Newslaundry Hindi
पितृसत्ता के मुंह पर जोरदार ‘थप्पड़’
भारत उन देशों में शामिल है, जहां महिलाओं के विरुद्ध सबसे अधिक अपराध होते हैं. इन अपराधों का आधार हमारा पितृसत्तात्मक समाज है, जो महिलाओं से दोयम दर्जे का बर्ताव करता है. चूंकि इस बर्ताव की शुरुआत घरों की चारदीवारी के भीतर ही हो जाती है, इसलिए बच्चों में भी ऐसी भावना घर कर जाती है. इन तथ्यों के लिए किसी गहन शोध या सर्वेक्षण की जरूरत नहीं है, हमें बस अपने इर्द-गिर्द देखना भर है और अपने भीतर पड़ताल करनी है. इस देखने और पड़ताल में अनुभव सिन्हा की ‘थप्पड़’ हमारी मददगार बन सकती है.
पिछले दो-तीन सालों में ‘मुल्क’ और ‘आर्टिकल 15’ जैसी फिल्में बनाकर निर्देशक ने भारत के समकाल के कुछ सबसे गंभीर मसलों को ठीक से समझने के लिए एक जरूरी जमीन तैयार की है. ‘थप्पड़’ इस कड़ी में तीसरी फिल्म है. हालांकि पति द्वारा पत्नी को थप्पड़ मारने और पत्नी की प्रतिक्रिया फिल्म की मुख्यकथा है, पर अनेक किरदारों और कहानियों की उपस्थिति पितृसत्ता के बेहद जटिल जंजाल की परतों को उभारने में सहयोगी बनती है. इसलिए यह फिल्म दंपत्ति के बीच मार-पीट की कहानी होते हुए भी बस इतनी ही कहानी नहीं है.
एक घटना विभिन्न किरदारों के मन में अलग-अलग संदर्भों को उकेरती है और पति, पिता, भाई, दोस्त आदि पुरुषों तथा माता, बहन, दोस्त, पत्नी आदि महिलाओं की पीढ़ियों से होती आयी परवरिश और उससे जनित प्रतिक्रिया को प्रश्नांकित करती है. इसीलिए यह केवल घरेलू हिंसा पर बनी फिल्म नहीं है.
महिलाओं को अपने साथ होनेवाले दुर्व्यवहार (यह केवल हिंसा तक सीमित नहीं है) को सहने की शिक्षा परिवारों में मिलती है- माता-पिता से और घर के माहौल को देखकर. उनके ऊपर ही घर की जिम्मेदारी आ जाती है और उनके सपनों व काबिलियत को चौके से चौखट तक समेट दिया जाता है.
इसी तरह से पुरुष भी अपने कथित ‘विशेषाधिकार’ को आत्मसात कर लेता है. जहां बुरा बर्ताव एक ओर थप्पड़ या अभद्र भाषा के जरिये इंगित होता है, वहीं इसके मानसिक, मनोवैज्ञानिक और व्यवहारगत पहलू भी हैं. परिवार और समाज के समान सदस्य होने के नाते जिन अधिकारों और स्थितियों की उपलब्धता स्त्रियों को होनी चाहिए, उससे किसी भी प्रकार से वंचित करना प्रताड़ना है. इनके गंभीर परिणाम पीड़िता पर हो सकते हैं, इसलिए शुरुआत में ही प्रतिकार करना जरूरी है.
चूंकि ‘थप्पड़’ एक फिल्म है, इस नाते उसे कथानक, अभिनय और अच्छी कहानी के तत्वों के साथ अपनी बात कहनी थी, अन्यथा उसके उपदेशात्मक होने का जोखिम हो सकता था. ‘मुल्क’ और ‘आर्टिकल 15’ की तरह अनुभव सिन्हा तथा कहानी को गढ़ने और संवादों व दृश्यों को रचने में उनका साथ देनेवाली मृणमयी लागू ने ऐसा कथानक बुना है कि कुछ शुरुआती मिनटों के बाद परदे से नजरें हटाना बहुत मुश्किल हो जाता है.
ऐसा तब होता है, जब हर दृश्य और हर संवाद हमें विचलित करता है और परेशान करता है. फिल्मों के किरदार अचानक हमारी यादों, तजुर्बों और परिवारों में दिखने लगते हैं. तापसी पन्नू का अभिनय बेहद प्रभावी है और वो केवल हाव-भाव व संवाद से ही अपने किरदार को जीती हैं, बल्कि भीतर चल रही हलचल को अद्भुत संयम से आंखों एवं चेहरे से अभिव्यक्त करती हैं. ‘थप्पड़’ में उनका अभिनय बहुत लंबे समय तक एक उदाहरण के रूप में उपस्थित रहेगा. रत्ना पाठक शाह, तन्वी आजमी, कुमुद मिश्रा, दीया मिर्जा समेत तमाम कलाकारों ने अपनी छोटी-बड़ी भूमिकाओं के साथ न्याय किया है.
इस फिल्म को बनाने में करीब छह-सात महीने का समय लगा है. यह तथ्य इसलिए उल्लेखनीय हो जाता है कि इस अवधि में इतनी संवेदनशीलता और गंभीरता के साथ ऐसी फिल्म बनाना बहुत बड़ी उपलब्धि है. फिल्म प्रतिष्ठित कलाकारों से भरी है, पर इसमें स्टार नहीं है. कहानी ऐसी है कि लोकेशन, गीत, संगीत और रोमांस के सहारे इसे आगे बढ़ाना मुश्किल है.
विषय ऐसा है जिससे दर्शकों की बड़ी संख्या (जिसमें महिलाएं भी शामिल हैं) को ही परेशानी होने की आशंका हो. यह निर्देशक और उनकी पूरी टीम की प्रतिबद्धता के बूते ही संभव हुआ है कि वह ‘थप्पड़’ हमारे सामने है, जिसे बहुत पहले ही कई बार ऐसे ही (और कैसे भी) आना था. फिल्म में थप्पड़ एक स्त्री के चेहरे पर मारा गया है, उसके बारे में बताती फिल्म ‘थप्पड़’ पितृसत्ता पर थप्पड़ है, पर हिंसक तेवर के साथ नहीं, हमारी जड़ीभूत संवेदना व चेतना को तर्कों व भावनाओं से झिंझोड़ती हुई.
Also Read
-
‘Not a Maoist, just a tribal student’: Who is the protester in the viral India Gate photo?
-
130 kmph tracks, 55 kmph speed: Why are Indian trains still this slow despite Mission Raftaar?
-
Supreme Court’s backlog crisis needs sustained action. Too ambitious to think CJI’s tenure can solve it
-
Malankara Society’s rise and its deepening financial ties with Boby Chemmanur’s firms
-
On Constitution Day, a good time to remember what journalism can do