Newslaundry Hindi

जनता की सब्सिडी को मुफ्तखोरी कहने वाले माननीय सांसद, विधायकों की सब्सिडी का आंकड़ा क्या कहता है

हाल ही में संपन्न हुए दिल्ली विधानसभा चुनावों में बीजेपी का “संकल्प पत्र”जारी करते हुए केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने कहा, “कुछ चीजें फ्री में बांटकर दिल्ली का भविष्य नहीं बन सकता. दिल्ली का कंक्रीट भविष्य बनाने के लिए दूरगामी प्लानिंग लगेगी और वह सोच और विज़न भाजपा ने बनाया है.”

गडकरी का इशारा पिछले 5 साल से दिल्ली में सरकार चला रही आम आदमी पार्टी की तरफ था, जिसने पिछले 5 साल के दौरान दिल्ली के लोगों को बिजली, पानी, शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में एक निश्चित दर तक सब्सिडी की योजनाएं चलाकर काफी शोहरत बटोरी है.

हालांकि गडकरी सहित अन्य बीजेपी नेताओं के इस तरह के बयान दिल्ली की जनता पर छाप छोड़ने में नाकाम साबित हुए. 11 फरवरी को आए दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजों में आप ने ऐतिहासिक प्रदर्शन दोहराते हुए 70 में से 62 सीटें जीतकर सत्ता में जबरदस्त वापसी की और अरविंद केजरीवाल तीसरी बार दिल्ली के मुख्यमंत्री चुने गए.

भाजपा और आम आदमी पार्टी की प्रतिष्ठा की लड़ाई बना दिल्ली चुनाव शुरू से ही विवादों में घिरा रहा.नेताओं ने जुबानी जंग में सारी मर्यादाएं लांघने में संकोच नहीं किया. भाजपा के नेता जहां राष्ट्रवाद, शाहीन बाग, टुकड़े-टुकड़े गैंग, बिरयानी, भारत-पाकिस्तान मुकाबला, आतंकवादी जैसे बयान देते रहे वहीं आम आदमी पार्टी अपने पिछले कार्यकाल में किए गए बिजली, पानी, सड़क, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे मूलभूत कामों के आधार पर वोट मांगती रही.

8 फरवरी को संपन्न हुए मतदान के तुरंत बाद जैसे ही विभिन्न चैनलों के एक्जिट पोल में आम आदमी पार्टी को ऐतिहासिक बहुमत मिलता दिखाई दिया, तथाकथित राष्ट्रवादी लोगों का एक धड़ा दिल्ली के लोगों पर टूट पड़ा. आईटी सेल के अलावा भाजपा से जुड़े तमाम नेता और कार्यकर्ता इस नतीजे को मुफ्तखोरी की आदत और टैक्स की बर्बादी, अर्थव्यवस्था की बर्बादी जैसे जुमले के साथ आलोचना करने लगे. टैक्स देने वालों के पैसे के सही इस्तेमाल की दलीलें भी दी गईं.

हद तो तब हो गई जब मीडिया का एक हिस्सा भी इसमें शामिल हो गया. ज़ी न्यूज के एंकर सुधीर चौधरी ने तो इसके ऊपर एक पूरा शो ही कर डाला. अपने शो में सुधीर चौधरी दिल्ली की जनता के निर्णय को लगभग गाली देने के मुकाम तक जा पहुंचे. वे अपने शो में यहां तक कहने से नहीं चूके कि अगर पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान भी दिल्ली के लोगों की ईएमआई माफ करने का वादा कर दें तो वे भी यहां से चुनाव जीत सकते हैं.

सब्सिडी के मसले को दो नजरिए से देखना होगा. एक तो देश में सब्सिडी देने का एक लंबा इतिहास रहा है. लगभग हर सरकार जनता के अलावा उद्योगपतियों और राजनेताओं को दिल खोल कर सब्सिडी देती आई हैं. एनडीए के पहले कार्यकाल के दौरान भी भाजपा सरकार ने उद्योगपतियों का 5 लाख 57 हजार करोड़ का कर्ज माफ किया था.

दूसरा क्या अर्थव्यवस्था इसकी इजाजत देती है? इसका जवाब है ‘हां’. दिल्ली का बजट सरप्लस में यानि मुनाफे में है. जो पैसा जनता से विभिन्न टैक्स के रूप में लिया जाता है अगर वो पैसा तमाम खर्चों के बाद बचता है तो उसे जनता के ऊपर खर्च करने में मुफ्तखोरी का तर्क कहां से आ गया?

यह बहस इतनी बढ गई कि 18 फरवरी की शाम को भी अचानक से टवीटर पर #फ्री-देना-है-तो-टैक्स-क्यों# जैसा हैशटैग टॉप ट्रेंड करने लगा.

सवाल उठता है कि नेताओं और तथाकथित राष्ट्रवादी एंकरों का लोगों को मुफ्तखोर कहना कितना जायज है. और क्या वाकई ये लोग टैक्स के पैसे के सही इस्तेमाल के पक्षधर हैं.

अगर दिल्ली के लोगों को सरकार दवारा दी जाने वाली सब्सिडी की बात करें तो दिल्ली सरकार ने बिजली, पानी, स्वास्थ्य, शिक्षा आदि कई क्षेत्रों में दिल्ली के लोगों को सब्सिड़ी देने की व्यवस्था की है.आप सरकार ने अपने कार्यकाल के आखिरी बजट में भी शिक्षा, स्वास्थ्य और परिवहन पर जोर दिया था.बिजली पर सालाना लगभग 1,720 करोड़ रुपये और पानी पर लगभग 400 करोड़ रुपये का भार सरकार पर पड़ा है. अक्टूबर 2019 से महिलाओं को बस में फ्री यात्रा की सुविधा भी शुरू की थी, जिस पर 140 करोड़ सालाना खर्च होने का अनुमान है. इस तरह इन तीनों सुविधाओं पर होने वाला खर्च प्रतिवर्ष 2,260 करोड़ होता है.

दिल्ली की वर्तमान जनसंख्या लगभग दो करोड़ है. अगर प्रत्येक व्यक्ति भी इन सुविधाओं का इस्तेमाल करे तब भी सरकार प्रत्येक व्यक्ति पर सालाना सिर्फ 1,130 रुपये खर्च कर रही है. जिस पर कुछ लोग इतना हंगामा कर रहे हैं. बावजूद इसके कि सब्सिडी देकर भी दिल्ली सरकार के बजट में साल दर साल बढ़ोतरी हुई और वित्त वर्ष 2019-20 में सरकार ने 60 हजार करोड़ रुपये का अनुमानित बजट पेश किया, जो 2014-15 की तुलना में दो गुना है.

क्या आपने कभी सोचा है कि देश के सांसदों और विधायकों पर जनता के टैक्स के पैसे का कितना मोटा हिस्सा बतौर सब्सिडी खर्च होता है. क्योंकि विशेषाधिकार के तहत सांसदों, विधायकों से कोई टैक्स नहीं वसूला जाता.

केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी भले ही लोगों को मुफ्तखोरी से बचने की सलाह दे रहे थे, लेकिन खुद नितिन गडकरी बतौर सांसद, बतौर मंत्री मिलने वाली छूट की मुफ्तखोरी के जाल से पूरी तरह मुक्त नहीं हैं. नागपुर से सांसद गडकरी को बतौर संसद सदस्य ढेरों सुविधाएं मिली हुई हैं.

देश मेंकुल 790 सांसद हैं. जिनमें लोकसभा के 545 और राज्यसभा के 245 सांसद है. जिन्हें प्रत्येक वर्ष मोटे वेतन के अलावा अनेक प्रकार के भत्ते मिलते है. एक सांसद पर सरकार सालभर में लगभग 35 लाख रुपये खर्च करती है. जिसमें सैलरी के अलावा बिजली, पानी, हवाई यात्रा, हाऊस रेंट से लेकर फर्नीचर, टेलीफोन आदि की सुविधा उपलब्ध कराई जाती है. इसके अलावा संसद सदस्यों को पेंशन भी मिलती है. अगर कोई विधायक सांसद बन जाता है तो उसे दो पेंशन देने की सुविधा भी है. जो देश के किसी अन्य नागरिक को नहीं मिलती है.

हमारे सांसद देश की औसत आय से लगभग 68 गुना ज्यादा वेतन (और भत्ते) पाते हैं और इसके अलावा वे, कई देशों के उलट निजी व्यापार करके भी असीम दौलत कमा सकते हैं.

एक आरटीआई के जवाब में लोकसभा सचिवालय से प्राप्त आंकड़ों के मुताबिक, वित्त वर्ष 2014-15 से लेकर वित्तीय वर्ष 2017-18 के बीच चार वर्षों में लोकसभा और राज्यसभा के सांसदों के वेतन-भत्तों पर सरकारी खजाने से 19 अरब से ज्यादा रुपये की रकम खर्च की गई थी. इससे पता चलता है कि हर लोकसभा सांसद ने प्रत्येक वर्ष औसतन 71.29 लाख रुपये के वेतन-भत्ते हासिल किए. जबकि हर राज्यसभा सांसद को प्रत्येक वर्ष औसतन 44.33 लाख रुपये का भुगतान किया गया था.

इसी तरह राज्य भी अपने विधायकों को बंपर सैलरी और भत्तों की सुविधाएं देते हैं लेकिन फिर भी इनमें बढ़ोतरी की मांग सदस्य समय-समय पर करते रहते हैं.

भ्रष्टाचार और आम जनता की नुमाइंदगी का दंभ भरकर सत्ता में आने वाली दिल्ली की आम आदमी पार्टी ने भी 2015 में अपने विधायकों के वेतन में आश्चर्यजनक रूप से 400% की वृद्धि का बिल पास कराया था.जिसमें दलील दी गई थी कि “सैलरी इतनी कम है कि घर चलाना नामुमकिन है. शादीशुदा विधायकों के बच्चे हैं, खर्चे बढ़ रहे हैं. वहीं जिन विधायकों की शादी नहीं हुई, उनके लिए रिश्ते नहीं आ रहे हैं."

यह उपरोक्त वेतन प्रस्तावित हैं जो दिल्ली विधानसभा में पास हो चुका है

लेकिन हैरानी की बात ये है कि इन सब्सिडियों पर न तो कभी इतना हंगामा होता है और न ही ये टैक्स चुकाने वालों की चिंता का कोई सबब बनती हैं. राष्ट्रवादी एंकरों के लिए यह कोई न्यूज़ भी नहीं बनता है.