Newslaundry Hindi
कोरेगांव भीमा पार्ट 3: सबूतों के साथ छेड़छाड़
एलगार परिषद कोरेगांव-भीमा मामले को लगभग दो साल हो चुके हैं. यह पूरा मामला पुलिस ने उन कुछ पत्रों और दस्तावेजों के आधार पर बनाया गया है जो पुलिस के अनुसार इस मामले में आरोपियों के घर से ज़ब्त हुए थे. इन सभी दस्तावेज़ों को पुलिस ने डिजिटल एविडेंस या इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य की संज्ञा दी है.यानि वो दस्तावेज़ जो पुलिस ने गिरफ्तार किए गए लोगों के कंप्यूटर, लैपटॉप आदि से हासिल किया है. लेकिन पुणे पुलिस ने इन डिजिटल सबूतों से जुड़े एक ऐसे नियम की अनदेखी शुरुआत में ही कर दी थी जिसके चलते पुलिस इन दस्तावेजों से छेड़खानी के शक के घेरे में आ गई.
गौरतलब है कि इनफॉरमेशन टेक्नोलॉजी एक्ट, 2000 के अंतर्गत ज़ब्त किये गए इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य की विश्वसनीयता को बनाये रखने के दो प्रवधान हैं, जब भी किसी लैपटॉप, कंप्यूटर, हार्ड डिस्क आदि उपकरणों को ज़ब्त किया जाता है तो ज़ब्ती के वक़्त ही उन उपकरणों में मौजूद दस्तावेजो की हैश वैल्यू निकाली जाती है या जब्त किए गए उपकरणों में मौजूद सभी दस्तावेजों का प्रिंट आउट यानी कि नकल निकाली जाती है. इसके बाद ही इन उपकरणों को विज्ञान प्रोयागशाला (फॉरेंसिक लैब में भेजा जाता है).
ज़ब्ती के वक़्त हैश वैल्यू इसलिए निकाली जाती है ताकि अगर ज़ब्त किये गए डिजिटल सबूतों से किसी तरह की छेड़छाड़ हो तो उसका पता चल जाए. जिस तरह हर इंसान की उंगलियों के निशान अलग होते हैं उसी तरह उपकरणों में मौजूद दस्तावेजों या फ़ाइल की हैश वैल्यू एक तरह से उस फाइल के उंगलियों के निशानों तरह होती है या उसके दस्तखत की तरह होती है. अगर उन फाइलों में किसी भी तरह की छेड़छाड़ होती है तो उसकी हैश वैल्यू बदल जाती है.
एलगार परिषद-कोरेगांव भीमा के मामले में पूरा मुकदमा ही इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्यों पर आधारित है. इसके बावजूद पुलिस ने ज़ब्ती के दौरान उपकरणों में मौजूद फाइलों की उस वक़्त हैश वैल्यू नहीं निकाली और उन्हें सीधा फॉरेंसिक लैब भेज दिया था.कानूनी तौर पर ज़ब्त करते वक़्त ही उपकरणों की हैश वैल्यू निकालकर अभियुक्तों को दी जानी चाहिए. लेकिन पुणे पुलिस ने ऐसा नही किया.इसके अलावा पुलिस ने बचाव पक्ष को उनके द्वारा ज़ब्त किये हुए डिजिटल साक्ष्यों की क्लोन कॉपी भी नही दी. जिसका इस्तेमाल कर क्लोन कॉपी और ज़ब्त किये गए डिजिटल सबूतों को मिलाकर इनकी विश्वसनीयता परखी जा सके.
इस मामले में बचाव पक्ष की पैरवी कर रहे वकील रोहन नाहर कहते हैं,"इस मुकदमे को शुरू हुए लगभग दो साल हो गए हैं, आरोप पत्र दाखिल हो चुका है,लेकिन आज भी इस मामले की जांच कर रही पुलिस हमें उनके द्वारा ज़ब्त किये गए मूल डिजिटल सबूतों की क्लोन कॉपी देने में आनाकानी कर रही है.हमें क्लोन कॉपी नही दी गयी है बल्कि कुछ हार्ड डिस्क में पुलिस द्वारा ज़ब्त किये गए डिजिटल उपकरणों में जो डेटा (आधार सामग्री) था इसको इकट्ठा करके दे दियाहै. हमारे पास कोई तरीका नही है जिससे यह पता चल पाए कि हमें जो सामग्री दी गयी है वो मूल सबूतों की क्लोन कॉपी है. ऐसा तभी हो सकता है, जब कोर्ट में पुलिस द्वारा जब्त किये मूल डिजिटल सबूतों को पेश किया जाए और हमें मौका दिया जाए कि दोनों की हैश वैल्यू की तुलना कर सकें. मौजूदा स्थिति में इस मामले की जांच कर रही एजेंसी का विश्वास करना मुश्किल है.यह बहुत ही दयनीय स्थिति है.पिछले एक साल भी ज़्यादा समय से आरोपी जेल में क़ैद हैं. यह ऐसा नियम है जिसका पालन पुलिस को इस मुकदमे की शुरुआत में ही करना था, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. यह भयावह है.”
दंड प्रक्रिया सहिंता की धारा 207 के अंतर्गत यह प्रावधान है कि अभियुक्त को पुलिस रिपोर्ट की नकल और अन्य दस्तावेज मुहैय्या करवाया जाय. लेकिन पुणे पुलिस इस प्रावधान का शुरू से उल्लंघन करती आ रही है.
नाहर आगे कहते हैं, "लगभग दो साल से चल रहे इस मुकदमे में पहली बार पुलिस जांच अधिकारी ने कहा है कि ज़ब्त किये गए मूल डिजिटल सबूतों की क्लोन कॉपी अभियुक्तों को दे दी गई है. असल में यह वही दस्तावेज है जो हमें दिया गया है.हैरत की बात है कि लगभग दो साल में जांच अधिकारी ने पहली बार ऐसा बोला जबकि इससे संबंधित एक भी लिखित दस्तावेज नहीं है कि पुलिस ने क्लोन कॉपी अभियुक्तों को दी हो."
पार्थ शाह, इसी केस में बचाव पक्ष की तरफ से पैरवी कर रहे एक अन्य वकील हैं. वो बताते हैं, "फॉरेंसिक लैब में ज़ब्त किये गए डिजिटल साक्ष्यों की तहकीकात की ज़रूरत के हिसाब से नकल (क्लोन कॉपी) बनाई गयी थी और ज़ब्त किये गए उपकरणों में मौजूद असली फाइलें फिर से केस के जांचकर्ता और सहायक पुलिस कमिश्नर स्वारगेट डिवीज़न को भेज दी थी.इसके बाद पुलिस ने फिर से डिजिटल साक्ष्यों की क्लोन कॉपी फॉरेंसिक लैब में भेजी थी.उन्हीं क्लोन कॉपियों में मौजूद दस्तावेजों को हार्ड डिस्क में डाल कर दे दिया गया है. पुलिस ने उनके द्वारा ज़ब्त की गई तकरीबन 70-72 हार्ड डिस्क में मौजूद दस्तावेजों को एक साथ डाल कर दे दिया है,जो कि गलत है. पुलिस को हर अभियुक्त से जब्त किए गए डिजिटल साक्ष्यों की अलग-अलग क्लोन कॉपी देनी थी जिससे कि उनकी हैश वैल्यू पुलिस द्वारा ज़ब्त किये गए उपकरणों में मौजूद असली दस्तावेजों की हैश वैल्यू से मिलाई जा सके.अगर उनकी हैश वैल्यू मिलती है तभी साबित हो पायेगा की वह असली है, वर्ना कैसे पता चलेगा कि पुलिस ने हमे कौनसी कॉपी भेजी है या दस्तावेजों से कोई छेड़छाड़ हुई है या नही.”
शाह आगे कहते हैं, "अब तक पुलिस हमें तीन हार्ड डिस्क दे चुकी है,जब सुनवाई के दौरान हम हैश वैल्यू की जांच करने के लिए एक्सपर्ट ले गए थे तो सरकारी वकील ने दलील दीकि बचाव पक्ष हैश वैल्यू कि जांच अभी नही कर सकता है. बचाव पक्ष सिर्फ यह देख सकता है कि हार्ड डिस्क में जितना डेटा था उतना है कि नही.”
साइबर क्राइम के जानकार चिरायु महाजन कहते हैं, "हैश वैल्यू का असल इस्तेमाल उपकरणों में मौजूद फ़ाइल, ईमेल, फोल्डर, डाउनलोड आदि कि विश्वनीयता कोजानने के उद्देश्य से किया जाता है. हैश वैल्यू की ख़ासियत यह है कि हर एक दस्तावेज की हैश वैल्यू अलग होती है, कभी भी दो दस्तावेजों कि एक हैश वैल्यू नहीं हो सकती. एमडी 5 और एसएचए हैश फंक्शन का इस्तेमाल फॉरेंसिक में इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्यों के साथ हुई छेड़खानी को जानने के लिए किया जाता है."
इस मामले में न्यूज़लॉन्ड्री ने पुणे पुलिस के सहायक पुलिस कमिश्नर शिवाजी पवार से कई बार बात करने की कोशिश की लेकिन उन्होंने बातचीत से मना कर दिया.
सिर्फ हैश वैल्यू का मामला ही नही एलगार परिषद-कोरेगांव भीमा मामले से जुड़े ऐसे कई वाकये हैं जो इस को विचित्र बना देते हैं.
अजीत डोवाल की हस्तक्षेप
ऐसा अमूमन नही होता है कि शिकायतकर्ताओं की सुरक्षा के लिए सीधा राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोवाल के दफ्तर से खत आये.लेकिन अक्षय बिक्कड़ और तुषार दामगुडे को सुरक्षा मुहैय्या कराने के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय (नेशनल सिक्योरिटी कॉउन्सिल सेक्रेटरिएट- एनएससीएस) के दफ्तर से पुणे पुलिस को पत्र आया था, जो कि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार का दफ्तर है.
बिक्कड़ और दामगुडे ने एलगार परिषद-कोरेगांव भीमा मामले में पुणे के विश्रामबाग पुलिस थाने में शिकायत दर्ज कराई थी.
16 जनवरी,2018 को एनएससीएस द्वारा महाराष्ट्र पुलिस को लिखे गए पत्र में कहा गया कि कोरेगांव भीमा में हुई हिंसा में माओवादी और नक्सलवादियों का हाथ हो सकता है और इसीलिए बिक्कड़ और दामगुडे की जान को खतरा हो सकता है.पत्र में यह भी लिखा था कि इस बात की जानकारी उन्हें लीगल राइट्स ऑब्जर्वेटरी के संयोजक विनय जोशी द्वारा दी गयी थी. इस पत्र के बाद पुणे पुलिस के वारजे मालवाड़ी थाने की तरफ से बिक्कड़ और दामगुडे को सुरक्षा मुहैय्या करवाई गई थी. इस मामले में महत्वपूर्ण बात यह है कि एक ग़ैर सरकारी संस्था के पत्र पर सीधा राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के दफ्तर से शिकायतकर्ताओं को सुरक्षा प्रदान करने के आदेश आ जाते हैं. यह अपने आप में असाधारण बात है.
गौरतलब है कि लीगल राइट्स ऑब्जर्वेटरी महाराष्ट्र के रत्नागिरी से संचालित एक संगठन है जो अपने आपको फौज, पुलिस और आम लोगों के मानवाधिकार के लिए काम करने वाली संस्था बताता है.
डेक्कन एजुकेशन सोसाइटी की भूमिका
इसी तरह एक अन्य वाकया है.3 दिसंबर 2018 को सुप्रीम कोर्ट ने पुणे पुलिस को 5 दिन के अंदर इस मामले से संबंधित चार्जशीट दाखिल करने के लिए कहा था.सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की बेंच को देखना था कि पुणे पुलिस ने अभियुक्तों के खिलाफ क्या आरोप लगाए हैं.
पुणे पुलिस के लिए यह आदेश चुनौती बन गया था क्योंकि उन्हें समझ नही आया कि इतने कम समय में मराठी में लिखे इतने बड़े आरोप पत्र को अंग्रेज़ी में कैसे मुहैया करवाए.
इस काम के लिए पुणे पुलिस ने डेक्कन एजुकेशन सोसाइटी (डीइएस) नाम की शैक्षणिक संस्था की सहायता ली. इस तरह के कामों के लिए शैक्षणिक संस्थाओं की सहायता लेना ना ही ग़ैरकानूनी है और ना ही कोई नई बात है.लेकिन जिस तरह से पुणे पुलिस ने इस काम को अंजाम दिया वह ज़रूर अजीब बात है.
इस चार्जशीट का अनुवाद बहुत ही गुप्त तरीके से डीइएस के नवलमल फिरोदिया लॉ कॉलेज के भीतर हुई. दिसंबर 5,2018 की सुबह कॉलेज के शिक्षकों को निर्देश मिला कि डीईएस के चेयरमैन शरद कुंटे एक आपातकालीन बैठक लेने वाले हैं. डीइएस के दो अन्य कॉलेज फर्ग्यूसन और बृह्न महाराष्ट्र कॉलेज ऑफ कॉमर्स के शिक्षक और कुछ 20- 25 छात्र भी नवलमल फिरोदिया लॉ कॉलेज के स्टाफ रूम में पहुंच गए.
सबके इकट्ठा होते ही कुंटे और इस मामले के जांच अधिकारी सहायक पुलिस कमिश्नर शिवाजी पवार बैठक में पहुंच गए. बैठक की शुरुआत देशभक्ति के गीत से हुई. इसके बाद कुंटे ने शिक्षकों से कहा, "आज हमें अपनी मातृभूमि के लिए काम करने का अवसर मिला है.हमें कोरेगांव-भीमा मामले के आरोप पत्र का अंग्रेज़ी में अनुवाद करना है, जिसे पुलिस को सुप्रीम कोर्ट में पेश करना है. लेकिन इस बात को आपको गुप्त रखना होगा. इस बात का ज़िक्र आप किसी से भी नही कर सकते. यहां तक कि अपने परिवार के सदस्यों और दोस्तों से भी नहीं.अगले दो दिन आपको कोई भी काम नही करना है, कोई भी लेक्चर नही अटेंड करना है. आपको सिर्फ आरोपपत्र का अनुवाद करना है.यह काम करना अनिवार्य है."
अपनी बात के अंत मे कुंटे ने शिक्षकों का परिचय पवार से करवाया.पवार ने अपनी बात रखते हुए शिक्षकों से कहा- "नक्सल अभियान पूरे देश मे फैल रहा है और पुणे भी अब उसकी पहुंच से नहीं बचा है." इस दौरान पवार ने एलगार परिषद-कोरेगांव भीमा मामले में गिरफ्तार सभी लोगों का नाम लेते हुए कहा, "यह सभी लोग अर्बन नक्सल हैं. यह वैसे दिखते नहीं हैं और ना ही कोई सोचेगा की यह लोग नक्सली हैं,लेकिन हमने इसकी जांच की है और यह पक्का हो चुका है कि ये नक्सल हैं.अब यह आपकी ज़िम्मेदारी है कि आप इनको इनकी हरकतों की सज़ा दिलवाएं. बहुत से बड़े वकील इनकी मदद कर रहे हैं और इनका मुकदमा लड़ रहे हैं. अगर आप दो दिन के अंदर आरोप पत्र का अनुवाद नही कर पाए तो हम इनको सज़ा नही दिलवा पायेंगे.हमारे लोग भी यहां आपकी मदद के लिए रहेंगे और इसके बाद आपको अनुशस्ति पत्र भी दिया जाएगा.”
इसके बाद सभी छात्रों को सूचना दे दी गयी थी कि दो दिन तक कॉलेज में क्लास नहीं लगेगी और सभी शिक्षक आरोप पत्र का अनुवाद करने के काम में लगा दिए गए थे.इस दौरान दो पुलिस अधिकारी और कुछ वकील भी शिक्षकों की मदद के लिए वह मौजूद थे. जब आरोप पत्र का अनुवाद हो गया था तो कुंटे ने शिक्षकों से कहा था कि आपने बहुत लगन से काम किया और जब तक आप जैसे लोग हैं देश को कोई भी नुकसान नही पहुंचा सकता.
गौरतलब है कि लगभगपिछले दो साल से इस मामले की जांच कर रही पुणे पुलिस की तहकीकात पर राष्ट्रवादी कांग्रेसपार्टी के नेता शरद पवार ने सवाल उठाया था. उन्होंने दिसंबर 2019 में पुणे में हुई एक पत्रकार वार्ता में कहा था कि वह राज्य सरकार से मांग करेंगे कि कोरेगांव भीमा मामले में पुणे पुलिस की कार्रवाई के ऊपर जांच की जाए. लगभग10 दिन पहले पवारने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे से इस मामले में एक विशेष जांच दल बनाने की मांग की थी.अब महाराष्ट्र सरकार ने इस मामले की जांच के लिए एक एसआईटी के गठन की घोषणा की है. यह एसआईटी एनआईए के समांतर अपनी जांच करेगी. पवार की मांग है कि पुणे पुलिस के अधिकारियों की भी जांच इस मामले में की जाय जिन्होंने इस मामले की तहकीकात की हैं.
23 जनवरी,2020 को महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री अजीत पवार और गृहमंत्री अनिल देशमुख ने इस मामले से संबंधित एक समीक्षा बैठक रखी थी. लेकिन इसके अगले ही दिन केंद्र सरकार ने यह मामला पुणे पुलिस से छीनकर एनआईए के हवाले कर दिया. केंद्र सरकार द्वारा ऐसा करने पर शरद पवार और महाराष्ट्र के गृहमंत्री देशमुख ने कड़ी आपत्ति जतायी थी. मौजूदा स्थिति यह है कि राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी की टीम पुणे पहुंच गई है लेकिन महाराष्ट्र पुलिस ने उन्हें इस मामले से संबंधित दस्तावेज देने से मना कर दिया है.
अब देखना यह है कि केंद्र सरकार और महाराष्ट्र सरकार की इस राजनीतिक रस्साकशी में जेल में क़ैद मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और वकीलों को न्याय के लिए कितना और इंतज़ार करना होगा.
Also Read
-
2006 Mumbai blasts: MCOCA approval was based on ‘oral info’, ‘non-application of mind’
-
Sansad Watch: The Dhankhar mystery and monsoon session chaos so far
-
Pedestrian zones as driveways, parking lots: The elite encroachments Delhi won’t touch
-
4 decades, hundreds of ‘custody deaths’, no murder conviction: The curious case of Maharashtra
-
‘Govt officer on wrong side of law’: Ex-bureaucrats to Haryana CM on Vikas Barala’s appointment