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जंग के मैदान में नहीं, वतन के सजदे में हैं शाहीन बाग़ की औरतें
ये बात है गुजरे साल 30 दिसंबर की. कहते हैं वो इन सर्दियों का सबसे सर्द दिन था. शहर दिल्ली में 119 साल बाद इतनी ठंड पड़ी थी कि पारा लुढ़ककर 2 डिग्री को जा पहुंचा था. दक्षिण दिल्ली में यमुना नदी के किनारे बसे मोहल्ले शाहीन बाग में औरतों के धरने का वो 17वां दिन था. सैकड़ों की तादाद में औरतें सीएए और एनआरसी के खिलाफ रीढ़ को कंपा देने वाली ठंड में जमीन पर बिछी एक मामूली सी दरी पर बैठी थीं. सिर पर खुला आसमान. हालांकि ऊपर एक नीले रंग का तिरपाल भी तना था, लेकिन आसमान से बरस रही बर्फीली ओस के आगे वो तिरपाल तो मानो तोप के मुकाबिल सुई.
नारे लगाती औरतों ने बच्चों को सीने से सटा रखा था. कोने में बैठी एक औरत का बच्चा गोद से लुढ़कने लगा तो उसने अपने स्वेटर के बटन खोले और बच्चे को छाती से सटा उसके ऊपर से स्वेटर के बटन बंद कर दिए. फिर शॉल लपेट ली. बच्चा बिना हिले-डुले, बिना शोर मचाए मां के सीने की गर्मी पाकर सो गया. मंच की ओर से आवाज आई- “हम क्या चाहते.” बाएं हाथ से बच्चे को दबाए औरत ने दायां हाथ ऊपर किया और जोर से चिल्लाई- “आजादी.”
14 दिसंबर के पहले शाहीन बाग की औरतों ने जिंदगी में कभी इतनी बार ये शब्द न बोला, न सुना था- “आजादी.” आजादी कोई ऐसी चीज नहीं थी, जो उन्होंने जिंदगी में कभी भी चाही या मांगी थी. वो खुद कहती हैं, “हम तो पर्दे में रहने वाली औरतें हैं. ग़ैर मर्द की छाया भी पड़ जाए तो गुनाह होता है. लेकिन जब अपना मुल्क, अपना घर ही अपना नहीं रहेगा तो क्या गुनाह और क्या सबाब.”
“शाहीन बाग में बैठी औरतें कौन हैं?”
“ये वही औरतें हैं, जिनके लिए महज छह महीने पहले मोदीजी का दिल दुख से फटा जा रहा था. जिनके दुख दूर करने के उन्होंने बड़े-बड़े दावे किए थे और तीन तलाक कानून लेकर आए थे. हमने तो बड़ी खुशी मनाई उस दिन. हमें लगा कि मुसलमान औरतों की आवाज सुनने वाला प्रधानमंत्री आया है. लेकिन अब अपनी उन्हीं बहनों से मोदीजी उनके नागरिक होने का सबूत मांग रहे हैं.” बड़े सधे हुए स्वर में आधी हिंदी, आधी अंग्रेजी में ये कह रही थीं सुबूही, जिन्होंने जामिया से पॉलिटिकल साइंस की पढ़ाई की है.
कल तक जिन औरतों को वो बहन बता रहे थे और उन्हें तीन तलाक के शाप से मुक्त करने के लिए खुद ही खुद की पीठ थपथपा रहे थे, अब वही बहनें टुकड़े-टुकड़े गैंग हो गई हैं. आसपास बैठी औरतें हामी में सिर हिलाती हैं और फिर नारे लगाने लगती हैं.
पिछले 15 मिनट से आजादी के नारे लग रहे हैं. मैं घूम-फिरकर फिर से आजादी पर आ जाती हूं. 32 बरस की नूरजहां और उसकी 14 साल की बेटी साफिया भी आजादी के नारे लगा रहे हैं.
“आजादी समझती हैं आप?” मैं पूछती हूं. जवाब में वो मेरा हाथ पकड़ लेती हैं और कहती हैं, “ये जो एनआरसी, सीएए लेकर आए हैं मोदीजी, उसी से आजादी चाहिए.”
नूरजहां कभी स्कूल नहीं गईं. बिजनौर शहर से 40 किलोमीटर दूर एक गांव के मदरसे में कुछ बरस फारसी पढ़ी थी. 17 में ब्याह हो गया और पांच बरस बाद तीन बच्चों को लेकर दिल्ली आ गईं. वहीं पास में 5000 रुपए महीना किराए के एक घर में रहती हैं. रोज शाहीन बाग आती हैं. बाज दफा तीनों बच्चों को लेकर भी. नूरजहां ने कभी किसी से आजादी नहीं मांगी. न बाप की हुकूमत से, न शौहर की ज्यादतियों से, न घर की जिम्मेदारियों से. वो पहली बार आजादी बोल रही हैं और आजादी समझ रही हैं.
वो हंसकर अपनी बेटी की ओर इशारा करती हैं, “इनको बहुत आजादी चाहिए. जींस-टॉप पहनकर घूमने की. हम समझाते हैं, लड़कियों को बेशर्मी जेब नहीं देती. पराए मर्द देखें तो गुनाह होता है. लेकिन आजकल के बच्चे कहां सुनते हैं.”
फिलहाल घर-गृहस्थी के ये छोटे-छोटे जंजाल, मामूली सवाल अभी मुल्तवी हो रखे हैं. साफिया ने आज भी जींस पहनी है, नूरजहां अभी इस पर कोई गुल नहीं कर रहीं. अभी सबसे बड़ा सवाल यही है, जो एक दिन एनआरसी आ ही गया दरवाजे पर तो क्या होगा. जो घर से बेदखल और वतन से बेवतन किए गए तो क्या होगा. ऐसा नहीं कि कोई कागज़ नहीं है, लेकिन चार पुश्तों का कागज किसके पास है भला. और सच पूछो तो नूरजहां की आंखों में कागज है या नहीं के सवाल से भी गहरा है संदेह. वो हूकूमत को शक की निगाह से देख रही हैं. उनके दिल में डर है कि एनआरसी तो महज बहाना है. सत्ता के इरादे कुछ और ही हैं.
पढ़े-लिखे, सियासत के दांव-पेंचों से वाकिफ लोग तो समझ रहे हैं कि ये खेल आखिर है क्या. लेकिन ये बेपढ़ी-लिखी, पर्दे और हिजाब में रहने वाली, शौहर को खुदा समझने वाली और बेटियों को चरित्रवान बनाए रखने की फिक्र में हलकान रहने वाली औरतों को क्या हो गया है कि जिंदगी के बाकी सब काम टालकर ये पिछले 50 दिनों से शाहीन बाग के मैदान में जमी हुई हैं.
उस मैदान की ओर जाने वाली गली के छोर पर एक औरत सब्जीवाले से जल्दबाजी में कुछ मोलभाव कर रही है. सब्जियां खरीदकर वो थैली अपने 8 बरस के लड़के को थमाती है और कहती है, “घर जा.” वो खुद तेज़ कदम बढ़ाती शाहीन बाग की ओर जाने लगती है. मैं पूछती हूं, “सब्जियां तो खरीद लीं. खाना कौन बनाएगा. आप तो शाहीन बाग जा रही हैं.” वो हंसकर कहती हैं, “इसके अब्बू बनाएंगे. 7 बजे आ जाएंगे काम से.”
मैं लड़के से पूछती हूं, “अब्बू अच्छा खाना बनाते हैं?” लड़का शरमाकर मां के बुर्के में छिप जाता है. औरत हंसकर रह जाती है, लेकिन खाने की तारीफ नहीं करती. मानो दोनों कह रहे हों कि खाना तो बेकार ही होता है, लेकिन अभी काम चला ले रहे हैं. उनका नाम शबाना है. 20 साल की शादीशुदा जिंदगी में ये पहली बार हुआ है कि बड़े हक से शौहर को रसोई की जिम्मेदारी थमा दी है और उतनी ही मुहब्बत से शौहर ने कुबूल भी कर ली है. वरना शबाना की पांच जचगियों के समय भी ऐसा नहीं हुआ कि शौहर ने रसोई का रुख किया हो.
शाहीन बाग तक पहुंचते-पहुंचते हमारी दोस्ती हो गई है. शबाना काफी बातूनी हैं. मैं तो सिर्फ रसोई को पहाड़ समझे बैठी हूं और वो अपनी जचगी की कहानियां भी ऐसे बयान करती हैं, मानो शोरबे का मसाला बता रही हों. “पांच जने, दो मर गए, तीन जिंदा हैं. हम कभी अस्पताल नहीं गए. एक बार तो ऐसा हुआ कि ईद का समय था, हांडी में मटन चढ़ा रखा था. नौ महीने से 6 दिन ऊपर थे. पेट में दर्द उठा, हम रसोई से उठकर सीधा जचगी में चले गए. दो घंटे में बच्चा भी पैदा हो गया.” सब इतना आसान, इतना सहज, जैसे दाल-भात.
कहानी सुनाते हुए शबाना शाहीन बाग पहुंच चुकी हैं. भीड़ के बीच से निकलते हुए वो मेरा हाथ भी पकड़ लेती हैं, जैसे मैं कोई बच्चा होउं. उनकी सहेलियां वहां पहले से मौजूद हैं. सब खिसककर शबाना के लिए जगह बनाती हैं. वो बैठती हैं, शॉल से सिर ढंकती हैं और मंच की ओर देखने लगती हैं. एक आदमी भाषण दे रहा है. मैं पूछती हूं, “यहां सब मर्द ही भाषण देते हैं. आप क्यों नहीं बोलतीं.” वो शरमा जाती हैं. “अरे, ये हमारा काम थोड़े न है. हमें बोलना नहीं आता. हम यहीं ठीक हैं.”
मैं पूछती हूं, “लेकिन यहां औरतें भाषण देती हैं क्या?” शबाना बताती हैं, “हां देती हैं, लेकिन कम. ज्यादातर मर्द ही बोलते हैं.”
“लेकिन बाहर अखबारों में, मीडिया में तो छप रहा है कि शाहीन बाग का आंदोलन औरतें चला रही हैं. वहीं नेतृत्व कर रही हैं.”
“वो बात सही है. इतनी सारी औरतें यहां आकर बैठी हैं आप खुद देख लो. मर्द सब पीछे खड़े हैं. औरतों के लिए जगह खाली कर रखी है. वो बात सही है कि सबसे आगे भी मर्द ही हैं. लेकिन अल्लाह का हुकुम भी यही है.”
“लेकिन अच्छा होता न, अगर मंच पर भी सारी औरतें होतीं.”
“आपके जैसी पढ़ी-लिखी होतीं तो जरूर होतीं. हम घरों से इसलिए थोड़े न आए कि हमको भाषण देना है, नेता बनना है. हम तो अपने बच्चों के लिए आए हैं, अपने शौहर के लिए, अपने मुल्क के लिए, अपने लोगों के लिए.”
शाहीन बाग की तरबियत को समझना है तो आपको वहां बार-बार, कई बार जाना होगा. उन औरतों के बीच बैठना होगा, किसी को अम्मा, किसी को दादी, किसी को बाजी, किसी को अप्पी कहकर बुलाना होगा, हाथ पकड़ना होगा, कंधे का सहारा देना होगा. आप पत्रकार की हैसियत और अधिकार से सवाल पूछेंगे तो वो आपका सधा और नीरस जवाब दे देंगी. लेकिन आप उनकी तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाएंगे, उनकी कहानी पूछेंगे, अपनी सुनाएंगे तो वो अपनी थैली में से शीरमाल का एक टुकड़ा आपकी तरफ भी बढ़ा देंगी. वो अपने दुख, चिंताएं, मुहब्बत सब उड़ेलकर रख देंगी. उनकी आंखों से जार-जार आंसू गिरेंगे. वो बताएंगी अपने सारे डर. उनकी नागरिकता छीन ली गई तो उनके बच्चे कहां जाएंगे. उनका घर, ज़मीन, वतन छिन गया तो उनकी आने वाली नस्लों का क्या होगा. ये डर कितना सच्चा, कितना गहरा है, ये शाहीन के आंसुओं से समझ में आता है. शाहीन को अब तक अपने नाम का मतलब भी नहीं मालूम था. अब पता है. कहती हैं, “एक मैडम आती हैं. उन्होंने बताया. कोई परिंदा होता है शाहीन, जिसकी हड्डियां बहुत मजबूत होती हैं.” शाहीन के नाम का मतलब परिंदा है, ये बोलते हुए उसकी आंखें चमकने लगती हैं.
शाहीन के शौहर सऊदी में नौकरी करते हैं. वो शाहीन बाग में अपने तीन बच्चों के साथ अकेली रहती हैं. वो बताती हैं कि सहारनपुर के जिस स्कूल में वो पढ़ती थीं, उनकी सबसे पक्की सहेली का नाम सोनाली था. हम साथ उठते, साथ खाते, साथ घूमते, साथ पढ़ते, हर काम साथ करते थे. जिस दिन वो स्कूल नहीं आती, स्कूल में मेरा दिल नहीं लगता. हम तो कपड़े तक एक-दूसरे से मांगकर पहनते थे. हमें कभी नहीं लगा कि वो हिंदू है और मैं मुसलमान. आज मेरा बच्चा स्कूल से आकर पूछता है, “अम्मी, हिंदू गंदे होते हैं क्या.” ये फर्क कौन पैदा किया. मेरे और मेरे बच्चे के बीच में ये फर्क कौन लाया.
यह कहते हुए शाहीन रोने लगती हैं. उनका मुंह बुर्के में ढंका है. सिर्फ आंखें दिख रही हैं. आंसुओं से मुंह पर बंधा कपड़ा भीग गया है. आंखें पीली पड़ रही हैं, हाथ गर्म हैं और बुर्के से तेज महक उठ रही है. शाहीन को देखकर लगता है कि इसे कम से कम 48 घंटों के लिए सुला दिया जाए. वो इतनी थकी हुई लग रही हैं.
बोलते-बोलते आवाज कांपने लगती है, लेकिन वो रुकती नहीं, “ये मुल्क एक है, हिंदू-मुसलमान में कोई फर्क नहीं, सबका खून एक है, सबका आंसू एक है. ये फर्क कौन पैदा कर रहा है. ये दीवार कौन बना रहा है. अमित शाह कहते हैं, सबको नागरिकता देंगे, सिर्फ मुसलमानों को नहीं देंगे. अरे वो राजा हैं हमारे. माई-बाप हैं. मां-बाप ऐसे अपने बच्चों में फर्क करते हैं क्या. एक बच्चे को देंगे और दूसरे को नहीं देंगे. हमें अपने घर में, अपने मुल्क में पराया कर दिया है. इसके अब्बू भी नहीं हैं. हम तीन बच्चों को लेकर कहां जाएंगे.”
शाहीन ने कुछ देर पहले कहा था कि उसके शौहर सऊदी में काम करते हैं. लेकिन इस बार जो वो फूटी तो सच बोल दिया. शौहर ने कभी तलाक नहीं दिया, लेकिन आज 10 साल होने को आए. जो एक बार गए तो लौटकर नहीं आए. कभी-कभार पैसे आ जाते हैं. शाहीन के हाथों में हुनर था. वो रोटी का जरिया बन गया. वो वहीं के एक बुटीक में कढ़ाई और ज़रदोजी का काम करती हैं. बड़ा बेटा भी अब कुछ कमाने लगा है. आधार कार्ड है, वोटर आईडी कार्ड भी है शाहीन के पास, लेकिन वो ये सुनकर डरी हुई है कि इन सबसे उसकी नागरिकता तय नहीं होती. न उसके नाम कोई ज़मीन है, न प्रॉपर्टी. वो कौन सा कागज का टुकड़ा होगा, जो ये साबित कर सके कि इसी दिल्ली से सटे उत्तर प्रदेश के सहारनपुर के एक गांव में शाहीन पैदा हुई, सोनाली उसकी सबसे पक्की सहेली थी, यहीं ब्याही गई, यहीं तीन बच्चे जने, यहीं उसका शौहर उसे छोड़ गया. अब वो यहीं बूढ़ी हो और यहीं दफन हो.
शाहीन की आवाज बड़ी मीठी है. मैं उनसे इसरार करती हूं कि वो ये बुर्का हटाकर एक बार मुझे अपनी सूरत दिखा दें. वो शरमा जाती हैं. फिर औरतों की तरफ मुंह करके धीरे से अपने मुंह से कपड़ा हटाती हैं. रंग गेंहुआ है, लेकिन दोनों गाल आंसुओं से भीग-भीगकर लाल हो गए हैं. मैं कहती हूं, “इतना सुंदर चेहरा ढंककर क्यों रखती हैं.” वो कहती हैं, “मर्द की नज़र अच्छी नहीं होती. बिना शौहर वाली औरत पर तो वैसे भी हर किसी की नजर होती है.” ये कहते हुए वो वापस अपना मुंह ढंक लेती हैं.
मैं इस ख्याल के संग वहां से उठ जाती हूं कि ये बिना आदमी की औरत कितने मोर्चों पर अकेली लड़ रही है. कोई एनजीओ वाला शाहीन को बुलाने नहीं गया था. पीछे से कोई उसके बच्चों को देखने वाला नहीं. लेकिन वो रोज यहां इस डर से चली आती है कि कोई उसकी जमीन, उसका घर उससे छीन लेगा.
कोई इसका हाथ पकड़कर ये कहता क्यों नहीं कि डरने की कोई बात नहीं. क्योंकि सच तो ये है कि डर लग ही इसलिए रहा है कि बात डरने की बहुत है. जान सांसत में इसीलिए है कि डाली गई है. वरना पहले से इन औरतों की जिंदगी में नाइंसाफियां क्या कम थीं. उनकी देह और दिल पर कितने घावों के निशान हैं, जो उन्होंने न कभी खुद देखे, न दिखाए.
थप्पड़ फिल्म के ट्रेलर पर आधुनिक चेतना वाली लड़कियां जिस तरह लहालोट हो रही हैं, वैसे थप्पड़ तो उनकी जिंदगियों में दाल-भात थे. उन्होंने कभी धर्मग्रंथों के सिखाए इस सबक पर सवाल नहीं किया कि शौहर का दर्जा खुदा के बराबर क्यों है. वो खुद ही खुद को कमतर मानती रहीं. दुख जैसे-जैसे बढ़ते गए, सजदे में उनका झुकना भी बढ़ता गया. दुआएं बढ़ती गईं. अभी भी वो किसी जंग की मुद्रा में नहीं हैं. वो कोई आर-पार की लड़ाई की भी बात नहीं कर रहीं. वो शाहीन बाग के मैदान में नीले तिरपाल के नीचे दरी पर वैसे ही झुकी बैठी हैं, जैसे सजदे में बैठती हैं. वो वहीं बैठे-बैठे दुआएं मांगती रहती हैं, तस्बीह फेरती रहती हैं. किसी की चोटी गूंथ देती हैं तो किसी का बच्चा संभाल लेती हैं. किसी जवान लड़की को अच्छे शौहर की दुआएं देती हैं तो किसी की नई ब्याही बहू को जल्द गोद भर जाने का आशीर्वाद.
पितृसत्ता की सदियों पुरानी फसीलों को तोड़ने-फोड़ने का कोई इरादा इनमें से किसी औरत का नहीं मालूम देता. जैसे 28 साल की सबीहा ने कहा था, “हम रोज-रोज यहां इसलिए आते हैं कि मोदीजी से दुआ कर रहे हैं. अल्ला से भी तो ऐसे ही कहते हैं. रोज दुआ करते हैं, रोज सजदा करते हैं, इस उम्मीद में कि एक दिन हमारी दुआ कुबूल हो जाएगी. ऐसे ही हम रोज यहां आते हैं इस उम्मीद में कि एक दिन हमारी बात उन तक पहुंचेगी जरूर.”
मैं भी इस उम्मीद में चल पड़ती हूं कि वो नाउम्मीद न होने पाएं. लेकिन वो जो ये आजादी-आजादी बोल रही हैं, उसके व्यापक अर्थ को भी समझें. अब घर में भी कभी थोड़ी आंख तरेरें, थोड़ी आवाज ऊंची करें. उनके शौहर इस आंदोलन के बाद भी रसोई में हाथ बंटाएं. लड़कियां जींस पहनें, शौहर खुदा के दर्जे से उतरकर थोड़ा जमीन पर आ जाएं, थोड़ा इंसान हो जाएं. बात निकली तो एनआरसी के बहाने से है, लेकिन अब जो निकली है तो दूर तलक जाए. बात से बात निकले और हर वो बात निकले, जो अब तक दबी बैठी थी.
शाहीन बाग की कुछ यात्राओं में कही-सुनी इन कहानियों को अपने दिमाग में सिलसिलेवार जमाते हुए मैं घर की ओर चल पड़ी हूं. औरतें खूब हैं सड़कों पर, लेकिन मर्द अब भी उनसे कहीं ज्यादा हैं. गैरबराबरी है बहुत सारी. जेंडर की, धर्म की, जाति की, आर्थिक हैसियत की, ताकत की, रुतबे की, सत्ता की. दो महीने पहले आए एक भेदभावपूर्ण कानून ने काफी हद तक इन सारी दीवारों को गिराकर हर तबके के लोगों को एक कर दिया है. अब ये सिर्फ मुसलमानों की लड़ाई नहीं है. हर धर्म, हर जाति, हर वर्ग, हर समुदाय का व्यक्ति इस लड़ाई में एकजुट है. ये लोकतंत्र की, संविधान की, धर्मनिरपेक्षता की लड़ाई है.
शाहीन बाग ने देश पर तो असर छोड़ा ही है, उसके अलावा इस आंदोलन ने शाहीन बाग पर जो असर छोड़ा है, वो भी कोई मामूली बात नहीं. शाहीन बाग ने जिस तरह हर समुदाय, हर तरह की पहचान के लोगों को अपनाया है, वो भी अपने आप में एक मिसाल है. जब आपको जालीदार सफेद टोपी वाले एक पांच वक्त के नमाजी के बगल में कानों में बाली और औरतों जैसे कपड़े पहने एक एलजीबीटी समुदाय का व्यक्ति साथ खड़ा दिखता है तो आप एकबारगी अपनी आंखें हटा नहीं पाते. लाल-पीले-नीले रंगों में रंगे बालों वाली लड़की एक बुर्के वाली स्त्री के बगल में खड़ी है और दोनों में दोस्ताना है. यहां सिख हैं, जो मुसलमानों के साथ बराबरी से खड़े हैं. देश के कोने-कोने से आए स्टूडेंट हैं, जो पेंटिंग बना रहे हैं, खाना खिला रहे हैं, फुटपाथ के बच्चों को पढ़ा रहे हैं और रात में वहीं मैदान के एक किनारे बने फुट ओवरब्रिज पर सो जाते हैं. आसपास की दुकानों, अस्पतालों और लोगों ने अपने घरों को औरतों के लिए खोल दिया है ताकि वो शौचालय का इस्तेमाल कर सकें.
जो शाहीन बाग नाम की इस जगह को 14 दिसंबर के पहले भी जानते रहे हैं, वो जानते हैं कि ये जगह ऐसी तो नहीं थी. हर किसी ने अपने चारों ओर पहचान की एक दीवार खड़ी की हुई है, जो बाकी तरह की पहचानों के प्रति बहुत उदार नहीं. लेकिन पहचान की वो सारी दीवारें अब यहां गिर रही हैं और एक नई पहचान उभर रही है- हिंदुस्तानी होने की पहचान. इस पहचान में हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई, एलजीबीटी, फेमिनिस्ट सब शामिल हैं. सब जोर से कह रहे हैं- “हम एक हैं.”
रात गहरा रही है. शाहीन बाग मेट्रो स्टेशन की ओर जाने वाली संकरी सड़क पर कोने में एक नीले रंग की कार खड़ी है, जिसके पिछले पहिए नदारद हैं. कार की आगे की दोनों खिड़कियां खुली हैं और अंदर तेज आवाज में म्यूजिक बज रहा है- “सारे जहां से अच्छा, हिंदोस्तां हमारा.”
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