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कोरेगांव भीमा पार्ट 1: शरद पवार के बयान से हड़बड़ाई केंद्र सरकार
कोरेगांव भीमा मामले में पुलिस की संदेहास्पद जांच को लेकर शुरू से ही सवाल उठते रहे हैं. अब महाराष्ट्र में नई सरकार बनने के बाद यह मामला आगे बढ़ता दिख रहा है. महाराष्ट्र की राजनीति के कद्दावर नेता और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के प्रमुख शरद पवार ने 21 दिसंबर, 2019 को पुणे में एक प्रेसवार्ता के दौरान कोरेगांव भीमा मामले की जांच को लेकर कहा था कि पुणे पुलिस द्वारा की गयी जांच संदेहास्पद है और इस मामले में जिस तरह कार्रवाई की गई है वह गलत है. यह कार्रवाई बदले की भावना से प्रेरित नज़र आती है.
पवार यहीं नहीं रुके. उन्होंने पुणे पुलिस द्वारा की गयी कार्रवाई की एक स्पेशल इन्वेस्टिगेशन टीम (विशेष जांच दल) बनाकर उसकी जांच करने की जरूरत बताई और यहां तक कह दिया कि इस मामले की जांच कर रहे पुलिस अधिकारियों को बर्खास्त कर देना चाहिए. पवार के इस बयान के बाद इस मामले में फिर से हलचल शुरू हो गई.
पवार के बयान के बाद इस मामले में प्रदेश और केंद्र की सरकार के बीच राजनीति गरमा गयी थी. केंद्र सरकार ने अनपेक्षित कदम उठाते हुए यह मामला नेशनल इनवेस्टिगेटिव एजेंसी (एनआईए) को सौंपने का आदेश दे दिया. केंद्र के इस फैसले से शरद पवार और महाविकास अघाड़ी सरकार में तीखा गुस्सा देखने को मिला. दोनों ने केंद्र सरकार के इस फैसले का विरोध किया. केंद्र पर हमला करते हुए पवार ने आरोप लगाया कि केंद्र सरकार ने अपनी पोल खुल जाने के डर से इस मामले को एनआईए के हवाले किया है.
फिलहाल इस मामले में एनआईए ने तेजी से कार्रवाई करते हुए 11 लोगों के खिलाफ प्राथमिकी (एफआईआर) दर्ज कर ली है. गौरतलब है कि एनआईए ने इनमें से किसी पर भी राजद्रोह की धारा नहीं लगायी है जबकि पुणे पुलिस ने इस मामले में 23 लोगों के खिलाफ मुकदमा दर्ज कर सभी पर राजद्रोह की धारा लगायी थी. अभी भी जांच को एनआईए को सौंपे जाने को लेकर रस्साकशी चल रही है. क्योंकि इस मामले की जांच से जुड़े कागज़ात अभी भी एनआईए के हवाले नहीं किये गए हैं.
कोरेगांव भीमा: शुरुआत से
सात जून, 2018 की सुबह थी. पुणे पुलिस कमिश्नर कार्यालय के एक हॉल में पुलिस के तत्कालीन ज्वाइंट कमिश्नर रवींद्र कदम कुछ अन्य पुलिस अधिकारियों के साथ प्रेस से मुखातिब हो रहे थे. हॉल खचाखच पत्रकारों और मीडिया कैमरों से भरा हुआ था. मुम्बई से भी बहुत से पत्रकार आये हुए थे. मामला था एलगार परिषद-कोरेगांव भीमा मामले में हुई पांच गिरफ्तारियों का जो एक दिन पहले पुणे पुलिस ने नागपुर, मुम्बई और दिल्ली से की थीं. गिरफ्तार होने वाले पांच लोग थे, नागपुर यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर शोमा सेन, मानवाधिकार वकील सुरेंद्र गडलिंग, नक्सल प्रभावित गढ़चिरोली में आदिवासी अधिकारों के लिए काम करने वाले महेश राउत, सामाजिक कार्यकर्ता सुधीर ढवले और सीआरपीआर (कमेटी फ़ॉर रिलीज़ ऑफ पोलिटिकल प्रिजनर्स) के जनसंपर्क सचिव रोना विल्सन. पत्रकार वार्ता के दौरान इन पांचों को अर्बन नक्सल बताया गया और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) का सदस्य बताया गया. पुलिस अधिकारी एक जनवरी, 2018 को पुणे के करीब कोरेगांव-भीमा में हुई हिंसा के पीछे इन पांचों की भूमिका बता रहे थे.
पत्रकार वार्ता खत्म होने के बाद पत्रकारों के बीच दो पन्ने के एक संदिग्ध दस्तावेज की चर्चा हो रही थी. यह एक गोपनीय पत्र था जिसे एक दिन पहले ही (6 जून को) अंग्रेज़ी चैनल टाइम्स नाउ ने प्राइम टाइम पर दिखाया था. यह गोपनीय पत्र जो पुणे पुलिस के अनुसार उसे रोना विल्सन के कंप्यूटर से मिला था, पुलिस की आधिकारिक प्रेस वार्ता के पहले ही मीडिया में आ गया था. जाहिर है इस लीक के पीछे पुलिस विभाग की भूमिका थी.
मीडिया चैनल ने पत्र के कुछ अंश दिखाते हुए कहा था कि कांग्रेस पार्टी ने गुजरात के विधायक जिग्नेश मेवानी के ज़रिए माओवादियों को आर्थिक मदद पहुंचाई थी. गौरतलब है कि पत्र किसी 'एम' नाम के व्यक्ति ने किसी कॉमरेड रोमा को लिखा था. इस पत्र में जिग्नेश, उमर, कॉमरेड शोमा, सुधीर, सुरेंद्र, राधा डिसूज़ा, अज़ाद होशियारपुरी, मार्केज़, आनंद, देवजानी, विश्वरूप, सुदीप, सुशील, कांग्रेस पार्टी और प्रकाश अम्बेडकर जैसे कुछ नाम लिखे हुए थे.
इस पत्र की शैली कुछ ऐसी थी कि पढ़ने वाले को संकेत मिलता था कि सभी नामों का संबंध माओवादियों से है. प्रकाश अम्बेडकर जो कि डॉ बीआर अम्बेडकर के पोते है को पत्र में कॉमरेड लिखकर संबोधित किया गया था और बाद में टाइम्स नाउ चैनल के एक एंकर ने भी उनसे सवाल कर दिया था कि क्या वो माओवादी हैं.
इस पत्र के बाद सिलसिलेवार तरीके से समय-समय पर इसी तरह के ‘गोपनीय पत्र’ कुछ चुनिंदा मीडिया चैनलों को दिये जाते रहे. पुलिस के अनुसार उसे ये सभी दस्तावेज अब तक गिरफ्तार नौ लोगों के कंप्यूटर व अन्य ज़ब्त किये उपकरणों से मिले थे. असल में देखा जाए तो अभियोजन और पुलिस ने यह सारा मामला सिर्फ कुछ पत्रों के आधार पर बनाया है. सादे कागज पर टाइप किए गए पत्र, जिनकी विश्वसनीयता शुरू से सवालों के घेरे में है.
पहली पांच गिरफ्तारियों के दूसरे दिन पुलिस के द्वारा ज़ब्त किये गए बेहद संवेदनशील दस्तावेज़ों में से एक पत्र कुछ चैनलों पर दिखाया जाने लगा. यह दिलचस्प था कि जिस दिन इन दस्तावेजों और पत्रों पर अभियोजन पक्ष को कोर्ट में पेश करके चर्चा करनी थी उससे पहले ही ये चुनिंदा चैनलों, भाजपा नेता संबित पात्रा के अवलावा सोशल मीडिया (फेसबुक और ट्विटर) के कुछ प्रभावी खिलाड़ियों तक पहुंच गए.
दूसरे पत्र को किसी 'आर' ने किसी कॉमरेड प्रकाश को लिखा था. यह वही पत्र था जिसमें मोदीराज को खत्म करने की बात कॉमरेडों के बीच ‘कथित गंभीरता’ से चल रही थी और वे राजीव गांधी की जिस तरह से हत्या की गई थी वैसा ही कुछ नरेंद्र मोदी के साथ करने की योजना बना रहे थे. इस पत्र के मीडिया में आने के बाद "प्लॉट टू किल पीएम" की हेडलाइन तमाम मीडिया चैनेलों पर आने लगी. पैनल चर्चाएं होने लगी, ट्विटर पर इसी नाम का हैशटैग भी चलने लगा.
इस पत्र में अरुण, वरनन, कॉमरेड अशोक बी, अमित बी, सीमा, सुधीर, सिराज, विष्णु, ऐसे नामों का जिक्र था और यह पत्र भी उसी तरह लिखा गया था जिससे लगे यह सभी लोग माओवादी गतिविधियों में कहीं ना कहीं लिप्त हैं. इसी पत्र में इस बात का भी ज़िक्र था कि आठ करोड़ रुपये चाहिए एम-4 बंदूक और चार लाख राउंड के लिए. इस पत्र की विश्वनीयता पर भी जानकारों ने सवाल उठाये थे और यह दोनों ही पत्रों को राजनीति से प्रेरित बताया था.
पुणे पुलिस द्वारा इस मामले में गिरफ्तारियों का दूसरा दौर 28 अगस्त, 2018 से शुरू हुआ था. उस दिन सुबह पुणे पुलिस ने मुम्बई, दिल्ली, गोवा, झारखंड और तेलंगाना में विभिन्न सामाजिक और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के घर पर दबिश दी थी. इस दबिश के दौरान पुणे पुलिस ने मुम्बई से वरनन गोंसाल्वेज़ और अरुण फरेरा को गिरफ्तार किया, हैदराबाद से वरवरा राव को गिरफ्तार किया और दिल्ली से छत्तीसगढ़ में लगभग दो दशकों से मजदूरों और आदिवासियों के लिए काम कर रही सुधा भारद्वाज और सामाजिक कार्यकर्ता गौतम नवलखा को गिरफ्तार किया. इसके अलावा पुलिस ने गोवा में लेखक आनंद तेलतुंबड़े, हैदराबाद में पत्रकार क्रांति टेकुला और रांची में फादर स्टैन स्वामी के घर पर भी दबिश दी थी.
लगभग एक महीने से भी ज़्यादा तक पुलिस ने वरवरा राव, सुधा भारद्वाज, अरुण फरेरा, वर्नन गोंसाल्वेज़ और गौतम नवलखा को घर में नज़रबंद करके रखने के आदेश दिए थे, लेकिन बाद में गौतम नवलखा को छोड़कर बाकियों को जेल में डाल दिया गया था. फिलहाल गौतम नवलखा को छोड़कर सभी लोग पुणे की यरवादा जेल में है और नवलखा पिछले एक साल से मुम्बई उच्च न्यायालय में अग्रिम ज़मानत के लिए जद्दोजहद कर रहे है. 12 नवम्बर, 2019 को पुणे की एक अदालत ने उनकी ये अर्जी खारिज कर दी थी, जिसके बाद नवलखा ने उच्च न्यायालय का दरवाजा ठकठकाया है. 22 नवम्बर को इस मामले की अगली सुनवाई थी.है.
दूसरे दौर की गिरफ्तारियों के दो दिन बाद ही पुणे पुलिस के कमिश्नर के वेंकटेशम और महाराष्ट्र पुलिस के तत्कालीन एडीजी (एडिशनल डाइरेक्टर जनरल ऑफ पुलिस) परमबीर सिंह की अगुवाई में पुणे और मुम्बई में प्रेस कॉन्फ्रेंस की थी, जिसके चलते मुम्बई उच्च न्यायालय ने महाराष्ट्र पुलिस को न्यायालय में लंबित मामले के संबंध में प्रेस कॉन्फ्रेंस करने के लिए कड़ी फटकार लगाई थी.
इन नौ लोगों की गिरफ्तारी के बाद भी मीडिया चैनलों में पुलिस के द्वारा ज़ब्त किये हुए कथित दस्तावेज समय-समय पर दिखाए जाते रहे. गौरतलब है कि पुणे पुलिस की प्रेस वार्ता के पहले ही ज़ी न्यूज़, इंडिया टुडे के पास कथित रूप से किसी कॉमरेड सुधा द्वारा किसी कॉमरेड प्रकाश को लिखा गया ख़त पहुंच गया था जो इन चैनलों ने 30 अगस्त, 2018 को प्रसारित किया था.
इनके अलावा इंडिया टीवी ने भी 29 अगस्त, 2018 को ऐसे आठ कथित गोपनीय ख़त अपने कार्यक्रम में दिखाए. रिपब्लिक टीवी ने तो सुधा भारद्वाज की गिरफ्तारी के एक महीने पहले ही पुणे पुलिस के पास मौजूद दो गोपनीय पत्रों को अपने कार्यक्रम में दिखा दिया था.
रिपब्लिक टीवी ने 4 जुलाई, 2018 को कॉमरेड सुधा के द्वारा कॉमरेड प्रकाश को हिंदी में लिखा गया एक पत्र जारी किया था. ये सारे ख़त उन्हीं दस्तावेज़ों का हिस्सा थे जो पुणे पुलिस के अनुसार गिरफ्तार किए गए सामाजिक और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के कंप्यूटर से मिले थे. ज़ाहिर है कि ऐसे दस्तावेज़ जो कि पुलिस की जब्ती में हों, वो अगर मीडिया चैनलों और पुलिस की प्रेस वार्ताओं में, यहां तक कि लोगों की गिरफ्तारी के पहले दिखाए जा रहे हों, तो पुलिस के अलावा और कोई दूसरा इन्हें लीक नहीं कर सकता.
न्यूज़लॉन्ड्री ने ऐसे ही कुछ दस्तावेज पुणे पुलिस द्वारा दाखिल की गई चार्जशीट से हासिल किया है. हमने पाया कि इनमें बहुत सी ऐसी खामियां हैं जो इन दस्तावेजों की विश्वसनीयता पर सवाल उठाते हैं.
गौरतलब है कि पुणे पुलिस को तथाकथित रूप से मिले इन दस्तावेजों में से एक पत्र ऐसा भी है जो कथित रूप से तेलुगु कवि वरवरा राव ने सुरेंद्र गडलिंग को लिखा था. यह पत्र शुद्ध हिंदी में लिखा गया है जबकि वरवरा राव ठीक से हिंदी जानते भी नहीं हैं.
पुलिस द्वारा दिखाए गए सभी ख़त किसी कॉमरेड आर, एम, बीएस, प्रकाश, एसजी, सुरेंद्र, महेश, नवीन, अशफ़ाक़उल्लाह, मैनिबाई, अनंतवा, एसएस, सुदर्शन दा, सुधा, राहुल, आनंद आदि के द्वारा कथित रूप से लिखे गए हैं या उन्हें भेजे गए हैं. किसी भी पत्र में किसी का भी पूरा नाम नही लिखा है. लेकिन उसे ऐसे लिखा गया है कि पढ़ने वाले को लगेगा कि यह इस केस में गिरफ्तार हुए सामाजिक कार्यकर्ता ने ही लिखा है. कुछ-कुछ पत्र ऐसे हैं जिनमें लिखने वाले का नाम नहीं है सिर्फ अंग्रेज़ी में बाइ लिखा है.
इन पत्रों में सामान्य भाषा की गलतियां तो हैं ही इसके अलावा उस इलाके के माओवादी या आम लोग जिस बोलचाल की भाषा का इस्तेमाल करते हैं उसे भी ग़लत तरीके से लिखा गया है. उदाहरण के तौर पर कथित रूप से कॉमरेड एम (पुलिस के अनुसार भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी- माओवादी की सेंट्रल कमेटी के सदस्य मिलिंद तेलतुंबड़े) ने रोना (पुलिस के अनुसार रोना विल्सन) को लाल जोहार लिखा है. गौरतलब है कि लाल जोहार नाम का कोई शब्द महाराष्ट्र के इलाके में नही होता है. माओवादी या वामपंथी बोलचाल में लाल सलाम बोलते हैं और आदिवासी संस्कृति में जय जोहार बोलते हैं. कुछ पत्रों में बोल्शेविक ट्रेनिंग का ज़िक्र है जबकि माओवाद या वामपंथ में इस प्रकार के किसी भी शब्द का उपयोग नही किया जाता है.
गौरतलब है कि इन दस्तावेजों का इस्तेमाल मीडिया में एक खास मकसद से किया जाता है. 24 जुलाई, 2019 को पुणे पुलिस ने मुम्बई हाईकोर्ट के सामने दावा किया की गौतम नवलखा के आतंकवादी संगठन हिज्बुल मुजाहिद्दीन से संबंध हैं. इसके बाद समाचार चैनलों पर दिखाया जाने लगा कि पुणे पुलिस ने दावा किया है कि नवलखा के हिज्बुल से संबंध हैं. इस दावे के बाद कुछ समाचार चैनल उस दस्तावेज का एक हिस्सा भी दिखाने लगे जिसमें नवलखा कथित रूप से शकील बक्शी नामक व्यक्ति से हिज्बुल मुजाहिद्दीन से मुलाकात करवाने की मांग कर रहे हैं. लेकिन जिस दस्तावेज का हिस्सा दिखाकर नवलखा के हिज्बुल से संबंध के बारे में मीडिया चैनलों पर चर्चा हो रही थी असल में वह दस्तावेज नवलखा के हिज्बुल से संबंधों को स्थापित करने की बजाय उनकी सरकार से निकटता के बारे में ज़्यादा बताता है और उन्हें माओवादी पार्टी और उनके आंदोलन के आलोचक के रूप में पेश करता है.
इन कथित दस्तावेजों की सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि इसमें देश के अलग-अलग इलाकों में काम कर रहे सामाजिक और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, वकीलों, छात्रों, शिक्षकों के नामों का कहीं ना कहीं उल्लेख है. लेकिन उनका पूरा नाम नही दिया गया है. किसी का पहले नाम का पहला अक्षर या फिर उनके उपनाम का उल्लेख है. इनमें से अधिकतर लोग ऐसे हैं जो आदिवासी या दलित मामलों पर काम कर रहे हैं. इन सभी नामों का एक साथ कथित रूप से पुलिस द्वारा ज़ब्त किये गए इन पत्रों में होना खुद इन पत्रों की विश्वसनीयता पर बहुत बड़ा सवाल खड़ा करता. गौरतलब है कि इन दस्तावेजों में मौजूद कुछ नामों की इजराइली स्पाईवेयर पेगासस का इस्तेमाल कर व्हाट्सएप के ज़रिए जासूसी करने का मामला भी कुछ महीने पहले सामने आया था.
गौरतलब है 10 सितंबर, 2019 को इन दस्तावेजों में मौजूद एक नाम के यहां पुणे पुलिस ने छापा मारा था. यह नाम था हनी बाबू का जो दिल्ली यूनिवर्सिटी में अंग्रेज़ी पढ़ाते हैं. पुणे पुलिस ने उनके यहां कोरेगांव भीमा-एलगार परिषद मामले की छानबीन का हवाला देकर छापा मारा था और उनका लैपटॉप, फ़ोन और कुछ किताबें ज़ब्त कर ली थी. इसका मतलब यह है कि कथित रूप से ज़ब्त किये गए उन दस्तावेजों में जिस तरह से देश भर में मानवाधिकार के लिए काम करने वालों का नाम लिखा है, उस लिहाज़ से कभी भी किसी के यहां पुणे पुलिस इस मामले की छानबीन का हवाला देकर छापा मार सकती है.
इन दस्तावेजों की विश्वसनीयता पर तमाम पुलिस अधिकारी और नक्सल मामलों के जानकार समय-समय पर सवाल उठा चुके हैं.
सारंडा के जंगलों में पिछले एक दशक से भी ज़्यादा समय से काम कर रहे सामाजिक कार्यकर्ता ग्लैडसन डुंगडुंग कहते हैं, "साल 2010 तक सारंडा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) का पूर्वी हेड क्वार्टर था, मैं यहां इतने वर्षों से काम कर रहा हूं लेकिन मैंने अपने जीवन में माओवादियों का ऐसा पत्र कभी नही देखा. माओवादी पत्रों में नाम लिखने की बजाय सांकेतिक शब्दों (कोड वर्ड) का इस्तेमाल करते हैं. वो हर बार नाम बदलते हैं जिससे कि उनकी कोई एक पहचान ना बनने पाए. इसलिए कोरेगांव भीमा मामले में जिन दस्तावेजों के बिना पर पुलिस ने लोगों को गिरफ्तार किया वो पूरी तरह से फर्जी और मनगढ़ंत लगते हैं.”
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