Newslaundry Hindi
कुली बाज़ार 11: डेढ़ सौ बरस के गांधी का नवीन वैभव
गए साल अक्टूबर की 20 तारीख़ को कानपुर में एक गोष्ठी से गुज़रना हुआ था. विचारशीलता और बौद्धिक हस्तक्षेप की पत्रिका ‘अकार’ के मार्फ़त आयोजित इस गोष्ठी का विषय ‘डेढ़ सौ बरस के गांधी’ था.
इस गोष्ठी के दरमियान लिए गए नोट्स इन पंक्तियों के लेखक की डायरी में लंबे समय तक दबे रहे. कानपुर से लौटकर इन नोट्स पर लौटना न हुआ, लेकिन अब हो रहा है—पर्याप्त देर से ही सही. इस बीच समय और संसार में गांधी-विमर्श गर्म है. नागरिकता संशोधन बिल को लोकसभा ने 10 दिसंबर 2019 को तथा राज्यसभा ने 11 दिसंबर 2019 को परित कर दिया. 12 दिसंबर 2019 को भारत के राष्ट्रपति ने इसे अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी और यह विधेयक एक अधिनियम बन गया. 10 जनवरी 2020 से यह अधिनियम प्रभावी भी हो गया है.
कहते हैं कि 20 दिसंबर 2019 को पाकिस्तान से आए सात शरणार्थियों को भारतीय नागरिकता देकर इस अधिनियम को लागू भी कर दिया गया था. लेकिन इस बिल के क़ानून बनते ही इसका राष्ट्रव्यापी विरोध भी मुखर हो गया. भारत के गृहमंत्री द्वारा नागरिकता संशोधन क़ानून और नागरिकता रजिस्टर की क्रोनोलॉजी समझाने के बाद सब तरफ़ वबाल और कोहराम के नए-नए सिरे खुल गए और खुल रहे हैं. कई छोटे-छोटे आंदोलन नागरिकता संशोधन क़ानून के विरोध में शुरू हुए आंदोलन से जुड़ गए हैं. इस प्रकार इस आंदोलन का स्वरूप व्यापक हो चुका है और सरकार इससे भयभीत है.
इस दृश्य में ध्यान देने योग्य यह है कि इस आंदोलन ने गांधी और उनके तौर-तरीक़ों को प्रासंगिक कर दिया है. ‘डेढ़ सौ बरस के गांधी’ का इस प्रकार प्रासंगिक और महत्वपूर्ण होना इस आज़ाद मुल्क में अभूतपूर्व है. शाहीन बाग़ की औरतों से लेकर जामिया, जेएनयू और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के छात्रों तक गांधी की ज़रूरत उभर आई है. गांधी-मार्ग के अतिरिक्त दूसरा कोई मार्ग उन्हें सूझ नहीं रहा है. गांधी के नए आयाम और पाठ प्रकट हो रहे हैं.
बहरहाल, यहां मूल कथ्य पर लौटना होगा जिसके नोट्स डायरी में 20 अक्टूबर 2019 से अब तक दबे रहे. इन पंक्तियों के लेखक ने इन्हें 30 जनवरी 2020 की रात को देखना शुरू किया.
30 जनवरी 2020
आज गांधी की पुण्यतिथि है. आज सुबह से ही शांतिपूर्वक विरोध से संबद्ध छात्रों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को बापू की समाधि तक जाने और श्रद्धा-सुमन अर्पित करने से राज्य द्वारा रोका गया. आज दुपहर में एक युवक ने देसी कट्टे के साथ जामिया के छात्रों के बीच घुसकर एक छात्र पर गोली चला दी. रामभक्त पुलिस की गिरफ़्त में और छात्र अस्पताल में फ़िलहाल सुरक्षित है. महात्मा गांधी और नाथूराम गोडसे से जोड़कर इस घटना की अब तक पर्याप्त व्याख्याएं हो चुकी हैं. मूल्य कथ्य यहां बार-बार भटक जा रहा है. इसे तारीख़ 20 अक्टूबर 2019 और कानपुर के मर्चेंट चेंबर हॉल की उस शाम में लौटना होगा, जहां ‘डेढ़ सौ बरस के गांधी’ शीर्षक से सेमिनार जारी है.
20 अक्टूबर 2019
इस अवसर पर प्रसिद्ध कथाकार प्रियंवद ने ‘डेढ़ सौ बरस के गांधी’ विषय को प्रवर्तित करते हुए कहा कि यह विषय रखने का मक़सद यह था कि हम गांधी के काउंटर नैरेटिव पर बात करें. इसे ध्यान में रखकर ही यहां मौजूद दो वक्ताओं (गोपाल प्रधान और मोहम्मद सज्जाद) को आमंत्रित किया गया. प्रियंवद अपनी बात यह कहते हुए आगे बढ़ाते हैं कि हिंदुस्तान में बहुत कम चीज़ें ऐसी हैं जिनके बारे में पूरा मुल्क एक है; सारे राजनीतिक दल, सारे सामाजिक बल एक हैं- वह है गांधी की निंदा और उनका विरोध.
इस मुद्दे पर किसी दल और पक्ष में कोई फ़र्क नहीं है. कम्युनिस्ट गांधी के विरोधी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और दूसरे हिंदू संगठन गांधी के विरोधी, कांग्रेसी गांधी के विरोधी, मुसलमान गांधी के विरोधी, दलित और अम्बेडकरवादी गांधी के विरोधी, पूंजीवादी गांधी के विरोधी, युवा गांधी के विरोधी... गांधी-निंदा के मुद्दे पर सब एक हैं. लेकिन यह विचित्र है कि वह राष्ट्रपिता भी हैं.
गांधी के प्रसंग में ऊपर के अनुच्छेद में दर्ज विरोधाभास इस आयोजन तक बदला नहीं था, लेकिन यह सुखद है कि 30 जनवरी 2020 की रात जब इस आयोजन के विषय में लिखा जा रहा है; यह विरोधाभास कुछ हद तक ध्वस्त हो चुका है.
30 जनवरी 2020
भारत के गृहमंत्री द्वारा नागरिकता संशोधन क़ानून और नागरिकता रजिस्टर की क्रोनोलॉजी समझाने के बाद सब तरफ़ वबाल और कोहराम के जो नए-नए सिरे खुले उनमें आश्चर्यजनक रूप से केंद्रीय किरदार गांधी का रहा और है. गांधी का अपनी हत्या (जिसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और दूसरे हिंदुत्ववादी संगठन गांधी-वध कहकर पुकारते हैं) के बाद इस तरह तस्वीरों से बाहर निकलकर प्रतिरोध की जीवंत ज़मीन पर आ खड़ा होना इस बात का प्रमाण है कि गांधी-संघर्ष व्यर्थ नहीं गया है. इस वक़्त इस मुल्क में जहां-जहां जन उठ खड़े हुए हैं और बोल रहे हैं, उन्होंने गांधी के निंदकों-विरोधियों को अप्रासंगिक कर दिया है. अब गांधी ही उनकी शक्ति, उनका पक्ष हैं.
20 अक्टूबर 2019
‘डेढ़ सौ बरस के गांधी’ प्रियंवद इस विषय को कुछ और खोलते हैं, ‘‘...ऐसा नहीं है कि गांधी का विरोध उनकी मृत्यु के बाद सामने आया. वह जिस दिन से राजनीति में सक्रिय हुए, यह विरोध उस दिन से ही शुरू हो गया. अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में आधुनिक इतिहास के प्रोफ़ेसर मोहम्मद सज्जाद और छात्र जीवन से ही वामपंथी राजनीति में सक्रिय रहे गोपाल प्रधान को इस अवसर पर बोलने के लिए बुलाने का उद्देश्य भी यही था कि यह जाना जाए कि आख़िर इस देश के मुसलमान और कम्युनिस्ट गांधी के इतने विरोधी क्यों हैं.
दूसरी बात गांधी आज डेढ़ सौ साल के हो गए हैं, इस अवसर पर कोई पूछे कि आज गांधी की कितनी ज़रूरत है तो मैं कहूंगा कि बहुत ज़रूरत है. कोई कहेगा क्यों तो मुझे लगता है कि तीन चीज़ें ऐसी हैं जिनके लिए गांधी की बार-बार ज़रूरत पड़ेगी. पहली चीज़ यह कि भारत देश कैसा है और किसका है... यह समझने के लिए. दूसरी चीज़ किसी से लड़ाई लड़नी हो आपके पास ताक़त न हो, आप अकेले हों, तब आपका हथियार क्या हो... यह समझने के लिए.
तीसरी चीज़ हमें गांधी के हिंदुत्व को बहुत क़ायदे और गहराई से समझना होगा जिसकी वजह से एक हिंदू को ही उनकी हत्या करनी पड़ी. हिंदुत्व के इस फ़र्क़ को हमें समझना होगा. जब गांधी 1915 में भारत आए कोई मुल्क की बात नहीं कर रहा था. किसी के भीतर भारत की अवधारणा थी ही नहीं. न कोई दल, न कोई व्यक्ति, सब अपनी-अपनी अलग पंक्तियों में चल रहे थे. 1857 के बाद सर सैयद अहमद साहब ने एक अलग लाइन पकड़ी, हिंदूवादियों-राष्ट्रवादियों ने एक अलग लाइन पकड़ी, तिलक की अलग लाइन थी, दलितों की और अम्बेडकर की अलग लाइन थीं, कम्युनिस्टों की अलग लाइन थी... पूरे भारत की बात कोई नहीं करता था. गांधी ने यह किया. वह पहले आदमी थे जिन्होंने हाशिए के लोगों को केंद्र में रखा और केंद्र के लोगों को हाशिए पर फेंक दिया. उन्होंने देश की भाषा और राजनीति बदल दी. किसानों और मजदूरों से अपने आंदोलन शुरू करके उन्होंने देश को एक सूत्र में गूंथ दिया. उन्होंने मामूली आदमी के अंदर सत्ता से लड़ने की ताक़त भर दी. आज अगर एक अकेले आदमी को हुकूमत से लड़ना है तो सिर्फ़ गांधी के दिए हथियार से ही वह लड़ सकता है.’’
20 अक्टूबर 2019 के बाद से इस मुल्क में जो कुछ हुआ और उसके बाद जो कुछ हो रहा है, उसमें सत्ता से लड़ने के लिए एक कमज़ोर वर्ग के पास सिर्फ़ गांधी के दिए हथियार ही हैं. बहरहाल, ‘‘क्या आज हर गांधी विरोधी भारतीय जनता पार्टी के हाथ मज़बूत नहीं कर रहा?’’ यह प्रश्न आमंत्रित वक्ताओं और श्रोताओं के लिए छोड़कर प्रियंवद अपने स्थान पर लौट गए.
इसके बाद मोहम्मद सज्जाद ने मुस्लिम समाज के हवाले से बताया कि गांधी मुल्क के बंटवारे को दो भाइयों के बीच हुआ बंटवारा तसव्वुर करते थे. वह बंटवारा कैसे हुआ वह इसकी वजहों में बहुत जाना नहीं चाहते थे. उन पर छह बार जानलेवा हमले हुए. पहला असफल हमला 1934 में तब हुआ जब उन्होंने छुआछूत का विरोध किया और अछूतोद्धार शुरू किया, और छठवां सफल हमला नाथूराम गोडसे ने भारत विभाजन की और गांधी की कथित मुस्लिमपरस्ती की प्रतिक्रिया में किया.
मोहम्मद सज्जाद ने बड़े मुस्लिम नेताओं और कार्यकर्ताओं के गांधी से जुड़े प्रसंगों-संस्मरणों का ज़िक्र करते हुए बताया कि गांधी कभी यह नहीं कहते थे कि मैंने मुसलमानों के लिए इतना किया फिर भी मैं उनका भरोसा नहीं जीत पाया, वह हमेशा यह कहते थे कि शायद मुझसे ही कोई कमी रह गई है. कुछ और प्रसंगों के उदाहरण से सज्जाद ने गांधी की हत्या के लिए साम्प्रदायिकता को ज़िम्मेदार माना. वह साम्प्रदायिकता जो दोनों तरफ़ थी. इसलिए गांधी की हत्या के ज़िम्मेदार हिंदू और मुसलमान दोनों हैं.
मोहम्मद सज्जाद के बाद गोपाल प्रधान ने अपनी बात यह कहते हुए शुरू की कि ग़लत लोगों में आपस में एकता बहुत अच्छी तरह से हो जाती है. उन्होंने कहा कि आज कहा जा रहा है भारत में एक नया आत्मविश्वास पैदा हुआ है. यह कैसा आत्मविश्वास है. क्या यह लड़कर हासिल किया गया आत्मविश्वास है? नहीं! यह एक मज़बूत स्वामी के ग़ुलाम-सा आत्मविश्वास है. उन्होंने कहा कि गांधी पर बात करते हुए आज यह याद रखने की ज़रूरत है कि साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद गए ज़माने के विमर्श नहीं हैं; वे आज के भी विमर्श हैं. गांधी आर्थिक शोषण को ही नहीं, सांस्कृतिक शोषण को भी पहचानते थे. गांधी बहुत अधिक चुनौतियों से भरे हुए व्यक्तित्व हैं. उनको आप मामूली से मामूली मामलों में भी उठाने की हिम्मत नहीं कर पाते हैं.
गोपाल प्रधान ने ‘हिंद स्वराज’ के उदाहरण से बताया कि गांधी कहते हैं- हिंदी राष्ट्रभाषा होगी, लेकिन उसे नागरी और फ़ारसी दोनों लिपियों में लिखने की इजाज़त होनी चाहिए. साम्राज्यवाद-विरोध को गांधी ने कई स्तरों पर महसूस किया. सलिल मिश्र से हुई अपनी बातचीत का उल्लेख करते गोपाल प्रधान बताते हैं : एक भी लड़ाई ऐसी नहीं है जिसे गांधी ने भौतिक अर्थों में जीता हो. दरअसल, लड़ाई में जिसे सफलता कहते हैं; उसका पैमाना क्या है? क्या आपका जो मांग-पत्र है, उसे पूरा का पूरा स्वीकार कर लिया गया? नहीं! गांधी के दिमाग़ में सफलता का पैमाना बहुत ऊंचा और दूसरा था. यही वजह थी कि उन्होंने हार के बावजूद कभी लड़ना नहीं छोड़ा. लोगों को साहस देना, उन्हें घर से बाहर लाना, उन्हें सामाजिक भूमिका निभाने में सक्षम बनाना... लड़ाई का पैमाना गांधी इसे मानते थे. वह यह भी जानते थे कि जितना बड़ा परिवर्तन वह समाज में करना चाहते हैं, वह उनकी जान भी ले सकता है.
इस पड़ाव पर आकर लगता है कि एक नई शुरुआत के लिए पुरानी चीज़ें कैसे काम आती हैं. या शायद इन्हें पुराना कहना हमारी भूल है.
Also Read
-
‘Foreign hand, Gen Z data addiction’: 5 ways Indian media missed the Nepal story
-
Mud bridges, night vigils: How Punjab is surviving its flood crisis
-
Adieu, Sankarshan Thakur: A rare shoe-leather journalist, newsroom’s voice of sanity
-
Corruption, social media ban, and 19 deaths: How student movement turned into Nepal’s turning point
-
Hafta letters: Bigg Boss, ‘vote chori’, caste issues, E20 fuel