Newslaundry Hindi
दिल्ली पुलिस! आपके अधिकारियों को सामान्य शिष्टाचार सीखना भी अभी बाकी है
बीते कुछ समय से दिल्ली के अलग-अलग इलाकों में सीएए, जेएनयू फीस वृद्धि आदि को लेकर टकराव और हिंसा की तस्वीरें देखने को मिल रही है. इस पूरे दौर में जिस संस्थान की छवि या कहें विश्वनीयता पूरी तरह तार-तार हो गई है वह है दिल्ली पुलिस. देश की राजधानी के पुलिस तंत्र का रवैया बेहद पक्षपाती, दुर्भावनापूर्ण और कई मौकों पर अपनी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ने वाला रहा है. जेएनयू परिसर में नाकबपोश गुंडों का सुगम आवागमन सुनिश्चित करना, फीस का विरोध करने वाले जेएनयू छात्रों पर हिंसक बलप्रयोग, जामिया परिसर में घुस कर गोलीबारी और बलप्रयोग आदि कुछ उदाहरण हैं दिल्ली पुलिस की पक्षपातपूर्ण कार्यशैली के.
गुरुवार को एक बार फिर से दिल्ली पुलिस ने अपनी कलई स्वयं खोल दी जब जामिया मिल्लिया इस्लामिया के बाहर प्रदर्शन कर रहे लोगों पर एक युवक ने पिस्तौल तान दी. हथियारबंद युवक खुलेआम लोगों को धमकाता रहा और पुलिस की पूरी बटालियन दूर खड़ी देखती रही. घटना का वीडियो देखकर लगा कि यह पुलिस बल एसओपी जैसी शब्दावली से पूरी तरह अनभिज्ञ है. इस तरह की आपात स्थिति में उसकी कार्रवाई हतप्रभ करने वाली है. पुलिस की इस कारगुजारी से नाराज़ लोगों ने देर शाम दिल्ली पुलिस मुख्यालय पर प्रदर्शन का आह्वान किया था.
पुलिस की कार्रवाई के दौरान पुलिस के साथ कहासुनी चलती रहती है लेकिन पुलिस मुख्यालय पर जो हुआ वह चिंता और सवाल भी खड़ा करता है.
पुलिस मुख्यालय से थोड़ी ही दूर दिल्ली गेट के पास योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण के नेतृत्व में मानव श्रृंखला का कार्यक्रम प्रस्तावित था. इसकी वजह 30 जनवरी यानी गांधीजी का शहादत दिवस था. लेकिन पुलिस ने दिल्ली गेट पर पहुंचते ही दोनों को हिरासत में ले लिया और मानव श्रृंखला बनाने से रोक दिया. इस घटना को कवर करके मैं भी आईटीओ स्थित पुलिस मुख्यालय पहुंच गया.
सात बज रहे थे. पुलिस मुख्यालय के आस-पास सैकड़ों की संख्या में पुलिसकर्मी मौजूद थे. जो भी इक्का-दुक्का प्रदर्शनकारी आते पुलिस उनको हिरासत में लेकर अलग-अलग थानों में भेज रही थी. पुलिस की योजना थी कि किसी भी तरह से प्रदर्शनकारियों को इकट्ठा होने से पहले ही हटा दिया जाय. आईटीओ मेट्रो स्टेशन के गेट नम्बर पांच से लेकर पुलिस मुख्यालय के बीच पुलिस के जवान किसी को भी खड़ा नहीं होने दे रहे थे. इस दौरान मुझसे और वहां मौजूद तमाम पत्रकारों से बार-बार आईडी कार्ड दिखाने के लिए कहा जा रहा था. हम हर दफा ऐसा करते भी रहे.
पुलिस की अतिसक्रियता से वहां प्रर्शनकारी इकट्ठा नहीं होने पा रहे थे. तब मैं और मेरी सहयोगी वीना नायर ने तय किया कि हमें वहां से चलना चाहिए. यह तय करके हम मेट्रो स्टेशन की तरफ बढ़े तभी ऑल इंडिया स्टूडेंट एसोसिएशन की दिल्ली अध्यक्ष कवलप्रीत कौर आती हुई दिखीं. वह प्रदर्शन में शामिल होने पहुंचीं थीं. हम वहीं खड़े होकर आपस में बात करने लगे.
साढ़े आठ बजने को हो रहे थे. हम वहां खड़े थे तभी एक लड़के को एक पुलिस अधिकारी धक्का मारने लगा. पुलिस अधिकारी लगातार उसके साथ हिंसक तरीके से धक्का-मुक्की कर रहा था. मैं तुरंत ही अपने कैमरे से इस घटना की रिकॉर्डिंग करने लगा. कवलप्रीत खुद भी उस घटना की वीडियो बनाते हुए पुलिस वाले से कह रही थीं कि आप कर क्या रहे हैं? कवलप्रीत ने पुलिस वाले पर दबाव बनाने के लिए कहा कि- हम इसका वीडियो बना रहे हैं. इस पर पुलिस अधिकारी ने पलट कर कहा, ‘‘आपको जो करना है कर लीजिए. बहुत बार रिकॉर्ड कर चुके हो. आई बात समझ में. कोई फर्क नहीं पड़ता है. चलिए आप.’’
ये कहने के बाद पुलिस अधिकारी लगातार उस युवक को धक्का मारता रहा और फिर उसे हिरासत में ले लिया.
मैं भी इस घटना का वीडियो बना रहा था. इसी दौरान एक पुलिसकर्मी राजपाल डबास ने मुझे तेज धक्का मारा. उसने मुझे फोन बंद करने के लिए कहा. मैंने उसे बताया कि मैं पत्रकार हूं और कवरेज के लिए आया हूं. मेरी बात को अनसुना करते हुए वह राजपाल मेरा मोबाइल फोन छीनने की कोशिश करने लगा. मैंने अपना बचाव करते हुए फोन पीछे खींच लिया. इससे कुढ़ते हुए थ्री स्टार अधिकारी राजपाल ने कहा- “फोन रख ले नहीं तो फोन तेरी गांड़ में डाल दूंगा…” (वीडियो में आप उस अधिकारी का चेहरा और आवाज़ देख और सुन सकते हैं).
मैंने उसे अपना प्रेस कार्ड दिखाते हुए बताया कि मैं पत्रकार हूं और अपना काम कर रहा हूं. ये मेरा काम है. लेकिन उसके ऊपर कोई असर नहीं हुआ. उल्टे उसने इस बार पलट कर दो-तीन नई गालियां जोड़ दिया. मेरा प्रेस कार्ड देखने के बाद भी वो लगातार अभद्र भाषा में बोलता रहा. इस मौके पर मेरे सब्र का बांध भी टूट गया. हालांकि मैंने अपनी सीमा में रहते हुए उससे पलट कर सवाल पूछना शुरू किया और मेरे साथी पत्रकारों ने उसकी वीडियो रिकॉर्डिंग शुरू कर दी. स्थिति को भांप कर वह अधिकारी अब थोड़ा ढीला पड़ने लगा.
ऐसा नहीं है कि पहली बार किसी पुलिसकर्मी ने फील्ड में किसी पत्रकार के साथ गलत व्यवहार किया हो. 6 जनवरी को जेएनयू में प्रदर्शन के दौरान मेरे समेत कई पत्रकारों को उठाकर फेंकने का निर्देश एक सीनियर पुलिसकर्मी ने सबके सामने दिया था. तब मैंने उस अधिकारी से बहस करने की बजाय दिल्ली पुलिस को टैग करके एक ट्वीट कर दिया था, और अपना काम करने लगा था. तब भी मैंने यही लिखा था कि दिल्ली पुलिस को अपनी भाषा और शैली सुधारने की ज़रूरत है.
प्रदर्शन के दौरान पुलिस और प्रदर्शनकारियों की नाराजगी कई दफा झेलनी पड़ी है लेकिन गुरुवार को जिस तरह से मुझे केंद्रित करके गाली दी गई, वह असहनीय थी. अपने पेशेवर कामकाज के दौरान हम हमेशा एक मर्यादित आचरण की अपेक्षा करते हैं और दूसरो से भी वैसा ही बर्ताव करते हैं.
मैंने अपना विरोध दर्ज कराया- “मैं पत्रकार हूं और अपना काम कर रहा हूं. इसके लिए मुझे कोई गाली कैसे दे सकता है. वो भी अधिकारी स्तर का पुलिसकर्मी.” मेरे विरोध के बाद अचानक से छह-सात पुलिस वालों ने मुझे घेर लिया. यह सब बेहद डरावना था. वो मुझे घसीट कर पास ही खड़ी एक बस में ले गए. इस दौरान मेरी सहकर्मी वीना नायर लगातार उन्हें रोकती रही और बताती रही कि हम पत्रकार हैं और अपना काम कर रहे हैं. लेकिन पुलिसकर्मियों ने न तो मेरी बात सुनी न वीना की. उल्टे वीना को धक्का देकर किनारे कर दिया.
बस में मेरे साथ तीन और लोग थे. जिसमें से एक लड़का अपने दफ्तर से शिफ्ट खत्म करके लौट रहा था. मेट्रो स्टेशन से उतरकर उसे बस लेना था. लेकिन गलती से वह उन पुलिस वालों के चंगुल में फंस गया था. वो मौजूद पुलिस वालों को लगातार अपना आईकार्ड दिखाता रहा कि वह प्रदर्शनकारी नहीं है बल्कि अपने दफ्तर से लौट रहा है. लेकिन उसे जबरन हिरासत में लेकर बस में बैठा दिया गया था.
इस बीच पुलिस मुख्यालय पर मौजूद अन्य पत्रकारों को पता चल गया कि मुझे हिरासत में ले लिया गया है. इस पर एक सीनियर पत्रकार ने मुख्यालय में मौजूद एक सीनियर पुलिस अधिकारी से मेरी बात कराई. सीनियर अधिकारी ने मुझसे बात करने के बाद बस में मौजूद पुलिसकर्मियों से बात कराने के लिए कहा. उन्होंने पहले बात करने के इनकार कर दिया. दोबारा फोन आया तब बात की लेकिन छोड़ने के लिए फिर भी राजी नहीं हुए.
बस में भर कर वो मुझे दिल्ली सचिवालय के पास स्थिति आईपी एस्टेट थाने लेकर गए. वहां पहुंचने के बाद जब मैं बस से उतरा तो एक पुलिसकर्मी जिसको पता था कि मैं पत्रकार हूं और बिना अपराध के आया हूं, फिर भी मेरा हाथ पकड़कर थाने के अंदर ले जाने लगा. मैंने हाथ पकड़ने से इनकार किया और खुद ही थाने के अंदर गया. वहां मौजूद एक अधिकारी जो हिरासत में आए लोगों का नाम लिख रहे थे, उनको अपना प्रेस कार्ड दिखाते हुए बताया कि ऐसा-ऐसा हुआ और मुझे जबरन यहां लाया गया है. मेरी बात सुनने के बाद उस अधिकारी ने बिना मुझे थाने में बैठाए वहां जाने को कहा.
वहां से मैं पैदल ही वापस दिल्ली पुलिस मुख्यालय आया क्योंकि मेरा बैग वहीं पर था और मेरे सहकर्मी आयुष तिवारी और वीना नायर वहां मेरा इंतजार कर रहे थे. वहां से लौटने के बाद दोबारा मैंने अपना काम शुरू कर दिया. रात के साढ़े नौ बज चुके थे. दो सौ से तीन सौ की संख्या में प्रदर्शनकारी वहां पहुंच चुके थे. पुलिसवालों में और प्रदर्शनकारियों में बहस हो रही थी. मेरे सहयोगी आयुष तिवारी उस पूरे विवाद को रिकॉर्ड कर रहे थे तभी एक पुलिस वाले ने आयुष के गर्दन पर हाथ से धक्का मार दिया और रिकॉर्डिंग बंद करने के लिए बोलने लगा. आयुष को धक्का देते हुए पुलिस साइड में ले गई. उस पुलिस वाले को पता था कि वो एक पत्रकार को धक्का मार रहा है.
जामिया में गुरुवार को पुलिस की जो तस्वीरें सामने आई हैं उसके बाद यह सब अप्रत्याशित तो नहीं था लेकिन हैरान ज़रूर कर रहा था. जामिया में पुलिस के सामने एक नौजवान काफी देर तक पिस्तौल लहराता रहा, गोली चलाई, जिसमें एक छात्र घायल हो गया. लेकिन पुलिस शांत खड़ी रही थी. शुक्र था कि गोली हाथ में लगी. वह पेट और सर में भी लग सकती थी और उस छात्र की जान जा सकती थी.
बीते कुछ दिन दिल्ली पुलिस की छवि को गर्त में पहुंचाने वाले रहे हैं. आम लोगों का भरोसा पुलिस के ऊपर पहले भी बहुत कम रहा है, अगर वह इसी तरह गैर पेशेवर और पक्षपाती तरीके से काम करेगी तो उसके भरोसे को जो नुकसान होगा उसकी भरपायी वह कभी नहीं कर पाएगी.
मेरे साथ जो घटना हुई यह लिखना मुझे इसलिए ज़रूरी लगा क्योंकि दिल्ली पुलिस के अधिकारियों की भाषा उस स्तर को छू चुकी हैं जहां से गटर लेवेल की भाषा शुरू होती है. बहुत ज़रूरी है कि पुलिसकर्मियों को भाषा सिखाई जाए, उन्हें बताया जाय कि वे सिर्फ अपनी सैलरी के लिए नौकरी नहीं कर रहे हैं बल्कि एक शहर, एक देश के प्रतिनिधि हैं, उनके व्यवहार से देश और शहर के बारे में राय बनती-बिगड़ती है.
Also Read
-
Faridabad Smart City: Crores spent on paper, infrastructure in shambles
-
Explained: What’s ANI vs Wikipedia legal battle all about?
-
Bihar journalist’s documentary exposes systemic rot of female infanticide over 30 years
-
No varsity in Nuh despite locals’ demand, govt proposal, 7 years of Aspirational Districts Programme
-
मेवात की सालों पुरानी मांग: ‘बच्चे पढ़ेंगे नहीं तो विकास कैसे होगा'