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आप बीती: पदयात्रियों से क्यों डरी हुई है यूपी पुलिस

जेल से बाहर आने के बाद चीज़ें अब बिलकुल वैसी नहीं रह गई हैं जैसी पहले थीं, न मेरे लिए न इस यात्रा के लिए. करीब साढ़े सात बजे यानी कुल चार घंटे पीछे हुई रिहाई से पहले मैं यात्रा के बारे में नहीं सोच रही थी. मैं जेल से छूटने के बारे में भी नहीं सोच रही थी. जेल के भीतर समय जैसे रुक गया था और उस रुके हुए समय में सिर्फ मैं चल रही थी, कभी अपने स्वार्थी सपनों और कमज़ोरियों की ओर तो कभी आत्मबल से प्रेरित अनिश्चित सार्वजनिक जीवन की ओर.

मेरे मन में लगातार बस एक ही चीज़ जांची जा रही थी कि जो परिस्थतियां मुझे इस जेल तक ले आई हैं, उनका स्रोत क्या है. क्या मुझे इस स्रोत से निकली धारा में बहते रहना होगा या फिर मेरे भीतर इस धारा को मोड़ सकने की शक्ति है? जेल के बाकी बंदियों और कर्मचारियों के आस-पास बिखरे छोटे- छोटे स्वार्थों और ग़ैरक़ानूनी बंदोबस्तों को जब देखती थी तो कई बार निराशा से घिर जाती थी कि क्या वाक़ई मुझे इस गंदगी के बीच उतरकर काम करने की ज़रूरत है? क्या मुझे अपने उन छोटे-छोटे आरामदेह सपनों की तरफ नहीं लौट जाना चाहिए जो मैंने अब तक अपने लिए जुटाए थे?

ऐसे में गांधी काम आते. जब वो बताते कि कांग्रेस के महाधिवेशनों में पाखाने इतने गंदे होते थे कि अधिवेशन यदि कुछ और दिन चले तो महामारियां फैल जाएं. पर तमाम नेताओं को उस गंदगी से कोई आपत्ति न होती. तब रास्ता दिखता कि खुद अपने हाथ में झाड़ू उठाए बिना गंदगी साफ नहीं होगी. किसी और से इस गंदगी को साफ करने की उम्मीद करने की बजाय मुझे खुद शुरुआत करनी होगी.

अब अगला सवाल है कि कैसे. जेल के भीतर जब मैं और साथी बंद थे तो कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और सीपीआई (एमएल) आदि पार्टियों के नेता, सांसद, विधायक हम सबसे मिलने आए. उन्होंने अपना समर्थन दिया, और नागरिक के तौर पर हम सबके लिए यह एक खूबसूरत बात थी. पर अब, बाहर आने के बाद जब हम एक बार फिर कल इस यात्रा को वहीं से शुरू करने की बात कह चुके हैं जहां से हमें हिरासत में लिया गया था, मेरे सामने एक चुनौती खड़ी हो जाती है कि कल जब ये सभी राजनैतिक दल हमारे साथ चलेंगे, तब कहीं यह नागरिक सत्याग्रह कई रंगों की बेमेल खिचड़ी न बन जाए.

जिन छात्रों ने इस सत्याग्रह को शुरू किया था उनकी सच्चाई, ईमानदारी, नागरिकों और संविधान के प्रति उनकी निष्ठा पर मुझे पूरा भरोसा है. पर जिस तरह की राजनीति हम तमाम राजनीतिक दलों को करते देखते हैं, मैं बेझिझक कहूंगी कि मैं और मेरे सत्याग्रही साथी बिलकुल नहीं चाहेंगे उसका एकांश भी इस यात्रा में आए. यहां एक और बात मैं साझा करना चाहुंगी कि इस सत्याग्रह पदयात्रा से मेरा जुड़ना एक नागरिक और पत्रकार के तौर पर था.

तो अब दो बातें सामने आती हैं. कि नागरिकों को रियाया समझने वाली सत्ता के इस अहंकार का सामना किस तरह किया जाए कि गांधी की लीक भी न टूटे, सब साथ भी हों और सत्ता के लोभ की बुराइयां इस यात्रा को प्रदूषित न कर दें. इस यात्रा के यात्रियों की नीतिगत ताकत के बारे में एक छोटे से अनुभव के ज़रिए बताउंगी.

जेल में तीसरे दिन जब साथियों ने अपनी गिरफ्तारी के विरोध में सामूहिक भूख हड़ताल करना निश्चित किया, तो बैरक 12-ए में बंद मुझे और बैरक 10 में बंद बाकी साथियों को अलग-अलग फुसलाया जाने लगा. उन्हें कहा जाने लगा कि मैंने खाना खा लिया है और मुझे बताया जाने लगा कि वो सब बढ़िया खा पी रहे हैं. मैंने मांग रखी कि मुझे अगर एक भी साथी आकर बता दे कि वे अनशन पर नहीं हैं तो मैं खाना खा लूंगी. अनशन शुरू करने से पहले जब मैंने सब साथियों की तरफ से ज़िलाधिकारी वाया जेल अधीक्षक अनशन के सूचनार्थ पत्र लिख कर उसे जेलर और फिर जेल अधीक्षक के सामने रखा था तो दोनों तरफ से गुस्साया हुआ जवाब मिला था कि ऐसा करने पर मुझे और सज़ा हो सकती है, बाहर से आने वाली मुलाक़ातें बंद कर दी जाएंगी. फ़ोर्स फ़ीड कराया जाएगा और यह भी बताया जाएगा कि ये सब करने से कोई फ़ायदा नहीं है.

अनशन और जेल दोनों ही मामलों में अनाड़ी मैं वह पत्र अधीक्षक की मेज़ पर रख कर चली आई. इस अनशन की घोषणा शाम पांच बजे से शुरू होने की थी, लेकिन मेरा अनशन सुबह से शुरू था. महिला बैरक की स्थिति के खिलाफ बहुत गुस्से में यह अनशन शुरू किया गया था. बैरक के सिपाही को यह जानकारी थी. वह जानती थी कि मैंने सुबह से पानी भी नहीं पिया. उसके ऊपर इस अनशन को तुड़वाने का ज़्यादा दबाव था. पांच बजते-बजते अधिकारी बैरक 10 में पहुंचे और उन्हें भी वही डर दिखाए गए जो मुझे दिखाए गए थे.

भीतर यात्रियों में बातचीत हुई. कुछ यात्री पक्ष में थे, कुछ चाहते थे एक और ज़ोखिम न लिया जाय. जिन साथियों ने तय किया था कि अनशन न खोला जाए, बाकी साथी उन्हें समझाने की कोशिश कर रहे हैं. मनीष और प्रियेश खाने को तैयार नहीं हो पाते. नीरज समझाते हैं, गांधी कभी अपनी रिहाई के लिए अनशन नहीं करते. अनशन उनका आख़िरी हथियार था. साथी अनशन तोड़ देते हैं. मेरे पास समोसे की प्लेट में लिखकर संदेश आता है कि अनशन तोड़ दिया जाए. चुनौती यह है कि इन साथियों में जिस तरह की नैतिकता अभी बाकी है, उसे किसी शोर-शराबे से न दबा दिया जाए.

दूसरी मुश्किल यह दिख रही है कि अब यात्रा का स्वरूप बदल जाने की चिंता है. विभिन्न राजनीतिक पार्टियां इस यात्रा से जुड़ने की कोशिश कर रही हैं तो एक पत्रकार के तौर पर मेरी नैतिकता क्या होनी चाहिए. क्या मुझे अब भी इस समूह का हिस्सा रहना चाहिए. मैं दिल्ली में अपने क़रीबियों से इस बारे में बात करती हूं. वे चाहते हैं मैं दिल्ली लौट आऊं. मेरे भीतर का डर मुझे भ्रमित करता है, डराता है. मैं तय नहीं कर पाती कि क्या करूं. मैं अपना भ्रम अपने साथियों के सामने रखती हूं. एक स्वर से मुझे जवाब मिलता है कि यह फ़ैसला मेरे विवेक को लेना होगा. मुझे तय करना होगा कि इस समय में स्टेट जब नागरिक के लिए कई दायरे सीमित करता जा रहा है तब एक पत्रकार की नीति की रेखा कहां खिंचेगी.

मनीष कहते हैं कि इस समय जब ज़िला प्रशासन हमें कह चुका है कि इस यात्रा को यहां से शुरू नहीं करने दिया जाएगा तो यह होगा कि अब हमारे डर कई शक्लों में हमारे सामने आएंगे, हमें रोकने और भटकाने की कोशिश करेंगे. हम सभी को पता है कि हमें जब गाजीपुर में रात रुकने से भी रोका जा रहा है और दोबारा गिरफ्तार करने का डर बनाया जा रहा है तो हम कहीं न कहीं तो डरते हैं.

मेरे भीतर से भी जेल का डर अभी खत्म नहीं हुआ है. पर मनीष का कहा हुआ कचोटता है. अपने डर से मुक्ति पाए बिना सच की खोज मुमकिन नहीं. और इस डर के माहौल में एक पत्रकार का काम है नागरिक के साथ खड़ा होना. इस बात की स्वीकृति ज़रूरी हो जाती है कि टीवी और सोशल मीडिया का सपोर्ट जिसने आज हमें ताकत दी, कल नहीं रहेगा. हमें अपनी ताकत अपने आत्मबल, अपनी सच्चाई में ही तलाशनी होगी. मुश्किल दूर हो जाती है.