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2020 का दशक जल की अग्नि परीक्षा का दशक

मुझे नहीं लगता कि हम कभी पानी के लिए युद्ध लड़ेंगे या शहरों से पानी पूर्णतया खत्म हो जाएगा या फिर हमारे पास पीने योग्य पानी नहीं बचेगा. हालांकि मैं यह भी स्वीकार करती हूं कि हमारे देश में पानी की कमी का भीषण और गंभीर संकट है जो दिन प्रतिदिन गहराता ही जा रहा है. लगातार बढ़ती आबादी वाले शहरों और उद्योगों की बढ़ती संख्या पानी के अंधाधुंध उपभोग के लिए जिम्मेदार है. लेकिन साथ ही साथ उपलब्ध पानी भी अब तेजी से प्रदूषित हो रहा है.

अब जलवायु परिवर्तन इस संकट की एक नई कड़ी के रूप में उभरकर सामने आ रहा है. वर्षा अब अनिश्चित और अप्रत्याशित हो गई है जिसके फलस्वरूप सूखे और बाढ़ की आवृत्ति पहले की तुलना में बढ़ गई है.

मैं ऐसा इसलिए कह रही हूं क्योंकि पानी एक नवीकरणीय संसाधन है. वर्षा हर वर्ष होती है और बर्फ भी सालाना पड़ती है. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि अगर हम कृषि को अलग रखें तो इसके अलावा किसी क्षेत्र में पानी की पूर्ण खपत नहीं होती. पानी का उपयोग हो जाने के बाद उसे निर्वाहित कर दिया जाता है. अतः इस जल का उपचार करके इसे दोबारा प्रयोग में लाया जा सकता है. अतः यही वह क्षेत्र है जहां भविष्य में कुछ बदलाव लाने की संभावना है.

लेकिन इसके लिए जल प्रबंधन की नीति और कार्यान्वयन में तालमेल की जरूरत है . अच्छी ख़बर यह है कि पिछले कुछ सालों में ‘जल साक्षरता’ का प्रतिशत बढ़ा है. यह समझने के लिए कि हमने कितना कुछ सीखा है, आइए हम पूर्व नीतियों को लेकर अपनी याददाश्त ताजा कर लें. 1980 के दशक के पूर्वार्ध तक जल प्रबंधन काफी हद तक सिंचाई परियोजनाओं, बांधों और नहरों के निर्माण और फिर लंबी दूरी तक पानी की आपूर्ति के मुद्दे तक सीमित था. लेकिन फिर 1980 के दशक के उत्तरार्ध में भयंकर सूखे का दौर आया. इससे यह स्पष्ट हो गया कि केवल बड़ी परियोजनाओं के माध्यम से पानी की मात्रा बढ़ाने की योजना पर्याप्त नहीं थी. यही वह समय था जब सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई ) ने अपनी रिपोर्ट डाइंगविजडम प्रकाशित की थी, जिसने भारत के विभिन्न कृषि-पारिस्थितिक क्षेत्रों में वर्षा जल संचयन के लिए प्रौद्योगिकियों का दस्तावेजीकरण किया. उस अवधि के लिए हमारा नारा था, ‘बारिश विकेंद्रीकृत है, इसलिए पानी की मांग भी विकेंद्रित है. तो, जहां और जब बारिश होती है, उसे जमा करें.’

फिर नीति में बड़ा बदलाव आया. 1990 के दशक के उत्तरार्ध में सूखे के दौरान राज्य सरकारों ने तालाबों का निर्माण, टैंकों की खुदाई और नदियों पर चेक-डैमों का निर्माण कर के वर्षा जल एकत्र करने के लिए बड़े पैमाने पर कार्यक्रम शुरू किए. 2000 के दशक के मध्य तक ये प्रयास महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम से जुड़ गए और स्थानीय श्रम का निवेश कर के ग्रामीण जल संपत्ति का निर्माण किया गया. इस समय तक हम यह भी समझ चुके थे कि भूजल, जिसे एक मामूली संसाधन माना जाता रहा था, वह दरअसल देश में पेयजल और सिंचाई के लिए उपयोग में आने वाले पानी का मुख्यस्रोत था. साथ ही यह भी मालूम हुआ कि सिंचाई के बुनियादी ढांचे में निवेश के बावजूद, 50 प्रतिशत से अधिक कृषि अभी भी बारिश पर निर्भर थी और इसलिए उत्पादकता के लिए खेतों के स्तर पर जल संरक्षण महत्वपूर्ण था.

2010 के दशक में, शहरी सूखे का संकट एक बड़ी समस्या बनकर उभरा. लेकिन समय के साथ नीति फिर से विकसित हुई क्यों कि यह पता चला कि जल आपूर्ति को बढ़ाना चुनौती का केवल एक हिस्सा था. शहर अपनी जलापूर्ति के लिए लंबी दूरी के स्रोतों पर निर्भर थे. इस पानी को पंप करने और पाइपों के माध्यम से घरों तक पहुंचाने का मतलब वितरण में नुकसान के साथ-साथ बिजली की उच्च लागत भी है जिसके फल स्वरूप उपलब्ध पानी महंगा हुआ और गरीबों के लिए इसकी उपलब्धता में भी कमी आई. जैसे-जैसे पानी की आपूर्ति में कमी आई, जनता ने फिर से भूजल की ओर रुख किया. तालाबों और झीलों की जगह या तो इमारतों ने ले ली थी और अगर कुछ बचे भी थे तो उपेक्षित अवस्था में. इस सबका अर्थथा जल स्तर में गिरावट.

अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि पानी की आपूर्ति प्रदूषण से जुड़ी हुई है, जितना अधिक पानी की आपूर्ति की जाती है उतना ही अपशिष्ट जल उत्पन्न होता है. यह जल पर्याप्त उपचार के बिना नदियों और जलाशयों को प्रदूषित करता है जिसके फलस्वरूप उपलब्ध जलकी गुणवत्ता में ह्रास होता है और पेयजल की सफाई की लागत भी बढ़ जाती है. सीएसई की रिपोर्ट 'एक्स क्रीटा मैटर्स’ ने दर्शाया कि जल-मल प्रबंधन के इस हानिकारक संबंध को बदले जाने की आवश्यकता थी.

कुछ साल बाद, शोध से पता चला कि शहरी निवासियों का एक बड़ा हिस्सा भूमिगत सीवरेज नेटवर्क से नहीं जुड़ा है क्यों कि इस में पूंजी और संसाधन दोनों अधिक लगते हैं. इसके उलट वे ऑन-साइट सीवेज ‘निपटान’ सिस्टम पर निर्भर हैं, जिसमें घरों के शौचालयों को सेप्टिक टैंकों या सिर्फ होल्डिंग टैंकों से जोड़ दिया जाता है. कहीं-कहीं तो अपशिष्ट सीधा खुली नालियों में जाता है.

भारत के विभिन्न शहरों के ‘शिटफ़्लो’ अथवा ‘मल–बहाव’ डायग्राम से यह पता लगा कि सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट लगाए जाने के तमाम दावों के बावजूद अपशिष्ट जल की सफाई नहीं हो रही थी. ज्यादातर मामलों में इस बुनियादी ढांचे को शहर की सफाई व्यवस्था के अनुकूल नहीं बनाया गया था और इसलिए कभी उसकी क्षमता का पूर्ण इस्तेमाल नहीं हो पाया. नदियों में प्रदूषण का स्तर नहीं घटा. इन सबके मध्य से ही नए समाधान निकले. यदि सस्ती जलआपूर्ति महत्वपूर्ण थी, तो शहरों को अपनी वितरण पाइप लाइनों की लंबाई में कटौती करने की आवश्यकता थी, जिसका मतलब तालाबों, टैंकों और वर्षा जलसंचयन जैसी स्थानीय जल प्रणालियों पर ध्यान केंद्रित करना था. साथ ही शहरों की अपशिष्ट संचय प्रणाली को नए सिरे से तैयार किए जाने की आवश्यकता थी. हर घर से कचरा उठाने, एवं उसका उपचार किए जाने की व्यवस्था ताकि अपशिष्ट जल के उपचार के साथ-साथ शहरों की साफ-सफाई भी हो सके.

पानी की आपूर्ति के लिए लंबी दूरी की पाइपलाइन बनाने और फिर उपचार के लिए अपशिष्ट जल को वापस लेने के लिए उससे भी लंबी दूरी की पाइपलाइन बनाने की आवश्यकता नहीं थी. लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात जो हमने सीखी है वह यह है कि अगर इस शहरी औद्योगिक अपशिष्ट जल का पुन: उपयोग सुनिश्चित हो तो फिर पानी कभी बर्बाद नहीं जाएगा. उससे भी बड़ी बात यह कि हमारी नदियां साफ रहेंगी.

तो हमारी जल प्रबंधन की समझ अभी इसी रूप में है. हमें पता है कि क्या करना है. लेकिन, सवाल यह है कि हम ऐसा कर क्यों नहीं रहे हैं.पानी की समस्या लगातार बढ़ती ही क्यों जा रही है? ऐसा क्यों है कि गांवों तक पानी पहुंच चुकने के बावजूद वे फिर से सूखा प्रभावित क्षेत्रों की सूची में आते हैं?

जलापूर्ति प्रणालियों की स्थिरता सुनिश्चित कर ना ही हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौती है. आज, समस्या यह है कि जलसंसाधन टिकाऊ नहीं हैं, तालाब भर जाते हैं, टैंकों पर अतिक्रमण कर लिया जाता है और वाटर शेड जो कि जल निकासी की दृष्टि से अति महत्वपूर्ण हैं, वे नष्ट हो जाते हैं. समस्या इस तथ्य में निहित है कि भूमि और जल विभाग अलग-अलग हैं. तालाब का मालिक कोई और है, नाले का कोई और. कैचमेंट किसी तीसरे के हवाले है.जल सुरक्षा के हिसाब से इसे बदले जाने की आवश्यकता है. इसका हल है स्थानीय समुदाय को जल संरचनाओं का स्वामित्व देना, लोकतंत्र को गहरा करना और शक्तियों का विकेंद्रीकरण. यही जल कुप्रबंधन का जवाब है.

इसके साथ, हमें शहरी भारत की भविष्य की प्रणालियों में निवेश करने के लिए बहुत कुछ करने की आवश्यकता है.यह अक्सर कहा जाता है कि कृषि हमारे देश में पानी का सबसे बड़ा उपयोगकर्ता है. जल का कितना हिस्सा कृषि में उपयोग होता है और कितना पानी शहरों में इस्तेमाल होता है और कितना पानी अपशिष्ट जल के रूप में उत्सर्जित होता है, इन सब के ठोस आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं. अतः पानी के स्थानीय स्रोतों का प्रबंधन; भूजल के पुनर्भरण और अपशिष्ट जल की हर बूंद का पुन: उपयोग जल-प्रज्ञ शहरों के एजेंडे में होना चाहिए. उसके बाद हमें अपने पानी के उपयोग को कम से कम करने की आवश्यकता है.

हमें हर बूंद के साथ और अधिक कुशल होने की आवश्यकता है. सिंचाई के साधनों को बदलना, पानी कम से कम उपयोग करने वाले उपकरणों का इस्तेमाल करना एवं ऐसा आहार लेना जिसके उत्पादन में कम से कम पानी की खपत हो, ये कुछ ऐसे कदम हैं जो इस दिशा में उपयोगी होंगे. इसलिए यही वह अवसर है कि हमने अबतक जो कुछ भी सीखा है उसकी मदद से भारत की जल-गाथा को बदलकर रख दें. यह संभव है. हमें बस इसे अपना सबसे बड़ा जुनून बनाना है. याद रखिए, जल आजीविका का आधार है. यह भोजन एवं पोषण के मूल में है. हमारी अर्थव्यवस्था के विकास और पानी का गहरा नाता है.

इस दशक में हमारे सामने करो या मरो कि स्थिति है. ऐसा इसलिए भी है क्योंकि इस दशक में हम प्रकृति का बदला झेलेंगे क्योंकि जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव अब बढ़ने वाले हैं. जल प्रणालियों में बड़े स्तर पर निवेश किए जाने एवं उन्हें और मजबूत बनाये जाने की आवश्यकता है. इतना मजबूत कि वे बारिश ही नहीं, बाढ़ भी झेल लें. हमें अपने काम में तेजी लाने की जरूरत है, क्योंकि जलवायु परिवर्तन के फलस्वरूप बारिश अधिक तो होगी लेकिन वर्षा के दिन कम रह जाएंगे. इसका मतलब कि जब और जहां बारिश हो, उस जल को एकत्र किए जाने के लिए हर संभव प्रयास करना पड़ेगा. हमारे सामने आज एक नया भगवान है और परीक्षा में हमें सफल हो ना ही होना है.

(डाउन टू अर्थ से साभार)

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