Newslaundry Hindi
कोरोना पर सर्जिकल स्ट्राइक की ज़रूरत है, ऑल आउट वार की नहीं
(इस लेख का अनुवाद बीबीसी डिजिटल के संपादक राजेश प्रियदर्शी ने किया है. इसे न्यूयॉर्क टाइम्स ने प्रकाशित किया है.)
हम अक्सर लड़ाइयों के मामले में सर्जिकल स्ट्राइक की बात करते हैं, उसमें संसाधन कम लगते हैं, बर्बादी-तबाही भी कम होती है, अगर अच्छी तरह किया जाए तो लक्ष्य हासिल हो जाता है और अनचाहे नतीजे सामने नहीं आते हैं. अब जब दुनिया भर के शासनाध्यक्ष कह रहे हैं कि वे कोरोना के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ रहे हैं तो यही सवाल सामने है-क्या ये ऑल आउट वार है या फिर यहां सर्जिकल स्ट्राइक संभव है?
संक्रमण का फैलाव तब तक सीमित रहता है जब तक वह पानी या खाने से फैलता है, लेकिन मच्छरों, चूहों और हवा से फैलने वाले संक्रमण ज़्यादा दूर तक जाते हैं. इंसान से इंसान में होने वाला संक्रमण जब फैलना शुरू होता है तो वह ऐसी पूरी आबादी को अपनी चपेट में ले सकता है जो उस संक्रमण से इम्युन न हो.
किसी रोग से लड़ने की हमारी क्षमता यानी इम्युनिटी का मतलब है कि हमारे शरीर ने संक्रमण के ख़़िलाफ़ लड़ने के लिए एंडी-बॉडीज़ बनाना सीख लिया है, और बनाना शुरू कर दिया है. ऐसा प्राकृतिक तौर पर भी हो सकता है और ऐसा टीके या वैक्सीन के ज़रिए भी. इसका मतलब है कि हमारे शरीर में इतने मज़बूत एंटी-बॉडीज़ बन रहे हैं जो संक्रमण पैदा करने वाले वायरस को रोग के लक्षण पैदा करने से पहले ही खत्म कर देंगे.
अहम बात ये है कि अच्छी रोग प्रतिरोधक क्षमता वाला व्यक्ति रोग को आगे नहीं फैलाता है. अगर कोई संक्रमण आपके शरीर में घर नहीं कर पा रहा है तो इसका मतलब ये है कि आप संक्रमण के वाहक यानी कैरियर नहीं हैं, ऐसी स्थिति में आप किसी और को संक्रमित नहीं करेंगे.
यह समझना चाहिए कि अगर अधिक-से-अधिक लोग संक्रमण के लिए यदि 'डेड एंड' साबित होंगे तो बीमारी का फैलाव कम होता जाएगा और आख़िरकार उसका अंत हो जाएगा, इसे वैज्ञानिक भाषा में 'हर्ड इम्युनिटी' कहते हैं.
संक्रमण के सबसे अच्छे आंकड़े साउथ कोरिया में जुटाए गए हैं, उन आंकड़ों से पता चलता है कि आम जनता के बीच जितने भी पॉज़िटिव केस हैं उनमें से ज़्यादातर को हल्का संक्रमण (माइल्ड) माना जा सकता है, ऐसे में मरीज़ की सिर्फ़ निगरानी करनी होती है, उसे किसी उपचार की ज़रूरत नहीं होती.
बहुत छोटा प्रतिशत उन लोगों का है जो बुरी तरह संक्रमित हैं, इनमें से ज़्यादातर लोग 60 वर्ष से ऊपर की आयु के हैं. 60-70-80 वर्ष को अगर हम तीन अलग-अलग श्रेणी मान लें, तो हर दस वर्ष अधिक उम्र वाले व्यक्ति के लिए मौत का ख़तरा, 10 साल छोटे व्यक्ति से दोगुना होता जाता है.
चीन के उलट साउथ कोरिया ने बहुत व्यवस्थित तरीक़े से, बहुत जल्दी और बड़े पैमाने पर टेस्ट करना शुरू कर दिया, उन्होंने आम तौर पर स्वस्थ माने जा रहे लोगों की टेस्टिंग भी की. उन्हें समझ में आया कि बहुत सारे लोग जिनमें कोई लक्षण नहीं दिख रहे हैं उनमें भी कोरोना संक्रमण वाले लोग हैं, बस उनका संक्रमण हल्का है लेकिन वे संक्रमण फैला सकते हैं.
डायमंड प्रिंसेस क्रूज़ शिप की मिसाल काफ़ी दिलचस्प है, इस जहाज़ पर अधिक उम्र के लोग निगरानी में बंद रखे गए हैं, बंद रखे गए लोगों में मृत्यु की दर एक प्रतिशत से भी कम है.
अमेरिका में आंकड़े बहुत छोटे हैं जिनसे बड़े निष्कर्ष निकालने की कोशिशें चल रही हैं. एक बात साफ़ है कि अमेरिका के आंकड़े और बाकी दुनिया के आंकड़ों में एक ही तरह का पैटर्न है. अमेरिका में अब तक 200 लोगों की जान कोविड-19 की वजह से गई है. ज़्यादातर मौतें उम्रदराज़ लोगों की हुई हैं या फिर उनकी जिन्हें मधुमेह या दिल की बीमारी है, सबसे ज़्यादा मौतें उनकी हुई हैं जिनकी उम्र ज़्यादा है और वे पहले से बीमार भी थे.
फ्लू जैसे संक्रमण बुज़ुर्गों और बीमारों के लिए घातक होते हैं लेकिन ये बच्चों के लिए भी ख़तरनाक है. अब हर्ड इम्युनिटी के बारे में सोचिए, हर्ड इम्युनिटी तभी बन सकती है जब दो अलग-अलग श्रेणियों में लोग हों, पहली श्रेणी में वो जो इस संक्रमण से जूझकर ठीक हो सकते हैं, दूसरे जिनके लिए रिकवरी के आसार कम हैं. यानी बच्चों और बुज़ुर्गों को एक श्रेणी में रखना, और बाकी लोगों को अलग श्रेणी में. ऐसा करना व्यावहारिक तौर पर बहुत कठिन है.
कोरोना की वजह से बहुत कम बच्चों की मौत हुई है, ऐसी हालत में हम कह सकते हैं कि 60 से ऊपर के लोगों, और जिन्हें कोई बीमारी है उन्हें पूरी तरह अलग-थलग रखा जाना चाहिए, उनका ख़ास ख्याल रखके वायरस से होने वाली मौतों को कम किया जा सकता है.
मुझे डर है कि हमारी कोशिशों का बहुत सीमित असर होगा, इसकी वजह ये है कि हमारे पास सीमित संसाधन हैं, एक बिखरा हुआ-सा और हमेशा से उपेक्षा का शिकार एक मेडिकल सिस्टम है. इन सीमित साधनों को इतने व्यापक तौर पर फैलाकर, सतही ढंग से कोशिश करना असफल होने की ही रेसिपी है.
हम अमेरिका में चीन या साउथ कोरिया की तरह निर्णायक ढंग से हस्तक्षेप नहीं कर पाए हैं, न ही हमारा हेल्थ सिस्टम सिंगापुर जैसा साधन-संपन्न है. हमारे हेल्थ सिस्टम पर दो बार भारी बोझ पड़ेगा, पहला जब बड़ी तादाद में लोग टेस्ट के लिए आएंगे, दूसरा जब बीमार बुज़ुर्गों को अस्पताल के बिस्तरों की ज़रूरत होगी.
हम लोगों का मिलना-जुलना कम कर रहे हैं, स्कूल-कॉलेज, दुकान और कारोबार बंद किए जा रहे हैं, और हम ऐसा उम्र वाले फैक्टर को ध्यान में रखे बिना कर रहे हैं, इस तकनीक को मैं हॉरीजॉन्टल इंटरडिक्शन (Horizontal Interdiction) कहता हूं.
जब लोग बड़ी तादाद में बेरोज़गार होकर अपने मूल निवास की ओर लौट रहे हैं, जब कॉलेज और यूनिवर्सिटी के छात्र घर वापस भेजे जा रहे हैं, अब ये युवा लोग संक्रमित हैं या नहीं, यह किसी को नहीं पता. जहां ये अपने 50-60 के उम्र वाले माता-पिता और उससे भी अधिक उम्र वाले दादा-दादी के साथ रहेंगे. मैंने कहीं नहीं देखा कि एक घर के भीतर अलग-अलग उम्र के लोगों को किस एहतियात के साथ रहना चाहिए, इसकी कोई गाइडलाइन कहीं जारी हुई हो. ऐसी गाइडलाइन होती तो उसे मैं वर्टिकल इंटरडिक्शन कहता.
हम संक्रमण को पूरी तरह खत्म कर डालना चाहते हैं लेकिन इस प्रक्रिया में हम ख़ास जोखिम वाले वर्ग का अलग से ध्यान नहीं रख पा रहे हैं, मेरा मानना है कि हम इस संक्रमण से प्रभावी तरीके से नहीं निबट रहे हैं, और इस क्रम में अर्थव्यवस्था तो चौपट हो ही रही है.
कोरोना से निबटने के इस एप्रोच में एक और समस्या है, अगर हम बीमारी का फैलाव धीमा कर देते हैं, अगर तूफ़ान घटकर आंधी बन जाए तो वैसी हालत में हम कब पूरे देश-समाज में जारी घरबंदी को हटाएंगे? कब माना जाएगा कि स्वस्थ बच्चे और उनके युवा शिक्षक स्कूल लौट सकते हैं? कब से दफ़्तरों और कल-कारखानों में काम शुरू हो सकेगा? दादा-दादी कब अपने पोते-पोतियों के साथ बिना डर के खेल सकेंगे?
इसका एक मोटा सा जवाब है कि हम नहीं जानते. क्या हम वैक्सीन का इंतज़ार कर सकते हैं, या संक्रमण के पूरी तरह लुप्त हो जाने का, इन दोनों के होने में कोई नहीं जानता कि कितना समय लगेगा. इसकी कीमत बेहिसाब है, न सिर्फ़ आर्थिक बल्कि हर तरह की कीमत.
तो फिर विकल्प क्या है?
हमें अपने संसाधनों का इस्तेमाल टेस्टिंग और लोगों को सुरक्षित करने में लगाना चाहिए. आंकड़े हमें बताते हैं कि किन लोगों को सबसे ज़्यादा ख़तरा है, उन पर सबसे ज्यादा ध्यान देना चाहिए-बुज़ुर्ग, बीमार और कमज़ोर रोग प्रतिरोधक क्षमता वाले लोग हमारी प्राथमिकता होने चाहिए. जो लोग पॉज़िटिव पाए जाते हैं उन्हें एंटी-वायरल के आते ही उसकी डोज़ दी जानी चाहिए, जो नेगेटिव हैं उन्हें संक्रमित होने से बचाने के सभी उपाय किए जाने चाहिए.
भले तादाद कम हो, लेकिन कुछ कम उम्र लोगों की भी दुखद मौत हुई है, ऐसा क्यों हुआ हम अभी तक नहीं जानते. अगर कम उम्र के लोगों में मौत की तादाद बढ़ती है तो उन्हें भी जोखिम वाले लोगों की श्रेणी में रखकर सुरक्षित करना होगा.
किन लोगों को जोखिम वाली श्रेणी में रखा जाए इसके लिए तय मानदंडों की विस्तृत सूची बनाकर हर स्वास्थ्य केंद्र और कर्मचारी तक पहुंचाना चाहिए, इसे लगातार रिव्यू और अपडेट करते रहना चाहिए.
मेरी आशंका ये है कि सब पर एक बराबर ध्यान देने की कोशिश करने का मतलब होगा कि जिस पर अधिक ध्यान देने की ज़रूरत है उस पर हम पूरा ध्यान नहीं दे पाएंगे.
पहली बात तो ये कि मेडिकल सिस्टम लो-रिस्क वाले लोगों की डिमांड से जूझता रहेगा और हाइ-रिस्क वाले मरीज़ों के लिए सेवाएं सीमित हो जाएंगी, दूसरा, स्वास्थ्य कर्मचारी मुश्किल चुनौतियों से सिर्फ़ अस्पतालों और लैब में ही नहीं जूझ रहे हैं, स्कूल-कॉलेज और कारोबार बंद होने से घर की चुनौतियां भी हैं. तीसरा, सबको घर भेज देना, और हर उम्र के लोगों को एक घर में बंद कर देना जोखिम वाले लोगों के लिए ख़तरनाक साबित हो सकता है.
अब जबकि अमरीका में वायरस बड़े पैमाने पर फैल चुका है, ढेर सारे केस पकड़े नहीं गए हैं, ऐसे में घरों में बंद परिवारों के लिए ख़तरे बहुत अधिक हैं. पहले बुज़ुर्गों की टेस्टिंग होनी चाहिए ताकि उन्हें जल्दी से जल्दी मेडिकल केयर मिल सके. बुजुर्गों के बीच प्रो-एक्टिव टेस्टिंग होनी चाहिए, न कि रिएक्टिव टेस्टिंग, यानी लक्षण दिखने से पहले टेस्ट हो. हम अपने टेस्टिंग किट पूरी आबादी में छितरा देंगे तो हम प्रभावी तरीके से काम नहीं कर पाएंगे.
अगर बुजुर्गों के छोटे ग्रुप पर ध्यान दिया जाएगा, उन्हें घरों में रखा जाएगा जबकि स्वस्थ व्यस्क काम पर जाएंगे और सेहतमंद बच्चे स्कूल लौटेंगे तो समाज की हालत बेहतर होगी, और अर्थव्यवस्था के व्यापक विध्वंस से हम बच सकेंगे. उसके बाद थिएटर और रेस्टोरेंट खोले जा सकते हैं, लेकिन जहां हर व्यक्ति पर ध्यान नहीं दिया जा सकता वो गतिविधियां बंद रहनी चाहिए, जैसे बड़े खेल आयोजन और संगीत के कार्यक्रम.
जब हम सचमुच जोखिम वाले लोगों को सुरक्षित करने पर ध्यान दे रहे होंगे तो समाज की बेचैनी कम होगी. यह बहुत अहम है कि इसी तरह से समाज हर्ड इम्युनिटी यानी सामूहिक रोग प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर पाएगा. बड़ी संख्या में लोगों को माइल्ड इन्फ़ेक्शन होंगे, स्वास्थ्य सेवाएं उन पर ध्यान देंगी जिनके लक्षण गंभीर हों. इस तरह लोग वायरस से एक्सपोज़ होंगे, ठीक होंगे और उनकी स्वाभाविक रोग प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो जाएगी. ऐसा होते ही ज़्यादा जोखिम वाले लोगों तक संक्रमण पहुंचने का ख़तरा अपने आप कम हो जाएगा.
इसका मतलब यह है कि सभी को संक्रमण से बचाने की कोशिश हो, लेकिन ज़्यादा ध्यान अधिक जोखिम वाले लोगों पर दिया जाए, अभी ऐसा करना आसान और संभव है. जैसे-जैसे समय गुज़रता जाएगा यह कठिन होता जाएगा. अभी हम जिस रास्ते पर चल रहे हैं, उसमें संभव है कि वायरस काबू में न आए, मगर समाज और अर्थव्यवस्था की ऐतिहासिक तबाही हो जाए, यानी लड़ाई का कोलैटरल डैमेज बहुत ज्यादा हो जाएगा, इसीलिए मेरी राय में सर्जिकल एप्रोच अपनाने की ज़रूरत है.
Also Read
-
Exclusive: Sharad Pawar on BJP-NCP’s 2019 ‘dinner meeting’ at Adani’s home
-
‘Give with one hand, take with other’: In Mumbai slums, price rise vs Ladki Behna appeal
-
Why is Jharkhand’s youth rallying behind this 30-year-old political outsider?
-
After Ajit Pawar’s bombshell, Sharad Pawar confirms BJP-NCP meeting took place in Adani’s home
-
‘Want to change Maharashtra’s political setting’: BJP state unit vice president Madhav Bhandari