से कट जाता. मकान मालिक को किराया देने के बाद जो पैसा बचा उससे हम दिल्ली में रह नहीं सकते हैं. भूखे मरना पड़ता, इसलिए घर के लिए निकल गए. दो से तीन दिन में बरेली पहुंचजाएंगे. गांव में ले देकर काम चल जाएगा लेकिन यहां किससे लेन-देन करेंगे.’’
इसी दौरान उनकी पत्नी वहां पहुंच जाती हैं. दोनों कुछ देर आराम करते हैं और फिर चल देते हैं. चलते-चलते राजूपाल कहते हैं, ‘‘कठिन समय है पर अपने बच्चों की जिंदगी की लिए जाना तो पड़ेगा. हम भूखे रह सकते हैं पर बच्चे तो नहीं रह सकते न? हम इन्हें अपने सामने भूखा देख भी नहीं सकते.’’
दोपहर के एक बजे नेशनल हाईवे-24 पर हल्की धूल भरी आंधी चल रही है.जगह-जगह हाईवे के विस्तार का काम चल रहा है. वहां जमा मिट्टी हवा के तेज बहाव में उड़ रही है. इस सब के बीच चार-चार, पांच-पांच की टोलियों में लोग पैदल चले जा रहे हैं. किसी को कानपुर जाना है, किसी को अलीगढ़ तो किसी को बिजनौर. कुछ लोग बिहार के अलग-अलग जिलों में जाने के लिए भी पैदल ही दिल्ली से निकल पड़े हैं.
हताशा और निराशा इन सबके चेहरों पर जमी हुई है. आंखों में एक अनिश्चय का भाव है, भूख और प्यास की रेखाएं साफ दिख जाती हैं. पर इन्हें उम्मीद है कि जैसे-तैसे घर पहुंच जाएंगे.
देश में कोरोना महामारी को बढ़ने से रोकने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पहले एक दिन के लिए जनता कर्फ्यू लगाया उसके बाद अगले 21 दिनों के लिए पूर्ण लॉकडाउन की घोषणा कर दी. हमेशा जोश में भाषण देने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 24 मार्च को राष्ट्र को संबोधित करते वक्त थोड़ा विचलित नज़र आ रहे थे. जाहिर है कोरोना ने देश और दुनिया के सामने जो चुनौती पेश की है उससे निपटने का अभी तक कोई सटीक तरीका सामने नहीं आया है.
अपने विशेष संदेश में प्रधानमंत्री ने खुद कहा कि जिन देशों के पास सबसे बेहतर मेडिकल सुविधाएं हैं, वे भी इस वायरस को रोक नहीं सके और इसे कम करने का उपाय केवल सोशल डिस्टेंसिंग यानी सामाजिक दूरी है.’’
प्रधानमंत्री ने कहा, ‘‘आधी रात से पूरे देश में संपूर्ण लॉकडाउन हो जाएगा, लोगों को 21 दिनों के लिए उनके घरों से बाहर निकलने पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया जा रहा है. स्वास्थ्य क्षेत्र के विशेषज्ञों और दूसरे देशों के अनुभवों को ध्यान में रखते हुए यह फैसला लिया गया है. संक्रमण की श्रृंखला को तोड़ने के लिए 21 दिन आवश्यक हैं.’’
प्रधानमंत्री ने रात आठ बजे ये घोषणा की, इसके बावजूद लोग रात को ही सड़कों पर ज़रूरी समान खरीदने के लिए निकल पड़े. सड़कों पर गाड़ियां दिखने लगी. लेकिन उसी वक़्त कुछ लोग थे जो अपने घरों के लिए निकल गए या निकलने के बारे में सोचने लगे. उनके पास 21 दिन तक न तो घर पर बैठकर खाने के लिए पैसे थे न ही घर का किराया देने के लिए.
अपने घर लौट रहे मैनपुरी के 25 वर्षीय शिव चौहान से भी हमारी मुलाकात नेशनल हाईवे-24 पर हुई. अपने दो साथियों के साथ वो चले जा रहे थे. पीठ पर काले रंग का बैग लटकाए, मुंह पर मास्क लगाए शिव चौहान तीन दिन यानी पीएम के भाषण वाली रात गुड़गांव से निकले थे दो दिन चलने के बाद वो गुरुवार को गाजियाबाद के विजय नगर पहुंचे थे.
शिव ने हमें बताया, ‘‘गुड़गांव में एक कंपनी में काम कर रहा था. जैसे ही कोरोना का मामला आया कंपनी ने बंदी कर दी. हमें हमारा बकाया भी नहीं मिला. हम इस उम्मीद में थे कि जल्दी सब बेहतर हो जाएगा. लेकिन 23 मार्च को जब प्रधानमंत्री ने भाषण दिया तो हमारी उम्मीद खत्म हो गई. हम उसी रात निकल गए. पैसे नहीं थे. सिर्फ सौ रुपए थे तो हमने बिस्कुट खरीद लिया. वहीं खाते हुए जा रहे है. अब एकाध पॉकेट बिस्कुट बचा हुआ है.’’
शिव चौहान अकेले नहीं हैं. उनके साथ मैनपुरी जिले के ही रहने वाले आठ लोग और हैं. वे बताते हैं, ‘‘कुछ लोग जल्दी-जल्दी चल रहे हैं तो कुछ धीरे-धीरे लेकिन हम साथ ही घर को लौट रहे हैं. अभी जो साथी आगे चले गए हैं वो लाल कुआं के पास हमारा इंतजार करेंगे. हम वहां जायेंगे और फिर आराम करने के बाद निकलेंगे.’’
सुबह से क्या खाए, इस सवाल के जवाब में शिव कहते हैं, ‘‘बैग में कुछ बिस्कुट का पैकेट बचा हुआ है उसे ही खा रहे है. इसके अलावा कुछ भी खाने को नहीं मिला.’’
‘सुबह से बस पुलिस का डंडा खाए हैं’
उत्तरी-पूर्वी दिल्ली में पिछले दिनों हुए दंगे का दंश अभी ठीक से खत्म भी नहीं हुआ था कि कोरोना का संकट खड़ा हो गया है. इसका खामियाजा यहां काम करने वालों दुकानदारों और मजदूरों पर साफ़ दिख रहा है.
वैशाली मेट्रो स्टेशन से पास अपने दोस्तों के साथ बिजनौर के लिए निकले मोहम्मद आलिम सीलमपुर इलाके में हेयर कटिंग सैलून चलाते हैं. आलिम कहते हैं, ‘‘दंगे के कारण पहले कुछ दिन दुकान बंद रही और फिर जब खुली तो कोरोना के कारण ग्राहक कम आने लगे. कर्फ्यू के बाद से लोग दिखते ही नहीं थे. और अब लॉकडाउन हो गया तो हम दुकान भी नहीं खोल सकते. ऐसे हालात में दिल्ली में रहते तो भूखे मर जाते.’’
आलिम अपने दोस्तों के साथ गुरुवार सुबह दस बजे सीलमपुर से बिजनौर के अपने गांव नगीना धामपुर के लिए निकले थे और दो घंटे बाद आनन्द विहार पहुंचे थे. दिल्ली से बिजनौर के बीच के दूरी लग लगभग 160 किलोमीटर है. रोजाना पच्चास किलोमीटर चले तो भी तीन दिन लग जाएंगे. इसपर वे कहते हैं, ‘‘खाने के पैसे नहीं थे. घर से बाहर निकल रहे थे तो पुलिस दौड़ा रही थी. पास में हज़ार रुपए बचे थे उस लेकर घर के लिए निकल गए. न जाने कब पहुंचेगे लेकिन इंशाअल्लाह पहुंच जायेंगे.’’
आलिम के साथी 24 वर्षीय जावेद सीलमपुर में सिलाई का काम करते हैं. उनका काम 21 मार्च से बंद पड़ा हुआ है. जावेद कहते हैं, ‘‘पैसे और खाने की बहुत दिक्कत आ रही थी. दुकान सही से खुल नहीं पा रही है. दुकान जाने पर पुलिस वाले पकड़ लेते है. लठ बजाकर अंदर भगा देते हैं. उन्हें हम कहते हैं कि खाने के समान के लिए आए हैं तो वे कहते हैं कि अपने घरों में इंतज़ाम करो. हमारा यहां कोई घर या रिश्तेदार तो है नहीं कि हम यहां इंतजाम कर सकें. जैसे-तैसे करके खा रहे थे. जब तक एडजस्ट हुआ किया. अब नहीं हो रहा तो घर जा रहे हैं.’’
जावेद का घर दिल्ली से लगभग दो सौ किलोमीटर दूर है. वो आगे कहते हैं, ‘‘मरना तो है ही करोना से मरे या कर्फ्यू से मरें या पैदल चलकर मरें. निकल चुके हैं तो पहुंच ही जाएंगे.’’
सुबह से कुछ खाए हैं. इस सवाल के जवाब में थोड़ा हंसते हुए दोनों कहते हैं, ‘‘हां सुबह से पुलिस के सात-आठ डंडे खाए हैं.’’
सीलमपुर से जब ये लोग बिजनौर के लिए निकले तो रास्ते में गश्त लगा रही और लॉकडाउन को सख्ती से पालन कराने की कोशिश कर रही पुलिस ने इन्हें कई जगह पर रोका. कुछ जगहों पर इन्हें जाने दिया वहीं कुछ जगहों पर इन्हें पुलिस से मार भी पड़ी.
सरकार ने हमारे बारे सोचा नहीं
जब से प्रधानमंत्री ने लॉकडाउन की घोषणा की है तब से इस रास्ते से प्रवासी मजदूरों का आना जाना लगा हुआ है. स्थानीय युवा जगह-जगह लोगों को केला, बिस्कुट खिलाते और पानी पिलाते नजर आते हैं. जो भी लोग आते हैं पहले ये युवा उनका हाथ धुलवाते हैं और फिर उन्हें खाने को देते है.
इन युवाओं की टोली में से एक राजवीर सिंह कहते हैं, ‘‘हम लोग यहीं विजय नगर के रहने वाले हैं. लोगों को बदहाली में जाते देखा तो हमें लगा कि कुछ करना चाहिए. हमारे पास कुछ पैसे हैं तो हमने आज से लोगों की सेवा का काम शुरू किया है. सुबह-सुबह खिचड़ी खिलाया और अब बिस्कुट और केला बांट रहे हैं. जब तक लॉकडाउन रहेगा हम कोशिश करेंगे कि इन लोगों की थोड़ी मदद कर सकें.’’
इसी टीम के सदस्य प्रमोद कुमार सरकार पर भड़क जाते हैं. वे कहते हैं, ‘‘कोरोना के कारण सरकार ने लॉकडाउन किया, यह बहुत अच्छी बात है लेकिन सरकार को इन मजदूरों के बारे में सोचना चाहिए था. हम तीन दिन से देख रहे हैं. बिहार और बंगाल तक के मजदूर पैदल ही घरों को जा रहे हैं. बेचारों के पास रास्ते में खाने तक के पैसे नहीं है. उनको जब हम लोग बिस्कुट वगैरह खाने को देते हैं तो इस तरह खाते हैं जैसे भूख से तड़प रहे हो. सरकार ने इनके बारे में नहीं सोचा.’’
वहीं पर सड़क किनारे बैठकर बिस्कुट खा रहे दिल्ली में दिहाड़ी मजदूरी करने वाले एटा के योगेन्द्र और शिव कुमार से भी मुलाकात हुई. पीठ पर बैग टांगे ये लोग देर रात धौला कुआं से एटा के लिए निकले हैं.
योगेन्द्र दिल्ली में हेल्पर का काम करते हैं. वे कहते हैं, ‘‘काम बंद है. दुकानें बंद है. पैसे खत्म हो गए. यहां रहेंगे तो भूखे मर जाएंगे. घर पहुंच गए तो सब ठीक हो जाएगा. यहां से एटा 250 किलोमीटर है. चलते-चलते पहुंच ही जाएंगे. बीच-बीच में कोई सवारी वाला मिल गया तो भाग्य खुल जाएगा नहीं तो पैदल तो जाएंगे ही. हम तो रोजाना कमाने और खाने वाले है.’’
वहीं पर बैठकर केला खा रहे कानपुर के 12 वर्षीय चन्दन कुमार दिल्ली के एक ढाबे पर काम करता है. चन्दन के पिता का निधन हो गया जिसके बाद वो काम करने के लिए दिल्ली चला आया. अब इस लॉकडाउन की वजह से उसे अपने घर जाना पड़ रहा है. कानपुर के अपने कई जानकारों के साथ गांव लौट रहा चन्दन कहता हैं, ‘‘पांच हज़ार महीना वेतन मिलता था. खाने के लिए ढाबे पर ही मिल जाता था. पांच हज़ार में से हज़ार रुपए रखकर बाकी पैसे घर भेज देता हूं. अब ढाबा भी बंद हो गया तो घर जाने के अलावा मेरे पास कोई रास्ता नहीं है.’’
कानपुर के लिए जो टोली दिल्ली से निकली है उसमें चन्दन के अलावा चालीस वर्षीय राकेश कुमार भी हैं. राकेश गांधी नगर में सिलाई का काम करते हैं. कानपुर में उनका घर शहर से पहले पनकी पॉवर हाउस के पास है. इनकी भी कहानी तमाम लोगों जैसी ही है. इनके पास खाने के पैसे नहीं बचे थे. घर में अनाज खत्म हो गया था तो गुरुवार सुबह कानपुर के लिए पैदल ही निकल गए.
कानपुर से दिल्ली के बीच की दूरी पांच सौ किलोमीटर के आसपास है. इतनी दूरी तय करने में आठ से दस दिन लग सकता है. कुछ तैयारी करके निकले हैं या ऐसे ही? इस पर अपना शरीर दिखाते हुए राकेश कहते हैं, ‘‘लम्बी दूरी थी तो बैग तक नहीं लिया है. जो कपड़े पहने थे वहीं पहनकर जा रहा हूं. सामान लेकर चलता तो रास्ते में चोरी का भी डर बना रहता और लेकर चलते हुए दिक्कत भी होती.’’
राकेश से हम बात कर रहे थे तभी एक महिला अपने सर पर बड़ा सा बैग और कंधे पर एक दूसरा बैग लटकाए हुए सामने से गुजरती है. जो बैग उन्होंने लटकाया है वो सर्व शिक्षा अभियान कार्यक्रम का है. हम उस महिला के परिजनों से बात करने पर पता चला कि उन्हें कासगंज जाना है. गाजियाबाद में सिलाई-बुनाई का काम करते थे, लेकिन सब काम ठप हो गया. मकान मालिक से बोले कि अगले महीने का किराया नहीं लोगे तो रहने को सोच सकते हैं. उन्होंने साफ़ मना कर दिया तो मजबूरन कमरा खाली करके जा रहे हैं.
इस परिवार के साथ छह बच्चे और तीन महिलाएं है. तीनों महिलाओं के पास बड़ा-बड़ा बैग है. इसमें से एक महिला कहती है, ‘‘घर जाते-जाते कहीं हम मर न जाएं. अभी घर से निकले आधे घंटे भी नहीं हुए हैं, सांस फूलने लगी है.’’
तीन दिन से कुछ नहीं खाया
यहां लोगों से बातचीत करते हुए शाम के तीन बज गए हैं लेकिन लोगों के लौटने का सिलसिला जारी है. दिल्ली के जैतपुर में ऑटो चलाने वाले अशफाक आलम रामपुर के अपने गांव के लिए निकले हुए हैं. उनके साथ उनके पड़ोसी भी हैं जो रामपुर के ही रहने वाले हैं.
न्यूजलॉन्ड्री से बात करते हुए अशफाक़ रोने लगते हैं और कहते हैं, ‘‘तीन दिन से घर पर कुछ खाने को नहीं था. ऑटो चलाकर परिवार का रोजी-रोटी चलता था. काम अचानक से बंद हो गया. खाने तक के पैसे नहीं बचे थे. बिस्कुट वगैर खाकर दिन काट रहे हैं.’’
अशफाक के साथ कुछ महिलाएं थी जो अपने बच्चों को कंधे पर लेकर चल रही थीं. वो कहती हैं, ‘‘बच्चों को दो दिन से दूध नहीं मिला है. रामपुर दूर है लेकिन जाना तो पड़ेगा. गांव में लोग जानने वाले हैं. कोई न कोई मदद कर देगा.’’
नीतीश सरकार और योगी सरकार की कोशिश
घरों को लौट रहे इन मजदूरों में सबसे ज्यादा संख्या उत्तर प्रदेश और बिहार के मजदूरों की हैं. जब चौतरफा आलोचना शुरू हुई तो दोनों ही प्रदेश की सरकारों ने मजदूरों के लिए कुछ विशेष योजना की शुरुआत की है.
घरों को लौट रहे मजदूरों को कई जगहों पर पुलिसिया दमन का शिकार होना पड़ रहा है तो कई जगहों पर पुलिस उनकी मदद करते हुए भी नज़र आ रही है. यूपी के बदायूं से पुलिस द्वारा मजदूरों के साथ किए जा रहे अमानवीय कृत्य की तस्वीर सामने आई उसके बाद योगी सरकार ने सख्ती करते हुए कहा कि जो भी मजदूर आ रहे उनके साथ मानवीय व्यवहार किया जाएगा.
यूपी सरकार के इस निर्देश में लिखा गया है कि बिहार और उतराखंड जाने वाले लोगों का पूरा ख्याल रखा जाएगा और उन्हें सुरक्षित उनके गन्तव्य स्थलों तक छोड़ा जाएगा. इसके अलावा योगी सरकार ने हरियाणा सरकार से अपने प्रदेश के मजदूरों ठहराने और उनका ख्याल रखने का गुजारिश की है.
बिहार सरकार कोरोना के समय में अपनी सुस्त प्रतिक्रियाकी वजह से काफी आलोचना झेल रही है.मजदूरों की बदहाल स्थिति के चलते बाद एकबार फिर लोगों के निशाने पर नितीश कुमार आ गए. आलोचना के बाद बिहार सरकार ने लॉकडाउन में फंसे लोगों को राहत पहुंचाने के लिए मुख्यमंत्री राहत कोष से सौ करोड़ रुपए जारी करने का आदेश दिया है.
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इसकी जानकारी देते हुए कहा कि बिहार के निवासी बिहार के किसी शहर में या जहां भी फंसे हों वहीं पर मदद की जाएगी. उनके भोजन एवं आवासन की व्यवस्था सरकार करेगी.
इन तमाम तैयारियों के बावजूद मजदूरों का पलायन बदस्तूर जारी है. कोरोना और भूख के भय से ये लोग सैकड़ों और हज़ारों किलोमीटर की दूरी पैदल तय करके अपने घर जाने को मजबूर हैं. लॉकडाउन का फैसला बिना तैयारी लिया गया जिसका खामियाजा ये लोग भुगत रहे हैं.
Also Read: कोरोना की मार से लस्त-पस्त प्रिंट मीडिया
Also Read
-
BJP faces defeat in Jharkhand: Five key factors behind their setback
-
Newsance 275: Maha-mess in Maharashtra, breathing in Delhi is injurious to health
-
Decoding Maharashtra and Jharkhand assembly polls results
-
Pixel 9 Pro XL Review: If it ain’t broke, why fix it?
-
How Ajit Pawar became the comeback king of Maharashtra