Newslaundry Hindi
‘ऐसा लगता है मानो मेरे ऊपर से भारी बोझ उठ गया हो’
2 जनवरी को जगदलपुर स्थित राष्ट्रीय जांच एजेंसी एनआईए की अदालत ने पत्रकार संतोष यादव को उन पर लगे आरोपों से बारी कर एक नया जीवन दिया. संतोष पर माओवादियों की सहायता करने का आरोप लगा था. अदालत के फैसले से संतोष की चार साल चली कानूनी लड़ाई का आखिरकार अंत हो गया. उनका कहना है कि कई तरह की शर्तों पर मिली ज़मानत से पहले उन्हें सुरक्षा अधिकारियों द्वारा धमकाया और मारा गया था. सितंबर 2015 में संतोष को छत्तीसगढ़ पुलिस द्वारा, माओवादियों की सहायता करने के आरोप में हिरासत में लिया गया था. उनके साथियों और वकील ने सीपीजे को बताया कि संतोष को इसलिए गिरफ़्तार किया गया था. क्योंकी वह पुलिस द्वारा मानवाधिकारों के उल्लंघन पर ख़बरें छाप रहे थे.
गिरफ्तारी के समय संतोष ‘नवभारत’ नामक हिन्दी पत्रिका के लिए बस्तर ज़िले से काम कर रहे थे. पुलिस ने आतंकवादी संगठन से संबंध, आतंकवादी गतिविधियों में शामिल होने, सुरक्षाकर्मियों पर हमला करने, दंगा भड़काने, हत्या की कोशिश और आपराधिक साज़िश जैसे करीब 28 मामलों में संतोष को अपराधी बताया था. इसके लिए उन्हें डेढ़ साल तक मुक़दमा शुरू होने से पहले हिरासत में रखा था.
संतोष ने सीपीजे को बताया कि पुलिस ने बार-बार उनकी पिटाई की और जान से मार देने कि धमकी भी दी. ज़मानत मिलने पर भी अदालत ने उनपर कई तरह के प्रतिबंध थोप दिए थे.
जगदलपुर जेल के अधीक्षक अमित शंडिल्य कि तरफ़ से सीपीजे के सवालों का अभी तक कोई भी जवाब नहीं आया है. सीपीजे ने कंकेर जेल के प्रवक्ता से भी बात की लेकिन उन्होंने इस मामले में कुछ भी कहने से इंकार कर दिया.
2 जनवरी की सुनवाई के बाद, संतोष यादव ने सीपीजे से अपनी चार साल चली लंबी लड़ाई के बारे में बात की. इस इंटरव्यू का संक्षिप्त हिस्सा आपके सामने पेश है.
अदालत के फैसले के लिए आपको बधाई. क्या इसका मतलब है की अब आप आज़ाद हैं? जी, मेरे खिलाफ़ सारे आरोप खारिज कर दिए गए हैं. जज ने कहा है की मैं निर्दोष हूं और मेरे खिलाफ़ लगे सारे आरोपों से मुझे बरी कर दिया गया है. उन्होंने यह भी कहा कि मुझे माओवादी साबित करने के लिए पुलिस के पास कोई भी पुख्ता सुबूत नहीं है. 2015 में आपकी गिरफ्तारी से पहले क्या पुलिस ने आपकी रिपोर्टिंग को ले कर आपसे संपर्क किया था? क्या आपको उस वक़्त पुलिस कि तरफ़ से कोई चेतावनी मिली थी कि वह आपके काम से ख़ुश नहीं हैं? ऐसे कई वाकए हुए थे जब पुलिस अधिकारियों ने मेरे काम को ले कर अपनी नाराज़गी ज़ाहिर कीथी. पर मुझे कभी यह नहीं लगा कि कुछ गंभीर मामला है. हालांकि, मेरी गिरफ्तारी से पहले पुलिस ने मुझे मेरे घर से उठाना शुरू कर दिया था. एक बार मुझे सुबह 3 बजे पुलिस ने मेरे घर से उठाया था. मुझे पुलिस द्वारा गिरफ़्तार करने और जान से मार देने कि धमकियां मिलने लगीं. पुलिस ने मुझे माओवादियों की जानकारी देने के लिए पैसों का लालच भी दिया. मुझे पूरे दिन लॉक-अप में रखा जाता, फिर शाम को छोड़ दिया जाता था.
मुझे अपनी जान का ख़तरा महसूस होने लगा था. मैंने इसकी जानकारी कई पत्रकारों और मालिनी सुब्रह्मण्यम (2016 अंतरराष्ट्रीय प्रेस फ़्रीडम पुरस्कार विजेता), शालिनी गेरा और ईशा खंडेलवाल जैसे मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को भी दी थी.
आपका अंदेशा सही था. अपनी गिरफ्तारी के बारे में बताइये. 29 सितंबर, 2015 को मुझे स्थानीय पुलिस थाने में एक मीटिंग के लिए बुलाया गया. वहां उच्च पुलिस अधिकारी एसआरपी कल्लूरी मौजूद थे. उन्होंने मुझ पर पुलिस के खिलाफ़ खबरें लिख कर लोगों को भड़काने का आरोप लगाया. उन्होंने मुझसे कहा कि, मैं सरकारी अफ़सरों को उनका काम नहीं करने दे रहा हूं और मुझे एनकाउंटर [पुलिस हिरासत में हत्या] में मार देने कि धमकी दी.
(ध्यान दें: पुलिस अधिकारी कुल्लुरी ने सीपीजे के इस मामले पर सवालों के जवाब नहीं दिये हैं.)
मुझे जगदलपुर थाने में कुछ दिनों तक रखा गया. मेरे परिवार वालों को मुझसे मिलने नहीं दिया गया और मुझे माओवादी कमांडर घोषित कर दिया गया. मुझ पर नज़र रखने के लिए 8 पुलिसवालों को भी तैनात किया गया था. रात को मेरे कपड़े उतार कर मुझे लॉक-अप में डाल दिया जाता था.
मुझे जब एक अक्टूबर को जज के सामने पेश किया गया, तब मुझे बताया गया कि मुझ पर माओवादी पार्टी कि तरफ़ से बड़ी कंपनियों से वसूली करने का आरोप है. मैंने जज को बताया कि मैंने ऐसा कुछ नहीं किया है. मैंने उनसे कहा कि अगर मैंने कुछ ग़लत किया है तो मैं उसके लिए माफ़ी मांगना चाहूंगा. जज ने मुझसे कहा कि वह इस मामले में कुछ नहीं कर सकते और मुझे जेल भेज दिया.
आपने सीपीजे और दूसरे समाचार पत्रों को बताया कि जेल में आपको मारा और धमकाया गया. जेल में अपने समय के बारे में कुछ बताइये.
मुझे लगातार मारा जाता था. ख़ास तौर पर जब मैं नहाने जाता, तब मुझे मारा जाता था. मैं इसके खिलाफ़ भूख-हड़ताल पर भी बैठा, जिसका दूसरे कैदियों ने भी समर्थन किया. मुझे उस वक़्त पता नहीं था कि मैं ज़िंदा बच पाऊंगा भी या नहीं. मुझे बेरहमी से मारने के बाद, मेरे कपड़े उतार कर मुझे 11 दिनों के लिए एकान्त कारावास में भेज दिया गया. इसके बाद मुझे कंकेर जेल (संतोष के घर दरभा से 200 किलोमीटर दूर) भेज दिया गया. वहां भी मुझे मारा गया. जगदलपुर में मेरी भूख-हड़ताल की वजह से मुझे प्रताड़ित किया गया.
वहीं निचली अदालत द्वारा बार-बार मेरी जमानत की अर्ज़ी को ख़ारिज किया जा रहा था. आखिरकार, 2017 में मुझे सुप्रीम कोर्ट से ज़मानत मिली.
ज़मानत की शर्तें काफ़ी सख़्त हैं, इनका आपके जीवन पर क्या असर पड़ा है?
मुझे 20,000 रूपये ज़मानत के समय जमा करने पड़े और मुझे रोज़ स्थानीय पुलिस स्टेशन में हाज़िरी के आदेश दिये गए. मुझे लगातार स्थानीय पुलिस अधिकारी को अपने बारे में बताने के लिए कहा गया था, भले ही मैं घर पर ही क्यूं ना रहूं. हर रोज़ जब मैं थाने जाता था तब सोचता था कि, “मैं एक पत्रकार हूं या अपराधी? मैंने ऐसा क्या अपराध किया है कि मुझे इस तरह नज़रबंद कर दिया गया है?’’
अगर मुझे रिपोर्टिंग के लिए कहीं जाना होता तो मुझे पुलिस को उसके बारे में बताना पड़ता था. नवंबर 2018 में एक बार जब मैं थाने गया तो मुझे दोबारा पुलिस अधिकारियों ने धमकाया. उन्होंने मुझे बहुत डराने की कोशिश की. मैंने उनसे कह दिया, “अगर मुझे मारना है तो मार दो.”
अब आप आगे क्या करने वाले हैं? क्या आप आज दस्तख़त करने गए थे?
मैं आज रजिस्टर में दस्तख़त करने नहीं गया. मुझे ऐसा लगता है मानो मेरे ऊपर से भारी बोझ उठ गया हो. मैं अब दोबारा पत्रकारिता शुरू करूंगा. यह मेरे लिए बड़ी राहत की बात है. इस लड़ाई में मेरा साथ देने वाले सभी लोगों को मैं शुक्रिया कहना चाहता हूं, खास कर सीपीजे का.
(यह साक्षात्कार cpk.org पर प्रकाशित हो चुका है)
Also Read
-
How booth-level officers in Bihar are deleting voters arbitrarily
-
TV Newsance Live: What’s happening with the Gen-Z protest in Nepal?
-
More men die in Bihar, but more women vanish from its voter rolls
-
20 months on, no answers in Haldwani violence deaths
-
‘Why are we living like pigs?’: Gurgaon’s ‘millennium city’ hides a neighbourhood drowning in sewage and disease