Newslaundry Hindi
"तू जानता नहीं मेरा बाप कौन है" रवैय्ये ने आज हालात को इतना खराब किया है
मेरे स्कूल में एक बार एक टीचर बीमार पड़ गयी और उन्हें अचानक घर जाना पड़ा. पाता नहीं क्या हुआ था लेकिन हमें उसी बहाने दो फ्री पीरियड मिल गए. हम तो ठहरे बच्चे, तो हमें बड़ी ख़ुशी हुई की उस दिन मैथमेटिक्स का क्लास नहीं होगा. हमने वही किया जो आमतौर पर स्कूल के बच्चे करते हैं: खूब सारा शोर.
हम अपनी मौज में शोरगुल कर रहे थे, आजु बाजू का बिल्कुल ध्यान नहीं था. इसी बीचधीरे से हमारी प्रिंसिपल मैडम आकर दरवाजे पे खड़ी हो गईं. उन्होंने चंद बच्चों को जो ज्यादा शोर मचा रहे थे, बाजु किया और खूब डांटा. उन्होंने सबको क्लास के बाहर मुर्गा बनने की सज़ा दी. मैं भी उनमें शामिल था. मगर बाहर जाने से पहले एक अजीब सी चीज़ हुई.
हमारे साथ खड़े बच्चों में से एक लड़के को प्रिंसिपल ने वापस बैठ जाने के लिए कहा. बात हमारी समझ में नहीं आई क्योंकि वो लड़का ही सबसे ज्यादा शोर मचा रहा था. क्लास के बाहर, मुर्गा बने-बने मैंने अपने दोस्त से पुछा की आखिर ये माजरा क्या है. तब उसने मुझे बताया की वो लड़का हमारे स्कूल के एक टीचर का बेटा है, शायद इसलिए उसे स्पेशल ट्रीटमेंट मिली है.
अब आप सोच रहे होंगे ये कहानी मैं आपको क्यों बता रहा हूं. मैं ये बात आपको इसलिए बता रहा हूं क्योंकि उस दिन मुर्गे की हालत में हमें ये पता चला की स्कूल का कानून सबके लिए सामान नहीं था. हमको हमारी गलती का एहसास करवाने के लिए प्रिंसिपल ने सबक सिखाया, और कुछ हद तक हमें वो बात समझ भी गई. हमें एहसास हो गया की क्लास में शोर मचाना बुरी बात होती है. मगर ये सोचने वाली बात है की वह लड़का, जिसे वापस बिठा दिया गया था, क्या उसे भी यही सबक मिला होगा. बिल्कुल नहीं. उसे इस चीज़ का बिलकुल एहसास नहीं हुआ होगा की सही व्यवहार क्या होता है, और क्या गलत है.
जिस समाज में कानून सब पर सामान तरीके से लागू होता है, वहां इस तरह के सबक लोगों को समय-समय पर मिलते रहते है. सिग्नल तोड़ा? फाइन होगा. चोरी की? जेल होगा. खून किया? फांसी हो सकती है. लोगों को दंगा करने के लिए भड़काऊ भाषण दिया,या फिर खुद दंगों में शामिल होकर तोड़-फोड़ कीतो कानून के तहत आपको सजा होगी.
मगर ये सब उस समाज में होता है जहां कानून व्यवस्था सबको सजा सामान तरीके से देती है- बिना भेदभाव किये, बिना ये देखे की अपराधी का बाप कौन है, या उसकी जाति क्या है. सज़ा देने के लिए बस इंसान की करतूत देखी जाती है. लेकिन हमारे देश का वर्तमान इसके बिल्कुल उलट है. भारत में ये पुरानी समस्या है. ऐसा लगने लगा है की ये टीचर के बच्चे, जिन्हें शोर करने पर सज़ा नहीं मिली, वे आज सड़कों पर उतर कर उधम मचा रहे हैं.
दिल्ली में हुए ताज़ा दंगे यही बताते हैं. उन तीन दिनों में, जब दंगाई अपना आपा खो बैठे थे, तब सोशल मीडिया पर कई वीडियो सामने आए जिसमें दिल्ली पुलिस या तो भीड़ को रोक नहीं रही थी. कुछ मौके ऐसे भी सामने आए जिसमें पुलिस उनका साथ देते हुए भी दिखाई दे रही थी. एक वीडियो में कुछ पुलिसकर्मी सीसीटीवी कैमरा तोड़ते हुए भी पकड़े गए.
अब कानून को लागू करने वाले लोग ही अगर कानून तोड़ने लगे तो ये काफी चिंताजनक बात है.
समाज में कानून होने के दो सरल उद्देश्य होते हैं. पहला, हमारे सविंधान में लिखी वो चंद लाइने ही सुनिश्चित करती है की हमारे समाज में नागरिकता हो, अमन शांति हो, भाईचारा हो और खुशहाली भी हो. दूसरा, लिखे गए कानून एक देश को दिशा देते हैं की उसमे रहने वाले लोगों को आपस में कैसा बर्ताव करना चाहिए. वैसे हमारा संविधानकुछेक पढ़ाकुओं को छोड़ दें तो पूरी तरह कोई पढ़ता है नहीं.मगर जो कानून उसके तहत बनाकर लागू किये जाते है, उसके हिसाब से ही नागरिक संविधान की भावना समझ लेते हैं. ये भावना लोगों तक पहुंचाने का काम संबंधित सरकारी अधिकारियों का होता है. ये अधिकारी हर नागरिक को क्लास में बिठा कर संविधान और कानून समझा नहीं सकते. मगर इस कानून को बिना भेदभाव के लागू कर उसकी भावना जरूर लोगों तक पहुंचा सकते हैं. अगर अधिकारी, जिसमें पुलिस भी शामिल है, ये करने में विफल रहे, तो समाज के बिखरने और छिन्न-भिन्न होने का खतरा पैदा हो जाता है.
दिल्ली में पिछले तीन दिनों में जिस तरह कानून चुनिंदा तरीके से लागू हो रहा था, इसने बहुत बुनियादी तरीके से लोगों की सही और गलत की समझ को तोड़ दिया. कुछ लोग अब मान बैठे हैं की अपने नेता की शह पर ऐसी हिंसा, तोड़ फोड़, दंगा-फसाद सब जायज है.
अगर अधिकारी उनको रोक नहीं रहे हैं, तो सही ही होगा, है ना? ये सब होते देख राजधानी के बहार, दूर-दराज में रहने वाले कुछ लोगों को भी ऐसा लगने लगा होगा की वो अपने स्कूल के टीचर के बेटे हैं. उनपर वो कानून अब लागू नहीं होता जो बाकि मुर्गों पर होता है. अब वो इन मुर्गों को सरे आम काट भी दे तो क्या फर्क पड़ता है? ऐसा करना गलत थोड़े ही है.
प्रभावशाली नेताओं के पास एक बुनियादी कौशल होता है, जिसका इस्तेमाल वो अपना समर्थन आधार बढ़ने के लिए करते रहते है. हमारे नेता लोगों की मूल भावनाको समझकर, उनकी मुख्य प्रवृत्तियों को हवा देने का काम करते हैं. कपिल मिश्रा, प्रवेश वर्मा और अनुराग ठाकुर जैसे लोगों ने भड़काऊ भाषण देकरअपने तबके के लोगों की अंदरूनी नफरत को बाहर लाने का काम किया है. और भरी सभा में मारने काटने की बाद करने के बाद भी जब इन्हें रोका नहीं गया, तब लोगों तक एक सन्देश पहुंच गया की अब हिंसा करना कोई गलत बात नहीं है. कपिल मिश्रा के साथ तो हमारे दिल्ली पुलिस के एक अफसर भी खड़े थे जब उन्होंने पुलिस को धमकाया.
इन दिनों तो नेताओ से उम्मीद करना खुदके पैर पर कुल्हाड़ी मरने जैसा है. मगर चिंता की बात है की हमारे अधिकारी इनकी नौटंकी को रोकने से कतरा रहे हैं. ये अफसर जो संस्थागत नुकसान कर रहे है, वह मोदी-शाह के सत्ता से जाने के बाद भी दिखाई देगा. लोगों का भरोसा वापस जीतने के लिए कई साल लगेंगे और उसके लिए बहुत परिश्रम करने पड़ेंगे.
सामाजिक तौर पर हमें ये समझना होगा की हमारे संविधान की प्रस्तावना में "समानता" एक मूल भाव के रूप में क्यों डाला गया है. इस शब्द का मतलब ये नहीं है की भारत में सब लोग सामान है, एक ही पहचान के है. समानता का मतलब है की देश का कानून हर इंसान पर सामान तरीके से लागू होगा, बिना भेद भाव के लागू होगा. इस एक शब्द का भाव जब तक सही तरीके से हमारे सरकारी बाबू और प्रशासन से जुड़े लोग समझेंगे और लागू नहीं करेंगे, तब तक हमारा देश एक सभ्य समाज कहलाने के लायक नहीं होगा.
फ़िलहाल ऐसा लग रहा है जैसे टीचर के बेटों को मुर्गा बनकर, सजा देकर, उनका उदहारण बनाने का समय निकल गया है.आखिरअधिकारियों नेहमारे नेताओं का साथ देकर कानून व्यवस्था और समाज को तोड़ ही दिया.
Also Read
- 
	    
	      Delhi AQI ‘fraud’: Water sprinklers cleaning the data, not the air?
- 
	    
	      Patna’s auto drivers say roads shine, but Bihar’s development path is uneven
- 
	    
	      Washington Post’s Adani-LIC story fizzled out in India. That says a lot
- 
	    
	      Nominations cancelled, candidate ‘missing’: Cracks in Jan Suraaj strategy or BJP ‘pressure’?
- 
	    
	      The fight to keep Indian sports journalism alive